Thursday 18 January, 2018

'पद्मावत': अराजकता और वर्चस्व की राजनीति


जैसी कि उम्मीद थी, सुप्रीम कोर्ट ने 'पद्मावत' (पहले 'पद्मावती') फिल्म को देश भर में दिखाए जाने के पक्ष में फैसला सुना दिया। अब इस फिल्म का प्रदर्शन इस बात पर निर्भर है कि राज्य सरकारें सुरक्षा व्यवस्था के मोर्चे पर क्या करती हैं और सुप्रीम कोर्ट के फैसके के बावजूद मारकाट मचाने की धमकी देने वाली 'करणी सेना' या दूसरे उन्मादी तत्त्वों से कैसे निपटती है। खबरों के मुताबिक राजपूत करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने मुजफ्फरपुर में एक सिनेमा हॉल के सामने हिंसक प्रदर्शन किया है। देश के अलग-अलग हिस्सों से इस मसले पर फिल्म बनाने वालों और उसके कलाकारों को मार डालने, दफ्न कर देने की धमकियां दी जा रही हैं। यहां तक कहा जा रहा है कि अगर 'पद्मावत' पर पाबंदी नहीं लगाई गई तो चित्तौड़गढ़ में सैकड़ों महिलाएं 'जौहर' करेंगी।

कुछ सालों के दौरान कई ऐसी फिल्में आईं, जिन पर अलग-अलग सामाजिक समूहों ने 'भावनाएं आहत होने' का आरोप लगाया और पाबंदी की मांग की। लेकिन अदालतों में इस तरह की आपत्तियां कानून और तर्क की कसौटी पर नहीं टिकीं और आखिर सिनेमा हॉलों में दिखाई गईं। हां, इस बहाने संबंधित फिल्म को ज्यादा प्रचार मिल गया यह बहस का एक अलग सवाल है। लेकिन इस तरह के विरोध से कला और अभिव्यक्ति की आजादी के अलावा सामाजिक सोच के विकास के सामने जो चुनौती खड़ी होती है, वह किसी भी देशकाल के लिए प्रतिगामी ही है।

भाजपा शासित कई राज्यों की सरकारों ने अपनी ओर से उन राज्यों में 'पद्मावत' के प्रदर्शन पर पाबंदी लगाए जाने की घोषणा की थी। लेकिन यह अपने आप में हैरानी की बात है कि जिस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने प्रदर्शन के लिए प्रमाण पत्र दे दिया था, उसे दिखाए जाने पर इन सरकारों को क्या आपत्ति थी! क्या करणी सेना जैसा कोई संगठन इस कदर ताकतवर है कि उसके गैरकानूनी फरमान इस देश में संविधान और कानून के राज का शपथ लेकर राज करने वाली सरकारों पर हावी हैं? सवाल है कि संविधान और कानून का राज ये चुनी गई सरकारें कायम करेंगी या करणी सेना को अपने मध्ययुगीन विचारों को कानून की शक्ल में लागू करने की छूट दी जाएगी? अगर यह सिरा आगे बढ़ता है तो देश में अलग-अलग जातियों के समूहों के संगठनों को किस स्तर तक उनकी मर्जी और मनमानी व्याख्या के हिसाब से देश चलने दिया जाएगा?

मिथक बनाम इतिहास

किसी मिथक को इतिहास समझ लेने या उसे इतिहास के रूप में परोसने के खतरे इसी तरह के होते हैं। 'पद्मावती' को जायसी की रचना के मुताबिक एक काल्पनिक पात्र के रूप में देखा जाता रहा है। लेकिन करणी सेना का जोर उसे इतिहास मानने पर है। और चूंकि पद्मावती की जातिगत पृष्ठभूमि राजपूत मानी गई है, इसलिए उसके किसी मुसलिम शासक से प्रेम करने का संदर्भ भी बर्दाश्त करना संभव नहीं है। मगर जिस देश के मध्यकालीन इतिहास में ऐसे तमाम प्रसंग हैं, जिनमें किसी हिंदू शासक ने मुसलिम शासकों के साथ राजनीतिक और पारिवारिक संबंध भी कायम किए, उसमें कई मौकों पर शादियां भी हुईं, उसके समांतर जायसी की रचना में दर्ज काल्पनिक पात्र 'पद्मावती' के अल्लाउद्दीन खिलजी से प्रेम के संदर्भ को पचा पाना करणी सेना के लिए क्यों मुमकिन नहीं हो रहा है।

पृष्ठभूमि

दो-तीन दशकों के सांप्रदायिक राजनीति का सिरा यहीं पहुंचना था। भारत में सांप्रदायिक राजनीति दमित-वंचित जातियों के अधिकारों को दबाने का हथियार रही है। करणी सेना के रवैये से केवल यह नहीं हो रहा है कि कोई खास जाति किसी फिल्म की कहानी से खुद के अपमानित होने का भाव प्रदर्शित कर रही है, बल्कि उसके जरिए हिंदू ढांचे में मौजूद बाकी जातियों के बीच भी मुस्लिम विरोध की भावना का दोहन करने की यह सुनियोजित कोशिश है। जायसी की रचना में किसी काल्पनिक हिंदू और राजपूत स्त्री के पात्र का किसी मुसलिम शासक से प्रेम पर करणी सेना को आपत्ति है, लेकिन अतीत में समाज के कमजोर तबकों के प्रति राजपूत जाति के व्यवहार का यथार्थ क्या रहा है, उस पर सोचना उसे जरूरी नहीं लगेगा। तो क्या अतीत के उन्हीं ऐतिहासिक संदर्भों पर पर्दा डालने के लिए किसी फिल्म के विरोध के बहाने अपने सामाजिक वर्चस्व को आज भी कायम रखने की कोशिश की जा रही है?

पहले जब संजय लीला भंसाली की ही फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' आई थी, तब कुछ दलित-वंचित जातियों के उन सवालों पर गौर करने की जरूरत किसी को नहीं लगी थी जो उन्होंने पेशवाई शासन के इतिहास के बारे में उठाए थे। कई हलकों से यह कहा गया कि बाजीराव पेशवा- दो के कार्यकाल में 'अछूत' समूह में मानी जानी जाने वाली जातियों के खिलाफ जो नियम बनाए गए, वे व्यवस्थागत जातिगत अत्याचार का मॉडल थे। लेकिन एक अंतरधार्मिक प्रेम कहानी के बहाने पेशवाई शासन के उन तमाम प्रसंगों पर पर्दा डालने की कोशिश की गई, जिनके उल्लेख से किसी सभ्य समाज को शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती है।

समाजिक समूह बनाम कानून

समय-समय पर कई फिल्मों को लेकर ऐसे विवाद उठते रहे हैं। सामाजिक स्तर पर अलग-अलग समूहों ने अपनी आक्रामक आपत्तियों के साथ किसी फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग की। लेकिन अब तक कानूनी स्तर पर वे लड़ाइयां कमजोर साबित होती रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 'पद्मावत' को दिखाए जाने की इजाजत देते हुए कहा कि जब 'बैंडिट क्वीन' दिखाई जा सकती है, तो 'पद्मावत' क्यों नहीं! हालांकि 'बैंडिट क्वीन' और 'पद्मावत' की तुलना का क्या संदर्भ हो सकता है, यह समझना मुश्किल है, लेकिन किसी सामाजिक समूह की आपत्तियों के आधार पर किसी फिल्म पर पाबंदी लगाए जाने के विचार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कई फैसले दिए हैं।

किसी लोकतांत्रिक समाज में किसी फिल्म के प्रति लोग क्या राय बनाते हैं, यह उनके विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। यह संविधान में दर्ज अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के तहत भी आता है। करीब तीन दशक पहले 'ओरे ओरु ग्रामाथिले' फिल्म को लेकर आपत्तियां उठाई गईं और उस पर पाबंदी लगाने की मांग की गई थी, तब इस मसले पर 1989 में अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा था कि महज हिंसा और विरोध प्रदर्शनों की धमकी के आधार पर अभिव्यक्ति की आजादी को नहीं दबाया जा सकता। इस लिहाज से देखें तो अगर राज्य सरकारें किसी स्थिति में 'पद्मावत' के प्रदर्शन को रोकने में सहायक की भूमिका निबाहती हैं तो वह करणी सेना की धमकियों के सामने समर्पण होगा और निश्चित रूप से कानून के शासन को धता बताने जैसा होगा।

राजपूत करणी सेना के लड़ाकों को यह समझने की जरूरत है कि वे जाति के कथित गौरव के बखान और महिमामंडन की बुनियाद पर इस फिल्म का विरोध तो कर रहे हैं, लेकिन खुद को देशभक्त कहते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खयाल रखने के साथ-साथ संविधान और कानून का पालन करने जैसी उनकी कुछ राष्ट्रीय जिम्मेदारियां भी हैं। जातिगत परंपरा से जुड़ी आस्थाओं या भावनाओं के सामने उनकी नजर में अगर देश का संविधान और कानून कोई मायने नहीं रखते, तो वे खुद तय करें कि उन्हें देशभक्ति और देशद्रोह के किस पैमाने पर देखा जाए!

इस समूचे प्रसंग में एक अहम पहलू यह है कि किसी कहानी या फिर इतिहास के पात्र के रूप में रानी पद्मिनी के जीवन के उस पर हिस्से पर गर्व करने पर जोर दिया जा रहा है, जिसमें पद्मिनी ने सोलह हजार रानियों के साथ 'जौहर' यानी जिंदा आग में जल जाने का 'व्रत' पूरा किया था। आज दुनिया में, जब स्त्री की अस्मिता और अधिकारों का सवाल खुद को सभ्य और लोकतांत्रिक कहने वाली व्यवस्था के सामने चुनौती है, उसमें स्त्री के दमन और शोषण को व्यवस्थागत शक्ल देने वाली परंपराओं पर गर्व करने का आग्रह समाज और देश को किस ओर ले जाएगा? क्या आज की कोई भी वह स्त्री 'जौहर' जैसी परंपरा पर गर्व करने के पक्ष में खड़ी हो सकती है, जो अब पुरुष वर्चस्व वाले समाज और व्यवस्था से अपनी बराबरी के हक के लिए लड़ रही है?

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