अरविंद शेष
'दुरुपयोग' की दुहाई से इंसाफ की आवाज पर हमला
पिछले कुछ सालों के दौरान कभी दबे-छिपे तरीके से तो कभी खुल कर स्त्रियों और दलितों, दो सामाजिक वर्गों के अधिकारों के संरक्षण के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग की दुहाई दी गई और इन कानूनों को खत्म करने तक की मांग की गई। कहा गया कि बलात्कार के खिलाफ बने कानूनों का महिलाएं बड़े पैमाने पर दुरुपयोग करती हैं और इस वजह से बहुत सारे 'बेचारे' निर्दोष मर्द मारे जाते हैं। इसी तरह, दलित-वंचित जातियों-तबकों के हक में बने अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून का अनुसूचित जातियों के लोग काफी दुरुपयोग करते हैं और बहुत सारे भोले-भोले सवर्ण जातियों के लोगों को फंसाते हैं।
इन दोनों आरोपों की सच्चाई का अंदाजा न सिर्फ जमीनी वस्तुस्थिति पर नजर डालने से होगा, बल्कि आधिकारिक आंकड़े तक इस 'पॉपुलर' धारणा के खिलाफ जाते हैं। इसके बावजूद ये दोनों तरह की बातें जोर देकर कही और फैलाई जाती हैं। काफी जद्दोजहद और कई 'विशाल आंदोलनों' के बाद एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून के खिलाफ माहौल बनाया गया था। एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून को तो एक अदालती फैसले के जरिए कुंद भी किया जा चुका था, लेकिन इसके खिलाफ उभरे व्यापक आंदोलन के बाद सरकार को फिर से इस पर विचार करना पड़ा। अभी भी कुछ सामाजिक वर्गों की इस कानून को खत्म करने की मांग होती रहती हैं और जिस तरह की राजनीतिक ताकतें सत्ता में हैं, उनके रहते इस कानून के संरक्षण का भरोसा कमजोर रहेगा।
'राष्ट्रीय पुरुष आयोग' की ओर बढ़ते कदम
इसी तरह, बलात्कार के खिलाफ बने कानूनों के दुरुपयोग को लेकर भी समाज का एक बड़ा हिस्सा बेहद संवेदनशील है। हालत यह है कि पचास-साठ लोगों ने एक संगठन बना कर 'बेचारे... मासूम... बेकसूर' पुरुषों को दहेज के अलावा बलात्कार के आरोप में कठघरे में खड़ा करने से बचाने और उन्हें संरक्षण देने के लिए अब बाकायदा एक 'राष्ट्रीय पुरुष आयोग' बनाने की मांग भी की है। यह संगठन समाज में पुरुषों के बीच फैली उस कुंठा को नुमाइंदगी देता है कि महिलाएं बलात्कार से संबंधित कानूनों का दुरुपयोग करके 'अच्छे-भले' पुरुषों को फंसाती हैं। इसके लिए सड़क पर अभियान तो चल ही रहा है, लेकिन इस मसले पर पहले समाज, फिर सरकार को प्रभावित करने के मकसद से लोकप्रिय फिल्मों के जरिए भी दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है। फिल्म 'सेक्शन 375' इसी अभियान की एक कड़ी है।
यह फिल्म शुरुआती तौर पर स्त्री के पक्ष में बनी दिखती है, लेकिन अंतिम तौर पर स्त्री के खिलाफ जाती है, यह स्थापित करके कि एक जरूरतमंद हो या महत्त्वाकांक्षी लड़की, अपनी सुविधा और स्वार्थ की वजह से अपने शरीर का इस्तेमाल करती है और फिर उसे बलात्कार के रूप में दिखा कर किसी 'अच्छे-भले' पुरुष को बर्बाद कर डालती है। एक साधारण परिवार से आने वाली अंजलि दांगले एक फिल्म डायरेक्टर रोहन खुराना के साथ कास्ट्यूम डिजाइनर के तौर पर काम करती है, उसे एकतरफा पसंद करने लगती है, रोहन खुराना उसे खुद को सौंपने की शर्त पर काम पर बनाए रखता है, इस बीच अंजलि उस पर हक जताने लगती है, तब रोहन खुराना उसे निकाल बाहर करता है। फिर अंजलि बदला लेने के लिए साजिश रचती है, रोहन खुराना से यौन संबंध बनाती है और उसे अपने साथ बलात्कार का दृश्य रच कर रोहन खुराना को दस साल की सजा दिलवा देती है।
पूरी कहानी बस यही है। इसमें फिल्मकार की मूल स्थापना यह है कि स्त्रियों के हक में बहुत जरूरी कानून बनाए गए हैं, लेकिन स्त्रियां अपने लिए फायदा उठाने के लिए इसका दुरुपयोग भी करती हैं। पहले तो सहमति से यौन-संबंध बनाती हैं और फिर उसे बलात्कार की शक्ल में पेश करके भोले-भाले मर्दों की जिंदगी बर्बाद करती हैं। यह समझना मुश्किल है कि इक्का-दुक्का और यहां तक कि कई बार किसी काल्पनिक घटना को आधार बना कर एक ऐसे जघन्य अपराध का सरलीकरण कैसे किया जा सकता है, जो आज भारत जैसे देश में न जाने कितनी स्त्रियों की जिंदगी का एक त्रासद अध्याय बना हुआ है। फिल्म की कहानी, स्क्रिप्ट लिखने वालों और निर्देशक को पता नहीं इस बात का अंदाजा है या नहीं कि इस देश में न जाने बलात्कार के कितने मामले मजबूरी, लोकलाज, धौंस, कानूनी प्रक्रिया की जटिलता जैसी कई वजहों से दफ्न हो जाते हैं, कितनी लड़कियां बलात्कार के बाद किसी से कुछ नहीं कहतीं, बस खुदकुशी कर लेती हैं।
आम के बजाय अपवाद का चुनाव
अगर फिल्में दावा करती हैं कि उसमें वही दिखाया जाता है जो समाज में घटता है, तो किसी फिल्म को अपवादों का प्रतिनिधित्व करना चाहिए या फिर आम घटनाओं का? 'सेक्शन 375' बलात्कार के खिलाफ कानूनों के दुरुपयोग के किसी मामले को उठा कर उसे प्रतिनिधि मामले के रूप में पेश करती है और पहले से ही पितृसत्ता की सड़ांध में मरते ज्यादातर आम दर्शकों के मन में बसे स्त्रियों के खिलाफ मानस को और खाद-पानी देती है। इसके बरक्स रोजाना कितनी महिलाओं का बलात्कार होता है और कितने आरोपियों को सजा मिल पाती है, यह कोई छिपा तथ्य नहीं है।
इस फिल्म की इस कदर बारीक बुनाई की गई है कि अगर एक पारंपरिक मानस वाला व्यक्ति बलात्कार की शिकार लड़की की हालत देख कर अपने विचार के स्तर पर उदार होना भी चाहता है तो उसके सामने कानून के महारथी की शक्ल में एक मशहूर वकील के मुंह से 'तर्कों का पहाड़' खड़ा कर दिया जाता है और आखिरकार वह फिर से अपने मर्दाना दड़बे में घुस जाता है। फिल्म के आखिर में जिस तरह पीड़ित लड़की मुकदमा जीतने यानी अपने 'मर्द दुश्मन' को सजा दिलाने के बाद खुद कबूल कर लेती है कि 'रोहन खुराना ने बलात्कार नहीं किया था, लेकिन जो किया था, वह बलात्कार से कम नहीं था' तो एक आम दर्शक के दिमाग में सिर्फ यही बैठता है कि 'रोहन खुराना ने बलात्कार नहीं किया था', जिसे फिल्म में 'वास्तविक घटना' के रूप में परोसा गया है। फिल्म में 'बलात्कार के सिर्फ पच्चीस प्रतिशत आरोपों में सजा हो पाती है' की व्याख्या इस रूप में की जाती है कि 'अदालत की सख्त कानूनी प्रक्रिया का सामना करने के बावजूद पचहत्तर प्रतिशत आरोपी निर्दोष साबित होते हैं।'
इंसाफ की लड़ाई का उलटता चक्र
इस फिल्म की हालत यह है कि पीड़ित अंजलि दांगले की ओर से पेश होने वाली सरकारी वकील हीरल गांधी अपने सीनियर तरुण सलूजा की टीम को छोड़ने की वजह उसका मर्दवादी बर्ताव बताती है और अंत में उसके सामने ही दयनीय भाव से जाकर कहती है कि 'जस्टिस इस नॉट डन सर'! इस तरह यह फिल्म एक मर्दवादी या पितृसत्तात्मक समाज में उसी प्रचलित धारणा की पुष्टि करता है कि महिलाएं अपने स्वार्थ के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल करती हैं और फिर बाद में बेचारे पुरुषों पर बलात्कार का आरोप लगा देती हैं। जब कुछ नेता ठीक इसी आशय के बयान देते हैं तो उस पर तूफान खड़ा हो जाता है, लेकिन एक पूरी फिल्म यही स्थापित करती है तो उसे महज फिल्म की तरह देखने की अपेक्षा की जाएगी।
जिस तरह राजनीति की दुनिया में पिछले करीब तीन दशकों में सामाजिक न्याय के पक्ष में हुए बदलावों को तंत्र और व्यापक संसाधनों से लैस आक्रामक राजनीति के सहारे उल्टी दिशा की ओर मोड़ दिया गया है, समाज में दलित-वंचित तबकों के हक में इंसाफ के सवालों को दफ्न करने के इंतजाम किए जा रहे हैं और ब्राह्मणवाद का मानो पुनरोत्थान हो रहा है, उसी तरह किसी तरह अपने बूते खड़ी हो रही, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ती, अपने भरोसे जीती और पितृसत्तात्मक और मर्दवादी दुनिया में अपने लिए जगह बनाती स्त्री भी चारों तरफ से घेरी जा रही है। घर की दहलीज से बाहर निकलने वाली स्त्री इस सामाजिक व्यवस्था के लिए चुनौती है और उसे रसोई की शोभा बनाना परंपरा और संस्कृति बचाना है। इस मकसद से एक ओर सड़कों-गलियों में लड़कियों-महिलाओं के सिर पर कलश रखवा कर यात्रा निकाली जानी है, जागरण से लेकर कुंभ तक की शोभा बनाई जानी है, महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बढ़ोतरी होनी है और दूसरी ओर सिनेमा जैसे पॉपुलर हथियार के जरिए आम जनमानस में स्त्रियों के खिलाफ व्यूह रचना करनी है।
दरअसल, एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून और दहेज या बलात्कार से संबंधित कानूनों के दुरुपयोग का शिगूफ़ा एक औसत दिमाग वाले व्यक्ति को प्रभावित करता है और उसके जरिए फिर जनमत-निर्माण की प्रक्रिया चलती है। वंचित वर्गों के रूप में बहुत लंबी लड़ाई के बाद दलितों और स्त्री के पक्ष में जो भी कानूनी अधिकार सुनिश्चित हो सके हैं। उसका उसे क्या फायदा मिलता है, यह सभी जानते हैं, लेकिन महज चंद घटनाओं के आधार पर स्त्री के हक में बने कानूनों को कठघरे में खड़ा करना बताता है कि प्रतिगामी राजनीति के दौर में संसाधनों के मालिकों ने भी शायद वही रास्ता चुन लिया है। इसलिए सत्ताधारी जातियों-तबकों की ओर से कहीं एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून से लेकर भागीदारी को सुनिश्चित करने वाली आरक्षण की व्यवस्था को खत्म या कमजोर करने के खेल चल रहे हैं तो कहीं स्त्रियों को पारंपरिक सांस्कृतिक परिभाषा में समेटने या बांधने की कोशिश चल रही है।