Saturday, 21 September 2019

'सेक्शन 375' : स्त्री के विरुद्ध पर्दे का चक्रव्यूह


अरविंद शेष

'दुरुपयोग' की दुहाई से इंसाफ की आवाज पर हमला

पिछले कुछ सालों के दौरान कभी दबे-छिपे तरीके से तो कभी खुल कर स्त्रियों और दलितों, दो सामाजिक वर्गों के अधिकारों के संरक्षण के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग की दुहाई दी गई और इन कानूनों को खत्म करने तक की मांग की गई। कहा गया कि बलात्कार के खिलाफ  बने कानूनों का महिलाएं बड़े पैमाने पर दुरुपयोग करती हैं और इस वजह से बहुत सारे 'बेचारे' निर्दोष मर्द मारे जाते हैं। इसी तरह, दलित-वंचित जातियों-तबकों के हक में बने अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून का अनुसूचित जातियों के लोग काफी दुरुपयोग करते हैं और बहुत सारे भोले-भोले सवर्ण जातियों के लोगों को फंसाते हैं।

इन दोनों आरोपों की सच्चाई का अंदाजा न सिर्फ जमीनी वस्तुस्थिति पर नजर डालने से होगा, बल्कि आधिकारिक आंकड़े तक इस 'पॉपुलर' धारणा के खिलाफ जाते हैं। इसके बावजूद ये दोनों तरह की बातें जोर देकर कही और फैलाई जाती हैं। काफी जद्दोजहद और कई 'विशाल आंदोलनों' के बाद एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून के खिलाफ माहौल बनाया गया था। एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून को तो एक अदालती फैसले के जरिए कुंद भी किया जा चुका था, लेकिन इसके  खिलाफ उभरे व्यापक आंदोलन के बाद सरकार को फिर से इस पर विचार करना पड़ा। अभी भी कुछ सामाजिक वर्गों की इस कानून को खत्म करने की मांग होती रहती हैं और जिस तरह की राजनीतिक ताकतें सत्ता में हैं, उनके रहते इस कानून के संरक्षण का भरोसा कमजोर रहेगा।

'राष्ट्रीय पुरुष आयोग' की ओर बढ़ते कदम

इसी तरह, बलात्कार के खिलाफ बने कानूनों के दुरुपयोग को लेकर भी समाज का एक बड़ा हिस्सा बेहद संवेदनशील है। हालत यह है कि पचास-साठ लोगों ने एक संगठन बना कर 'बेचारे... मासूम... बेकसूर' पुरुषों को दहेज के अलावा बलात्कार के आरोप में कठघरे में खड़ा करने से बचाने और उन्हें संरक्षण देने के लिए अब बाकायदा एक 'राष्ट्रीय पुरुष आयोग' बनाने की मांग भी की है। यह संगठन समाज में पुरुषों के बीच फैली उस कुंठा को नुमाइंदगी देता है कि महिलाएं बलात्कार से संबंधित कानूनों का दुरुपयोग करके 'अच्छे-भले' पुरुषों को फंसाती हैं। इसके लिए सड़क पर अभियान तो चल ही रहा है, लेकिन इस मसले पर पहले समाज, फिर सरकार को प्रभावित करने के मकसद से लोकप्रिय फिल्मों के जरिए भी दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है। फिल्म 'सेक्शन 375' इसी अभियान की एक कड़ी है।

यह फिल्म शुरुआती तौर पर स्त्री के पक्ष में बनी दिखती है, लेकिन अंतिम तौर पर स्त्री के खिलाफ जाती है, यह स्थापित करके कि एक जरूरतमंद हो या महत्त्वाकांक्षी लड़की, अपनी सुविधा और स्वार्थ की वजह से अपने शरीर का इस्तेमाल करती है और फिर उसे बलात्कार के रूप में दिखा कर किसी 'अच्छे-भले' पुरुष को बर्बाद कर डालती है। एक साधारण परिवार से आने वाली अंजलि दांगले एक फिल्म डायरेक्टर रोहन खुराना के साथ कास्ट्यूम डिजाइनर के तौर पर काम करती है, उसे एकतरफा पसंद करने लगती है, रोहन खुराना उसे खुद को सौंपने की शर्त पर काम पर बनाए रखता है, इस बीच अंजलि उस पर हक जताने लगती है, तब रोहन खुराना उसे निकाल बाहर करता है। फिर अंजलि बदला लेने के लिए साजिश रचती है, रोहन खुराना से यौन संबंध बनाती है और उसे अपने साथ बलात्कार का दृश्य रच कर रोहन खुराना को दस साल की सजा दिलवा देती है।

पूरी कहानी बस यही है। इसमें फिल्मकार की मूल स्थापना यह है कि स्त्रियों के हक में बहुत जरूरी कानून बनाए गए हैं, लेकिन स्त्रियां अपने लिए फायदा उठाने के लिए इसका दुरुपयोग भी करती हैं। पहले तो सहमति से यौन-संबंध बनाती हैं और फिर उसे बलात्कार की शक्ल में पेश करके भोले-भाले मर्दों की जिंदगी बर्बाद करती हैं। यह समझना मुश्किल है कि इक्का-दुक्का और यहां तक कि कई बार किसी काल्पनिक घटना को आधार बना कर एक ऐसे जघन्य अपराध का सरलीकरण कैसे किया जा सकता है, जो आज भारत जैसे देश में न जाने कितनी स्त्रियों की जिंदगी का एक त्रासद अध्याय बना हुआ है। फिल्म की कहानी, स्क्रिप्ट लिखने वालों और निर्देशक को पता नहीं इस बात का अंदाजा है या नहीं कि इस देश में न जाने बलात्कार के कितने मामले मजबूरी, लोकलाज, धौंस, कानूनी प्रक्रिया की जटिलता जैसी कई वजहों से दफ्न हो जाते हैं, कितनी लड़कियां बलात्कार के बाद किसी से कुछ नहीं कहतीं, बस खुदकुशी कर लेती हैं।

आम के बजाय अपवाद का चुनाव

अगर फिल्में दावा करती हैं कि उसमें वही दिखाया जाता है जो समाज में घटता है, तो किसी फिल्म को अपवादों का प्रतिनिधित्व करना चाहिए या फिर आम घटनाओं का? 'सेक्शन 375' बलात्कार के खिलाफ कानूनों के दुरुपयोग के किसी मामले को उठा कर उसे प्रतिनिधि मामले के रूप में पेश करती है और पहले से ही पितृसत्ता की सड़ांध में मरते ज्यादातर आम दर्शकों के मन में बसे स्त्रियों के खिलाफ मानस को और खाद-पानी देती है। इसके बरक्स रोजाना कितनी महिलाओं का बलात्कार होता है और कितने आरोपियों को सजा मिल पाती है, यह कोई छिपा तथ्य नहीं है।

इस फिल्म की इस कदर बारीक बुनाई की गई है कि अगर एक पारंपरिक मानस वाला व्यक्ति बलात्कार की शिकार लड़की की हालत देख कर अपने विचार के स्तर पर उदार होना भी चाहता है तो उसके सामने कानून के महारथी की शक्ल में एक मशहूर वकील के मुंह से 'तर्कों का पहाड़' खड़ा कर दिया जाता है और आखिरकार वह फिर से अपने मर्दाना दड़बे में घुस जाता है। फिल्म के आखिर में जिस तरह पीड़ित लड़की मुकदमा जीतने यानी अपने 'मर्द दुश्मन' को सजा दिलाने के बाद खुद कबूल कर लेती है कि 'रोहन खुराना ने बलात्कार नहीं किया था, लेकिन जो किया था, वह बलात्कार से कम नहीं था' तो एक आम दर्शक के दिमाग में सिर्फ यही बैठता है कि 'रोहन खुराना ने बलात्कार नहीं किया था', जिसे फिल्म में 'वास्तविक घटना' के रूप में परोसा गया है। फिल्म में 'बलात्कार के सिर्फ पच्चीस प्रतिशत आरोपों में सजा हो पाती है' की व्याख्या इस रूप में की जाती है कि 'अदालत की सख्त कानूनी प्रक्रिया का सामना करने के बावजूद पचहत्तर प्रतिशत आरोपी निर्दोष साबित होते हैं।'

इंसाफ की लड़ाई का उलटता चक्र

इस फिल्म की हालत यह है कि पीड़ित अंजलि दांगले की ओर से पेश होने वाली सरकारी वकील हीरल गांधी अपने सीनियर तरुण सलूजा की टीम को छोड़ने की वजह उसका मर्दवादी बर्ताव बताती है और अंत में उसके सामने ही दयनीय भाव से जाकर कहती है कि 'जस्टिस इस नॉट डन सर'! इस तरह यह फिल्म एक मर्दवादी या पितृसत्तात्मक समाज में उसी प्रचलित धारणा की पुष्टि करता है कि महिलाएं अपने स्वार्थ के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल करती हैं और फिर बाद में बेचारे पुरुषों पर बलात्कार का आरोप लगा देती हैं। जब कुछ नेता ठीक इसी आशय के बयान देते हैं तो उस पर तूफान खड़ा हो जाता है, लेकिन एक पूरी फिल्म यही स्थापित करती है तो उसे महज फिल्म की तरह देखने की अपेक्षा की जाएगी।

जिस तरह राजनीति की दुनिया में पिछले करीब तीन दशकों में सामाजिक न्याय के पक्ष में हुए बदलावों को तंत्र और व्यापक संसाधनों से लैस आक्रामक राजनीति के सहारे उल्टी दिशा की ओर मोड़ दिया गया है, समाज में दलित-वंचित तबकों के हक में इंसाफ के सवालों को दफ्न करने के इंतजाम किए जा रहे हैं और ब्राह्मणवाद का मानो पुनरोत्थान हो रहा है, उसी तरह किसी तरह अपने बूते खड़ी हो रही, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ती, अपने भरोसे जीती और पितृसत्तात्मक और मर्दवादी दुनिया में अपने लिए जगह बनाती स्त्री भी चारों तरफ से घेरी जा रही है। घर की दहलीज से बाहर निकलने वाली स्त्री इस सामाजिक व्यवस्था के लिए चुनौती है और उसे रसोई की शोभा बनाना परंपरा और संस्कृति बचाना है। इस मकसद से एक ओर सड़कों-गलियों में लड़कियों-महिलाओं के सिर पर कलश रखवा कर यात्रा निकाली जानी है, जागरण से लेकर कुंभ तक की शोभा बनाई जानी है, महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बढ़ोतरी होनी है और दूसरी ओर सिनेमा जैसे पॉपुलर हथियार के जरिए आम जनमानस में स्त्रियों के खिलाफ व्यूह रचना करनी है।

दरअसल, एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून और दहेज या बलात्कार से संबंधित कानूनों के दुरुपयोग का शिगूफ़ा एक औसत दिमाग वाले व्यक्ति को प्रभावित करता है और उसके जरिए फिर जनमत-निर्माण की प्रक्रिया चलती है। वंचित वर्गों के रूप में बहुत लंबी लड़ाई के बाद दलितों और स्त्री के पक्ष में जो भी कानूनी अधिकार सुनिश्चित हो सके हैं। उसका उसे क्या फायदा मिलता है, यह सभी जानते हैं, लेकिन महज चंद घटनाओं के आधार पर स्त्री के हक में बने कानूनों को कठघरे में खड़ा करना बताता है कि प्रतिगामी राजनीति के दौर में संसाधनों के मालिकों ने भी शायद वही रास्ता चुन लिया है। इसलिए सत्ताधारी जातियों-तबकों की ओर से कहीं एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून से लेकर भागीदारी को सुनिश्चित करने वाली आरक्षण की व्यवस्था को खत्म या कमजोर करने के खेल चल रहे हैं तो कहीं स्त्रियों को पारंपरिक सांस्कृतिक परिभाषा में समेटने या बांधने की कोशिश चल रही है।  

Thursday, 6 September 2018

एससी-एसटी कानून और आरक्षण के विरोध का असली खेल..!



एससी-एसटी कानून पर सवर्णों का 'मोदी-विरोध' एक पाखंड से ज्यादा की औकात नहीं रखता और यह आरएसएस-भाजपा की ओर खेला गया एक धूर्त खेल है!

बिसात ये है..!

'दो अप्रैल' (2018) को और उसके बाद यह साफ हो गया कि बचा-खुचा दलित-आदिवासी वोट तो गया ही, अब पिछड़ी जातियों का भी एक बड़ा हिस्सा दलित-आदिवासियों के साथ गोलबंद हो गया। फिलहाल दलित-आदिवासी पूरी तरह मोदी और भाजपा के खिलाफ मूड में हैं और भाजपा के लिए यह एक बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई वोट के लिहाज से भी। लेकिन इससे ज्यादा यह हुआ कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और उसके समर्थकों की यह छवि स्थापित हुई और फैली कि वे दलितों-आदिवासियों के खिलाफ नफरत से भरे हुए हैं और आज भी उन्हें गुलाम बनाए रखने की जमीन बना रहे हैं। खासतौर पर एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह राय और ज्यादा मजबूत हुई कि भाजपा ने दलितों-आदिवासियों को फिर से सामाजिक गुलामी में जीने के रास्ते तैयार कर दिए हैं।

आज दलित आंदोलन जहां तक पहुंच गया है, उसे यह तथ्य समझने में दिक्कत या देरी नहीं हुई कि इस कानून को कमजोर किए जाने का जमीनी असर क्या होने वाला है! यह साफ-साफ दिखा भी, जब फैसले के कुछ महीने के दौरान ही अलग-अलग राज्यों में दलितों के खिलाफ सामाजिक बर्ताव और भाषा तक में भयावह क्रूरता आई। पहले भी जहां एससी-एसटी कानून के तहत एफआइआर दर्ज कराना और इस कानून के सहारे फैसले के अंजाम तक पहुंचना बेहद मुश्किल था, वहां इस कानून में सुप्रीम कोर्ट में लगाए गए फच्चर के बाद यह कानून दलितों-आदिवासियों के हक में लगभग बेअसर हो गया था।

यह प्रथम दृष्टया मराठों के आंदोलन की एक सबसे मुख्य मांग की जीत दिखी, लेकिन सच यह है कि इस देश में ऊंची कही जाने वाली तमाम जातियों का दिमाग आज भी सड़ांध से बजबजा रहा है और उसे हर वक्त अपनी इस हिंसक कुंठा को जाहिर करने के लिए अपने सामने किसी कमजोर सामाजिक हैसियत वाले इंसान की जरूरत महसूस होती है, ताकि वह उस पर भाषाई या शारीरिक हिंसा कर सके। और ऐसा करने के बाद कानूनन पूरी तरह सुरक्षित रह सके। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ऊंची कही जाने वाली जातियों को यही सुविधा मुहैया कराई थी।

शायद मोदी सरकार को यह अंदाजा था कि चूंकि इस कानून को व्यवहार में मार डालने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है, इसलिए दलित-आदिवासी तबके इसे अदालत के फैसले के रूप में चुपचाप स्वीकार कर लेंगे और इसकी गाज भाजपा के सिर पर नहीं गिरेगी। लेकिन यह भाजपा का वहम साबित हुआ। दलित आंदोलन आज जहां तक का सफर तय कर चुका है, उसे यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि राजपूतों, ब्राह्मणों, मराठों और दूसरी दबंग जातियों की ओर से इस कानून को खत्म करने की मांग के पीछे कौन है और इस तरह कौन उसके अस्तित्व को फिर से गुलामी की आग में झोंक देना चाहता है! दिखने में बिखरा हुआ लगता दलित आंदोलन आज अपनी जमीन पुख्ता कर चुका है और यही वजह है कि दो अप्रैल को बिना मीडिया के सहारे अपने स्तर पर आयोजित भारत बंद को एक ऐसी कामयाबी मिली, जिसे सामाजिक आंदोलन के इतिहास में शानदार तरीके से दर्ज किया जाएगा।

उस बंद और दलित-आदिवासी आंदोलन का मुख्य स्वर आज आरएसएस-भाजपा और मोदी विरोध है और इसने ठोस जमीन पकड़ ली है। देश की राजनीति में दलित-आदिवासी समूह की संगठित अभिव्यक्ति इस बार ही हो रही है और अच्छा है कि ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा इस संघर्ष में दलितों-आदिवासियों के साथ खड़ा दिख रहा है। यानी दलित-आदिवासी और ओबीसी के साथ मुसलिम आबादी के वोट को मिला दिया जाए तो 'हवा में उड़ गए जय श्रीराम' टाइप कुछ हो जएगा! यानी इतने बड़े समूह का वोट जब खिसक रहा हो, तो ईवीएम या चंद गिनती के लोगों के 'अपने समाज' यानी सवर्णों के भरोसे रह कर किस तरह की जीत हासिल होगी!

तो दिखाने के लिए सवर्णों की कीमत पर एससी-एसटी कानून में संशोधन को मंजूरी दी गई। इसके अलावा, बार-बार भाजपा सरकार की ओर से यह रट्टा मारा गया कि आरक्षण की व्यवस्था खत्म नहीं होगी... एससी-एसटी को प्रोमोशन में आरक्षण दिया जाएगा..! इसका खूब प्रचार किया गया कि मोदी सरकार एससी-एसटी के हक में काम कर रही है। जब इस धूर्तता को भी दलितों-आदिवासियों ने समझ लिया और खुद को भाजपा के हक में खड़े करवाने की हर कोशिश को नाकाम कर दिया, तब यह निश्चित हो गया कि दलित-आदिवासी और पिछडी जातियों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पास भी नहीं फटकेगा।

तो अगली बार गद्दी के लिए मोदी या भाजपा के पास तुरुप का पत्ता यह था कि मोदी सरकार दलितों की हितैषी है और अपने इस 'सरोकार' की खातिर वह सवर्णों को नाराज तक कर सकती है। तो इस बिसात के एजेंडे के मुताबिक सवर्णों की नाराजगी भारत बंद के नाम पर सड़क पर दिखाने की कोशिश हुई। इस फर्जी नाराजगी को मीडिया यानी लाउडस्पीकरों और मुखपत्रों के जरिए ज्यादा से ज्यादा प्रचार कराना तय किया गया कि सवर्ण एससी-एसटी कानून की वजह से मोदी सरकार से नाराज हैं। इससे एससी-एसटी के बीच यह संदेश पहुंचाने की कोशिश होगी कि एससी-एसटी कानून को मजबूत करके मोदी-सरकार दलितों का खयाल रख रही है, इसलिए सवर्ण नाराज हैं। यानी कि दलितों-आदिवासियों के बीच यह प्रतिक्रया उभारने की कोशिश हो रही है कि सवर्ण अगर एससी-एसटी कानून में संशोधन करने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं तो दलित-आदिवासी इसी मसले के बहाने से मोदी का समर्थन करेंगे।

लेकिन अफसोस... भाजपा और मोदी के लिए अफसोस यह है कि दलित-आदिवासी उनकी इस चाल को भी समझ गए हैं और अब कोई गुंजाइश नहीं बनी कि दलित-आदिवासी मोदी के पीछे भागें। दलित-आदिवासी यह समझ रहे हैं कि सवर्णों की ओर से जो फर्जी मोदी-विरोध सामने आ रहा है, वह उसी एजेंडे का हिस्सा है। वे जानते हैं कि सवर्णों के वोट फिलहाल उनकी सामाजिक सत्ता की फिर से वापसी की ग्रंथि से संचालित हो रहे हैं और वोटिंग के समय यह मोदी और भाजपा को ही पड़ना है। कहने का मतलब यह है कि सवर्ण वोट आमतौर पर हर हाल में भाजपा को ही पड़ना है।

तो एससी-एसटी कानून पर भारत-बंद करके सवर्णों के गिरोह किसे झांसा दे रहे हैं! अब उन्हें याद रखना चाहिए कि दलितों और आदिवासियों के बीच भाजपा और मोदी को लेकर एक ठोस राय बन चुकी है और उसके लिए समझना मुश्किल नहीं है कि सवर्णों की ओर से एससी-एसटी कानून और आरक्षण का विरोध करवाना भाजपा की चाल है। सवर्ण सिर्फ इतने भर के लिए भाजपा का साथ दे रहे हैं कि इन सब हड़बोंग के सहारे उनकी सामाजिक सत्ता यानी जातिगत हैसियत और व्यवहार में सामंती बर्बरता को संरक्षण मिलेगा... दलितों-आदिवासियों पर जुल्म करने, उन्हें जातिबोधक गालियां देने की छूट मिलेगी..! लेकिन उन्हें अब भी समझ नहीं आ रहा है कि दलित आंदोलन ने जो समझ और जमीन बनाई है, वह आने वाले समय में ब्राह्मणवाद की व्यवस्था के सामने कितनी बड़ी चुनौती रखने जा रही है।

Saturday, 16 June 2018

क्यों अचानक परदे से गायब हुई 'काला'?

'काला' क्या सचमुच सिर्फ एक हफ्ते की फिल्म थी? माना जाता है कि बाजार को सिर्फ मुनाफे से मतलब होता है और इसके लिए वह इस बात की फिक्र नहीं करता कि समाज या राजनीति के मुद्दे क्या हैं या उनका हासिल क्या है! इस लिहाज से देखें तो 'काला' फिल्म से कमाई की खबरें कई पहले की फिल्मों के रिकॉर्ड को तोड़ने वाली बताई गईं। पहले तीन दिन में सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार और फिर कमाई के आंकड़े के लगभग ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा तक पहुंच जाने की खबरें आईं। फिर आखिर 'काला' फिल्म दिल्ली-एनसीआर के सभी सिनेमा घरों में से सिर्फ एक हफ्ते में क्यों हटा दी गई! मुझे कई जगहों के बारे में लोगों ने बताया कि वहां से भी यह फिल्म हटा दी गई। खासतौर पर उत्तर भारत के तमाम इलाकों और यहां तक कि नागपुर, जयपुर या हिंदी भाषी सभी जगहों पर यही हाल रहा।

अगर किसी फिल्म के सिनेमा हॉल में चलने या नहीं चलने की वजह कमाई और कारोबार होती तो 'काला' को अभी कई हफ्ते तक चलना था। कम कमाई और 'रेस-3' का रिलीज होना कोई बड़ी वजह नहीं थी। 'रेस-3' की इस दलील के बीच यह याद रखिए कि कुछ ऐसी फिल्में पिछले दो या तीन हफ्ते से अभी भी चल रही हैं, जो न केवल कहानी और प्रस्तुति में, बल्कि कमाई या कारोबार के मामले में भी 'काला' से काफी पीछे हैं।
मसलन, 'रेस-3' रिलीज होने के बावजूद 11 मई को रिलीज हुई 'राजी' चौथे हफ्ते (15/6/2018) भी दिल्ली-एनसीआर के नौ सिनेमा हॉल में नौ शो में चल रही थी। इसी तरह, 25 मई को रिलीज हुई 'परमाणु' तीसरे हफ्ते भी दिल्ली-एनसीआर के तेईस सिनेमा हॉल में तेईस शो में, 1 जून को रिलीज हुई 'वीरे दी वेडिंग' तीसरे हफ्ते सैंतीस सिनेमा घरों में अड़तालीस शो में चल रही थी। यहां तक कि पंजाबी फिल्म 'कैरी ऑन जट्टा' भी तीसरे हफ्ते दिल्ली-एनसीआर के चौंतीस सिनेमा हॉल में अड़तीस शो में चल रही थी।

बॉक्स ऑफिस पर इन सभी फिल्मों की कमाई का भी अध्ययन किया जाए तो ये सभी 'काला' के सामने आसपास भी नहीं हैं। फिर 'काला' के हटा दिए जाने और इन सबके इस तरह जोर-शोर से चलने की क्या वजहें हो सकती हैं? ज्यादा विस्तार से कहने के बजाय सिर्फ इतना देख लिया जाए कि 'काला' के व्यापक सामाजिक-राजनीतिक महत्त्व के बरक्स ये फिल्में व्यक्ति की चेतना को कुछ खास नहीं देतीं। मसलन, 'राजी' और 'परमाणु' एक ऐसी देशभक्ति फिल्म है, जो अंतिम तौर पर आरएसएस-भाजपा की राजनीति को सुहाती है। 'वीरे दी वेडिंग' देशभक्ति फिल्म नहीं है, लेकिन स्त्री केंद्रित होने के बावजूद उसमें व्यापक आम स्त्री के लिए कोई अहम संदेश, पितृसत्ता के खिलाफ चेतना से जद्दोजहद या मनोरंजन जैसा कुछ मौजूद नहीं है। इसी तरह, 'कैरी ऑन जट्टा' पंजाबी भाषा की फिल्म है और उसका सीमित दर्शक वर्ग है।

मैंने सिनेमा हॉलों में कई ऐसी फिल्में देखी हैं, जिसमें कुल दस या बारह दर्शक थे, लेकिन वे दो या इससे ज्यादा हफ्ते तक चलीं। राम-रहीम की फिल्म 'मैसेंजर ऑफ गॉड' तो कई महीने तक एक सिनेमा हॉल में लगी रही थी। उसमें कितने और कौन लोग देखने जा रहे थे, यह अलग सवाल है।

जहां तक काला का सवाल है, सिर्फ एक हफ्ते के भीतर ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार करना अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि इसे देखने सिनेमा हॉलों में कितने लोग जा रहे थे। देखने वालों में बहुत सारे लोग ऐसे थे, जो या तो इस फिल्म को दोबारा देख रहे थे या फिर अपने संपर्क के तमाम लोगों को देखने भेज रहे थे। हजारों लोगों ने यह तय किया था कि अगले हफ्ते या छुट्टी के पहले दिन देखेंगे। लेकिन उन सबके लिए अब अफसोस है या सीडी या पाइरेटेड फाइल का विकल्प है।

गौरतलब है कि 'क्वीन' के बाद 'काला' ऐसी फिल्म साबित होने वाली थी, जिसे पहले हफ्ते में कम लोग पहुंचे (इसके बावजूद फिल्म शुरू के तीन दिनों में ही सौ करोड़ की कमाई पार कर गई!)। लेकिन पहले हफ्ते में जिस तेजी से इस फिल्म के बारे में प्रचार हुआ, अगले हफ्तों में इसके दर्शक कई गुना बढ़ने वाले थे।

दरअसल, समाज की सियासत और सिनेमा के कारोबार पर जिनके लगाम हैं, उन्हें सबसे ज्यादा डर इसी बात का था कि अगले हफ्तों में इस फिल्म के दर्शक बढ़ने वाले थे। तो आखिर 'काला' की ओर उमड़ने वाले दर्शकों से किसको डर था? तो अगर 'काला' को गायब करने के पीछे किसी खास राजनीतिक समूह का दबाव या निर्देशन काम कर रहा हो, तो इसमें हैरान होने की बात नहीं है।

यह जरूर देखना चाहिए कि सिनेमा के कारोबार के कुल हिस्से पर किसका कब्जा है और वह इसे कैसे संचालित करता है। भारत में किसी समस्या का केवल आर्थिक कारण खोजना अधूरा मनोरंजन भर बन कर रह जाता है। जैसे मीडिया के बारे में कह दिया जाता है कि आर्थिक मुनाफे या कमाई की वजह से मीडिया किसी खास राजनीतिक धारा के पक्ष में काम करता है। लेकिन सच केवल यह नहीं है। अगर मीडिया संस्थानों के कर्ताधर्ता पैसा लेकर हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार का जिम्मा उठाते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे केवल आर्थिक मुनाफा देख रहे हैं। इससे उनके सामाजिक हित भी पूरे हो रहे हैं, इसलिए वे यह अतिरिक्त मुनाफे का सौदा तय करते हैं। सच कहें तो वे बिना आर्थिक मुनाफे के भी सामाजिक मुनाफे का सरोकार निबाहते रहते हैं। हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार या उसे थोपने का मतलब ब्राह्मणवाद की जड़ें मजबूत करना है। अगर कोई ब्राह्मणवाद विरोधी राजनीतिक धारा मीडिया को इतना ही पैसा दे, तो वह ब्राह्मणवाद के खिलाफ विचारों के प्रचार-प्रसार का जिम्मा नहीं उठाएगी।

इसी बिंदु से देखें तब समझ में आता है कि समूचे हिंदी क्षेत्र से 'काला' को महज एक हफ्ते में सिनेमा घरों से पूरी तरह से गायब कर देने की वजह क्या रही हो सकती है। 'काला' ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित आंदोलन के राजनीतिक उभार की एक ताकतवर दखल है। जिन लोगों ने भी 'काला' देखी, वे जानते हैं कि यह अकेली फिल्म इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत रखती है कि इसे जनता को संबोधित करने वाली भूमिका में मददगार बनाया जा सकता है। यह फिल्म सामाजिक सशक्तीकरण में आर्थिक पक्ष की अहमियत की स्थापना के लिए यह उससे पहले अपने सम्मान और स्वाभिमान का अधिकार पहचानने की जरूरत बताती है। सामाजिक रूप से थोड़ा भी जागरूक व्यक्ति इस फिल्म को देखने के बाद मनोबल के स्तर पर खुद बेहद मजबूत होता हुआ पाएगा! यानी यह फिल्म सामाजिक यथास्थितिवाद में पीड़ित के पुराने ढांचे को तोड़-फोड़ देता है। हम जिस समाज में रहते हैं, उसकी पारंपरिक शक्ल में यह सहज नहीं है। इसके बाद बनने वाले समाज की कल्पना हम कर सकते हैं।

सही है कि फिल्में यथार्थ नहीं होती हैं। लेकिन मेरी निजी राय यह है कि समाज का मानस तैयार करने में फिल्मों की अहमियत काफी है। यह बेवजह नहीं है कि आज के दौर में सिनेमा घरों तक पहुंचने वाली बहुत सारी फिल्मों में राष्ट्रवाद के पर्दे में लपेट कर हिंदुत्व या ब्राह्मणवाद का एजेंडा परोसा जा रहा है। 'बाजीराव मस्तानी', 'पद्मावत', 'परमाणु', 'बाहुबली' जैसी कभी किसी काल्पनिक कहानियों तो कभी ऐतिहासिक आख्यानों को तोड़-मरोड़ कर, उसे झूठ बना कर, वीभत्सताओं को महिमामंडित कर, अपने अनुकूल बना कर पेश किया जा रहा है। ऐसा करने वालों को पता है कि कोई नेता संबोधित करने के लिए महज पांच हजार लोगों के समूह के लिए तरस जाता है, लेकिन एक फिल्म एक शो में एक साथ देश के लाखों लोगों को संबोधित करती है। तो 'काला' की अहमियत इसमें थी और अब यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि फिल्मों का कारोबार संचालित करने वालों या सिनेमा घरों के मालिकों ने 'काला' को क्यों अचानक परिदृश्य से गायब कर दिया! 

Thursday, 18 January 2018

'पद्मावत': अराजकता और वर्चस्व की राजनीति


जैसी कि उम्मीद थी, सुप्रीम कोर्ट ने 'पद्मावत' (पहले 'पद्मावती') फिल्म को देश भर में दिखाए जाने के पक्ष में फैसला सुना दिया। अब इस फिल्म का प्रदर्शन इस बात पर निर्भर है कि राज्य सरकारें सुरक्षा व्यवस्था के मोर्चे पर क्या करती हैं और सुप्रीम कोर्ट के फैसके के बावजूद मारकाट मचाने की धमकी देने वाली 'करणी सेना' या दूसरे उन्मादी तत्त्वों से कैसे निपटती है। खबरों के मुताबिक राजपूत करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने मुजफ्फरपुर में एक सिनेमा हॉल के सामने हिंसक प्रदर्शन किया है। देश के अलग-अलग हिस्सों से इस मसले पर फिल्म बनाने वालों और उसके कलाकारों को मार डालने, दफ्न कर देने की धमकियां दी जा रही हैं। यहां तक कहा जा रहा है कि अगर 'पद्मावत' पर पाबंदी नहीं लगाई गई तो चित्तौड़गढ़ में सैकड़ों महिलाएं 'जौहर' करेंगी।

कुछ सालों के दौरान कई ऐसी फिल्में आईं, जिन पर अलग-अलग सामाजिक समूहों ने 'भावनाएं आहत होने' का आरोप लगाया और पाबंदी की मांग की। लेकिन अदालतों में इस तरह की आपत्तियां कानून और तर्क की कसौटी पर नहीं टिकीं और आखिर सिनेमा हॉलों में दिखाई गईं। हां, इस बहाने संबंधित फिल्म को ज्यादा प्रचार मिल गया यह बहस का एक अलग सवाल है। लेकिन इस तरह के विरोध से कला और अभिव्यक्ति की आजादी के अलावा सामाजिक सोच के विकास के सामने जो चुनौती खड़ी होती है, वह किसी भी देशकाल के लिए प्रतिगामी ही है।

भाजपा शासित कई राज्यों की सरकारों ने अपनी ओर से उन राज्यों में 'पद्मावत' के प्रदर्शन पर पाबंदी लगाए जाने की घोषणा की थी। लेकिन यह अपने आप में हैरानी की बात है कि जिस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने प्रदर्शन के लिए प्रमाण पत्र दे दिया था, उसे दिखाए जाने पर इन सरकारों को क्या आपत्ति थी! क्या करणी सेना जैसा कोई संगठन इस कदर ताकतवर है कि उसके गैरकानूनी फरमान इस देश में संविधान और कानून के राज का शपथ लेकर राज करने वाली सरकारों पर हावी हैं? सवाल है कि संविधान और कानून का राज ये चुनी गई सरकारें कायम करेंगी या करणी सेना को अपने मध्ययुगीन विचारों को कानून की शक्ल में लागू करने की छूट दी जाएगी? अगर यह सिरा आगे बढ़ता है तो देश में अलग-अलग जातियों के समूहों के संगठनों को किस स्तर तक उनकी मर्जी और मनमानी व्याख्या के हिसाब से देश चलने दिया जाएगा?

मिथक बनाम इतिहास

किसी मिथक को इतिहास समझ लेने या उसे इतिहास के रूप में परोसने के खतरे इसी तरह के होते हैं। 'पद्मावती' को जायसी की रचना के मुताबिक एक काल्पनिक पात्र के रूप में देखा जाता रहा है। लेकिन करणी सेना का जोर उसे इतिहास मानने पर है। और चूंकि पद्मावती की जातिगत पृष्ठभूमि राजपूत मानी गई है, इसलिए उसके किसी मुसलिम शासक से प्रेम करने का संदर्भ भी बर्दाश्त करना संभव नहीं है। मगर जिस देश के मध्यकालीन इतिहास में ऐसे तमाम प्रसंग हैं, जिनमें किसी हिंदू शासक ने मुसलिम शासकों के साथ राजनीतिक और पारिवारिक संबंध भी कायम किए, उसमें कई मौकों पर शादियां भी हुईं, उसके समांतर जायसी की रचना में दर्ज काल्पनिक पात्र 'पद्मावती' के अल्लाउद्दीन खिलजी से प्रेम के संदर्भ को पचा पाना करणी सेना के लिए क्यों मुमकिन नहीं हो रहा है।

पृष्ठभूमि

दो-तीन दशकों के सांप्रदायिक राजनीति का सिरा यहीं पहुंचना था। भारत में सांप्रदायिक राजनीति दमित-वंचित जातियों के अधिकारों को दबाने का हथियार रही है। करणी सेना के रवैये से केवल यह नहीं हो रहा है कि कोई खास जाति किसी फिल्म की कहानी से खुद के अपमानित होने का भाव प्रदर्शित कर रही है, बल्कि उसके जरिए हिंदू ढांचे में मौजूद बाकी जातियों के बीच भी मुस्लिम विरोध की भावना का दोहन करने की यह सुनियोजित कोशिश है। जायसी की रचना में किसी काल्पनिक हिंदू और राजपूत स्त्री के पात्र का किसी मुसलिम शासक से प्रेम पर करणी सेना को आपत्ति है, लेकिन अतीत में समाज के कमजोर तबकों के प्रति राजपूत जाति के व्यवहार का यथार्थ क्या रहा है, उस पर सोचना उसे जरूरी नहीं लगेगा। तो क्या अतीत के उन्हीं ऐतिहासिक संदर्भों पर पर्दा डालने के लिए किसी फिल्म के विरोध के बहाने अपने सामाजिक वर्चस्व को आज भी कायम रखने की कोशिश की जा रही है?

पहले जब संजय लीला भंसाली की ही फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' आई थी, तब कुछ दलित-वंचित जातियों के उन सवालों पर गौर करने की जरूरत किसी को नहीं लगी थी जो उन्होंने पेशवाई शासन के इतिहास के बारे में उठाए थे। कई हलकों से यह कहा गया कि बाजीराव पेशवा- दो के कार्यकाल में 'अछूत' समूह में मानी जानी जाने वाली जातियों के खिलाफ जो नियम बनाए गए, वे व्यवस्थागत जातिगत अत्याचार का मॉडल थे। लेकिन एक अंतरधार्मिक प्रेम कहानी के बहाने पेशवाई शासन के उन तमाम प्रसंगों पर पर्दा डालने की कोशिश की गई, जिनके उल्लेख से किसी सभ्य समाज को शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती है।

समाजिक समूह बनाम कानून

समय-समय पर कई फिल्मों को लेकर ऐसे विवाद उठते रहे हैं। सामाजिक स्तर पर अलग-अलग समूहों ने अपनी आक्रामक आपत्तियों के साथ किसी फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग की। लेकिन अब तक कानूनी स्तर पर वे लड़ाइयां कमजोर साबित होती रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 'पद्मावत' को दिखाए जाने की इजाजत देते हुए कहा कि जब 'बैंडिट क्वीन' दिखाई जा सकती है, तो 'पद्मावत' क्यों नहीं! हालांकि 'बैंडिट क्वीन' और 'पद्मावत' की तुलना का क्या संदर्भ हो सकता है, यह समझना मुश्किल है, लेकिन किसी सामाजिक समूह की आपत्तियों के आधार पर किसी फिल्म पर पाबंदी लगाए जाने के विचार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कई फैसले दिए हैं।

किसी लोकतांत्रिक समाज में किसी फिल्म के प्रति लोग क्या राय बनाते हैं, यह उनके विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। यह संविधान में दर्ज अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के तहत भी आता है। करीब तीन दशक पहले 'ओरे ओरु ग्रामाथिले' फिल्म को लेकर आपत्तियां उठाई गईं और उस पर पाबंदी लगाने की मांग की गई थी, तब इस मसले पर 1989 में अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा था कि महज हिंसा और विरोध प्रदर्शनों की धमकी के आधार पर अभिव्यक्ति की आजादी को नहीं दबाया जा सकता। इस लिहाज से देखें तो अगर राज्य सरकारें किसी स्थिति में 'पद्मावत' के प्रदर्शन को रोकने में सहायक की भूमिका निबाहती हैं तो वह करणी सेना की धमकियों के सामने समर्पण होगा और निश्चित रूप से कानून के शासन को धता बताने जैसा होगा।

राजपूत करणी सेना के लड़ाकों को यह समझने की जरूरत है कि वे जाति के कथित गौरव के बखान और महिमामंडन की बुनियाद पर इस फिल्म का विरोध तो कर रहे हैं, लेकिन खुद को देशभक्त कहते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खयाल रखने के साथ-साथ संविधान और कानून का पालन करने जैसी उनकी कुछ राष्ट्रीय जिम्मेदारियां भी हैं। जातिगत परंपरा से जुड़ी आस्थाओं या भावनाओं के सामने उनकी नजर में अगर देश का संविधान और कानून कोई मायने नहीं रखते, तो वे खुद तय करें कि उन्हें देशभक्ति और देशद्रोह के किस पैमाने पर देखा जाए!

इस समूचे प्रसंग में एक अहम पहलू यह है कि किसी कहानी या फिर इतिहास के पात्र के रूप में रानी पद्मिनी के जीवन के उस पर हिस्से पर गर्व करने पर जोर दिया जा रहा है, जिसमें पद्मिनी ने सोलह हजार रानियों के साथ 'जौहर' यानी जिंदा आग में जल जाने का 'व्रत' पूरा किया था। आज दुनिया में, जब स्त्री की अस्मिता और अधिकारों का सवाल खुद को सभ्य और लोकतांत्रिक कहने वाली व्यवस्था के सामने चुनौती है, उसमें स्त्री के दमन और शोषण को व्यवस्थागत शक्ल देने वाली परंपराओं पर गर्व करने का आग्रह समाज और देश को किस ओर ले जाएगा? क्या आज की कोई भी वह स्त्री 'जौहर' जैसी परंपरा पर गर्व करने के पक्ष में खड़ी हो सकती है, जो अब पुरुष वर्चस्व वाले समाज और व्यवस्था से अपनी बराबरी के हक के लिए लड़ रही है?

Tuesday, 16 January 2018

'मुक्काबाज' : ब्राह्मणवाद के चेहरे पर एक प्यार भरा मुक्का...!




चूंकि पहले से यह प्रचारित था कि 'मुक्काबाज' जाति के सवालों से भी जूझती है, इसलिए उम्मीद तो थी ही। दरअसल, जब कहीं कुछ नहीं होता है, तब कुछ दिखने पर उत्साहित हो जाना स्वाभाविक है। 'वास्तविक घटना पर आधारित' इस फिल्म में खेल के तंत्र पर काबिज ब्राह्मणों की सत्ता को फिल्मी तरीके से जरूर दिखाया गया है, लेकिन समाज में जात के मसले को दिखाते हुए इस तरह का अनाड़ीपना या फिर धूर्तता कि कहने का मन है कि भारतीय समाज में जाति का जो मनोविज्ञान रहा है, उसमें पर्दे पर जाति के सवाल से जूझने और खासतौर पर ब्राह्मणवाद को बेपर्द करने के लिए किसी वैसे व्यक्ति की मदद ली जानी चाहिए, जो ब्राह्मणवाद के खिलाफ 'काउंटर जातिवादी' माना जाता हो! लेकिन सरोकार भी दिखाना है और बाजार भी निभाना है! ऐसे में यह चुनौती थोड़ी मुश्किल हो ही जाती है। वैसे बिना किसी की मदद के सुभाष कपूर ने आखिर 'गुड्डू रंगीला' बनाई ही थी, जिसमें शायद किसी 'काउंटर जातिवादी' की मदद नहीं ली गई थी, लेकिन जो एक शानदार व्यावसायिक और कामयाब फिल्म है। भारत में सामाजिक मुद्दों को केंद्र बनाना और उसे निबाह ले जाना, इतना आसान नहीं है। वैसे सामाजिक मसले पर फिल्म बनाने वालों को पाकिस्तान में बनी फिल्म 'बोल' को बार-बार देखना चाहिए।

बहरहाल, हीरो श्रवण के बारे में भगवान प्रसाद मिश्रा कहता है कि वह राजपूत है... उनके खून के बारे में पहले से तय नहीं कि क्या है... फिर कई छोटी जात के लोग भी सिंह लगा कर खुद को राजपूत बताते हैं! फिल्म में जात की बात देखते हुए हीरो श्रवण के अपने आसपास के लोगों के साथ व्यवहार से आप इन पहचानों में से निकाल लेते हैं कि भगवान मिश्रा ने श्रवण की पहचान के बारे में जो कहा, वह कहां से आता है। जब श्रवण कुमार पहली बगावत करता है कि 'हम यहां मुक्केबाजी सीखने आते हैं, मालिश करने नहीं' और अपने मिश्रा गुरु के सामने खड़े हो जाने पर मुंह पर एक जरूरी मुक्का जमा देता है तो वहां राजपूती ठसक ही दिखती है..!

और कभी भूमिहारों की गुलामी करते अपनी पूर्वजों को याद करते हुए आज अफसर बन बैठे 'यादव जी' हीरो को तंग करते हैं तो हीरो उन पर अपनी 'मुक्काबाजी' का ऐसा धौंस जमाता है कि 'यादव जी' पैंट में ही पेशाब कर देते हैं और हीरो उसका सेल्फी वीडियो बनाता है! फिल्म के हिसाब से यादव जी भगवान मिश्रा के बराबर के सामंती व्यवहार वाले हैं। यहां समझ में आता है कि फिल्मकार की नजर में सामाजिक बदलाव क्या है और पिछले दो-ढाई दशक के दौरान सामाजिक उथल-पुथल को वह किस तरह देखना और पेश करना चाहता है। भूमिहारों की गुलामी करने वाले पूर्वजों की जिंदगी छोड़ते हुए अगर आगे बढ़ कर कुर्सी हासिल कर भी चुके हैं तो 'ऊंच' कही जाने वाली जातियों के सामने अपनी हैसियत याद रखें, वरना 'ऊंच' कही जाने वाली जात का हीरो आपको आज भी औकात दिखा कर पैंट में पेशाब करने पर मजबूर कर दे सकता है!

लेकिन खैर... मुक्केबाज को 'नेशनल' में नहीं खेलने देने की जिद में भगवान मिश्रा आखिर तक अपनी जिद में अड़ा रहता है और कूटे जाने के बावजूद अपना तंत्र बनाए रखने के लिए समझौते के तहत इस अपमान का भी त्याग कर देता है कि अपनी पिटाई छिपी रह जाए।

सबसे ज्यादा दया तब आती है जब ब्राह्मण, राजपूत के बरक्स बनारस में मुक्केबाजी के एक कोच से भगवान मिश्रा जात पूछता है और कोच हजार टन की हिचकी के साथ बताता है- 'हरिजन!' अव्वल तो हरिजन शब्द तक का प्रयोग अब बंद है। फिर हरिजन या दलित या अनुसूचित जाति, कोई जाति नहीं है, जाति-समूह है। इसमें हर जगह के मुताबिक कितनी-कितनी जातियां हैं। किसी एक जात के बारे में पता कर लिया जाता तो इतने अधकचरेपन का विज्ञापन नहीं होता। अब कह सकते हैं कि वे सारे 'हरिजनों' की 'पीड़ा' दिखाना चाहते थे! लेकिन जब हीरो श्रवण कुमार राजपूत हो सकता था, विलेन भगवान मिश्रा ब्राह्मण हो सकता था, दलित कोच संजय कुमार को पीटने वालों की जात भूमिहार हो सकती थी, तो संजय कुमार की भी कोई जाति हो सकती थी। समझने वाले समझ लेते कि वह दलित या बहुजन या अनुसूचित जाति का है। लेकिन यहां फिल्मकार शायद सही है। कोच संजय कुमार खेलों के तंत्र पर काबिज 'ऊंची' कही जाने वाली जाति के जाल में पेशेवर तरीके से दखल देता है, थोड़ा-सा सह लो, फिर खुद को काबिल बनाओ, और उनके बराबर खड़े हो जाओ...! जो मिलता है, उसे बतौर मेहरबानी लो, अधिकार की तरह नहीं। गुजारिश चलेगी, प्रतिरोध नहीं!

आज के दौर में जब दलित तबका ब्राह्मणवादी राजनीति के बरक्स प्रतिरोध की राजनीति के एक नए मानक रच रहा है, आरक्षण एक बड़ा सवाल है, वैसे में 'कोटा' के नाम से ही नफरत करने वाला और अलग बर्तन में पानी देने के अपमान पर प्रतिरोध जताने के बजाय शांत रह जाने वाला कोच संजय कुमार निश्चित रूप से गांधी का 'हरिजन' ही हो सकता था, भीमराव का 'दलित' नहीं!

'हरिजन' दया से मिला सामाजिक पद है, 'दलित' संघर्ष और प्रतिरोध के आंदोलन से उपजा मानक, जो अब इस पहचान को भी पीछे छोड़ कर 'बहुजन' की ओर बढ़ रहा है। अगर फिल्म की कहानी का एक देशकाल था, तो जिस तरह उस देशकाल को आधुनिक मोबाइल और कम्प्यूटर की तकनीक से लैस किया गया, उसमें इस 'हरिजन' से भी जूझ लिया जाता!

बहरहाल, अलग जग में पानी लाने से लेकर 'हम ब्राह्मण हैं... हम आदेश देते हैं' जैसे जुमलों के साथ ब्राह्मणों का चेहरा दिखाने की कोशिश की गई है, लेकिन उसके समांतर भगवान मिश्रा के भाई को 'गरीब ब्राह्मण' के रूप में पेश करके उसकी भरपाई कर दी गई है। हंसने का मन करता है कि गरीब ब्राह्मण या तो मिश्रित खून के शक वाले राजपूत या फिर किसी 'नीच' कही जाने वाली जात के बराबर हो सकता है...!

सबसे नकली और मजेदार तब लगता है कि जब राजपूत हीरो से ब्राह्मण हीरोइन की अंतरजातीय शादी होती है। यह प्रेम के बाद हुई अरेंज्ड मैरेज यानी पारंपरिक शादी होती है, जिसमें खलनायनक भगवान मिश्रा को छोड़ कर किसी को आपत्ति नहीं होती है, सब कुछ धूमधाम के साथ होता है। किसी कस्बे या जिले में एक बेरहम ब्राह्मण सामंत के साए में खुली जातीय बर्बरताओं के समांतर इस तरह सबकी सहमति और प्रेम भाव के बीच पारंपरिक तरीके से अंतरजातीय शादी... भले ही वह राजपूत लड़के और ब्राह्मण लड़की के बीच हो..!!! इससे ज्यादा बड़ी क्रांति और क्या होती..! मजाक बना कर रख दिया है हकीकतों को...!

हालांकि फिल्म में देश भर में खेलों के तंत्र पर काबिज लोगों और उसकी राजनीति की अच्छी झलक देखी जा सकती है। मुक्केबाजी के खेल में कई जगह आप सचमुच की प्रतियोगिता की तरह का रोमांच हासिल कर सकते हैं। गीतों के शब्द अच्छे हैं। 'बहुत हुआ सम्मान...' में प्रतिरोध-तत्त्व बढ़िया है। (इसकी धुन से किसी कथित कविता या गीत जैसा कुछ ध्यान में आ रहा है, लेकिन चूंकि याद नहीं है, इसलिए कोई टिप्पणी नहीं।) सबसे ज्यादा हिम्मत दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या के प्रसंग को लगभग ज्यों का त्यों दिखाने की गई है। इसके लिए अनुराग कश्यप को बधाई मिलना चाहिए। खासतौर पर 'भारत माता की जय' के नारे के साथ आज देश की क्या हालत हो चुकी है, इसका अंदाजा वही लगा सकता है, जिसे बिना किसी कसूर के कोई भीड़ 'भारत माता की जय' का नारा लगा कर मार डालती है!

लेकिन चूंकि अनुराग कश्यप खुद ही कहते हैं कि फिल्मकारों से फिल्मों के जरिए संदेश देने के उम्मीद नहीं करनी चाहिए, इसलिए उनकी फिल्म 'मुक्काबाज' से भी उनकी बात समझ में आई।

पुनश्चः अनुराग कश्यप को मेरी ओर स्पेशल वाला थैंक्यू और बधाई कि जिस बनारस को खासतौर पर गालियों के लिए भी जाना जाता है, उस बनारस और इलाहाबाद के सामंती परिवेश को फिल्माते हुए कहीं भी मां-बहन की गाली का इस्तेमाल नहीं हुआ और गालियों के बिना फिल्म में कोई कमी नहीं लगी। पिछली बार 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की जब मैंने इस लोकेशन से गालियों के बेवजह और जबरन इस्तेमाल पर सवाल उठाया था तो बहुत सारे लोगों को बुरा लगा था। एक अभियान भी चला था कि गालियां समाज की हकीकत हैं और उसे फिल्माना समाज के यथार्थ को स्वीकार करना है। लेकिन  आखिर अनुराग कश्यप ने भी कर दिखाया कि गालियों के बिना भी समाज की हकीकत से जूझा जा सकता है..! हालांकि इस संदर्भ में कोई देखना चाहे तो 'पानसिंह तोमर' देख सकता है, जो इस सवाल पर एक कामयाब प्रयोग है और गालियों के समर्थकों को आईना दिखाता है।

Tuesday, 28 March 2017

'अनारकली ऑफ आरा' : हक के हौसले से लबरेज बगावत...!






[पारंपरिक फिल्म समीक्षा नहीं लिखनी आती है, इसलिए पहले ही खेद जाहिर कर रहा
हूं...! और कभी-कभी कुछ ज्यादा पढ़ लेने में घाटा नहीं है...]

दुख से पैदा हुआ जीवट जब दुख को पैदा करने वालों के सामने चुनौती फेंकता है तो आसमान से उम्मीद की बरसात होती है... और जमीन पर नए हौसले से लबरेज़ ख्वाबों की फसल लहलहाने लगती है...!

इसी दिसंबर में पंजाब के बठिंडा के किसी समारोह में एक गर्भवती महिला स्टेज डांसर ने अपने डांस से झूमते बंदूक लहराते कुछ गुंडे मेहमानों को अपने साथ मनमानी करने से मना किया और गुंडों ने डांसर को गोली मार दी। तो 'अनारकली ऑफ आरा' अपने सबसे पहले सीन को लगभग इसी सच के साथ उतारती है।

तकरीबन ढाई-तीन दशक पहले बिहार में कई ऐसी शादियों का गवाह रहा हूं, जिनमें अगर 'बाई जी का नाच' नहीं आया तो बरातियों और घरातियों (लड़की पक्ष वाले) के लिए शादी का समूचा आयोजन अधूरा माना जाता था। 'बाई जी के नाच' की मौजूदगी से दूल्हे पक्ष की 'औकात' मापी जाती थी! (आज भी ऐसा होता है या नहीं, पता नहीं!) हालांकि यह आमतौर पर सवर्ण और खासतौर पर राजपूतों की शादियों की 'शोभा' होती थी।

तो ऐसी ही एक शादी में 'बाई जी' के नाच के मनोरंजन और मन को भयानक धक्का देने वाली हकीकत के साथ फिल्म की शुरुआत हुई, तभी फिल्मकार की मंशा (पढ़ें मकसद) साफ हो जाती है! 'दिखने' में ही [क्या चुनाव है..!] 'राजपूत' लगते बरातियों के 'चाचा' ने 'बाई जी' को 'नेग' की तरह बंदूक की नोक पर नोट पर फंसा कर होंठों से पकड़ने का एक तरह से हुक्म जारी किया और फिर अचानक धमाके के बाद पर्दे पर अंधेरा छा गया।

फिर आप पर्दे पर उभरा एक बच्ची का जड़ हो गया चेहरा नहीं देखते हैं, अगर देख सकते हैं तो देखते हैं कि कैसे चंद घड़ी के भीतर दो औरतों की तकदीर तय कर दी जाती है और उसे तय करने वाले वे लोग कौन होते हैं! मस्त झूमती मर्द भीड़ के साथ वह 'चाचा' टाइप चेहरा एक व्यवस्था की नुमाइंदगी का महज एक छौंक भर होता है... चौड़े कंधे... ऊंचे भारी शरीर वाला... हाथों में बंदूक लहराता... ऐंठी हुई मूछों वाला मर्द...!

बहरहाल, फिर 'बारह साल बाद' की कहानी आगे बढ़ती है, सामंती ठसक के साथ जीते समाज की हर परत को बेपर्द करती चलती। इसमें आपको पर्दे के बीच में जितना दिखता है, उससे ज्यादा पर्दे के कोने-अंतरे से झांक रहा होता है। जिसने कस्बे या गांवों की जिंदगी जी होगी, उसे याद होगा कि कमर तक चढ़े छोटे बुशर्ट और टखने से ऊपर पैंट के साथ हवाई चप्पल पहने... बाएं हाथ को पीछे पीठ से सटा कर दाहिनी ओर लाकर दाहिने हाथ के कोहनी पर पकड़े और चुपके से अनारकली को देखता अनवर एक समूची हकीकत की तस्वीर दिखता है..! पहली ही मुलाकात में अनवर के ढोलक की थाप पर चेहरे के लय के साथ बैठे-बैठे थिरकती अनारकली पर नजर नहीं ठहरे तो आपको दूसरी बार इस फिल्म को देखना चाहिए! इसी तरह 'रंगीला संगीत मंडली' के मालिक और स्टेज पर अनाउंसर रंगीला के कपड़े और उसकी एकदम ठस्स देशज थिरकन और पांव पीछे मोड़ कर उछलना जिंदा दृश्य हैं!

तो झांकते हुए दृश्यों की बात थी। दशहरे के मौके पर थाने में स्टेज शो के दौरान 'ऐ दरोगा दुनलिया में जंग लागा हो...' गीत पर शराब में झूमते हुए स्टेज पर चढ़ कर अनारकली से सार्वजनिक मनमानी करते धर्मेंद्र चौहान और उससे पहले के स्टेज शो के बाद गली के अंधेरे में नशे में डगमगाते हुए 'ऐ सखी तू... ना सखी बदरा...' दोहराते आदमी में फर्क करना बहुत मुश्किल नहीं है। एक शख्स स्टेज पर जाकर सरेआम मनमानी करने की कूबत रखता है और दूसरा शख्स वैसी ही हालत में डगमगाते कदमों से अंधेरी गली में गुनगुनाता गुजरता है। आखिर एक यूनिवर्सिटी के राजपूत वीसी धर्मेंद्र चौहान के सामाजिक रुतबे और अंधेरी गली में डगमगाते दिखने में ही किसी हाशिये के समाज से लगते उस आदमी की सामाजिक 'औकात' में फर्क तो है...। कहां से आती है 'बाई जी' के नाच से उपजी कुंठा को सरेआम आपराधिक तरीके से जाहिर करने की हिम्मत और उसी कुंठा को अंधेरी गली में बिखेर कर खुद को 'राजा' मान लेने का भरम...! मर्दाना कुंठा का कुआं हर मोहल्ले में है... अलग-अलग समाज... अलग-अलग कुआं...! कहीं सरेआम रुतबे के रोब का नाच तो कहीं अंधेरे में अकेले उड़ेल देने की राहत..!

स्टेज पर नशे में झूमता धर्मेंद्र चौहान जब अनारकली से मनमानी करने की कोशिश करता रहता है, ठीक उसी समय अनारकली को बचने के लिए उधर से इधर होने के रंगीला के हाथों के इशारे दरअसल यह बताते हैं कि दृश्यों में कल्पनाशीलता कैसे रची जाती है! वहीं अपनी मंडली की अनारकली को बचाने के लिए धर्मेंद्र चौहान से महज गुहार लगाते रंगीला यादव के सामाजिक मनोविज्ञान को समझने के लिए थोड़ा धीरज चाहिए! उसके बाद धर्मेद्र चौहान के गाल पर अनारकली की थप्पड़ में मुझे बंदूक की गोली की उस आवाज का पता मिलता लगा, जिसने अनारकली की मां चमकी देवी को मार डाला था...! वैसे घुमावदार मूंछों वाले मर्द धर्मेंद्र चौहान को वहां ऐसा करते देखते हुए क्या आपको पहले दृश्य में बंदूक लहराते हुए उस ऐंठी हुई मूंछों वाले 'चाचा' टाइप मर्द की याद आई..?

इस हंगामे के बाद अनारकली को वेश्यावृत्ति के आरोप में फंसाए जाने से लेकर धर्मेंद्र चौहान को थप्पड़ मारने के बारे में बताने, फिर हमले के बाद अनवर के साथ दिल्ली भागने और दिल्ली के उठा-पटक के दृश्यों में जो जिंदगी डाली गई है, वह वही डाल सकता था, जो ऐसी आबो-हवा का 'रिसर्च' करने का दावा नहीं करता हो, बल्कि खुद उन दृश्यों के साथ कभी घुला-मिला रहा हो...!

इस सबके बीच धर्मेंद्र चौहान, बुलबुल पांडेय और रंगीला के बरक्स अनारकली, अनवर, हिरामन जिस प्रतिनिधि चरित्र को जीते हैं, उसकी परतों को ठीक से उधेड़ा जाए तो पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद के तंत्र के बरक्स मैदान में खड़ी शासित स्त्री के लिए स्पेस और उसकी चुनौती दिखेगी। यह चुनौती दिल्ली से वापस लौटती है। फिर जिस तरह धर्मेंद्र चौहान ने सरेआम स्टेज पर अनारकली के सम्मान, गरिमा और अस्मिता को तार-तार करने की कोशिश की थी, उसी तरह स्टेज पर ही अनारकली नाचती है धर्मेंद्र चौहान के लिए, मगर उसी को अंजाम तक पहुंचा देती है, उसके पहले वाली हरकत के साथ! वहां अनारकली का केवल नाचना नहीं है, गीतों के बोल नहीं है, बगावत और चुनौती की समूची जिंदा तस्वीर है। स्वरा भास्कर और उनके निर्देशक ने वहां नाचने और गाने को जो अभिव्यक्ति दी है, वह शायद बहुत लंबे समय तक लोगों को याद रहे!

अपनी जिंदगी की हकीकत के स्वीकार के बावजूद अपनी मर्जी को अपने हक के तौर पर अनारकली शायद ज्यादा ताकतवर तरीके से दर्ज करती है। औरत गाने वाली हो, कोई और हो या फिर बीवी हो! और अगर किसी को धोखा हो कि अनारकली बगावत और प्रतिरोध के उस स्तर तक कैसे गई तो यह कोई सवाल नहीं होगा। सबसे शुरू में पर्दे पर अपनी मां को गोली मारे जाते देखने के बाद से लेकर अनारकली के चरित्र को इस तरह गढ़ा गया है कि किसी भी सीन में उसकी आक्रामकता जरा भी हैरान नहीं करती। बल्कि ज्यादा सहज और स्वाभाविक लगती है!

बेशक आभिजात्य आग्रहों की दुनिया में अनारकली के संघर्ष को स्त्रीवाद की क्लासिकी के तौर पर नहीं देखा जाएगा। इसकी कोई जरूरत भी नहीं। लेकिन दिलचस्प यही है कि स्त्री के जमीनी संघर्ष के अलग-अलग आयामों और आख्यानों से ही स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी तैयार होती है, हो सकती है! अनारकली अपनी लड़ाई और जवाब की जमीन खुद बनाती है। जब अनारकली की चुनौती के लहजे में गीत ये लफ्ज लहराते हैं कि 'अब त गुलमिया के ना ना ना...' तब अचानक लगता है कि धर्मेंद्र चौहान और बुलबुल पांडेय की शक्ल में ब्राह्मणवाद के जीवन-तत्त्व सामंती मर्दवाद किसी डर के जादू से जड़ हो गए। वह जादू दरअसल हिम्मत और हौसले से लबरेज वह स्त्री है, जो धर्मेंद्र चौहान और बुलबुल पांडेय की बिसात पर उन्हीं को मात देती है!



मेरे जैसे हर चीज में राजनीति खोजने वालों के लिए यह फिल्म खालिस राजनीति है और कम से कम मेरे लिए राहत की वजह यह ज्यादा है। 'अब त गुलमिया के ना ना ना' की अनारकली की घोषणा सामंती मर्दवाद को खौफ से भर देता है, तो हिरामन के 'देस के लिए खा लीजिए...' जैसे डायलॉग से लेकर 'सूट-बूट', 'जुमला', 'दुबई' जैसे शब्दों से लैस 'मोरा पिया मतलब का यार...' गीत मौजूदा सत्ताधारी तबकों की राजनीति को सीधे निशाने पर लेती है। हिरामन के 'देस के लिए...' या अनारकली के 'कड़ाही भी आपका और तेल भी आपका... अब पूड़ी बनाइए या हलवा... आपकी मर्जी...!' अपने हर संवैधानिक अधिकार को भी 'देश के लिए...' के खत्म मान लेने और देश को अपनी कड़ाही मानने वाली सत्ता का चरित्र आज क्या है... जनता उसकी नजर में क्या है... कब वह अपनी मर्जी से जनता का हलवा या पूड़ी बना कर बाजार में नहीं बेच रही है...! तो ऐसे संवादों को केवल द्विअर्थी के दायरे में देखने के बजाय अगर सत्ता के चरित्र के आईने में देखें तो शायद कुछ ज्यादा खुलता है।

स्टेज पर एक गाने के दौरान अनारकली जब ठिठोली में रंगीला के दाहिने पांव को मारती है और रंगीले अंदाज में रंगीला कहता है कि 'अब बाकी जिंदगी 'बाएं' पर, तो इसका मतलब समझना बहुत मुश्किल नहीं होता! बल्कि हाल के दिनों में जहां सत्ता के लिहाज से सत्ता के हक में फिल्मी मोर्चे पर सरेंडर जैसा दिखता है, वहीं अपनी कहानी और प्रस्तुति में स्थानीयता के बावजूद 'अनारकली ऑफ आरा' यह बताने के लिए काफी है कि कल्पनाशीलता और जीवट हो तो एक फिक्र के दौर में भी सियासत के सामने खड़ा हुआ जा सकता है, कुछ सवाल रखे जा सकते हैं...!

फिल्मकार ने एक जो सबसे जरूरी काबिलियत दिखाई है, वह यह है कि जिस पूरी फिल्म में गाली-गलौज को भर देने की गुंजाइश थी, उसे गालियों से लगभग बचा ले जाना! इससे पहले यही काबिलियत 'पान सिंह तोमर' में तिग्मांशु धूलिया ने साबित की थी! इसके लिए मेरी ओर से निर्देशक अविनाश को खास मुबारकबाद!

बाकी मैं आमतौर पर फिल्मों के कला पक्ष पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देता, क्योंकि समझना नहीं आता। फिर भी, यह कहा जा सकता है कि निर्देशक अविनाश की यह पहली फिल्म नहीं लगती...! ऐसा लगता है कि वे कई और फिल्में बना चुके हैं! अनारकली की कितनी भी तारीफ कम ही होगी। स्वरा भास्कर ने तो जैसे अनारकली को ही जीया है...। पंकज त्रिपाठी की हरेक गतिविधि... शारीरिक मूवमेंट दर्ज करने वाली है, संजय मिश्रा नहीं हैं, वे वीसी धर्मेंद्र चौहान हैं, इश्तियाक खान सिर्फ हिरामन ही दिखे... अनवर का चुनाव कामयाब है। एटीएम, मफलर सभी इस फिल्म के लिए जीवन हैं! गीतों से भरी इस फिल्म के गीत जमीनी हकीकत से खुद को जोड़ते हैं और इस फिल्म की तरह स्थायी महत्त्व के हैं।

जब स्कूल में बच्ची अनारकली को किसी मास्टर ने कहा होगा 'गंदा गाना' गाने के लिए, तो आखिर वह कौन-सी मानसिक प्रताड़ना होगी कि अनारकली ने स्कूल जाना छोड़ दिया होगा..! क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि देश के स्कूलों में दलित-वंचित तबकों के वे तमाम बच्चे स्कूल जाना इसलिए छोड़ देते हैं कि स्कूल कई बार उन्हें सामाजिक यातना और अपमान के ठिकाने लगने लगते हैं..! तो इस सिरे से जुड़े अनारकली के तेवर शुरू से ही बगावती रहे, इसलिए बाद में अगर किसी पर उसका चप्पल चल जाता है, रंगीला के चांटे के बदले वह उसे उससे ज्यादा जोर का चांटा लगा देती है, कभी वह किसी पेशाब करते लड़के के साइकिल को लेकर तेजी से भाग जाती है तो कभी सीधे धर्मेंद्र चौहान की निजी महफिल में ताली बजा कर पीट कर बताने चली जाती है कि 'हम तुमको चांटा मारे थे' तो यह कहीं से भी जबरन या अस्वाभाविक नहीं लगता है!

इसके अलावा, ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में रंगीला यादव की 'रंगीला संगीत मंडली' जैसी मंडलियों के समाज का चेहरा देखा जाए, तो शायद अनारकली, अनवर, चचा या खुद रंगीला अमूमन हर मामले में सत्ता के सामाजिक ध्रुव के बरक्स हाशिये के समाज पर ही दिखेंगे...। पता नहीं 'तीसरी कसम' का हिरामन केवल हिरामन था या नहीं! लेकिन 'अनारकली...' का हिरामन अगर केवल हिरामन ही रहता तो मेरी नजर में वह हिरामन तिवारी से ज्यादा अहम होता...! इसके बावजूद, फिल्म में कई ऐसी हिम्मत दिखती है कि हिरामन तिवारी को अपवाद में हिरामन के तौर पर स्वीकार कर लिया जा सकता है! एक विश्वविद्यालय के वीसी धर्मेंद्र चौहान और बुलबुल पांडेय के जरिए शायद फिल्मकार ने यह दिखाने की कोशिश की है कि सत्ता और उसके तंत्र की कमान आखिर समाज के किन तबकों की अंगुलियों में हैं..! खासतौर पर वीसी धर्मेंद्र चौहान के गले में लटका दिखता सफेद धागे का मोटा माला दरअसल 'जनेऊ' का आभास देता है। 'गुड्डू रंगीला' फिल्म का वह दृश्य याद आता है जब खाप पंचायत में खड़े 'जाट' बिल्लू को बनियान के ऊपर से ब्राह्मणों वाला जनेऊ पहने दिखाया जाता है..! फिर अनारकली को अपनी गीता के लिए लिखी शायरी सुनने के बदले मुफ्त में लिप्स्टिक देने वाले दुकानदार की एक लाइन एक त्रासद सामाजिक बयान है- 'हमारा नाम नहीं बोलिएगा, नहीं त खेला हो जाएगा... कास्ट का प्रोब्लम है..!' यहां एक शब्द 'कास्ट' डाल देने के बाद इस दृश्य का क्या महत्त्व हो गया है, यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है! इस तरह के प्रयोग पर्दे पर बदलते समाज की जरूरत का अहसास करते हैं..!

जो हो, इस फिल्म का आखिरी सीन आंखों में ठहर गया लगता है। धर्मेंद्र चौहान या ब्राह्मणवादी सामंती मर्दवाद को सरेआम बेपर्द करके जलील करने के बाद अनारकली जब अपने रास्ते में अकेले निकल पड़ती है तो सुनसान सड़क पर उसके चेहरे के आजाद भाव, जीत की मुस्कान के साथ सिर झटकने से लेकर अपने घाघरे को झटका देकर हवा में उड़ाने की बेफिक्री का दृश्य रचना आसान नहीं!

सहानुभूति दया की शक्ल में यथास्थितिवाद का औजार होती है। यह फिल्म मेरे लिए मुग्ध होने का मसला इसलिए है कि रोने-गाने को यथार्थ दृश्यों की तरह जीवंत करने और सामाजिक त्रासदी को नियति की तरह पेश करने के बजाय शासित और पीड़ित ध्रुव की ओर से प्रतिरोध और बगावत का एक खास मकसद सामने रखती है...! वर्चस्व की सत्ता प्रतिरोध और बगावत की आवाज ही सुनती है...! यह फिल्म और फिल्मकार इसलिए मेरे लिए मुग्ध होने का मामला है...!

Sunday, 25 September 2016

PARCHED : स्त्रीवाद नहीं, लेकिन मर्दवाद के सिंह-आसन की चिंदी-चिंदी...!


मैं 'पिंक' की तुलना 'पार्च्ड' से इसलिए नहीं करना चाहता हूं कि 'पिंक' आखिरकार अपने उस एजेंडे के खिलाफ जाकर खड़ी हो जाती है, या ज्यादा उदार होकर कहें तो अपने ही एजेंडे को कमजोर कर देती है, जिसमें बुनियादी मकसद स्त्री को पुरुष-तंत्र और उसके मानस से स्वतंत्र और कहीं उसके बरक्स करना है। पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत इसके बरक्स खड़ा होने से शुरू होगी, उसके आसरे में नहीं। फिर भी, 'पिंक' की अपनी अहमियत है।

बहरहाल, 'पार्च्ड' अपने उस एजेंडे में पूरी तरह कामयाब है, जिसमें स्त्री की जिंदगी, स्त्री के लिए, स्त्री के हाथों में और स्त्री के द्वारा तय होने की मंजिल तक पहुंचती है। हो सकता है कि 'पार्च्ड' की चारों स्त्रियों ने कथित मुख्यधारा के स्त्रीवाद का कोई आख्यान नहीं रचा हो, लेकिन कहीं उन्होंने मर्दवाद के भरोसे से बाहर खुद पर भरोसा किया, कहीं मर्दवाद को आईना दिखाया, कहीं मर्दवाद के बरक्स खड़े मर्द को स्वीकार किया तो कहीं मर्दवाद का मुंह तोड़ दिया। यानी यह कथित मुख्यधारा का स्त्रीवाद नहीं भी हो सकता है, लेकिन मर्दवाद के सिंहासन के पाए जरूर तोड़े।

दरअसल, 'पार्च्ड' में स्त्री की जमीनी हकीकतों का सामना जो स्त्रियां करती हैं, उन्होंने कोई क्रांति या स्त्रीवाद की पढ़ाई नहीं की है, लेकिन जहां उनके सामने 'आखिरी रास्ता' का चुनाव करने का विकल्प बचता है, वहां वे पुरुषवाद और पितृसत्ता की कुर्सी के पायों की चिंदी-चिंदी करके रख देती हैं। मुमकिन है, उसे स्त्रीवाद की क्लासिकी के दायरे में न गिना जाए। लेकिन स्त्री के अपनी जिंदगी को इसी सिरे से बरतने की पृष्ठभूमि में स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी तैयार होती है।

लज्जो अपने 'बांझ' होने को तब तक मजाक बना कर जीती है और पति के हाथों यातना का शिकार होती है, जब तक बिजली उसे यह नहीं बताती कि 'बांझ' उसका पति भी हो सकता है। ('बोल'- जिसमें बेटी या बेटा होने के लिए मर्द जिम्मेदार है।) वह पति, जिसकी मर्दानगी हर अगले पल जागती है और उस वक्त तूफान की शक्ल अख्तियार कर लेती है, जब लज्जो उसे यह खबर देती है कि उसकी नौकरी पक्की हो गई है, नियमित पगार मिलेगी। इस पर उसके पति को अपनी 'जरूरत खत्म होने' के डर और मर्द अहं को ठेस लगने के दृश्य को जिस तरह फिल्माया गया है, वह केवल एक मर्द की नहीं, बल्कि समूचे पुरुषवाद की कुंठा का रूपक है। इसके अलावा, पति के मशीनी संवेदनहीन सेक्स और संतान पैदा करने की अक्षमता का दंश झेलते हुए बिजली के जरिए लज्जो जब एक बाबा के साथ सेक्स के जीवन-तत्व और सम्मान को जीती है और गर्भ लेकर पति को बताती है तो यह खबर पाते ही पति को जो सदमा लगता है, वह उसे खुद उसकी ही मर्दानगी के हमले की आग में जला डालता है।

लज्जो के चरित्र की व्याख्या मर्दवाद के केंद्र पर चोट करती है।

इधर पत्नी से ज्यादा रुचि दूसरी औरत में लेने वाले पति की मौत और अपने बेटे के बाल-विवाह के बाद रानी अपने लिए 'शाहरुख खान' के प्रेम की उम्मीद में खुश होती है। फिर बेटे के भी अपने पति की राह पर चले जाने के बाद बच्ची जैसी बहू के साथ खड़ी हो जाती है, उसे उसके प्रेमी के साथ किताब देकर विदा करती है।

जानकी ने बाल विवाह के बाद के जीवन से लेकर बलात्कार तक की त्रासदी को जिस तरह जीवंत किया है, अपने पति के भीतर के मर्द की मार से उपजी पीड़ा को जो भाव और अभिव्यक्ति दी है, वह हैरान करती है। भविष्य के लिए सिनेमा को एक बेहतरीन कलाकार मुबारक। 

और समाज की जुगुप्सा के हाशिये पर खड़ी, लेकिन मर्दानगी की अय्याशी के लिए जरूरी बिजली ने ऊपर की तीनों महिलाओं की आंखों को जिस तरह फाड़ कर खोला, लज्जो को बताया कि बच्चा होने या नहीं होने के लिए उसका पति भी जिम्मेदार हो सकता है... लज्जो के साथ-साथ रानी को भी बताया कि सेक्स का मतलब केवल शारीरिक नहीं, दिमागी-मानसिक स्तर पर भी चरम-सुख होना चाहिए... लज्जो, रानी और जानकी, तीनों को बताती है कि गालियां केवल औरतों के खिलाफ इसलिए होती हैं कि इन्हें मर्दों ने बनाया है तो वह एक गंभीर बागी लगती है। और जब परदे पर चारों महिलाओं के मुंह से एक साथ गालियां गूंज रही थीं, तो समूचे सिनेमा हॉल में मैं अकेला था जो ताली बजाने लगा! हालांकि मैं किसी भी तरह की गाली के खिलाफ अब भी हूं! देह-व्यापार की त्रासदी को जिस तरह बिजली में उतरता हुआ पाते हैं, वह शायद सबको हिला देगा। लेकिन अपनी बाकी तीनों दोस्तों यानी लज्जो, रानी और जानकी को जिंदगी का सपना भी वही यानी समाज के लिए घिनौनी एक वेश्या ही देती है।

'ये सारी गालियां मर्दों ने ही बनाई है...' 'मर्द बनने से पहले इंसान बन जा...' या 'देखता हूं, मर्द के बिना इस घर का काम कैसे चलता है..' जैसे कई डायलॉग तो सिर्फ बानगी हैं यह बताने के लिए कि फिल्मकार ने अपने एजेंडे को लेकर कितना काम किया है। खासतौर पर रानी का अपने किशोर बेटे को यह कहना कि 'मर्द बनने से पहले इंसान बन जा' उन तमाम आंदोलनों को आईना दिखाता है, जिसमें मर्दों से उनके सुधरने के लिए 'शास्त्रीय संगीत' के लहजे में स्त्री का सम्मान करने की फरियाद की जाती है...!

खैर, आजादी का एहसास करने फटफटिया पर बैठ कर निकल पड़ी तीनों या चारों महिलाएं जब नदी में निर्वस्त्र होकर नहाती हैं, तब वहां किसी कृष्ण के फटकने की जगह नहीं होती जो इन महिलाओं के कपड़े लेकर पेड़ पर भाग जाए! यानी हर अगले दृश्य में यह फिल्म मर्दवाद और पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री के सपने को एक नया आयाम देती है। इस सपने को किसी भी पुरुष के भरोसे पूरा नहीं होना है। जानकी के चोर और अय्याश पति का भाग जाना है, जानकी को उसका प्रेम हासिल हो जाना है, जो जाते समय उसकी किताबें और थैला थामता है, लज्जो के पति का जिंदा जल जाना है और रानी के 'शाहरुख खान' का पीछे छूट जाना है। आखिर समाज और परंपरा की दी हुई शक्ल को नोच और फेंक कर नई शक्ल के साथ जब बिजली, रानी और लज्जो एक चौराहे पर खड़ी होकर इस सवाल का सामना करती हैं कि अब राइट जाएं या लेफ्ट, तो आखिर में जवाब आता है कि इस बार तो हम तीनों अपने दिल की सुनेंगे...!

यहां इन्हें बचाने या इनका उद्धार करने के लिए के लिए कोई पुरुष नायक नहीं आता, शहरों की पढ़ी-लिखी और इंपावर महिलाओं को अपनी लड़ाई के लिए किसी पुरुष हीरो की छांव की जरूरत होती होगी, लेकिन गांव की अनपढ़ और साधनहीन 'पार्च्ड' की तीनों स्त्रियां जब घर की दहलीज से निकल जाती हैं तो वे अपने आप पर भरोसे से लबरेज होती हैं, उन्हें किसी हीरो की तलाश नहीं होती, अगर कोई 'शाहरुख खान' हीरो होना भी चाहता है तो वे उसे भी पीछे छोड़ कर निकल जाती हैं।
इससे ज्यादा और साफ-साफ क्या कहा जा सकता था कि जिंदगी को जिंदगी तरह जीने की राह क्या हो सकती है..! गांव में कपड़े और वेशभूषा के हिसाब से ही दलित-वंचित परिवारों की महिलाओं को पहचान लिया जा सकता है। तो इनके जीवट का अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल है...! इससे ज्यादा पहचानना हो तो बिजली (स्त्री) के लिए दलाली करने को तैयार 'राणा' और पहले से दलाली करते 'शर्मा-वर्मा' (पुरुष) की साफ घोषणा का आशय समझा जा सकता है। 'राणा' और 'शर्मा-वर्मा' का मतलब आज के दौर में अलग से समझाने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।

बाकी टीवी, मोबाइल, स्थानीय कला को बेचने वाले एनजीओ वगैरह सिर्फ सहायक तत्त्व हैं। कहानी का केंद्र इनके सहारे नहीं, जानकी, बिजली, रानी और लज्जो के भरोसे टिका है।

पुनश्च-

एकः इस फिल्म में कमी के बिंदु मेरी निगाह में बस एक है- लज्जो के पति का घर में लगी आग में जलना और दूसरी ओर जश्न के तौर पर रावण के पुतले को जलाना। जब तीनों-चारों महिलाओं के नदी में निर्वस्त्र होकर नहाने के समय किसी कृष्ण को उनका कपड़ा लेकर पेड़ पर भाग जाने की कथा को खारिज किया गया, तो उसी सिरे से रावण-दहन से बचा जा सकता था, राम को भी कृष्ण की तरह खारिज किया जा सकता था।

दोः 'पार्च्ड' सिनेमा आखिर किसके लिए बनाई गई है, उसका दर्शक वर्ग कौन होगा? 'पिंक' जैसी फिल्में भी किसी पीवीआर के साथ-साथ 'रीगल' जैसे साधारण सिनेमा हॉल में भी लगी थीं। इसलिए 'पिंक' तक आभिजात्य और साधारण, दोनों तबके पहुंचे। जबकि 'पार्च्ड' कम से कम दिल्ली के पीवीआर या ऐसे ही और बहुत कम और बेहद महंगे सिनेमा हॉल में लगी है। अंदाजा लगाइए कि यह फिल्म किस तबके की कहानी कहती है और उस तक पहुंचने और मनोरंजन करने वाले लोग किस तबके के ज्यादा होते हैं।

बहरहाल, स्त्री और स्त्रीत्व से जुड़े मुद्दे पर फिल्म बनाते हुए शुजित सरकार और लीना यादव की फिल्मों ने बताया है कि एक ही विषय को डील करते हुए एक पुरुष और स्त्री की दृष्टि में कैसा और कितना फासला हो सकता है। पुरुष को साहस करना पड़ता है, इसलिए चीजें छूटेंगी या फिर गड़बड़ा जाएंगी, लेकिन स्त्री के पास अगर उसकी अपनी, अपने स्व की दृष्टि है तो उस गड़बड़ी को आमतौर पर संभाल लेगी। यह अंतर साफ करके सामने रखने के लिए लीना यादव से लेकर लहर खान तक को बहुत शुक्रिया...!

Thursday, 21 July 2016

गुजरात दलित विद्रोहः स्वागत, इस सामाजिक क्रांति का...


गले का फांस बनी गाय की सियासत




गुजरात में दलितों का विद्रोह खास क्यों है? यह इसलिए कि जिस गाय के सहारे आरएसएस-भाजपा अपनी असली राजनीति को खाद-पानी दे रहे थे, वही गाय पहली बार उसके गले की फांस बनी है। बल्कि कहा जा सकता है कि गाय की राजनीति के सहारे आरएसएस-भाजपा ने हिंदू-ध्रुवीकरण का जो खेल खेला था, उसके सामने बाकी तमाम राजनीतिक दल एक तरह से लाचार थे और उसके विरोध का कोई जमीनी तरीका नहीं निकाल पा रहे थे। गुजरात में दलित समुदाय के विद्रोह ने देश में आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति का सामना करने का एक ठोस रास्ता तैयार किया है।

देश में भाजपा की सरकार बनने के बाद पिछले लगभग दो सालों से लगातार कुछ ऐसे मुद्दे सुर्खियों में रहे हैं, जिनसे एक ओर वास्तविक मुद्दों से समूचे समाज का ध्यान बंटाए रखा जा सके और दूसरी ओर पहले से ही धार्मिक माइंडसेट में जीते ज्यादा से ज्यादा लोगों के दिमागों का सांप्रदायीकरण किया जा सके। साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ या दूसरे साधुओं-साध्वियों की जुबान से अक्सर निकलने वाले जहरीले बोल के अलावा जो एक मोहरा सबसे कामयाब हथियार के तौर पर आजमाया गया, वह था गाय को लेकर हिंदू भावनाओं का शोषण और फिर उसे आक्रामक उभार देना। हाल में इसकी चरम अभिव्यक्ति उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके में हुई, जहां सितंबर, 2015 में हिंदू अतिवादियों की एक भीड़ ने गाय का मांस रखने का आरोप लगा कर मोहम्मद अख़लाक के घर पर हमला कर दिया और उनके परिवार के सामने तालिबानी शैली में उन्हें ईंट-पत्थरों से मारते हुए मार डाला।

लेकिन इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं थी। अक्टूबर 2000 में हरियाणा में झज्जर जिले के दुलीना इलाके में पांच दलित एक मरी हुई गाय की खाल अलग कर रहे थे। उसी जगह से हिंदुओं के एक धार्मिक आयोजन से लौटती भीड़ ने उन पांचों को घेर लिया और गोहत्या का आरोप लगा कर उन्हें भी ईंट-पत्थरों से मार-मार कर मार डाला था। तब आरएसएस की एक शाखा विश्व हिंदू परिषद के एक नेता आचार्य गिरिराज किशोर ने कहा था कि एक गाय की जान पांच दलितों की जान से ज्यादा कीमती है।

गुजरात में मरी हुई गाय की खाल उतारने ले जाते दलितों को बर्बरता से पीटे जाने की घटना से पैदा हुए तूफान के बाद भी एक बार फिर विश्व हिंदू परिषद ने अपनी वास्तविक राजनीति के अनुकूल बयान ही जारी किया। परिषद ने कहा- "नैसर्गिक रूप से मरी गायों और पशुओं के निपटान की हिंदू समाज में व्यवस्था है और वह परंपरागत रूप से चली आ रही है। इस व्यवस्था को गोहत्या कह कर कुछ तत्त्वों द्वारा जो अत्याचार हो रहा है, उसका विश्व हिंदू परिषद विरोध करती है।"

यानी सैद्धांतिक तौर पर आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद मरी गायों और पशुओं के निपटान के लिए हिंदू समाज में 'परंपरागत व्यवस्था' होने की बात कहते हैं और व्यावहारिक तौर पर उन्हें जब भी अपनी राजनीति के लिए जरूरत होगी, मरी गायों को ले जाते या उनकी खाल उतारते दलितों को देख कर उन्हें गो-हत्यारा घोषित कर देंगें और फिर उनकी जान तक ले लेंगे। विश्व हिंदू परिषद या आरएसएस का रवैया इस मसले पर बिल्कुल हैरानी नहीं पैदा करता। बल्कि अच्छा यह है कि कई बार दबाव में आकर ये हिंदू संगठन अपना असली चेहरा दिखाते रहते हैं।

बौद्धिक हलकों में शायद इन सब पहलुओं से विचार किया गया होगा, इसके बावजूद सच यह है कि हिंदुत्व की सियासत में गाय के इस मोहरे का जवाब नहीं ढूंढ़ा जा सका था। पिछले तकरीबन दो सालों से देश के अलग-अलग इलाकों से आने वाली खबरें यह बताती रहीं कि समाज में 'गाय का जहर' हिंदू पोंगापंथियों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा है और जगह-जगह पर जिंदा या मरी हुई गाय ले जाते लोगों के साथ गऊ-रक्षक बेहद बर्बरता से पेश आते हैं। इसके अलावा, समूचे समाज में गाय अब एक मुद्दा बन चुकी है। बहुत साधारण रोजी-रोजगार में लगे लोग, जिन्हें गाय से कोई वास्ता नहीं है, वे 'गऊ-हत्या' के नाम पर उन्माद में चले जाते हैं। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के दनकौर में पंद्रह से पच्चीस वर्ष के तकरीबन पंद्रह युवाओं से एक साथ बात करते हुए मुझे हैरानी इस बात पर हुई थी कि वे यह कहने में बिल्कुल नहीं हिचक रहे थे कि 'कोई गऊमाता को मारेगा तो हम उसे काट देंगे जी...!' इन युवाओं में कुछ दलित पृष्ठभूमि से भी थे। दस मिनट की बातचीत के बाद 'गऊमाता' के सवाल पर दलित किशोर चुप हो गए, लेकिन बाकी अपनी राय पर कायम थे।

हालांकि गाय को लेकर उन्माद पैदा करने की कोशिशें हिंदुत्व की राजनीति का एक औजार रही हैं, लेकिन पिछले दो-तीन सालों के लगातार आबो-हवा में गाय के नाम पर जहर घोलने का ही नतीजा है कि एक जानवर के नाम पर लोग इंसानों को मारने-काटने की बातें सरेआम करने लगे हैं। सड़कों पर गोरक्षक गुंडे खुले तौर पर कानून हाथ में लेते हैं और मवेशी ले जाते वाहनों को रोक कर लोगों को बुरी तरह मारते-पीटते हैं या मार भी डालते हैं। झारखंड के लातेहर और हिमाचल प्रदेश से गोरक्षक गुंडों द्वारा मवेशी ले जाते लोगों को पकड़ कर मार डालने की खबरें सामने आईं। लातेहर में एक किशोर और एक युवक को मार कर पेड़ पर लटका दिया गया था। जहां-जहां भाजपा की सरकार है, वहां तो जैसे इन्हें अभयदान मिला हुआ है।
गुजरात के ऊना में जिन लोगों ने चार दलित युवकों को सरेआम बर्बरता से मारा-पीटा, वे भी एक तरह से बाकायदा जिस पुलिस से संरक्षण प्राप्त थे, वह भी भाजपा सरकार की ही है। यों भी, पुलिस अपने राज की सरकार के रुख के हिसाब से ही किसी को खुला छोड़ती है या उसके खिलाफ कोई कार्रवाई करती है। कम से कम गुजरात में तो सन 2002 के दंगों से लेकर अब तक पुलिस ने यही साबित किया है।

लेकिन उन गोरक्षक गुंडों से लेकर शायद आरएसएस-भाजपा तक को इस बात का अंदाजा शायद नहीं रहा होगा कि जिस गाय के हथियार से वे बाकी मुद्दों को दफ्न करने की कोशिश में थे, वह इस रूप में उनके सामने खड़ा हो जाएगा। पिछले दो-ढाई सालों में यह पहली बार है जब गाय की राजनीति को इस कदर और मुंहतोड़ तरीके से जवाब मिला है। ऊना में मरी हुई गाय की खाल उतारने ले जाते दलितों पर बर्बरता ढाई गई, उसी के जवाब में गुजरात के कई इलाकों में दलित समुदाय में मरी हुई गायों को ट्रकों में भर कर लाए और कलक्टर और दूसरे सरकारी दफ्तरों में फेंक दिया। संदेश साफ था। जिस सामाजिक व्यवस्था ने उन्हें इस पेशे में झोंका था, अगर उससे भी उन्हें अपने जिंदा रहने के इंतजामों से रोका जाता है, उसके चलते उन पर बर्बरता ढाई जाती है तो वे यह काम सरकार और प्रशासन के लिए छोड़ते हैं। अब वही करें गायों के मरने के बाद उनका निपटान।

अपने ऊपर हुए जुल्म के खिलाफ खड़ा होने का यह नायाब तरीका है, यह अपने खिलाफ एक राजनीति का करारा जवाब है, यह एक समूची ब्राह्मणवादी सत्ता की राजनीति की जड़ पर हमला है। अच्छा यह है कि मुख्यधारा के मीडिया के सत्तावादी रवैये के चलते गुजरात में आए इस तूफान की अनदेखी और सच कहें तो इसे दबाने की कोशिशों के बावजूद विरोध के इस तरीके की खबर देश के दूसरे इलाकों तक भी पहुंची है और इसके संदेश ने व्यापक असर छोड़ा है। अब जरूरत यह है कि मरी हुई या जिंदा गायों को इस देश में गोरक्षा का कथित आंदोलन चलाने वाले आरएसएस-भाजपा और उनके दूसरे संगठनों के सदस्यों के घर छोड़ दिया जाए, ताकि वे अपनी 'गऊमाता' के प्रति अपनी निष्ठा दर्शा सकें। मरी या जिंदा गाय से पेट भरने लायक जितनी आमदनी होती है, उससे ज्यादा दूसरे किसी रोजगार में हो सकती है।

जाहिर है, यह एक ऐसा जवाब है जिससे आरएसएस-भाजपा की समूची ब्राह्मणवादी राजनीति की चूलें हिल सकती हैं। अगर यह आंदोलन आगे बढ़ा और समूचे देश के दलितों ने मरे हुए जानवरों के निपटान के काम सहित मैला ढोने, शहरों-महानगरों से लेकर गली-कूचों या फिर सीवर में घुस कर सफाई करने या जातिगत पेशों से जुड़े तमाम कामों को छोड़ कर रोजगार के दूसरे विकल्पों की ओर रुख करते हैं तो बर्बर और अमानवीय ब्राह्मणवादी समाज के ढांचे को इस सामंती शक्ल में बनाए रखना मुश्किल होगा।

गुजरात में दलित समुदाय ने पहली बार मरी हुई गायों और दूसरे जानवरों के जरिए आरएसएस-भाजपा और हिंदुत्ववादी राजनीति के सामने एक ठोस चुनौती रखी है। इसके अलावा, उन्होंने सड़क पर उतर कर और उनमें से कुछ ने आत्महत्या की कोशिश में छिपे दुख को जाहिर कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराया है। इस स्वरूप के आंदोलन के महत्त्व आरएसएस को मालूम है और वह अपनी ओर से इससे ध्यान बंटाने के लिए कुछ भी कर सकता है। इसलिए इस विद्रोह की अनदेखी करने या दूसरे कम महत्त्व के मुद्दों में उलझने के बजाय अब दलित समुदाय की ओर से शुरू की गई इस सामाजिक क्रांति का स्वागत और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश उन सब लोगों को करने की जरूरत है, जो आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति को दुनिया का एक सबसे अमानवीय सामाजिक राजनीति मानते हैं।

Wednesday, 15 June 2016

कैराना के झूठ के सहारे



साक्षी महाराज या साध्वी प्राची जैसे नफरत की आग उगलने वाले लोगों की बेलगाम बातों को अब तक भाजपा उनकी व्यक्तिगत राय बता कर दिखने के लिए खुद को दूर करती रही है। हालांकि अब सब जानते हैं कि ये बेलगाम हिंसक बयान किस राजनीति का हिस्सा हैं, लेकिन अब वह परदा भी उठ रहा है।

भाजपा के सांसद हुकुम सिंह की ओर से उठाए गए मुद्दे के बाद बाकायदा भाजपा अध्यक्ष की हैसियत से अमित शाह ने कहा कि 'उत्तर प्रदेश को कैराना की घटनाओं को हलके में नहीं लेना चाहिए, यह एक सदमे में डालने वाली घटना है... कैराना से (हिंदुओं का) भगाया जाना कोई साधारण घटना नहीं है!'

वे उस दिन भी सार्वजनिक रूप से यह कह रहे थे जब हुकुम सिंह की ओर से जारी लिस्ट की कलई खुल चुकी थी और कैराना के झूठ की खबरें चारों तरफ चलने लगी थीं। हालांकि भाजपा के लिए यह कोई नया 'प्रयोग' नहीं है, लेकिन अब शायद भाजपा ने तय कर लिया है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता के लिए मैदान में उसकी भावी राजनीति क्या होगी! यानी कैराना के झूठ को बेशर्म तरीके से मुद्दा बनाने के साथ ही अब यह साफ हो गया लगता है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के भावी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर किस तरह का खेल खेलने जा रही है। हालांकि दादरी में मोहम्मद अख़लाक के मारे जाने के बावजूद अब नए सिरे से कथित फोरेंसिक जांच के बहाने कथित गोवंश के मांस का मुद्दा उठा कर वह यही करने की कोशिश में है। तो एक तरह से भाजपा ने मान लिया है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए उसके पास अब शायद 'विकास' का जुमला भी नहीं रह गया है।

दरअसल, पिछले दो-ढाई दशक के दौरान सत्ता की उसकी राजनीति के केंद्र में यही अफवाह फैलाने या किसी भी रास्ते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का फार्मूला रहा है। लेकिन केंद्र की सत्ता के लिए तात्कालिक तौर पर 'विकास' के जुमले का परदा ओढ़ा गया था। अपने इस जुमले के बारे में भाजपा खुद कितनी आश्वस्त है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनावी जीत के लिए उसे अपने इस नारे पर भरोसा नहीं रह गया है। अपने नारे के प्रति ईमानदार नहीं रहना किसी भी व्यक्ति या समूह को इसी हालत में पहुंचा दे सकता है। सो, दो साल के भीतर-भीतर देश में इस कथित विकास के जुमले की हकीकत साधारण लोगों तक पहुंचने लगी है और इसमें खुद भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने पंद्रह लाख रुपए जैसे शिगूफों को जुमला घोषित कर मदद की।

दिक्कत यह भी है कि इस ओढ़े गए परदे के अलावा भाजपा के पास अपनी राजनीति के लिए सनातनी या हिंदुत्व की राजनीति के सिवा और क्या है, जिसके सहारे वह मैदान उतरे!

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों के नाकाम हो जाने के बाद बिहार में 'विकास' के नारे की परीक्षा हो चुकी थी और लोग समझ चुके थे कि भाजपाई विकास का मतलब क्या होता है! इसलिए वहां बेहद बुरी हार के बाद भाजपा ने असम में अपने एजेंडे का खुला खेल खेला और जीत हासिल की। तो वही आदर्श लेकर अब वह उत्तर प्रदेश का मैदान आजमाने की फिराक में है।

थोड़ी राहत की बात यह जरूर है कि दो-तीन दिन के भीतर ही कुछ हलकों की ओर से कैराना के झूठ पर से परदा उठाने की कोशिश की गई और कैराना का खुला भाजपाई फर्जीवाड़ा अब सामने है। सवाल है कि कैराना से कथित तौर पर भगाए लोगों की लिस्ट में से कई लोग जब खुद कह रहे हैं कि उनके साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ, यह लिस्ट फर्जी है, मनगढ़ंत है, तब भी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की हैसियत से अमित शाह 'कैराना से हिंदुओं के निकाले जाने' पर क्यों 'चिंता' जता रहे हैं!

क्या अब भाजपा के पास चुनावी जीत के लिए यही रास्ता बच गया है? क्या भारत के इस लोकतंत्र और संविधान के उसूलों को वह ताक पर रख चुकी है? भारत में सत्ता पर काबिज जिस पार्टी के अध्यक्ष खुद झूठ के सहारे नफरत की राजनीति करने वालों को बढ़ावा दे रहे हों, प्रधानमंत्री को अपनी राजनीतिक पार्टी की इस तरह की गतिविधियों पर सख्ती से रोक लगाने की जरूरत नहीं पड़ रही हो, तो क्या यह भारत के संविधान और लोकतंत्र के तहत भारत में शासन करने की उसकी क्षमता पर सवालिया निशान है?

जिस तरह बहुत मामूली मुद्दों को भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है, उसका हासिल क्या होना है? देशभक्ति और देश की एकता के लिए मर-मिटने का आह्वान करने वाले ही शायद देश को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं!

Tuesday, 31 May 2016

नस्ल और जाति के खिलाफ नफरत के 'मामूली' औजार


फौजी रहे और फिलहाल देश के विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह की नजर में सबसे त्रासद और कई बार देश के सामने असुविधाजनक हालत खड़ी करने वाली घटनाएं भी 'मामूली' होती हैं। इसलिए जब दिल्ली में अफ्रीकी नागरिकों पर हमले के मामले पर व्यापक पैमाने पर चिंता जताई जा रही है, तो उन्होंने अपने विचार प्रकट किए कि ये हमले 'मामूली झड़प' थे और इसे महज मीडिया 'बढ़ा-चढ़ा कर' पेश कर रहा है। वीके सिंह के ये खयाल तब भी सबसे सामने हैं जब उनके ही महकमे की कैबिनेट मंत्री सुषमा स्वराज ने इस मामले की त्वरित सुनवाई के आदेश दिए हैं। ये वही वीके सिंह हैं जिन्होंने फरीदाबाद में दलित बच्चों को जिंदा जला दिए जाने की घटना पर कहा था कि 'कोई कुत्ते को पत्थर मारें, तो भी क्या सरकार जिम्मेवार है'।

सवाल है कि किसी अफ्रीकी मूल के व्यक्ति की सरेआम हत्या कर दी जाती है या उन पर बिना वजह के जानलेवा हमले किए जाते हैं, तो ऐसी घटनाएं वीके सिंह की नजर में 'मामूली' क्यों होती हैं? कहीं दो बच्चों को जिंदा जला दिया जाता है और उस घटना पर प्रतिक्रिया जाहिर करने के लिए वीके सिंह को कुत्ते का ही उदाहरण क्यों मिलता है? सामाजिक दुराग्रहों और आपराधिक कुंठाओं के साथ-साथ सीधे-सीधे व्यवस्था की नाकामी से उपजी घटनाओं के मामले में सरकार उन्हें पूरी तरह मासूम क्यों लगती है? आखिर कानून-व्यवस्था से लेकर सामाजिक विकास की कसौटी पर सरकार की जिम्मेदारी उन्हें इतनी 'मामूली' क्यों लगती है? वे फौजी रहे हैं, लेकिन अब वे विदेश राज्यमंत्री हैं। तो क्या उन्हें अपने पद की गरिमा और दायित्व का भी अहसास नहीं है?

दरअसल, वीके सिंह जो भी कहते रहे हैं, वे भारतीय आम जनमानस में घुले आग्रहों-पूर्वाग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। क्या यह छिपा हुआ है कि सड़कों पर जैसे ही अफ्रीकी मूल अश्वेत चेहरे देखते ही भारत के परंपरागत पिछड़ी मानसिकता में जीने वाले लोगों के भीतर कौन-से खयाल उमड़ने लगते हैं? अश्वेत लोगों के खिलाफ सीधे-सीधे नफरत के भाव का सिरा कहां से शुरू होता है? आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि अश्वेत समुदाय के लोगों को देखते ही भारत के ज्यादातर लोगों के मन में शायद ही कोई सकारात्मक भाव उभरता है? अश्वेत या काले रंग के लोगों के प्रति ये दुराग्रह किस तरह की सोशल कंडीशनिंग का नतीजा हैं?

कई बार खुद जनप्रतिनिधि कहे जाने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा होता है कि समाज को अपने आग्रहों के साथ और ज्यादा ठोस होने की खुराक मिलती है। दिल्ली में पहली बार जब आम आदमी पार्टी की सरकार बनी थी तब उसके एक मंत्री सोमनाथ भारती और उनके साथियों ने स्थानीय लोगों के साथ मिल कर अफ्रीकी मूल की चार महिलाओं के साथ जैसा अपमानजनक बर्ताव किया था, वह अश्वेत लोगों के प्रति सामाजिक दुराग्रहों का ऐसा ही उदाहरण था।

एक लोकतांत्रिक समाज में सरकारें तमाम ऐसे इंतजाम करती हैं जिनमें सभी नागरिकों के भीतर इंसान के प्रति बराबरी और संवेदनशीलता के भाव का विकास हो। लेकिन किन वजहों से एक मंत्री को अफ्रीकी मूल के लोगों पर किया गया 'नस्लीय हमला' कोई मामूली घटना लगती है? क्या यह सामाजिक सत्ताधारी तबकों के बीच नस्ल और जाति की सामाजिक हैसियत की वजह से अपमान और यातनाओं को एक सहज स्थिति मान लेने का प्रतिनिधि स्वर है?

यों, दुनिया भर में अश्वेत समुदायों के खिलाफ श्वेत माने जाने वाले समुदायों के बीच धारणाओं और व्यवहार का एक त्रासद इतिहास रहा है। लेकिन भारत में यह ज्यादा जटिल हो जाता है। यहां चूंकि पहले ही दलित-वंचित जातियों को उनकी सामाजिक अवस्थिति के अलावा शरीर के रंग से भी चिहि्नत किया जाता रहा है, उसमें जो लोग गौर-वर्ण नहीं हैं, उनके लिए सत्ताधारी तबकों के बीच सिर्फ हेय दृष्टि ही है। जातीय ऊंच-नीच की बुनियाद से तय होने वाले रंगों के प्रति यही आग्रह अश्वेत समुदाय तक पहुंचते-पहुंचते नस्लीय घृणा में तब्दील हो जाता है। समाज के स्तर पर इस भाव और सोच के बने रहने की अपनी वजहे हैं जहां पैदा होने के बाद से ही जाति और रंग को लेकर एक दुराग्रह का भाव पाला-पोसा जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि सरकार के स्तर पर भी फौरी प्रशासनिक कदमों के अलावा सामाजिक विकास के पैमाने पर कुछ भी ऐसा नहीं किया जाता है, जिससे साधारण लोगों के बीच इस तरह के भावों से दूरी बनाने की स्थिति बने, माइंडसेट के स्तर पर कोई बदलाव हो।

Monday, 23 May 2016

"बुद्धा इन ए ट्राफिक जाम" : सियासी परदे में किसका एजेंडा...!




'शहरी नक्सलवाद' का शिगूफ़ा..! 

देश के 'सबसे बड़े दुश्मनों' और 'सबसे बड़ी समस्याओं' से लड़ने के तरीके और उनसे पार पाने के 'रास्ते' अब वॉलीवुड के फिल्मकारों ने बताना शुरू कर दिया है! हालांकि सिनेमा के परदे पर 'उपदेश' तो पहले भी होते थे, लेकिन उन्हें 'फिल्मी' कह और मान कर माफ कर दिया जाता था! लेकिन अब फिल्में बाकायदा राजनीतिक एजेंडे के तहत दर्शकों को संबोधित करती हैं।

इस लिहाज से देखें तो 'बुद्धा इन ए ट्राफिक जाम' के निर्माता-निर्देशकों ने नक्सलवाद और सरकारी तंत्र के फंसे आदिवासियों की सभी तकलीफों या समस्याओं का हल निकाल लिया है, आदिवासियों के उद्धारकों की खोज कर ली है! यह उद्धारक है 'बिजनेस' और जाहिर है 'बिजनेसमैन' यह उद्धार करने के लिए अपने और आदिवासियों के बीच के सारे 'मिडिलमैन' यानी बिचौलिये को खत्म करना चाहता है!

परदे पर शुरुआती दो दृश्यों में पिछले डेढ़ दशक से एक हालत में अभाव की जिंदगी जीते एक निरीह, लाचार आदिवासी को सत्ता और नक्सलियों के बीच पिसने के 'मार्मिक' दृश्यों के जरिए हॉल में बैठे दर्शकों को सहानुभूति के सागर में गोते लगाने पर मजबूर किया जाता है, फिर 'लोक-स्पर्श' के गीत के जरिए बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई कराने वाले आधुनिक लड़के-लड़कियों को अपना 'सरोकार' जताते दिखाया जाता है। इस 'सरोकार' प्रदर्शन में पश्चिमी अंगरेजी मादकता है, शराब है, नशा है, एक बिंदास उन्माद है, 'नैतिक पुलिस' का हमला है... और सब पर 'सरोकार' का संगीत है..! यानी 'शहरी नक्सलवाद'..!

खैर, फिल्म आगे बढ़ती है और बताती है कि कैसे एक प्रोफेसर (अनुपम खेर) इतने बड़े बिजनेस स्कूल में घुसपैठ करके वहां के विद्यार्थियों को नक्सली बनाने की फिराक में है, एक 'भोले' स्टूडेंट (अरुणोदय) सिंह को वह इसके लिए फंसाना चाहता है, नक्सलियों के कमांडर तक कैसे प्रोफेसर की सीधी पहुंच है, घर में उसका दोहरा चेहरा है और उसकी पत्नी तक को नहीं मालूम कि वह नक्सली है! एक एनजीओ चलाने वाली या कार्यकर्ता कैसे सरकार से फंड लेकर वह पैसा नक्सलियों तक पहुंचाती हैं, वह प्रोफेसर कैसे सीधे आदिवासियों की मदद के प्रस्ताव को खारिज कर देता है। नक्सली राष्ट्रद्रोही हैं, उन्होंने जितने जवानों को मारा, उतने तो कारगिल जैसी लड़ाइयों में भी नहीं मारे गए! ये नक्सली एनजीओ वाले और बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर की तरह चेहरा बदल कर सिस्टम के हर कोने में पैठ चुके हैं और अमेरिका की चकाचौंध को ठुकरा कर भारत में बिजनेस के जरिए उद्धार करने की आकांक्षा पाले एक 'लाचार' नौजवान को कैसे इन सबसे डरना चाहिए। परदे पर परदा, विरोधाभासों के बीच..! ये 'शहरी नक्सलवादी' सबसे बड़ी चुनौती हैं!

बहरहाल, इसमें बदलाव का सपना लिए 'पिंक चड्ढी कैंपेन' चलाने वाले इस बिजनेस के दीवाने नौजवान के अलावा एक और 'लाचार' पक्ष है- सत्ता! सत्ता पूरी तरह निर्दोष है, मासूम है, वह आदिवासियों का कल्याण करने के लिए एनजीओ वालों को पैसा देती है और वे लोग वह पैसा नक्सलियों तक पहुंचा देते हैं! इसका हल सिर्फ और सिर्फ बिजनेस है, जो हर तरह के बिचौलियों को खत्म करके सीधे आदिवासियों का 'कल्याण' करेगा! वह बिचौलिया चाहे एनजीओ वाले हों या सरकार हो!

नक्सली क्यों और कैसे उगे, एनजीओ कैसे और क्यों उगे, सरकार की क्या जवाबदेही है, व्यवस्था की नाकामी के लिए कौन जिम्मेदार है, इससे सबसे फिल्मकार को कोई मतलब नहीं। उसकी निगाह में आदिवासियों का भला सिर्फ और सिर्फ इंडियन बिजनेस स्कूल, बिजनेस और बिजनेसमैन ही कर सकते हैं! आदिवासियों के लिए संवेदना का समंदर हाथ में लिए बिजनेस-सॉल्यूशन-मॉडल में समूचे देश में जमीन कब्जाने के खेल पर सोचने की कोई जरूरत नहीं, इस मॉडल में मजदूरों के सवालों के लिए कोई जगह नहीं, इससे सरकार या तंत्र की जरूरत और उसकी जिम्मेदारियों का क्या होगा, इसकी फिक्र नहीं, सरकार की जिम्मेदारियों पर सवाल खड़े करने के बजाय उसे नाकारा बना कर पेश करना मकसद, लेकिन इस समूचे मसले पर एक खास राजनीतिक धारा के नजरिए का विस्तार...! इसी लोकेशन से मां शब्द से जुड़ी वीभत्स गाली का इतनी बार इस्तेमाल है कि जुगुप्सा हो जाती है...! लगता है कि फिल्मकार का मन इसी गाली में डूबा हुआ है..!

दिखने के लिए 'भारत माता की जय' के साथ मां की सबसे 'मशहूर' और वीभत्स गाली परोसने के सिरे से लगता है कि इसमें किसी के पक्ष से नहीं खेला गया है, लेकिन इस 'औपचारिकता' के अलावा जिन-जिन राजनीतिक धाराओं और संस्थानों को कठघरे में किया गया है, सरकार और तंत्र को बख्श दिया गया है, उससे इस फिल्म की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं! नक्सली संगठनों के बारे में अलग से कुछ भी ऐसा नहीं दिखाया गया, जो प्रचारित है। लेकिन सरकार क्या करती है, आदिवासी किन वजहों से उस हालत में पहुंचे, उसमें सरकार की क्या भूमिका या जिम्मेदारियां हैं, दो पाटों के बीच से वे कैसे निकलेंगे, इस पर जानबूझ कर परदा..! जवाब होगा कि एक फिल्म क्या-क्या करेगी! ठीक है! तो फिर यही क्यों किया..!

फिल्में अगर राजनीति नहीं हैं, एक एजेंडे के तहत नहीं बनाई गई, मनोरंजन हैं तो सलमान खान या कपिल शर्मा टाइप क्यों नहीं! एक ऐसा विषय क्यों, उसके साथ खिलवाड़ क्यों, उसमें सरकार से लेकर राजनीतिक दलों तक भूमिका की अनदेखी क्यों, जिसमें एक बड़ी आबादी कीड़ों-मकोड़ों की तरह समझी जा रही है, जमीन कब्जाने का व्यापक खेल चल रहा है! मारी जा रही आबादी की तकलीफों के साथ खिलवाड़ का अधिकार-पत्र कहां से जारी हुआ है..!

...और! एक जिक्र कि 'बुद्ध के समय का एक गांव इसलिए आज भी मौलिक कलाकृतियों के जरिए अपनी संस्कृति और इतिहास बता रहा है कि आज तक वहां कोई 'बाहरी' नहीं पहुंचा', शायद इस फिल्म के नाम 'बुद्धा इन ए ट्राफिक जाम' का आधार है। लेकिन क्या यह नाम इतना भोला और मासूम है..!

Wednesday, 13 April 2016

आरएसएस-भाजपा: आंबेडकर से अनुराग का पाखंड





सन 2015 के नवंबर महीने में अपने ब्रिटेन दौरे के दौरान जब लंदन स्थित आंबेडकर हाउस का उद्घाटन नरेंद्र मोदी के हाथों के होने की खबर आई तो वहां के सबसे बड़े दलित संगठन 'कास्ट वाच यूके' के अलावा दूसरे दलित संगठनों ने भी सख्त आपत्ति जताई। 'कास्ट वाच यूके' ने अपने एक बयान में कहा कि भारतीय प्रधानमंत्री जिस तरह आंबेडकर की स्मृतियों को अपने राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, वह घिनौना है और उन दलितों को भ्रमित करने की कोशिश है जो आज भारत में अपने मानवाधिकारों के लिए जंग लड़ रहे हैं और ब्रिटेन में भी बराबरी के लिए अपनी मांग को सशक्त तरीके से दर्ज कर रहे हैं।

यह बयान अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि अभी भी बाबा साहेब आंबेडकर के दर्शन से खौफ खाने वाली और वास्तव में उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाली आरएसएस-भाजपा के लिए आज आंबेडकर क्यों प्रिय होते दिख रहे हैं। यहां 'दिख रहे हैं' का इस्तेमाल जानबूझ कर किया गया है, क्योंकि 'दिखने' और 'होने' में कई बार बड़ा फासला होता है। ब्रिटेन में आंबेडकर हाउस का उद्घाटन करने से पहले महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद वहां आंबेडकर स्मृति स्थल निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। लेकिन भाजपा को कुछ समय पहले ही यह अंदाजा हो गया था कि आने वाले दौर की सामाजिक राजनीति की दिशा कैसे तय होगी। इसलिए लोकसभा चुनावों के पहले से ही खालिस ब्राह्मणवादी राजनीति करने की अभ्यस्त आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों की जमीनी गतिविधियों में आंबेडकर, ज्योतिबा फुले आदि दलित प्रतीक शख्सियतों की तस्वीरें आ गई थीं। खासतौर पर आंबेडकर का नाम भाजपा ने ऐसे ढोना शुरू किया गोया कि वह अपने गोलवलकर के दर्शन से हार गई हो।

लेकिन सच यह नहीं था। पिछले दो-तीन दशकों के दौरान हुई राजनीतिक उठा-पटक ने एक तरह से अगले कुछ दशकों की राजनीति की दिशा कर दी है। यों चेतना और जागरूकता की दिशा तो जाति से मुक्त व्यवस्था की ओर होनी चाहिए, लेकिन फिलहाल जितना भी हुआ है, उसमें ऐतिहासिक तौर पर नाइंसाफी के शिकार सामाजिक तबकों ने अपने लिए न्याय की मांग करनी शुरू कर दी और इसे अपने हक की तरह देखा। यही आवाज आज दलित-वंचित तबके की ओर से लगातार उठते हुए राजनीति और समाज-व्यवस्था के सामने एक जबर्दस्त दखल बन चुकी है। अब चाह कर भी कोई राजनीतिक दल या समूह ऐतिहासिक रूप से सामाजिक वर्चस्व बनाए रखने वाले समूहों-जातियों की खुली पैरोकारी नहीं कर सकता है।

यही वजह है कि दलित-वंचित जातियों के लगातार बढ़ते एसर्शन और इस वर्ग की राजनीतिक उपयोगिता को देखते हुए इसे 'कोऑप्ट' करने या खुद में समा लेने की जो होड़ चली, उसमें आरएसएस और भाजपा ने प्रतीकों का सबसे ज्यादा और निर्लज्जता से इस्तेमाल किया है। आंबेडकर को अपने एक आदर्श-पुरुष के रूप में प्रचारित करने के पीछे मकसद सिर्फ दलित-वंचित तबकों को अपने मत-समूह के रूप में आकर्षित करना है। दरअसल, पिछले तीन-चार दशकों के दौरान इन वर्गों के बीच कई वजहों से हुए सामाजिक सशक्तीकरण ने इनकी चेतना को भी सशक्त किया है और अब वे अपने लिए कोई मेहरबानी नहीं, अधिकार मांग रहे हैं।

भारत का समाज यों भी प्रतीकों में जीने वाला, प्रतीकों से ताकत हासिल करने वाला समाज रहा है। अब चूंकि ये प्रतीक राजनीतिक अर्थों में अपनी अहमियत स्थापित करने और सत्ता में भागीदारी के लिए अहम औजार या संघर्ष के हथियार के तौर पर उपयोग हो रहे हैं, इसलिए आरएसएस-भाजपा ने भी इन प्रतीकों को अपनी राजनीति में शामिल कर लिया है। वरना आंबेडकर के रूप में जिस प्रतीक को वह आज अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करना चाह रही है या कर रही है, वही आंबेडकर आरएसएस की राजनीति के प्रस्थान-बिंदु के सबसे खिलाफ हैं। बल्कि कायदे से कहें तो आंबेडकर अपने विचार और अपने समग्र प्रतीक के रूप में जिस समाज और व्यवस्था की पैरोकारी करते हैं, उसके लिए आंदोलन करते हैं, वह आरएसएस के सपनों के समाज के बरक्स है, खिलाफ है, बराबरी और सम्मान पर आधारित एक नई दुनिया की योजना है।

हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि आंबेडकर ने जब ब्राह्मण-धर्म से पूरी तरह मुक्ति की बात की, तब आरएसएस के दिल पर क्या गुजरी होगी! लेकिन जिस आरएसएस के लिए ब्राह्मण-धर्म का पुनरोत्थान और उसकी स्थापना आज भी मूल मकसद है, उसके राजनीतिक मोर्चे पर आंबेडकर को खड़ा किया गया है। क्या यह समझना इतना मुश्किल है कि हिंदू कहे जाने वाले ब्राह्मण-धर्म के तहत जीने-मरने वाले समाज के जिस हिस्से यानी दलित-पिछड़ी जातियों पर उसे फिर से कब्जा चाहिए तो उसके लिए आंबेडकर से बेहतर 'राजनीतिक हथियार' और कुछ नहीं हो सकता? मगर दिलचस्प यह है कि आंबेडकर का झंडा आगे करने के बावजूद आरएसएस ने अब तक शायद यह कहीं और कभी नहीं कहा कि हम हिंदुत्व के ढांचे से ब्राह्मणों का वर्चस्व खत्म करेंगे, फिर जाति-व्यवस्था का जड़-मूल से नाश करेंगे। और अगर जाति-व्यवस्था को बनाए रखते हुए या इसे मजबूत करते हुए आरएसएस-भाजपा आंबेडकर को अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर दलित-पिछड़ी जातियों को अपनी ओर लुभाने की कोशिश कर रही है तो वह एक बार फिर किस सामाजिक व्यवस्था की दीवारों और जंजीरों को मजबूत करने की फिराक में है?

यों राजनीतिक और स्वाभाविक रूप से आंबेडकर के प्रतीक और विचार से आरएसएस-भाजपा की सीधे-सीधे दुश्मनी बनी रहनी चाहिए। मुख्य वजह है आंबेडकर के स्थायी विचार। हिंदुत्व के बारे में अपने वक्तव्य 'जाति का उन्मूलन' में आंबेडकर कहते हैं- "हमें यह मानना होगा कि हिंदू समाज एक मिथक है। 'हिंदू' नाम ही विदेशी है। मुसलमानों ने यहां के निवासियों से अपनी अलग पहचान बनाने की गरज से इन्हें हिंदू नाम दिया। ...उन्होंने कभी एक सामान्य नाम की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि अपने को एक समुदाय के रूप में बांधने की अवधारणा उनके पास थी ही नहीं। इस प्रकार से हिंदू समाज का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो जातियों का समूह मात्र है। हरेक जाति अपने अस्तित्व के प्रति सचेत है। इनका अस्तित्व जाति-व्यवस्था के जारी रहने का कुल परिणाम है। जातियां एक संघ भी नहीं बनातीं। कोई जाति दूसरी जातियों से जुड़ने की भी भावना नहीं रखती, सिर्फ हिंदू-मुसलिम दंगे के समय ये आपस में जुड़ती हैं। ...हरेक जाति केवल आपस में विवाह करती है। ...वास्तव में एक आदर्श हिंदू, बिल में रहने वाले उस चूहे की तरह है, जो अन्य लोगों (चूहों) के संपर्क में नहीं आना चाहता।

...हिंदुओं में सामूहिक चेतना की भारी कमी पाई जाती है। ...प्रत्येक हिंदू में जो चेतना होती है, वह अपनी जाति के लिए है। इसी कारण से यह नहीं कहा जा सकता कि ये एक समाज या राष्ट्र बनाते हैं। फिर भी ऐसे काफी भारतीय हैं जिनकी देशभक्ति उन्हें यह मानने की स्वीकृति नहीं देती कि भारत एक राष्ट्र नहीं है, बल्कि यह केवल असंगठित लोगों की भीड़ है।"


यानी बाबा साहेब आंबेडकर ने हिंदुत्व के नाम पर ब्राह्मणवाद के जिस ढांचे पर इतना तीखा सवाल उठाया और उसे ध्वस्त करने का आह्वान किया, उसी को बनाए रखने की राजनीति करने वाले समूह आज बाबा साहेब आंबेडकर को अपना राजनीतिक हथियार बना रहे हैं। जाहिर है, इसके पीछे एक गहरी साजिश है।

सिर्फ राजनीतिक तौर पर, बल्कि आंबेडकर-पथ पर चलने वालों के समूचे समुदाय में घुस कर पहले उसे अपने असर में लेना, फिर धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म का गुलाम बने रहने पर मजबूर कर देना। बौद्ध धर्म से लेकर तमाम ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि ब्राह्मणवाद के बरक्स जैसे ही कोई ऐसा ध्रुव खड़ा होता हो जो इसकी समूची व्यवस्था को खत्म करने की ताकत रखता हो, एक नई व्यवस्था और समाज रच देने की क्षमता रखता हो, और ब्राह्मणवाद उससे सीधे निपट सकने की क्षमता नहीं रखता तो वह उसमें चुपके से सुनियोजित तरीके से घुसना शुरू कर देता है। उसके बाद किसी भी मत या विचारधारा का क्या हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह बेवजह नहीं है कि सबसे प्रगतिशील विचारधारा तक पर ब्राह्मणवाद बरतने के आरोप लगाने में मुश्किल नहीं होती।

लेकिन एक लंबे दौर में हुआ यह है कि ब्राह्मणवाद के बरक्स खड़े संघर्षों के बीच में उसकी इस चाल की एक राजनीतिक प्रवृत्ति के तौर पर पहचान कर ली गई और इसी असलियत का परदाफाश होना ब्राह्मणवाद के लिए परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। आज उसे अपने असली एजेंडे को जमीन पर उतारना इसीलिए थोड़ा मुश्किल होगा कि 'हिंदुत्व' नाम के एक बड़े पहचान के बरक्स इसके ढांचे में छोटी पहचानें भी संघर्ष के लिए खड़ी हुईं और अपनी सामाजिक अवस्थिति के कारकों को सामने रख कर सवालों का जवाब मांगने लगीं। और चूंकि दलित-वंचित तबकों के लिए कभी समझौता नहीं करने और ब्राह्मणवाद की परतों को उघाड़ कर सम्मान, गरिमा और स्वाभिमान के समाज का सपना देने वाले आंबेडकर का मॉडल अब सामने है, इसलिए आरएसएस-भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी। आज अगर आरएसएस-भाजपा आंबेडकर को अपने माथे पर उठाए दिखने की कोशिश कर रही है तो उसकी मजबूरी यही है। अगर हिंदू कहे जाने वाले समाज में सबसे निचले तबके के तौर पर शुमार दलित-पिछड़े तबके किसी तरह ब्राह्मणवाद के ढांचे से छिटकने लगे तो आरएसएस के सपनों के समाज पर संकट आएगा।

लेकिन इस हकीकत के बावजूद आरएसएस कभी-कभी अपने भीतर के सच को पूरी तरह ढक नहीं पाता। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जिस तरह सामाजिक यानी जाति के आधार पर मौजूदा आरक्षण-व्यवस्था पर पुनर्विचार करने का खयाल जाहिर किया, वह उसी मूल का सबूत है। हालांकि इस आरक्षण को खत्म करने का विचार आरएसएस का नया नहीं है, लेकिन भागवत के बयान के बहाने इस पर पर्याप्त बहस हुई और एक तरह से आरएसएस और भाजपा दोनों ही इस मसले पर फंसे हुए दिखे। जाहिर है, आंबेडकर के प्रतीक को अपनी राजनीति बनाना और आरक्षण का विरोध, दोनों एक साथ नहीं चल सकते। लेकिन फिर भी क्या वजह है कि आरएसएस-भाजपा आज आंबेडकर से प्रेम दर्शाने और उसे स्वीकार किए जाने का गुहार लगा रही है?

जबकि आरएसएस-भाजपा इस बात से अनभिज्ञ नहीं होगी कि हिंदू धर्म के बारे में आंबेडकर ने कितना कुछ कहा है। मसलन, अपनी पुस्तक 'दलित वर्ग को धर्मांतरण की आवश्यकता क्यों है' में उन्होंने हिंदू धर्म को लेकर काफी सख्त बातें की थीं- "यदि आपको इंसानियत से मुहब्बत है तो धर्मांतरण करो। हिंदू धर्म का त्याग करो। तमाम दलित अछूतों की सदियों से गुलाम रखे गए वर्ग की मुक्ति के लिए एकता, संगठन, करना हो तो धर्मांतरण करो। समता प्राप्त करनी है तो धर्मांतरण करो। आजादी प्राप्त करनी है तो धर्मांतरण करो। अपने जीवन की सफलता चाहते हो तो धर्मांतरण करो। मानवी सुख चाहते हो तो धर्मांतरण करो। ...हिन्दू धर्म को त्यागने में ही तमाम दलित, पददलित, अछूत, शोषित पीड़ित वर्ग का वास्तविक हित है, यह मेरा स्पष्ट मत बन चुका है।"

इसके अलावा, 'जाति के उन्मूलन' में वे आरएसएस के हिंदुत्व के बारे में साफ कहते हैं कि "...हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदेशों और प्रतिबंधों की भीड़ है। ...अगर आपको हिंदू समाज में जाति-प्रथा के खिलाफ लड़ना है तो आपको तर्क न मानने वाले और नैतिकता को नकारने वाले वेदों और शास्त्रों को बारूद से उड़ा देना होगा। श्रुति और स्मृति के धर्म को खत्म करना होगा। इसके अलावा, कुछ और करना लाभदायक नहीं होगा। इस मामले में मेरा मत यही है।" (जाति का उन्मूलन से।)

तो जो आंबेडकर हिंदुत्व और स्पष्ट कहें तो ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक ठोस योजना देते हैं, वेदों और शात्रों को बारूद से उड़ा देने की बात करते हैं, वे आंबेडकर हिंदुत्व और सच कहें तो ब्राह्मणवाद की राजनीति करने वालों के लिए अचानक कैसे प्रिय हो गए? बात फिर वहीं घूम कर आती है कि आरएसएस को बहुत अच्छे से मालूम है कि पिछले सौ सालों के दौरान जो सामाजिक आलोड़न हुए हैं, उसमें ब्राह्मणवाद की कुर्सी के पाए थोड़े हिले हैं, दलित-वंचित तबके ने सामाजिक साजिशों की पहचान की है।

बहरहाल, इन सब सच्चाइयों के बरक्स चौदह अप्रैल, 2015 यानी आंबेडकर के जन्मदिवस के मौके पर भाजपा-आरएसएस ने आंबेडकर को राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के तौर पर पेश करना चाहा। लेकिन यह वही भाजपा-आरएसएस है, जिसके सदस्य रहते हुए अरुण शौरी ने कुछ साल पहले अपनी किताब 'वर्शिपिंग फॉल्स गॉड' में आंबेडकर के खिलाफ अधिकतम जहर फैला दिया था... बेलगाम भाषा में आंबेडकर की शख्सियत को ध्वस्त करने में लगे थे और भाजपा-आरएसएस बल्लियों उछल कर उस किताब को आंबेडकर के खिलाफ हथियार बना रही थी। सवाल है कि उसकी नजर में आंबेडकर आज राष्ट्रवाद के प्रणेता कैसे हो गए! 
आंबेडकर के 'राष्ट्रवाद' का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि आंबेडकर ने राष्ट्रवाद की हकीकत यह बयान की कि "मजदूरों के सबसे गंभीर विरोधी निश्चित ही राष्ट्रवादी हैं। ...मजदूरों को चाहिए कि वे राजनीति के रूपांतरण और पुनर्निर्माण के जरिए लोगों के जीवन में लगातार नई जान फूंकने पर जोर दें। अगर जीवन के इस पुनर्निर्माण और पुनर्गठन के रास्ते में राष्ट्रवाद बाधा बन कर खड़ा होता है तब मजदूरों को चाहिए कि वह राष्ट्रवाद को खारिज कर दे...!"

जाहिर है, आंबेडकर दरअसल, आरएसएस-भाजपा के समूचे सियासी एजेंडे के खिलाफ खड़े होते हैं। लेकिन अब यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि जब एक विचार और व्यवस्था के रूप में आंबेडकर के दबाव को हिंदुत्व की राजनीति अपने तमाम धतकरमों के बावजूद रोक सकने में सक्षम नहीं हुई तो अब वह आंबेडकर को ही अपना मोहरा बनाने की फिराक में है। यह न सिर्फ आंबेडकर के खिलाफ एक साजिश है, बल्कि हाशिये के या वंचित वर्गों के जितने भी लोगों या समाजों ने आंबेडकर से चेतना और ताकत हासिल की और अब भाजपा-आरएसएस की ब्राह्मणवादी राजनीति की झांसे में नहीं आ रहे हैं, उनके सामने यह एक नया भ्रम परोसने का खेल है।