tag:blogger.com,1999:blog-90142459269516656782024-03-21T06:59:22.389-07:00चार्वाकइन समाजों के बनाए हुए बंधन से निकल चल. चल मेरे साथ ही चल... ऐ मेरी जाने ग़ज़ल...शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.comBlogger71125tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-47401944547005553072019-09-21T10:48:00.001-07:002019-09-21T10:48:41.018-07:00'सेक्शन 375' : स्त्री के विरुद्ध पर्दे का चक्रव्यूह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b>अरविंद शेष</b><br />
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<b><span style="background-color: #999999;">'दुरुपयोग' की दुहाई से इंसाफ की आवाज पर हमला</span></b><br />
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पिछले कुछ सालों के दौरान कभी दबे-छिपे तरीके से तो कभी खुल कर स्त्रियों और दलितों, दो सामाजिक वर्गों के अधिकारों के संरक्षण के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग की दुहाई दी गई और इन कानूनों को खत्म करने तक की मांग की गई। कहा गया कि बलात्कार के खिलाफ बने कानूनों का महिलाएं बड़े पैमाने पर दुरुपयोग करती हैं और इस वजह से बहुत सारे 'बेचारे' निर्दोष मर्द मारे जाते हैं। इसी तरह, दलित-वंचित जातियों-तबकों के हक में बने अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून का अनुसूचित जातियों के लोग काफी दुरुपयोग करते हैं और बहुत सारे भोले-भोले सवर्ण जातियों के लोगों को फंसाते हैं।<br />
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इन दोनों आरोपों की सच्चाई का अंदाजा न सिर्फ जमीनी वस्तुस्थिति पर नजर डालने से होगा, बल्कि आधिकारिक आंकड़े तक इस 'पॉपुलर' धारणा के खिलाफ जाते हैं। इसके बावजूद ये दोनों तरह की बातें जोर देकर कही और फैलाई जाती हैं। काफी जद्दोजहद और कई 'विशाल आंदोलनों' के बाद एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून के खिलाफ माहौल बनाया गया था। एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून को तो एक अदालती फैसले के जरिए कुंद भी किया जा चुका था, लेकिन इसके खिलाफ उभरे व्यापक आंदोलन के बाद सरकार को फिर से इस पर विचार करना पड़ा। अभी भी कुछ सामाजिक वर्गों की इस कानून को खत्म करने की मांग होती रहती हैं और जिस तरह की राजनीतिक ताकतें सत्ता में हैं, उनके रहते इस कानून के संरक्षण का भरोसा कमजोर रहेगा।<br />
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<b style="background-color: #cccccc;">'राष्ट्रीय पुरुष आयोग' की ओर बढ़ते कदम</b><br />
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इसी तरह, बलात्कार के खिलाफ बने कानूनों के दुरुपयोग को लेकर भी समाज का एक बड़ा हिस्सा बेहद संवेदनशील है। हालत यह है कि पचास-साठ लोगों ने एक संगठन बना कर 'बेचारे... मासूम... बेकसूर' पुरुषों को दहेज के अलावा बलात्कार के आरोप में कठघरे में खड़ा करने से बचाने और उन्हें संरक्षण देने के लिए अब बाकायदा एक 'राष्ट्रीय पुरुष आयोग' बनाने की मांग भी की है। यह संगठन समाज में पुरुषों के बीच फैली उस कुंठा को नुमाइंदगी देता है कि महिलाएं बलात्कार से संबंधित कानूनों का दुरुपयोग करके 'अच्छे-भले' पुरुषों को फंसाती हैं। इसके लिए सड़क पर अभियान तो चल ही रहा है, लेकिन इस मसले पर पहले समाज, फिर सरकार को प्रभावित करने के मकसद से लोकप्रिय फिल्मों के जरिए भी दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है। फिल्म 'सेक्शन 375' इसी अभियान की एक कड़ी है।<br />
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यह फिल्म शुरुआती तौर पर स्त्री के पक्ष में बनी दिखती है, लेकिन अंतिम तौर पर स्त्री के खिलाफ जाती है, यह स्थापित करके कि एक जरूरतमंद हो या महत्त्वाकांक्षी लड़की, अपनी सुविधा और स्वार्थ की वजह से अपने शरीर का इस्तेमाल करती है और फिर उसे बलात्कार के रूप में दिखा कर किसी 'अच्छे-भले' पुरुष को बर्बाद कर डालती है। एक साधारण परिवार से आने वाली अंजलि दांगले एक फिल्म डायरेक्टर रोहन खुराना के साथ कास्ट्यूम डिजाइनर के तौर पर काम करती है, उसे एकतरफा पसंद करने लगती है, रोहन खुराना उसे खुद को सौंपने की शर्त पर काम पर बनाए रखता है, इस बीच अंजलि उस पर हक जताने लगती है, तब रोहन खुराना उसे निकाल बाहर करता है। फिर अंजलि बदला लेने के लिए साजिश रचती है, रोहन खुराना से यौन संबंध बनाती है और उसे अपने साथ बलात्कार का दृश्य रच कर रोहन खुराना को दस साल की सजा दिलवा देती है।<br />
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पूरी कहानी बस यही है। इसमें फिल्मकार की मूल स्थापना यह है कि स्त्रियों के हक में बहुत जरूरी कानून बनाए गए हैं, लेकिन स्त्रियां अपने लिए फायदा उठाने के लिए इसका दुरुपयोग भी करती हैं। पहले तो सहमति से यौन-संबंध बनाती हैं और फिर उसे बलात्कार की शक्ल में पेश करके भोले-भाले मर्दों की जिंदगी बर्बाद करती हैं। यह समझना मुश्किल है कि इक्का-दुक्का और यहां तक कि कई बार किसी काल्पनिक घटना को आधार बना कर एक ऐसे जघन्य अपराध का सरलीकरण कैसे किया जा सकता है, जो आज भारत जैसे देश में न जाने कितनी स्त्रियों की जिंदगी का एक त्रासद अध्याय बना हुआ है। फिल्म की कहानी, स्क्रिप्ट लिखने वालों और निर्देशक को पता नहीं इस बात का अंदाजा है या नहीं कि इस देश में न जाने बलात्कार के कितने मामले मजबूरी, लोकलाज, धौंस, कानूनी प्रक्रिया की जटिलता जैसी कई वजहों से दफ्न हो जाते हैं, कितनी लड़कियां बलात्कार के बाद किसी से कुछ नहीं कहतीं, बस खुदकुशी कर लेती हैं।<br />
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<span style="background-color: #cccccc;"><b>आम के बजाय अपवाद का चुनाव</b></span><br />
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अगर फिल्में दावा करती हैं कि उसमें वही दिखाया जाता है जो समाज में घटता है, तो किसी फिल्म को अपवादों का प्रतिनिधित्व करना चाहिए या फिर आम घटनाओं का? 'सेक्शन 375' बलात्कार के खिलाफ कानूनों के दुरुपयोग के किसी मामले को उठा कर उसे प्रतिनिधि मामले के रूप में पेश करती है और पहले से ही पितृसत्ता की सड़ांध में मरते ज्यादातर आम दर्शकों के मन में बसे स्त्रियों के खिलाफ मानस को और खाद-पानी देती है। इसके बरक्स रोजाना कितनी महिलाओं का बलात्कार होता है और कितने आरोपियों को सजा मिल पाती है, यह कोई छिपा तथ्य नहीं है।<br />
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इस फिल्म की इस कदर बारीक बुनाई की गई है कि अगर एक पारंपरिक मानस वाला व्यक्ति बलात्कार की शिकार लड़की की हालत देख कर अपने विचार के स्तर पर उदार होना भी चाहता है तो उसके सामने कानून के महारथी की शक्ल में एक मशहूर वकील के मुंह से 'तर्कों का पहाड़' खड़ा कर दिया जाता है और आखिरकार वह फिर से अपने मर्दाना दड़बे में घुस जाता है। फिल्म के आखिर में जिस तरह पीड़ित लड़की मुकदमा जीतने यानी अपने 'मर्द दुश्मन' को सजा दिलाने के बाद खुद कबूल कर लेती है कि 'रोहन खुराना ने बलात्कार नहीं किया था, लेकिन जो किया था, वह बलात्कार से कम नहीं था' तो एक आम दर्शक के दिमाग में सिर्फ यही बैठता है कि 'रोहन खुराना ने बलात्कार नहीं किया था', जिसे फिल्म में 'वास्तविक घटना' के रूप में परोसा गया है। फिल्म में 'बलात्कार के सिर्फ पच्चीस प्रतिशत आरोपों में सजा हो पाती है' की व्याख्या इस रूप में की जाती है कि 'अदालत की सख्त कानूनी प्रक्रिया का सामना करने के बावजूद पचहत्तर प्रतिशत आरोपी निर्दोष साबित होते हैं।'<br />
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<b style="background-color: #cccccc;">इंसाफ की लड़ाई का उलटता चक्र</b><br />
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इस फिल्म की हालत यह है कि पीड़ित अंजलि दांगले की ओर से पेश होने वाली सरकारी वकील हीरल गांधी अपने सीनियर तरुण सलूजा की टीम को छोड़ने की वजह उसका मर्दवादी बर्ताव बताती है और अंत में उसके सामने ही दयनीय भाव से जाकर कहती है कि 'जस्टिस इस नॉट डन सर'! इस तरह यह फिल्म एक मर्दवादी या पितृसत्तात्मक समाज में उसी प्रचलित धारणा की पुष्टि करता है कि महिलाएं अपने स्वार्थ के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल करती हैं और फिर बाद में बेचारे पुरुषों पर बलात्कार का आरोप लगा देती हैं। जब कुछ नेता ठीक इसी आशय के बयान देते हैं तो उस पर तूफान खड़ा हो जाता है, लेकिन एक पूरी फिल्म यही स्थापित करती है तो उसे महज फिल्म की तरह देखने की अपेक्षा की जाएगी।<br />
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जिस तरह राजनीति की दुनिया में पिछले करीब तीन दशकों में सामाजिक न्याय के पक्ष में हुए बदलावों को तंत्र और व्यापक संसाधनों से लैस आक्रामक राजनीति के सहारे उल्टी दिशा की ओर मोड़ दिया गया है, समाज में दलित-वंचित तबकों के हक में इंसाफ के सवालों को दफ्न करने के इंतजाम किए जा रहे हैं और ब्राह्मणवाद का मानो पुनरोत्थान हो रहा है, उसी तरह किसी तरह अपने बूते खड़ी हो रही, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ती, अपने भरोसे जीती और पितृसत्तात्मक और मर्दवादी दुनिया में अपने लिए जगह बनाती स्त्री भी चारों तरफ से घेरी जा रही है। घर की दहलीज से बाहर निकलने वाली स्त्री इस सामाजिक व्यवस्था के लिए चुनौती है और उसे रसोई की शोभा बनाना परंपरा और संस्कृति बचाना है। इस मकसद से एक ओर सड़कों-गलियों में लड़कियों-महिलाओं के सिर पर कलश रखवा कर यात्रा निकाली जानी है, जागरण से लेकर कुंभ तक की शोभा बनाई जानी है, महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बढ़ोतरी होनी है और दूसरी ओर सिनेमा जैसे पॉपुलर हथियार के जरिए आम जनमानस में स्त्रियों के खिलाफ व्यूह रचना करनी है।<br />
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दरअसल, एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून और दहेज या बलात्कार से संबंधित कानूनों के दुरुपयोग का शिगूफ़ा एक औसत दिमाग वाले व्यक्ति को प्रभावित करता है और उसके जरिए फिर जनमत-निर्माण की प्रक्रिया चलती है। वंचित वर्गों के रूप में बहुत लंबी लड़ाई के बाद दलितों और स्त्री के पक्ष में जो भी कानूनी अधिकार सुनिश्चित हो सके हैं। उसका उसे क्या फायदा मिलता है, यह सभी जानते हैं, लेकिन महज चंद घटनाओं के आधार पर स्त्री के हक में बने कानूनों को कठघरे में खड़ा करना बताता है कि प्रतिगामी राजनीति के दौर में संसाधनों के मालिकों ने भी शायद वही रास्ता चुन लिया है। इसलिए सत्ताधारी जातियों-तबकों की ओर से कहीं एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून से लेकर भागीदारी को सुनिश्चित करने वाली आरक्षण की व्यवस्था को खत्म या कमजोर करने के खेल चल रहे हैं तो कहीं स्त्रियों को पारंपरिक सांस्कृतिक परिभाषा में समेटने या बांधने की कोशिश चल रही है। </div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-19642301046835577882018-09-06T00:48:00.000-07:002018-09-06T00:48:30.722-07:00एससी-एसटी कानून और आरक्षण के विरोध का असली खेल..!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /><br />एससी-एसटी कानून पर सवर्णों का 'मोदी-विरोध' एक पाखंड से ज्यादा की औकात नहीं रखता और यह आरएसएस-भाजपा की ओर खेला गया एक धूर्त खेल है! <br /><br />बिसात ये है..! <br /><br />'दो अप्रैल' (2018) को और उसके बाद यह साफ हो गया कि बचा-खुचा दलित-आदिवासी वोट तो गया ही, अब पिछड़ी जातियों का भी एक बड़ा हिस्सा दलित-आदिवासियों के साथ गोलबंद हो गया। फिलहाल दलित-आदिवासी पूरी तरह मोदी और भाजपा के खिलाफ मूड में हैं और भाजपा के लिए यह एक बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई वोट के लिहाज से भी। लेकिन इससे ज्यादा यह हुआ कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और उसके समर्थकों की यह छवि स्थापित हुई और फैली कि वे दलितों-आदिवासियों के खिलाफ नफरत से भरे हुए हैं और आज भी उन्हें गुलाम बनाए रखने की जमीन बना रहे हैं। खासतौर पर एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह राय और ज्यादा मजबूत हुई कि भाजपा ने दलितों-आदिवासियों को फिर से सामाजिक गुलामी में जीने के रास्ते तैयार कर दिए हैं। <br /><br />आज दलित आंदोलन जहां तक पहुंच गया है, उसे यह तथ्य समझने में दिक्कत या देरी नहीं हुई कि इस कानून को कमजोर किए जाने का जमीनी असर क्या होने वाला है! यह साफ-साफ दिखा भी, जब फैसले के कुछ महीने के दौरान ही अलग-अलग राज्यों में दलितों के खिलाफ सामाजिक बर्ताव और भाषा तक में भयावह क्रूरता आई। पहले भी जहां एससी-एसटी कानून के तहत एफआइआर दर्ज कराना और इस कानून के सहारे फैसले के अंजाम तक पहुंचना बेहद मुश्किल था, वहां इस कानून में सुप्रीम कोर्ट में लगाए गए फच्चर के बाद यह कानून दलितों-आदिवासियों के हक में लगभग बेअसर हो गया था। <br /><br />यह प्रथम दृष्टया मराठों के आंदोलन की एक सबसे मुख्य मांग की जीत दिखी, लेकिन सच यह है कि इस देश में ऊंची कही जाने वाली तमाम जातियों का दिमाग आज भी सड़ांध से बजबजा रहा है और उसे हर वक्त अपनी इस हिंसक कुंठा को जाहिर करने के लिए अपने सामने किसी कमजोर सामाजिक हैसियत वाले इंसान की जरूरत महसूस होती है, ताकि वह उस पर भाषाई या शारीरिक हिंसा कर सके। और ऐसा करने के बाद कानूनन पूरी तरह सुरक्षित रह सके। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ऊंची कही जाने वाली जातियों को यही सुविधा मुहैया कराई थी।<br /><br />शायद मोदी सरकार को यह अंदाजा था कि चूंकि इस कानून को व्यवहार में मार डालने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है, इसलिए दलित-आदिवासी तबके इसे अदालत के फैसले के रूप में चुपचाप स्वीकार कर लेंगे और इसकी गाज भाजपा के सिर पर नहीं गिरेगी। लेकिन यह भाजपा का वहम साबित हुआ। दलित आंदोलन आज जहां तक का सफर तय कर चुका है, उसे यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि राजपूतों, ब्राह्मणों, मराठों और दूसरी दबंग जातियों की ओर से इस कानून को खत्म करने की मांग के पीछे कौन है और इस तरह कौन उसके अस्तित्व को फिर से गुलामी की आग में झोंक देना चाहता है! दिखने में बिखरा हुआ लगता दलित आंदोलन आज अपनी जमीन पुख्ता कर चुका है और यही वजह है कि दो अप्रैल को बिना मीडिया के सहारे अपने स्तर पर आयोजित भारत बंद को एक ऐसी कामयाबी मिली, जिसे सामाजिक आंदोलन के इतिहास में शानदार तरीके से दर्ज किया जाएगा।<br /><br />उस बंद और दलित-आदिवासी आंदोलन का मुख्य स्वर आज आरएसएस-भाजपा और मोदी विरोध है और इसने ठोस जमीन पकड़ ली है। देश की राजनीति में दलित-आदिवासी समूह की संगठित अभिव्यक्ति इस बार ही हो रही है और अच्छा है कि ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा इस संघर्ष में दलितों-आदिवासियों के साथ खड़ा दिख रहा है। यानी दलित-आदिवासी और ओबीसी के साथ मुसलिम आबादी के वोट को मिला दिया जाए तो 'हवा में उड़ गए जय श्रीराम' टाइप कुछ हो जएगा! यानी इतने बड़े समूह का वोट जब खिसक रहा हो, तो ईवीएम या चंद गिनती के लोगों के 'अपने समाज' यानी सवर्णों के भरोसे रह कर किस तरह की जीत हासिल होगी!<br /><br />तो दिखाने के लिए सवर्णों की कीमत पर एससी-एसटी कानून में संशोधन को मंजूरी दी गई। इसके अलावा, बार-बार भाजपा सरकार की ओर से यह रट्टा मारा गया कि आरक्षण की व्यवस्था खत्म नहीं होगी... एससी-एसटी को प्रोमोशन में आरक्षण दिया जाएगा..! इसका खूब प्रचार किया गया कि मोदी सरकार एससी-एसटी के हक में काम कर रही है। जब इस धूर्तता को भी दलितों-आदिवासियों ने समझ लिया और खुद को भाजपा के हक में खड़े करवाने की हर कोशिश को नाकाम कर दिया, तब यह निश्चित हो गया कि दलित-आदिवासी और पिछडी जातियों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पास भी नहीं फटकेगा। <br /><br />तो अगली बार गद्दी के लिए मोदी या भाजपा के पास तुरुप का पत्ता यह था कि मोदी सरकार दलितों की हितैषी है और अपने इस 'सरोकार' की खातिर वह सवर्णों को नाराज तक कर सकती है। तो इस बिसात के एजेंडे के मुताबिक सवर्णों की नाराजगी भारत बंद के नाम पर सड़क पर दिखाने की कोशिश हुई। इस फर्जी नाराजगी को मीडिया यानी लाउडस्पीकरों और मुखपत्रों के जरिए ज्यादा से ज्यादा प्रचार कराना तय किया गया कि सवर्ण एससी-एसटी कानून की वजह से मोदी सरकार से नाराज हैं। इससे एससी-एसटी के बीच यह संदेश पहुंचाने की कोशिश होगी कि एससी-एसटी कानून को मजबूत करके मोदी-सरकार दलितों का खयाल रख रही है, इसलिए सवर्ण नाराज हैं। यानी कि दलितों-आदिवासियों के बीच यह प्रतिक्रया उभारने की कोशिश हो रही है कि सवर्ण अगर एससी-एसटी कानून में संशोधन करने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं तो दलित-आदिवासी इसी मसले के बहाने से मोदी का समर्थन करेंगे। <br /><br />लेकिन अफसोस... भाजपा और मोदी के लिए अफसोस यह है कि दलित-आदिवासी उनकी इस चाल को भी समझ गए हैं और अब कोई गुंजाइश नहीं बनी कि दलित-आदिवासी मोदी के पीछे भागें। दलित-आदिवासी यह समझ रहे हैं कि सवर्णों की ओर से जो फर्जी मोदी-विरोध सामने आ रहा है, वह उसी एजेंडे का हिस्सा है। वे जानते हैं कि सवर्णों के वोट फिलहाल उनकी सामाजिक सत्ता की फिर से वापसी की ग्रंथि से संचालित हो रहे हैं और वोटिंग के समय यह मोदी और भाजपा को ही पड़ना है। कहने का मतलब यह है कि सवर्ण वोट आमतौर पर हर हाल में भाजपा को ही पड़ना है। <br /><br />तो एससी-एसटी कानून पर भारत-बंद करके सवर्णों के गिरोह किसे झांसा दे रहे हैं! अब उन्हें याद रखना चाहिए कि दलितों और आदिवासियों के बीच भाजपा और मोदी को लेकर एक ठोस राय बन चुकी है और उसके लिए समझना मुश्किल नहीं है कि सवर्णों की ओर से एससी-एसटी कानून और आरक्षण का विरोध करवाना भाजपा की चाल है। सवर्ण सिर्फ इतने भर के लिए भाजपा का साथ दे रहे हैं कि इन सब हड़बोंग के सहारे उनकी सामाजिक सत्ता यानी जातिगत हैसियत और व्यवहार में सामंती बर्बरता को संरक्षण मिलेगा... दलितों-आदिवासियों पर जुल्म करने, उन्हें जातिबोधक गालियां देने की छूट मिलेगी..! लेकिन उन्हें अब भी समझ नहीं आ रहा है कि दलित आंदोलन ने जो समझ और जमीन बनाई है, वह आने वाले समय में ब्राह्मणवाद की व्यवस्था के सामने कितनी बड़ी चुनौती रखने जा रही है।</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-11461498426354683972018-06-16T11:04:00.000-07:002018-06-16T11:04:12.442-07:00क्यों अचानक परदे से गायब हुई 'काला'?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
'काला' क्या सचमुच सिर्फ एक हफ्ते की फिल्म थी? माना जाता है कि बाजार को सिर्फ मुनाफे से मतलब होता है और इसके लिए वह इस बात की फिक्र नहीं करता कि समाज या राजनीति के मुद्दे क्या हैं या उनका हासिल क्या है! इस लिहाज से देखें तो 'काला' फिल्म से कमाई की खबरें कई पहले की फिल्मों के रिकॉर्ड को तोड़ने वाली बताई गईं। पहले तीन दिन में सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार और फिर कमाई के आंकड़े के लगभग ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा तक पहुंच जाने की खबरें आईं। फिर आखिर 'काला' फिल्म दिल्ली-एनसीआर के सभी सिनेमा घरों में से सिर्फ एक हफ्ते में क्यों हटा दी गई! मुझे कई जगहों के बारे में लोगों ने बताया कि वहां से भी यह फिल्म हटा दी गई। खासतौर पर उत्तर भारत के तमाम इलाकों और यहां तक कि नागपुर, जयपुर या हिंदी भाषी सभी जगहों पर यही हाल रहा।<br />
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अगर किसी फिल्म के सिनेमा हॉल में चलने या नहीं चलने की वजह कमाई और कारोबार होती तो 'काला' को अभी कई हफ्ते तक चलना था। कम कमाई और 'रेस-3' का रिलीज होना कोई बड़ी वजह नहीं थी। 'रेस-3' की इस दलील के बीच यह याद रखिए कि कुछ ऐसी फिल्में पिछले दो या तीन हफ्ते से अभी भी चल रही हैं, जो न केवल कहानी और प्रस्तुति में, बल्कि कमाई या कारोबार के मामले में भी 'काला' से काफी पीछे हैं।<br />
मसलन, 'रेस-3' रिलीज होने के बावजूद 11 मई को रिलीज हुई 'राजी' चौथे हफ्ते (15/6/2018) भी दिल्ली-एनसीआर के नौ सिनेमा हॉल में नौ शो में चल रही थी। इसी तरह, 25 मई को रिलीज हुई 'परमाणु' तीसरे हफ्ते भी दिल्ली-एनसीआर के तेईस सिनेमा हॉल में तेईस शो में, 1 जून को रिलीज हुई 'वीरे दी वेडिंग' तीसरे हफ्ते सैंतीस सिनेमा घरों में अड़तालीस शो में चल रही थी। यहां तक कि पंजाबी फिल्म 'कैरी ऑन जट्टा' भी तीसरे हफ्ते दिल्ली-एनसीआर के चौंतीस सिनेमा हॉल में अड़तीस शो में चल रही थी।<br />
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बॉक्स ऑफिस पर इन सभी फिल्मों की कमाई का भी अध्ययन किया जाए तो ये सभी 'काला' के सामने आसपास भी नहीं हैं। फिर 'काला' के हटा दिए जाने और इन सबके इस तरह जोर-शोर से चलने की क्या वजहें हो सकती हैं? ज्यादा विस्तार से कहने के बजाय सिर्फ इतना देख लिया जाए कि 'काला' के व्यापक सामाजिक-राजनीतिक महत्त्व के बरक्स ये फिल्में व्यक्ति की चेतना को कुछ खास नहीं देतीं। मसलन, 'राजी' और 'परमाणु' एक ऐसी देशभक्ति फिल्म है, जो अंतिम तौर पर आरएसएस-भाजपा की राजनीति को सुहाती है। 'वीरे दी वेडिंग' देशभक्ति फिल्म नहीं है, लेकिन स्त्री केंद्रित होने के बावजूद उसमें व्यापक आम स्त्री के लिए कोई अहम संदेश, पितृसत्ता के खिलाफ चेतना से जद्दोजहद या मनोरंजन जैसा कुछ मौजूद नहीं है। इसी तरह, 'कैरी ऑन जट्टा' पंजाबी भाषा की फिल्म है और उसका सीमित दर्शक वर्ग है।<br />
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मैंने सिनेमा हॉलों में कई ऐसी फिल्में देखी हैं, जिसमें कुल दस या बारह दर्शक थे, लेकिन वे दो या इससे ज्यादा हफ्ते तक चलीं। राम-रहीम की फिल्म 'मैसेंजर ऑफ गॉड' तो कई महीने तक एक सिनेमा हॉल में लगी रही थी। उसमें कितने और कौन लोग देखने जा रहे थे, यह अलग सवाल है।<br />
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जहां तक काला का सवाल है, सिर्फ एक हफ्ते के भीतर ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार करना अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि इसे देखने सिनेमा हॉलों में कितने लोग जा रहे थे। देखने वालों में बहुत सारे लोग ऐसे थे, जो या तो इस फिल्म को दोबारा देख रहे थे या फिर अपने संपर्क के तमाम लोगों को देखने भेज रहे थे। हजारों लोगों ने यह तय किया था कि अगले हफ्ते या छुट्टी के पहले दिन देखेंगे। लेकिन उन सबके लिए अब अफसोस है या सीडी या पाइरेटेड फाइल का विकल्प है।<br />
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गौरतलब है कि 'क्वीन' के बाद 'काला' ऐसी फिल्म साबित होने वाली थी, जिसे पहले हफ्ते में कम लोग पहुंचे (इसके बावजूद फिल्म शुरू के तीन दिनों में ही सौ करोड़ की कमाई पार कर गई!)। लेकिन पहले हफ्ते में जिस तेजी से इस फिल्म के बारे में प्रचार हुआ, अगले हफ्तों में इसके दर्शक कई गुना बढ़ने वाले थे।<br />
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दरअसल, समाज की सियासत और सिनेमा के कारोबार पर जिनके लगाम हैं, उन्हें सबसे ज्यादा डर इसी बात का था कि अगले हफ्तों में इस फिल्म के दर्शक बढ़ने वाले थे। तो आखिर 'काला' की ओर उमड़ने वाले दर्शकों से किसको डर था? तो अगर 'काला' को गायब करने के पीछे किसी खास राजनीतिक समूह का दबाव या निर्देशन काम कर रहा हो, तो इसमें हैरान होने की बात नहीं है।<br />
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यह जरूर देखना चाहिए कि सिनेमा के कारोबार के कुल हिस्से पर किसका कब्जा है और वह इसे कैसे संचालित करता है। भारत में किसी समस्या का केवल आर्थिक कारण खोजना अधूरा मनोरंजन भर बन कर रह जाता है। जैसे मीडिया के बारे में कह दिया जाता है कि आर्थिक मुनाफे या कमाई की वजह से मीडिया किसी खास राजनीतिक धारा के पक्ष में काम करता है। लेकिन सच केवल यह नहीं है। अगर मीडिया संस्थानों के कर्ताधर्ता पैसा लेकर हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार का जिम्मा उठाते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे केवल आर्थिक मुनाफा देख रहे हैं। इससे उनके सामाजिक हित भी पूरे हो रहे हैं, इसलिए वे यह अतिरिक्त मुनाफे का सौदा तय करते हैं। सच कहें तो वे बिना आर्थिक मुनाफे के भी सामाजिक मुनाफे का सरोकार निबाहते रहते हैं। हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार या उसे थोपने का मतलब ब्राह्मणवाद की जड़ें मजबूत करना है। अगर कोई ब्राह्मणवाद विरोधी राजनीतिक धारा मीडिया को इतना ही पैसा दे, तो वह ब्राह्मणवाद के खिलाफ विचारों के प्रचार-प्रसार का जिम्मा नहीं उठाएगी।<br />
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इसी बिंदु से देखें तब समझ में आता है कि समूचे हिंदी क्षेत्र से 'काला' को महज एक हफ्ते में सिनेमा घरों से पूरी तरह से गायब कर देने की वजह क्या रही हो सकती है। 'काला' ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित आंदोलन के राजनीतिक उभार की एक ताकतवर दखल है। जिन लोगों ने भी 'काला' देखी, वे जानते हैं कि यह अकेली फिल्म इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत रखती है कि इसे जनता को संबोधित करने वाली भूमिका में मददगार बनाया जा सकता है। यह फिल्म सामाजिक सशक्तीकरण में आर्थिक पक्ष की अहमियत की स्थापना के लिए यह उससे पहले अपने सम्मान और स्वाभिमान का अधिकार पहचानने की जरूरत बताती है। सामाजिक रूप से थोड़ा भी जागरूक व्यक्ति इस फिल्म को देखने के बाद मनोबल के स्तर पर खुद बेहद मजबूत होता हुआ पाएगा! यानी यह फिल्म सामाजिक यथास्थितिवाद में पीड़ित के पुराने ढांचे को तोड़-फोड़ देता है। हम जिस समाज में रहते हैं, उसकी पारंपरिक शक्ल में यह सहज नहीं है। इसके बाद बनने वाले समाज की कल्पना हम कर सकते हैं।<br />
<br />
सही है कि फिल्में यथार्थ नहीं होती हैं। लेकिन मेरी निजी राय यह है कि समाज का मानस तैयार करने में फिल्मों की अहमियत काफी है। यह बेवजह नहीं है कि आज के दौर में सिनेमा घरों तक पहुंचने वाली बहुत सारी फिल्मों में राष्ट्रवाद के पर्दे में लपेट कर हिंदुत्व या ब्राह्मणवाद का एजेंडा परोसा जा रहा है। 'बाजीराव मस्तानी', 'पद्मावत', 'परमाणु', 'बाहुबली' जैसी कभी किसी काल्पनिक कहानियों तो कभी ऐतिहासिक आख्यानों को तोड़-मरोड़ कर, उसे झूठ बना कर, वीभत्सताओं को महिमामंडित कर, अपने अनुकूल बना कर पेश किया जा रहा है। ऐसा करने वालों को पता है कि कोई नेता संबोधित करने के लिए महज पांच हजार लोगों के समूह के लिए तरस जाता है, लेकिन एक फिल्म एक शो में एक साथ देश के लाखों लोगों को संबोधित करती है। तो 'काला' की अहमियत इसमें थी और अब यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि फिल्मों का कारोबार संचालित करने वालों या सिनेमा घरों के मालिकों ने 'काला' को क्यों अचानक परिदृश्य से गायब कर दिया! </div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-4103580207071660242018-01-18T23:31:00.001-08:002018-01-18T23:31:40.765-08:00'पद्मावत': अराजकता और वर्चस्व की राजनीति <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<hr class="right" />
जैसी कि उम्मीद थी, सुप्रीम कोर्ट ने
'पद्मावत' (पहले 'पद्मावती') फिल्म को देश भर में दिखाए जाने के पक्ष में
फैसला सुना दिया। अब इस फिल्म का प्रदर्शन इस बात पर निर्भर है कि राज्य
सरकारें सुरक्षा व्यवस्था के मोर्चे पर क्या करती हैं और सुप्रीम कोर्ट के
फैसके के बावजूद मारकाट मचाने की धमकी देने वाली 'करणी सेना' या दूसरे
उन्मादी तत्त्वों से कैसे निपटती है। खबरों के मुताबिक राजपूत करणी सेना के
कार्यकर्ताओं ने मुजफ्फरपुर में एक सिनेमा हॉल के सामने हिंसक प्रदर्शन
किया है। देश के अलग-अलग हिस्सों से इस मसले पर फिल्म बनाने वालों और उसके
कलाकारों को मार डालने, दफ्न कर देने की धमकियां दी जा रही हैं। यहां तक
कहा जा रहा है कि अगर 'पद्मावत' पर पाबंदी नहीं लगाई गई तो चित्तौड़गढ़ में
सैकड़ों महिलाएं 'जौहर' करेंगी।<br />
<br />
कुछ सालों के दौरान कई ऐसी फिल्में आईं, जिन पर अलग-अलग सामाजिक समूहों ने
'भावनाएं आहत होने' का आरोप लगाया और पाबंदी की मांग की। लेकिन अदालतों में
इस तरह की आपत्तियां कानून और तर्क की कसौटी पर नहीं टिकीं और आखिर सिनेमा
हॉलों में दिखाई गईं। हां, इस बहाने संबंधित फिल्म को ज्यादा प्रचार मिल
गया यह बहस का एक अलग सवाल है। लेकिन इस तरह के विरोध से कला और अभिव्यक्ति
की आजादी के अलावा सामाजिक सोच के विकास के सामने जो चुनौती खड़ी होती है,
वह किसी भी देशकाल के लिए प्रतिगामी ही है।<br />
<br />
भाजपा शासित कई राज्यों की सरकारों ने अपनी ओर से उन राज्यों में 'पद्मावत'
के प्रदर्शन पर पाबंदी लगाए जाने की घोषणा की थी। लेकिन यह अपने आप में
हैरानी की बात है कि जिस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने प्रदर्शन के लिए प्रमाण
पत्र दे दिया था, उसे दिखाए जाने पर इन सरकारों को क्या आपत्ति थी! क्या
करणी सेना जैसा कोई संगठन इस कदर ताकतवर है कि उसके गैरकानूनी फरमान इस देश
में संविधान और कानून के राज का शपथ लेकर राज करने वाली सरकारों पर हावी
हैं? सवाल है कि संविधान और कानून का राज ये चुनी गई सरकारें कायम करेंगी
या करणी सेना को अपने मध्ययुगीन विचारों को कानून की शक्ल में लागू करने की
छूट दी जाएगी? अगर यह सिरा आगे बढ़ता है तो देश में अलग-अलग जातियों के
समूहों के संगठनों को किस स्तर तक उनकी मर्जी और मनमानी व्याख्या के हिसाब
से देश चलने दिया जाएगा?<br />
<br />
मिथक बनाम इतिहास<br />
<br />
किसी मिथक को इतिहास समझ लेने या उसे इतिहास के रूप में परोसने के खतरे इसी
तरह के होते हैं। 'पद्मावती' को जायसी की रचना के मुताबिक एक काल्पनिक
पात्र के रूप में देखा जाता रहा है। लेकिन करणी सेना का जोर उसे इतिहास
मानने पर है। और चूंकि पद्मावती की जातिगत पृष्ठभूमि राजपूत मानी गई है,
इसलिए उसके किसी मुसलिम शासक से प्रेम करने का संदर्भ भी बर्दाश्त करना
संभव नहीं है। मगर जिस देश के मध्यकालीन इतिहास में ऐसे तमाम प्रसंग हैं,
जिनमें किसी हिंदू शासक ने मुसलिम शासकों के साथ राजनीतिक और पारिवारिक
संबंध भी कायम किए, उसमें कई मौकों पर शादियां भी हुईं, उसके समांतर जायसी
की रचना में दर्ज काल्पनिक पात्र 'पद्मावती' के अल्लाउद्दीन खिलजी से प्रेम
के संदर्भ को पचा पाना करणी सेना के लिए क्यों मुमकिन नहीं हो रहा है।<br />
<br />
पृष्ठभूमि<br />
<br />
दो-तीन दशकों के सांप्रदायिक राजनीति का सिरा यहीं पहुंचना था। भारत में
सांप्रदायिक राजनीति दमित-वंचित जातियों के अधिकारों को दबाने का हथियार
रही है। करणी सेना के रवैये से केवल यह नहीं हो रहा है कि कोई खास जाति
किसी फिल्म की कहानी से खुद के अपमानित होने का भाव प्रदर्शित कर रही है,
बल्कि उसके जरिए हिंदू ढांचे में मौजूद बाकी जातियों के बीच भी मुस्लिम
विरोध की भावना का दोहन करने की यह सुनियोजित कोशिश है। जायसी की रचना में
किसी काल्पनिक हिंदू और राजपूत स्त्री के पात्र का किसी मुसलिम शासक से
प्रेम पर करणी सेना को आपत्ति है, लेकिन अतीत में समाज के कमजोर तबकों के
प्रति राजपूत जाति के व्यवहार का यथार्थ क्या रहा है, उस पर सोचना उसे
जरूरी नहीं लगेगा। तो क्या अतीत के उन्हीं ऐतिहासिक संदर्भों पर पर्दा
डालने के लिए किसी फिल्म के विरोध के बहाने अपने सामाजिक वर्चस्व को आज भी
कायम रखने की कोशिश की जा रही है?<br />
<br />
पहले जब संजय लीला भंसाली की ही फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' आई थी, तब कुछ
दलित-वंचित जातियों के उन सवालों पर गौर करने की जरूरत किसी को नहीं लगी थी
जो उन्होंने पेशवाई शासन के इतिहास के बारे में उठाए थे। कई हलकों से यह
कहा गया कि बाजीराव पेशवा- दो के कार्यकाल में 'अछूत' समूह में मानी जानी
जाने वाली जातियों के खिलाफ जो नियम बनाए गए, वे व्यवस्थागत जातिगत
अत्याचार का मॉडल थे। लेकिन एक अंतरधार्मिक प्रेम कहानी के बहाने पेशवाई
शासन के उन तमाम प्रसंगों पर पर्दा डालने की कोशिश की गई, जिनके उल्लेख से
किसी सभ्य समाज को शर्मिंदगी उठानी पड़ सकती है।<br />
<br />
समाजिक समूह बनाम कानून<br />
<br />
समय-समय पर कई फिल्मों को लेकर ऐसे विवाद उठते रहे हैं। सामाजिक स्तर पर
अलग-अलग समूहों ने अपनी आक्रामक आपत्तियों के साथ किसी फिल्म को प्रतिबंधित
करने की मांग की। लेकिन अब तक कानूनी स्तर पर वे लड़ाइयां कमजोर साबित
होती रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 'पद्मावत' को दिखाए जाने की इजाजत देते हुए
कहा कि जब 'बैंडिट क्वीन' दिखाई जा सकती है, तो 'पद्मावत' क्यों नहीं!
हालांकि 'बैंडिट क्वीन' और 'पद्मावत' की तुलना का क्या संदर्भ हो सकता है,
यह समझना मुश्किल है, लेकिन किसी सामाजिक समूह की आपत्तियों के आधार पर
किसी फिल्म पर पाबंदी लगाए जाने के विचार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने पहले
भी कई फैसले दिए हैं।<br />
<br />
किसी लोकतांत्रिक समाज में किसी फिल्म के प्रति लोग क्या राय बनाते हैं, यह
उनके विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। यह संविधान में दर्ज अभिव्यक्ति के
मौलिक अधिकार के तहत भी आता है। करीब तीन दशक पहले 'ओरे ओरु ग्रामाथिले'
फिल्म को लेकर आपत्तियां उठाई गईं और उस पर पाबंदी लगाने की मांग की गई थी,
तब इस मसले पर 1989 में अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर
कहा था कि महज हिंसा और विरोध प्रदर्शनों की धमकी के आधार पर अभिव्यक्ति की
आजादी को नहीं दबाया जा सकता। इस लिहाज से देखें तो अगर राज्य सरकारें
किसी स्थिति में 'पद्मावत' के प्रदर्शन को रोकने में सहायक की भूमिका
निबाहती हैं तो वह करणी सेना की धमकियों के सामने समर्पण होगा और निश्चित
रूप से कानून के शासन को धता बताने जैसा होगा।<br />
<br />
राजपूत करणी सेना के लड़ाकों को यह समझने की जरूरत है कि वे जाति के कथित
गौरव के बखान और महिमामंडन की बुनियाद पर इस फिल्म का विरोध तो कर रहे हैं,
लेकिन खुद को देशभक्त कहते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खयाल रखने के
साथ-साथ संविधान और कानून का पालन करने जैसी उनकी कुछ राष्ट्रीय
जिम्मेदारियां भी हैं। जातिगत परंपरा से जुड़ी आस्थाओं या भावनाओं के सामने
उनकी नजर में अगर देश का संविधान और कानून कोई मायने नहीं रखते, तो वे खुद
तय करें कि उन्हें देशभक्ति और देशद्रोह के किस पैमाने पर देखा जाए!<br />
<br />
इस समूचे प्रसंग में एक अहम पहलू यह है कि किसी कहानी या फिर इतिहास के
पात्र के रूप में रानी पद्मिनी के जीवन के उस पर हिस्से पर गर्व करने पर
जोर दिया जा रहा है, जिसमें पद्मिनी ने सोलह हजार रानियों के साथ 'जौहर'
यानी जिंदा आग में जल जाने का 'व्रत' पूरा किया था। आज दुनिया में, जब
स्त्री की अस्मिता और अधिकारों का सवाल खुद को सभ्य और लोकतांत्रिक कहने
वाली व्यवस्था के सामने चुनौती है, उसमें स्त्री के दमन और शोषण को
व्यवस्थागत शक्ल देने वाली परंपराओं पर गर्व करने का आग्रह समाज और देश को
किस ओर ले जाएगा? क्या आज की कोई भी वह स्त्री 'जौहर' जैसी परंपरा पर गर्व
करने के पक्ष में खड़ी हो सकती है, जो अब पुरुष वर्चस्व वाले समाज और
व्यवस्था से अपनी बराबरी के हक के लिए लड़ रही है?</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-35254304123357508042018-01-16T11:16:00.002-08:002018-01-17T03:10:08.786-08:00'मुक्काबाज' : ब्राह्मणवाद के चेहरे पर एक प्यार भरा मुक्का...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqSRJT7pcg6se0GoklpntV53rnc8yRLMV8ZFHvWDtdFUzfSIHepGkMIC_o1hLfy0eAKb-wEGMoHlM2EseWBe5AEgF1xfYoD3iEjY7j8PzATxgjI3wT2ESgqgz4GwCOhyphenhyphenI-TGv6Z7Nm3pI/s1600/mukka.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="183" data-original-width="275" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqSRJT7pcg6se0GoklpntV53rnc8yRLMV8ZFHvWDtdFUzfSIHepGkMIC_o1hLfy0eAKb-wEGMoHlM2EseWBe5AEgF1xfYoD3iEjY7j8PzATxgjI3wT2ESgqgz4GwCOhyphenhyphenI-TGv6Z7Nm3pI/s1600/mukka.jpg" /></a></div>
<br />
<br />
चूंकि पहले से यह प्रचारित था कि 'मुक्काबाज' जाति के सवालों से भी जूझती है, इसलिए उम्मीद तो थी ही। दरअसल, जब कहीं कुछ नहीं होता है, तब कुछ दिखने पर उत्साहित हो जाना स्वाभाविक है। 'वास्तविक घटना पर आधारित' इस फिल्म में खेल के तंत्र पर काबिज ब्राह्मणों की सत्ता को फिल्मी तरीके से जरूर दिखाया गया है, लेकिन समाज में जात के मसले को दिखाते हुए इस तरह का अनाड़ीपना या फिर धूर्तता कि कहने का मन है कि भारतीय समाज में जाति का जो मनोविज्ञान रहा है, उसमें पर्दे पर जाति के सवाल से जूझने और खासतौर पर ब्राह्मणवाद को बेपर्द करने के लिए किसी वैसे व्यक्ति की मदद ली जानी चाहिए, जो ब्राह्मणवाद के खिलाफ 'काउंटर जातिवादी' माना जाता हो! लेकिन सरोकार भी दिखाना है और बाजार भी निभाना है! ऐसे में यह चुनौती थोड़ी मुश्किल हो ही जाती है। वैसे बिना किसी की मदद के सुभाष कपूर ने आखिर 'गुड्डू रंगीला' बनाई ही थी, जिसमें शायद किसी 'काउंटर जातिवादी' की मदद नहीं ली गई थी, लेकिन जो एक शानदार व्यावसायिक और कामयाब फिल्म है। भारत में सामाजिक मुद्दों को केंद्र बनाना और उसे निबाह ले जाना, इतना आसान नहीं है। वैसे सामाजिक मसले पर फिल्म बनाने वालों को पाकिस्तान में बनी फिल्म 'बोल' को बार-बार देखना चाहिए।<br />
<br />
बहरहाल, हीरो श्रवण के बारे में भगवान प्रसाद मिश्रा कहता है कि वह राजपूत है... उनके खून के बारे में पहले से तय नहीं कि क्या है... फिर कई छोटी जात के लोग भी सिंह लगा कर खुद को राजपूत बताते हैं! फिल्म में जात की बात देखते हुए हीरो श्रवण के अपने आसपास के लोगों के साथ व्यवहार से आप इन पहचानों में से निकाल लेते हैं कि भगवान मिश्रा ने श्रवण की पहचान के बारे में जो कहा, वह कहां से आता है। जब श्रवण कुमार पहली बगावत करता है कि 'हम यहां मुक्केबाजी सीखने आते हैं, मालिश करने नहीं' और अपने मिश्रा गुरु के सामने खड़े हो जाने पर मुंह पर एक जरूरी मुक्का जमा देता है तो वहां राजपूती ठसक ही दिखती है..!<br />
<br />
और कभी भूमिहारों की गुलामी करते अपनी पूर्वजों को याद करते हुए आज अफसर बन बैठे 'यादव जी' हीरो को तंग करते हैं तो हीरो उन पर अपनी 'मुक्काबाजी' का ऐसा धौंस जमाता है कि 'यादव जी' पैंट में ही पेशाब कर देते हैं और हीरो उसका सेल्फी वीडियो बनाता है! फिल्म के हिसाब से यादव जी भगवान मिश्रा के बराबर के सामंती व्यवहार वाले हैं। यहां समझ में आता है कि फिल्मकार की नजर में सामाजिक बदलाव क्या है और पिछले दो-ढाई दशक के दौरान सामाजिक उथल-पुथल को वह किस तरह देखना और पेश करना चाहता है। भूमिहारों की गुलामी करने वाले पूर्वजों की जिंदगी छोड़ते हुए अगर आगे बढ़ कर कुर्सी हासिल कर भी चुके हैं तो 'ऊंच' कही जाने वाली जातियों के सामने अपनी हैसियत याद रखें, वरना 'ऊंच' कही जाने वाली जात का हीरो आपको आज भी औकात दिखा कर पैंट में पेशाब करने पर मजबूर कर दे सकता है!<br />
<br />
लेकिन खैर... मुक्केबाज को 'नेशनल' में नहीं खेलने देने की जिद में भगवान मिश्रा आखिर तक अपनी जिद में अड़ा रहता है और कूटे जाने के बावजूद अपना तंत्र बनाए रखने के लिए समझौते के तहत इस अपमान का भी त्याग कर देता है कि अपनी पिटाई छिपी रह जाए।<br />
<br />
सबसे ज्यादा दया तब आती है जब ब्राह्मण, राजपूत के बरक्स बनारस में मुक्केबाजी के एक कोच से भगवान मिश्रा जात पूछता है और कोच हजार टन की हिचकी के साथ बताता है- 'हरिजन!' अव्वल तो हरिजन शब्द तक का प्रयोग अब बंद है। फिर हरिजन या दलित या अनुसूचित जाति, कोई जाति नहीं है, जाति-समूह है। इसमें हर जगह के मुताबिक कितनी-कितनी जातियां हैं। किसी एक जात के बारे में पता कर लिया जाता तो इतने अधकचरेपन का विज्ञापन नहीं होता। अब कह सकते हैं कि वे सारे 'हरिजनों' की 'पीड़ा' दिखाना चाहते थे! लेकिन जब हीरो श्रवण कुमार राजपूत हो सकता था, विलेन भगवान मिश्रा ब्राह्मण हो सकता था, दलित कोच संजय कुमार को पीटने वालों की जात भूमिहार हो सकती थी, तो संजय कुमार की भी कोई जाति हो सकती थी। समझने वाले समझ लेते कि वह दलित या बहुजन या अनुसूचित जाति का है। लेकिन यहां फिल्मकार शायद सही है। कोच संजय कुमार खेलों के तंत्र पर काबिज 'ऊंची' कही जाने वाली जाति के जाल में पेशेवर तरीके से दखल देता है, थोड़ा-सा सह लो, फिर खुद को काबिल बनाओ, और उनके बराबर खड़े हो जाओ...! जो मिलता है, उसे बतौर मेहरबानी लो, अधिकार की तरह नहीं। गुजारिश चलेगी, प्रतिरोध नहीं!<br />
<br />
आज के दौर में जब दलित तबका ब्राह्मणवादी राजनीति के बरक्स प्रतिरोध की राजनीति के एक नए मानक रच रहा है, आरक्षण एक बड़ा सवाल है, वैसे में 'कोटा' के नाम से ही नफरत करने वाला और अलग बर्तन में पानी देने के अपमान पर प्रतिरोध जताने के बजाय शांत रह जाने वाला कोच संजय कुमार निश्चित रूप से गांधी का 'हरिजन' ही हो सकता था, भीमराव का 'दलित' नहीं!<br />
<br />
'हरिजन' दया से मिला सामाजिक पद है, 'दलित' संघर्ष और प्रतिरोध के आंदोलन से उपजा मानक, जो अब इस पहचान को भी पीछे छोड़ कर 'बहुजन' की ओर बढ़ रहा है। अगर फिल्म की कहानी का एक देशकाल था, तो जिस तरह उस देशकाल को आधुनिक मोबाइल और कम्प्यूटर की तकनीक से लैस किया गया, उसमें इस 'हरिजन' से भी जूझ लिया जाता!<br />
<br />
बहरहाल, अलग जग में पानी लाने से लेकर 'हम ब्राह्मण हैं... हम आदेश देते हैं' जैसे जुमलों के साथ ब्राह्मणों का चेहरा दिखाने की कोशिश की गई है, लेकिन उसके समांतर भगवान मिश्रा के भाई को 'गरीब ब्राह्मण' के रूप में पेश करके उसकी भरपाई कर दी गई है। हंसने का मन करता है कि गरीब ब्राह्मण या तो मिश्रित खून के शक वाले राजपूत या फिर किसी 'नीच' कही जाने वाली जात के बराबर हो सकता है...!<br />
<br />
सबसे नकली और मजेदार तब लगता है कि जब राजपूत हीरो से ब्राह्मण हीरोइन की अंतरजातीय शादी होती है। यह प्रेम के बाद हुई अरेंज्ड मैरेज यानी पारंपरिक शादी होती है, जिसमें खलनायनक भगवान मिश्रा को छोड़ कर किसी को आपत्ति नहीं होती है, सब कुछ धूमधाम के साथ होता है। किसी कस्बे या जिले में एक बेरहम ब्राह्मण सामंत के साए में खुली जातीय बर्बरताओं के समांतर इस तरह सबकी सहमति और प्रेम भाव के बीच पारंपरिक तरीके से अंतरजातीय शादी... भले ही वह राजपूत लड़के और ब्राह्मण लड़की के बीच हो..!!! इससे ज्यादा बड़ी क्रांति और क्या होती..! मजाक बना कर रख दिया है हकीकतों को...!<br />
<br />
हालांकि फिल्म में देश भर में खेलों के तंत्र पर काबिज लोगों और उसकी राजनीति की अच्छी झलक देखी जा सकती है। मुक्केबाजी के खेल में कई जगह आप सचमुच की प्रतियोगिता की तरह का रोमांच हासिल कर सकते हैं। गीतों के शब्द अच्छे हैं। 'बहुत हुआ सम्मान...' में प्रतिरोध-तत्त्व बढ़िया है। (इसकी धुन से किसी कथित कविता या गीत जैसा कुछ ध्यान में आ रहा है, लेकिन चूंकि याद नहीं है, इसलिए कोई टिप्पणी नहीं।) सबसे ज्यादा हिम्मत दादरी में मोहम्मद अख़लाक की हत्या के प्रसंग को लगभग ज्यों का त्यों दिखाने की गई है। इसके लिए अनुराग कश्यप को बधाई मिलना चाहिए। खासतौर पर 'भारत माता की जय' के नारे के साथ आज देश की क्या हालत हो चुकी है, इसका अंदाजा वही लगा सकता है, जिसे बिना किसी कसूर के कोई भीड़ 'भारत माता की जय' का नारा लगा कर मार डालती है!<br />
<br />
लेकिन चूंकि अनुराग कश्यप खुद ही कहते हैं कि फिल्मकारों से फिल्मों के जरिए संदेश देने के उम्मीद नहीं करनी चाहिए, इसलिए उनकी फिल्म 'मुक्काबाज' से भी उनकी बात समझ में आई।<br />
<br />
<b>पुनश्चः </b>अनुराग कश्यप को मेरी ओर स्पेशल वाला थैंक्यू और बधाई कि जिस बनारस को खासतौर पर गालियों के लिए भी जाना जाता है, उस बनारस और इलाहाबाद के सामंती परिवेश को फिल्माते हुए कहीं भी मां-बहन की गाली का इस्तेमाल नहीं हुआ और गालियों के बिना फिल्म में कोई कमी नहीं लगी। पिछली बार 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की जब मैंने इस लोकेशन से गालियों के बेवजह और जबरन इस्तेमाल पर सवाल उठाया था तो बहुत सारे लोगों को बुरा लगा था। एक अभियान भी चला था कि गालियां समाज की हकीकत हैं और उसे फिल्माना समाज के यथार्थ को स्वीकार करना है। लेकिन आखिर अनुराग कश्यप ने भी कर दिखाया कि गालियों के बिना भी समाज की हकीकत से जूझा जा सकता है..! हालांकि इस संदर्भ में कोई देखना चाहे तो 'पानसिंह तोमर' देख सकता है, जो इस सवाल पर एक कामयाब प्रयोग है और गालियों के समर्थकों को आईना दिखाता है।</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-12072440794638123352017-03-28T12:55:00.001-07:002017-03-28T12:57:42.096-07:00'अनारकली ऑफ आरा' : हक के हौसले से लबरेज बगावत...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2nopYqlZVgKYUKIb2xV4w_C2H3Ga7fpdhG-R_XNhp05fYOGJGUdxMdjDi9thpmJl0GQzxgeRPQOh0DN6vWD1arLu-yhX86j0Hfy1O8nwEaLgCfbusmfhBOWsF1pmXVwMTAIiGEaU5R3w/s1600/anaarkaliofaarah7.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2nopYqlZVgKYUKIb2xV4w_C2H3Ga7fpdhG-R_XNhp05fYOGJGUdxMdjDi9thpmJl0GQzxgeRPQOh0DN6vWD1arLu-yhX86j0Hfy1O8nwEaLgCfbusmfhBOWsF1pmXVwMTAIiGEaU5R3w/s320/anaarkaliofaarah7.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: center;">
<b><i>[पारंपरिक फिल्म समीक्षा नहीं लिखनी आती है, इसलिए पहले ही खेद जाहिर कर रहा <br />हूं...! और कभी-कभी कुछ ज्यादा पढ़ लेने में घाटा नहीं है...]</i></b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: center;">
<b><i><br /></i></b></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<i><span style="background-color: black; color: red;">दुख </span><span style="background-color: white; color: #1d2129;">से पैदा हुआ जीवट जब दुख को पैदा करने वालों के सामने चुनौती फेंकता है तो आसमान से उम्मीद की बरसात होती है... और जमीन पर नए हौसले से लबरेज़ ख्वाबों की फसल लहलहाने लगती है...!</span></i><br />
<i><span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></i></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">इसी</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> दिसंबर में पंजाब के बठिंडा के किसी समारोह में एक गर्भवती महिला स्टेज डांसर ने अपने डांस से झूमते बंदूक लहराते कुछ गुंडे मेहमानों को अपने साथ मनमानी करने से मना किया और गुंडों ने डांसर को गोली मार दी। तो 'अनारकली ऑफ आरा' अपने सबसे पहले सीन को लगभग इसी सच के साथ उतारती है।</span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;"><br /></span>
<span style="background-color: black; color: red;">तकरीबन</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> ढाई-तीन दशक पहले बिहार में कई ऐसी शादियों का गवाह रहा हूं, जिनमें अगर 'बाई जी का नाच' नहीं आया तो बरातियों और घरातियों (लड़की पक्ष वाले) के लिए शादी का समूचा आयोजन अधूरा माना जाता था। 'बाई जी के नाच' की मौजूदगी से दूल्हे पक्ष की 'औकात' मापी जाती थी! (आज भी ऐसा होता है या नहीं, पता नहीं!) हालांकि यह आमतौर पर सवर्ण और खासतौर पर राजपूतों की शादियों की 'शोभा' होती थी।</span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;"><br /></span>
<span style="background-color: black; color: red;">तो</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> ऐसी ही एक शादी में 'बाई जी' के नाच के मनोरंजन और मन को भयानक धक्का देने वाली हकीकत के साथ फिल्म की शुरुआत हुई, तभी फिल्मकार की मंशा (पढ़ें मकसद) साफ हो जाती है! 'दिखने' में ही [क्या चुनाव है..!] 'राजपूत' लगते बरातियों के 'चाचा' ने 'बाई जी' को 'नेग' की तरह बंदूक की नोक पर नोट पर फंसा कर होंठों से पकड़ने का एक तरह से हुक्म जारी किया और फिर अचानक धमाके के बाद पर्दे पर अंधेरा छा गया।</span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;"><br /></span>
<span style="background-color: black; color: red;">फिर</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> आप पर्दे पर उभरा एक बच्ची का जड़ हो गया चेहरा नहीं देखते हैं, अगर देख सकते हैं तो देखते हैं कि कैसे चंद घड़ी के भीतर दो औरतों की तकदीर तय कर दी जाती है और उसे तय करने वाले वे लोग कौन होते हैं! मस्त झूमती मर्द भीड़ के साथ वह 'चाचा' टाइप चेहरा एक व्यवस्था की नुमाइंदगी का महज एक छौंक भर होता है... चौड़े कंधे... ऊंचे भारी शरीर वाला... हाथों में बंदूक लहराता... ऐंठी हुई मूछों वाला मर्द...!</span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;"><br /></span>
<span style="background-color: black; color: red;">बहरहाल</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;">, फिर 'बारह साल बाद' की कहानी आगे बढ़ती है, सामंती ठसक के साथ जीते समाज की हर परत को बेपर्द करती चलती। इसमें आपको पर्दे के बीच में जितना दिखता है, उससे ज्यादा पर्दे के कोने-अंतरे से झांक रहा होता है। जिसने कस्बे या गांवों की जिंदगी जी होगी, उसे याद होगा कि कमर तक चढ़े छोटे बुशर्ट और टखने से ऊपर पैंट के साथ हवाई चप्पल पहने... बाएं हाथ को पीछे पीठ से सटा कर दाहिनी ओर लाकर दाहिने हाथ के कोहनी पर पकड़े और चुपके से अनारकली को देखता अनवर एक समूची हकीकत की तस्वीर दिखता है..! पहली ही मुलाकात में अनवर के ढोलक की थाप पर चेहरे के लय के साथ बैठे-बैठे थिरकती अनारकली पर नजर नहीं ठहरे तो आपको दूसरी बार इस फिल्म को देखना चाहिए! इसी तरह 'रंगीला संगीत मंडली' के मालिक और स्टेज पर अनाउंसर रंगीला के कपड़े और उसकी एकदम ठस्स देशज थिरकन और पांव पीछे मोड़ कर उछलना जिंदा दृश्य हैं!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;">तो</span><span style="color: red;"> </span></span><span style="background-color: white; color: #1d2129;">झांकते हुए दृश्यों की बात थी। दशहरे के मौके पर थाने में स्टेज शो के दौरान 'ऐ दरोगा दुनलिया में जंग लागा हो...' गीत पर शराब में झूमते हुए स्टेज पर चढ़ कर अनारकली से सार्वजनिक मनमानी करते धर्मेंद्र चौहान और उससे पहले के स्टेज शो के बाद गली के अंधेरे में नशे में डगमगाते हुए 'ऐ सखी तू... ना सखी बदरा...' दोहराते आदमी में फर्क करना बहुत मुश्किल नहीं है। एक शख्स स्टेज पर जाकर सरेआम मनमानी करने की कूबत रखता है और दूसरा शख्स वैसी ही हालत में डगमगाते कदमों से अंधेरी गली में गुनगुनाता गुजरता है। आखिर एक यूनिवर्सिटी के राजपूत वीसी धर्मेंद्र चौहान के सामाजिक रुतबे और अंधेरी गली में डगमगाते दिखने में ही किसी हाशिये के समाज से लगते उस आदमी की सामाजिक 'औकात' में फर्क तो है...। कहां से आती है 'बाई जी' के नाच से उपजी कुंठा को सरेआम आपराधिक तरीके से जाहिर करने की हिम्मत और उसी कुंठा को अंधेरी गली में बिखेर कर खुद को 'राजा' मान लेने का भरम...! मर्दाना कुंठा का कुआं हर मोहल्ले में है... अलग-अलग समाज... अलग-अलग कुआं...! कहीं सरेआम रुतबे के रोब का नाच तो कहीं अंधेरे में अकेले उड़ेल देने की राहत..!</span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;"><br /></span>
<span style="background-color: black; color: red;">स्टेज</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> पर नशे में झूमता धर्मेंद्र चौहान जब अनारकली से मनमानी करने की कोशिश करता रहता है, ठीक उसी समय अनारकली को बचने के लिए उधर से इधर होने के रंगीला के हाथों के इशारे दरअसल यह बताते हैं कि दृश्यों में कल्पनाशीलता कैसे रची जाती है! वहीं अपनी मंडली की अनारकली को बचाने के लिए धर्मेंद्र चौहान से महज गुहार लगाते रंगीला यादव के सामाजिक मनोविज्ञान को समझने के लिए थोड़ा धीरज चाहिए! उसके बाद धर्मेद्र चौहान के गाल पर अनारकली की थप्पड़ में मुझे बंदूक की गोली की उस आवाज का पता मिलता लगा, जिसने अनारकली की मां चमकी देवी को मार डाला था...! वैसे घुमावदार मूंछों वाले मर्द धर्मेंद्र चौहान को वहां ऐसा करते देखते हुए क्या आपको पहले दृश्य में बंदूक लहराते हुए उस ऐंठी हुई मूंछों वाले 'चाचा' टाइप मर्द की याद आई..?</span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;"><br /></span>
<span style="background-color: black; color: red;">इस</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> हंगामे के बाद अनारकली को वेश्यावृत्ति के आरोप में फंसाए जाने से लेकर धर्मेंद्र चौहान को थप्पड़ मारने के बारे में बताने, फिर हमले के बाद अनवर के साथ दिल्ली भागने और दिल्ली के उठा-पटक के दृश्यों में जो जिंदगी डाली गई है, वह वही डाल सकता था, जो ऐसी आबो-हवा का 'रिसर्च' करने का दावा नहीं करता हो, बल्कि खुद उन दृश्यों के साथ कभी घुला-मिला रहा हो...!</span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;"><br /></span>
<span style="background-color: black; color: red;">इस</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> सबके बीच धर्मेंद्र चौहान, बुलबुल पांडेय और रंगीला के बरक्स अनारकली, अनवर, हिरामन जिस प्रतिनिधि चरित्र को जीते हैं, उसकी परतों को ठीक से उधेड़ा जाए तो पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद के तंत्र के बरक्स मैदान में खड़ी शासित स्त्री के लिए स्पेस और उसकी चुनौती दिखेगी। यह चुनौती दिल्ली से वापस लौटती है। फिर जिस तरह धर्मेंद्र चौहान ने सरेआम स्टेज पर अनारकली के सम्मान, गरिमा और अस्मिता को तार-तार करने की कोशिश की थी, उसी तरह स्टेज पर ही अनारकली नाचती है धर्मेंद्र चौहान के लिए, मगर उसी को अंजाम तक पहुंचा देती है, उसके पहले वाली हरकत के साथ! वहां अनारकली का केवल नाचना नहीं है, गीतों के बोल नहीं है, बगावत और चुनौती की समूची जिंदा तस्वीर है। स्वरा भास्कर और उनके निर्देशक ने वहां नाचने और गाने को जो अभिव्यक्ति दी है, वह शायद बहुत लंबे समय तक लोगों को याद रहे!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">अपनी</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> जिंदगी की हकीकत के स्वीकार के बावजूद अपनी मर्जी को अपने हक के तौर पर अनारकली शायद ज्यादा ताकतवर तरीके से दर्ज करती है। औरत गाने वाली हो, कोई और हो या फिर बीवी हो! और अगर किसी को धोखा हो कि अनारकली बगावत और प्रतिरोध के उस स्तर तक कैसे गई तो यह कोई सवाल नहीं होगा। सबसे शुरू में पर्दे पर अपनी मां को गोली मारे जाते देखने के बाद से लेकर अनारकली के चरित्र को इस तरह गढ़ा गया है कि किसी भी सीन में उसकी आक्रामकता जरा भी हैरान नहीं करती। बल्कि ज्यादा सहज और स्वाभाविक लगती है!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></div>
<div style="font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">बेशक</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> आभिजात्य आग्रहों की दुनिया में अनारकली के संघर्ष को स्त्रीवाद की क्लासिकी के तौर पर नहीं देखा जाएगा। इसकी कोई जरूरत भी नहीं। लेकिन दिलचस्प यही है कि स्त्री के जमीनी संघर्ष के अलग-अलग आयामों और आख्यानों से ही स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी तैयार होती है, हो सकती है! अनारकली अपनी लड़ाई और जवाब की जमीन खुद बनाती है। जब अनारकली की चुनौती के लहजे में गीत ये लफ्ज लहराते हैं कि 'अब त गुलमिया के ना ना ना...' तब अचानक लगता है कि धर्मेंद्र चौहान और बुलबुल पांडेय की शक्ल में ब्राह्मणवाद के जीवन-तत्त्व सामंती मर्दवाद किसी डर के जादू से जड़ हो गए। वह जादू दरअसल हिम्मत और हौसले से लबरेज वह स्त्री है, जो धर्मेंद्र चौहान और बुलबुल पांडेय की बिसात पर उन्हीं को मात देती है!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhU7vwwl16nilQpuwLVCRbXyRxdH8A9JoKxm0bjccF8_r15BJKwSyh1FiqAFuYanYySh3L9LrIYiDakBPKzSou1F9-qh6ozgMEwhsRDeu3jndlYtkmTJVe-z75s22CZMW3uzZ5CFM3kmTE/s1600/anaarkali-of-aarah.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhU7vwwl16nilQpuwLVCRbXyRxdH8A9JoKxm0bjccF8_r15BJKwSyh1FiqAFuYanYySh3L9LrIYiDakBPKzSou1F9-qh6ozgMEwhsRDeu3jndlYtkmTJVe-z75s22CZMW3uzZ5CFM3kmTE/s320/anaarkali-of-aarah.jpg" width="320" /></a></div>
<br /></div>
<div style="font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">मेरे</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> जैसे हर चीज में राजनीति खोजने वालों के लिए यह फिल्म खालिस राजनीति है और कम से कम मेरे लिए राहत की वजह यह ज्यादा है। 'अब त गुलमिया के ना ना ना' की अनारकली की घोषणा सामंती मर्दवाद को खौफ से भर देता है, तो हिरामन के 'देस के लिए खा लीजिए...' जैसे डायलॉग से लेकर 'सूट-बूट', 'जुमला', 'दुबई' जैसे शब्दों से लैस 'मोरा पिया मतलब का यार...' गीत मौजूदा सत्ताधारी तबकों की राजनीति को सीधे निशाने पर लेती है। हिरामन के 'देस के लिए...' या अनारकली के 'कड़ाही भी आपका और तेल भी आपका... अब पूड़ी बनाइए या हलवा... आपकी मर्जी...!' अपने हर संवैधानिक अधिकार को भी 'देश के लिए...' के खत्म मान लेने और देश को अपनी कड़ाही मानने वाली सत्ता का चरित्र आज क्या है... जनता उसकी नजर में क्या है... कब वह अपनी मर्जी से जनता का हलवा या पूड़ी बना कर बाजार में नहीं बेच रही है...! तो ऐसे संवादों को केवल द्विअर्थी के दायरे में देखने के बजाय अगर सत्ता के चरित्र के आईने में देखें तो शायद कुछ ज्यादा खुलता है।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></div>
<div style="font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">स्टेज</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> पर एक गाने के दौरान अनारकली जब ठिठोली में रंगीला के दाहिने पांव को मारती है और रंगीले अंदाज में रंगीला कहता है कि 'अब बाकी जिंदगी 'बाएं' पर, तो इसका मतलब समझना बहुत मुश्किल नहीं होता! बल्कि हाल के दिनों में जहां सत्ता के लिहाज से सत्ता के हक में फिल्मी मोर्चे पर सरेंडर जैसा दिखता है, वहीं अपनी कहानी और प्रस्तुति में स्थानीयता के बावजूद 'अनारकली ऑफ आरा' यह बताने के लिए काफी है कि कल्पनाशीलता और जीवट हो तो एक फिक्र के दौर में भी सियासत के सामने खड़ा हुआ जा सकता है, कुछ सवाल रखे जा सकते हैं...!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></div>
<div style="font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">फिल्मकार</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> ने एक जो सबसे जरूरी काबिलियत दिखाई है, वह यह है कि जिस पूरी फिल्म में गाली-गलौज को भर देने की गुंजाइश थी, उसे गालियों से लगभग बचा ले जाना! इससे पहले यही काबिलियत 'पान सिंह तोमर' में तिग्मांशु धूलिया ने साबित की थी! इसके लिए मेरी ओर से निर्देशक अविनाश को खास मुबारकबाद!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></div>
<div style="font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">बाकी</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> मैं आमतौर पर फिल्मों के कला पक्ष पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देता, क्योंकि समझना नहीं आता। फिर भी, यह कहा जा सकता है कि निर्देशक अविनाश की यह पहली फिल्म नहीं लगती...! ऐसा लगता है कि वे कई और फिल्में बना चुके हैं! अनारकली की कितनी भी तारीफ कम ही होगी। स्वरा भास्कर ने तो जैसे अनारकली को ही जीया है...। पंकज त्रिपाठी की हरेक गतिविधि... शारीरिक मूवमेंट दर्ज करने वाली है, संजय मिश्रा नहीं हैं, वे वीसी धर्मेंद्र चौहान हैं, इश्तियाक खान सिर्फ हिरामन ही दिखे... अनवर का चुनाव कामयाब है। एटीएम, मफलर सभी इस फिल्म के लिए जीवन हैं! गीतों से भरी इस फिल्म के गीत जमीनी हकीकत से खुद को जोड़ते हैं और इस फिल्म की तरह स्थायी महत्त्व के हैं।</span></div>
<div style="font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;"><br /></span>
<span style="background-color: black; color: red;">जब</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> स्कूल में बच्ची अनारकली को किसी मास्टर ने कहा होगा 'गंदा गाना' गाने के लिए, तो आखिर वह कौन-सी मानसिक प्रताड़ना होगी कि अनारकली ने स्कूल जाना छोड़ दिया होगा..! क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि देश के स्कूलों में दलित-वंचित तबकों के वे तमाम बच्चे स्कूल जाना इसलिए छोड़ देते हैं कि स्कूल कई बार उन्हें सामाजिक यातना और अपमान के ठिकाने लगने लगते हैं..! तो इस सिरे से जुड़े अनारकली के तेवर शुरू से ही बगावती रहे, इसलिए बाद में अगर किसी पर उसका चप्पल चल जाता है, रंगीला के चांटे के बदले वह उसे उससे ज्यादा जोर का चांटा लगा देती है, कभी वह किसी पेशाब करते लड़के के साइकिल को लेकर तेजी से भाग जाती है तो कभी सीधे धर्मेंद्र चौहान की निजी महफिल में ताली बजा कर पीट कर बताने चली जाती है कि 'हम तुमको चांटा मारे थे' तो यह कहीं से भी जबरन या अस्वाभाविक नहीं लगता है!</span></div>
<div style="font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhL0GPJmjRoKaY-fe8-KlZaHmdn4qYEzXofDP1Oj9cibk-HidU1VE0QrQtqnYG-qj0AxWn5hyphenhyphenTKc_XwgpCq8961ISy-7_IF_saYH3irbLpJumMUGUKI8-kw2D4h528d8NSYVowhjO6iVBM/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhL0GPJmjRoKaY-fe8-KlZaHmdn4qYEzXofDP1Oj9cibk-HidU1VE0QrQtqnYG-qj0AxWn5hyphenhyphenTKc_XwgpCq8961ISy-7_IF_saYH3irbLpJumMUGUKI8-kw2D4h528d8NSYVowhjO6iVBM/s1600/images.jpg" /></a></div>
<div style="color: #1d2129;">
<span style="background-color: black;"><br /></span></div>
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;">इसके </span></span><span style="background-color: white; color: #1d2129;">अलावा, ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में रंगीला यादव की 'रंगीला संगीत मंडली' जैसी मंडलियों के समाज का चेहरा देखा जाए, तो शायद अनारकली, अनवर, चचा या खुद रंगीला अमूमन हर मामले में सत्ता के सामाजिक ध्रुव के बरक्स हाशिये के समाज पर ही दिखेंगे...। पता नहीं 'तीसरी कसम' का हिरामन केवल हिरामन था या नहीं! लेकिन 'अनारकली...' का हिरामन अगर केवल हिरामन ही रहता तो मेरी नजर में वह हिरामन तिवारी से ज्यादा अहम होता...! इसके बावजूद, फिल्म में कई ऐसी हिम्मत दिखती है कि हिरामन तिवारी को अपवाद में हिरामन के तौर पर स्वीकार कर लिया जा सकता है! एक विश्वविद्यालय के वीसी धर्मेंद्र चौहान और बुलबुल पांडेय के जरिए शायद फिल्मकार ने यह दिखाने की कोशिश की है कि सत्ता और उसके तंत्र की कमान आखिर समाज के किन तबकों की अंगुलियों में हैं..! खासतौर पर वीसी धर्मेंद्र चौहान के गले में लटका दिखता सफेद धागे का मोटा माला दरअसल 'जनेऊ' का आभास देता है। 'गुड्डू रंगीला' फिल्म का वह दृश्य याद आता है जब खाप पंचायत में खड़े 'जाट' बिल्लू को बनियान के ऊपर से ब्राह्मणों वाला जनेऊ पहने दिखाया जाता है..! फिर अनारकली को अपनी गीता के लिए लिखी शायरी सुनने के बदले मुफ्त में लिप्स्टिक देने वाले दुकानदार की एक लाइन एक त्रासद सामाजिक बयान है- 'हमारा नाम नहीं बोलिएगा, नहीं त खेला हो जाएगा... कास्ट का प्रोब्लम है..!' यहां एक शब्द 'कास्ट' डाल देने के बाद इस दृश्य का क्या महत्त्व हो गया है, यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है! इस तरह के प्रयोग पर्दे पर बदलते समाज की जरूरत का अहसास करते हैं..!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></div>
<div style="font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">जो हो</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;">, इस फिल्म का आखिरी सीन आंखों में ठहर गया लगता है। धर्मेंद्र चौहान या ब्राह्मणवादी सामंती मर्दवाद को सरेआम बेपर्द करके जलील करने के बाद अनारकली जब अपने रास्ते में अकेले निकल पड़ती है तो सुनसान सड़क पर उसके चेहरे के आजाद भाव, जीत की मुस्कान के साथ सिर झटकने से लेकर अपने घाघरे को झटका देकर हवा में उड़ाने की बेफिक्री का दृश्य रचना आसान नहीं!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #1d2129;"><br /></span></div>
<div style="display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
<span style="background-color: black; color: red;">सहानुभूति</span><span style="background-color: white; color: #1d2129;"> दया की शक्ल में यथास्थितिवाद का औजार होती है। यह फिल्म मेरे लिए मुग्ध होने का मसला इसलिए है कि रोने-गाने को यथार्थ दृश्यों की तरह जीवंत करने और सामाजिक त्रासदी को नियति की तरह पेश करने के बजाय शासित और पीड़ित ध्रुव की ओर से प्रतिरोध और बगावत का एक खास मकसद सामने रखती है...! वर्चस्व की सत्ता प्रतिरोध और बगावत की आवाज ही सुनती है...! यह फिल्म और फिल्मकार इसलिए मेरे लिए मुग्ध होने का मामला है...!</span></div>
</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-35084572432777603582016-09-25T10:28:00.001-07:002016-09-25T10:35:56.902-07:00PARCHED : स्त्रीवाद नहीं, लेकिन मर्दवाद के सिंह-आसन की चिंदी-चिंदी...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdRKnQHg8F-W1XfgEsOxg-QaSt3TURLMJGCSRLjmAnSgweBbG-qd_A5ZxsaJS291eBvy3uuQRWHkQHXnHPCN7_p4rXDB16b26RFp5Dbp7vcP1UAOi641dNTuv77-7ZlGfo7S5JS1lFH_8/s1600/17PARCHED.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdRKnQHg8F-W1XfgEsOxg-QaSt3TURLMJGCSRLjmAnSgweBbG-qd_A5ZxsaJS291eBvy3uuQRWHkQHXnHPCN7_p4rXDB16b26RFp5Dbp7vcP1UAOi641dNTuv77-7ZlGfo7S5JS1lFH_8/s320/17PARCHED.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
मैं 'पिंक' की तुलना 'पार्च्ड' से इसलिए नहीं करना चाहता हूं कि 'पिंक' आखिरकार अपने उस एजेंडे के खिलाफ जाकर खड़ी हो जाती है, या ज्यादा उदार होकर कहें तो अपने ही एजेंडे को कमजोर कर देती है, जिसमें बुनियादी मकसद स्त्री को पुरुष-तंत्र और उसके मानस से स्वतंत्र और कहीं उसके बरक्स करना है। पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत इसके बरक्स खड़ा होने से शुरू होगी, उसके आसरे में नहीं। फिर भी, 'पिंक' की अपनी अहमियत है।</div>
<div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
<br />
बहरहाल, 'पार्च्ड' अपने उस एजेंडे में पूरी तरह कामयाब है, जिसमें स्त्री की जिंदगी, स्त्री के लिए, स्त्री के हाथों में और स्त्री के द्वारा तय होने की मंजिल तक पहुंचती है। हो सकता है कि 'पार्च्ड' की चारों स्त्रियों ने कथित मुख्यधारा के स्त्रीवाद का कोई आख्यान नहीं रचा हो, लेकिन कहीं उन्होंने मर्दवाद के भरोसे से बाहर खुद पर भरोसा किया, कहीं मर्दवाद को आईना दिखाया, कहीं मर्दवाद के बरक्स खड़े मर्द को स्वीकार किया तो कहीं मर्दवाद का मुंह तोड़ दिया। यानी यह कथित मुख्यधारा का स्त्रीवाद नहीं भी हो सकता है, लेकिन मर्दवाद के सिंहासन के पाए जरूर तोड़े।</div>
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<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
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दरअसल, 'पार्च्ड' में स्त्री की जमीनी हकीकतों का सामना जो स्त्रियां करती हैं, उन्होंने कोई क्रांति या स्त्रीवाद की पढ़ाई नहीं की है, लेकिन जहां उनके सामने 'आखिरी रास्ता' का चुनाव करने का विकल्प बचता है, वहां वे पुरुषवाद और पितृसत्ता की कुर्सी के पायों की चिंदी-चिंदी करके रख देती हैं। मुमकिन है, उसे स्त्रीवाद की क्लासिकी के दायरे में न गिना जाए। लेकिन स्त्री के अपनी जिंदगी को इसी सिरे से बरतने की पृष्ठभूमि में स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी तैयार होती है।</div>
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लज्जो अपने 'बांझ' होने को तब तक मजाक बना कर जीती है और पति के हाथों यातना का शिकार होती है, जब तक बिजली उसे यह नहीं बताती कि 'बांझ' उसका पति भी हो सकता है। ('बोल'- जिसमें बेटी या बेटा होने के लिए मर्द जिम्मेदार है।) वह पति, जिसकी मर्दानगी हर अगले पल जागती है और उस वक्त तूफान की शक्ल अख्तियार कर लेती है, जब लज्जो उसे यह खबर देती है कि उसकी नौकरी पक्की हो गई है, नियमित पगार मिलेगी। इस पर उसके पति को अपनी 'जरूरत खत्म होने' के डर और मर्द अहं को ठेस लगने के दृश्य को जिस तरह फिल्माया गया है, वह केवल एक मर्द की नहीं, बल्कि समूचे पुरुषवाद की कुंठा का रूपक है। इसके अलावा, पति के मशीनी संवेदनहीन सेक्स और संतान पैदा करने की अक्षमता का दंश झेलते हुए बिजली के जरिए लज्जो जब एक बाबा के साथ सेक्स के जीवन-तत्व और सम्मान को जीती है और गर्भ लेकर पति को बताती है तो यह खबर पाते ही पति को जो सदमा लगता है, वह उसे खुद उसकी ही मर्दानगी के हमले की आग में जला डालता है।<br />
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लज्जो के चरित्र की व्याख्या मर्दवाद के केंद्र पर चोट करती है।</div>
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इधर पत्नी से ज्यादा रुचि दूसरी औरत में लेने वाले पति की मौत और अपने बेटे के बाल-विवाह के बाद रानी अपने लिए 'शाहरुख खान' के प्रेम की उम्मीद में खुश होती है। फिर बेटे के भी अपने पति की राह पर चले जाने के बाद बच्ची जैसी बहू के साथ खड़ी हो जाती है, उसे उसके प्रेमी के साथ किताब देकर विदा करती है।</div>
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जानकी ने बाल विवाह के बाद के जीवन से लेकर बलात्कार तक की त्रासदी को जिस तरह जीवंत किया है, अपने पति के भीतर के मर्द की मार से उपजी पीड़ा को जो भाव और अभिव्यक्ति दी है, वह हैरान करती है। भविष्य के लिए सिनेमा को एक बेहतरीन कलाकार मुबारक। </div>
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<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
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और समाज की जुगुप्सा के हाशिये पर खड़ी, लेकिन मर्दानगी की अय्याशी के लिए जरूरी बिजली ने ऊपर की तीनों महिलाओं की आंखों को जिस तरह फाड़ कर खोला, लज्जो को बताया कि बच्चा होने या नहीं होने के लिए उसका पति भी जिम्मेदार हो सकता है... लज्जो के साथ-साथ रानी को भी बताया कि सेक्स का मतलब केवल शारीरिक नहीं, दिमागी-मानसिक स्तर पर भी चरम-सुख होना चाहिए... लज्जो, रानी और जानकी, तीनों को बताती है कि गालियां केवल औरतों के खिलाफ इसलिए होती हैं कि इन्हें मर्दों ने बनाया है तो वह एक गंभीर बागी लगती है। और जब परदे पर चारों महिलाओं के मुंह से एक साथ गालियां गूंज रही थीं, तो समूचे सिनेमा हॉल में मैं अकेला था जो ताली बजाने लगा! हालांकि मैं किसी भी तरह की गाली के खिलाफ अब भी हूं! देह-व्यापार की त्रासदी को जिस तरह बिजली में उतरता हुआ पाते हैं, वह शायद सबको हिला देगा। लेकिन अपनी बाकी तीनों दोस्तों यानी लज्जो, रानी और जानकी को जिंदगी का सपना भी वही यानी समाज के लिए घिनौनी एक वेश्या ही देती है।<br />
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<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
'ये सारी गालियां मर्दों ने ही बनाई है...' 'मर्द बनने से पहले इंसान बन जा...' या 'देखता हूं, मर्द के बिना इस घर का काम कैसे चलता है..' जैसे कई डायलॉग तो सिर्फ बानगी हैं यह बताने के लिए कि फिल्मकार ने अपने एजेंडे को लेकर कितना काम किया है। खासतौर पर रानी का अपने किशोर बेटे को यह कहना कि 'मर्द बनने से पहले इंसान बन जा' उन तमाम आंदोलनों को आईना दिखाता है, जिसमें मर्दों से उनके सुधरने के लिए 'शास्त्रीय संगीत' के लहजे में स्त्री का सम्मान करने की फरियाद की जाती है...!<br />
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खैर, आजादी का एहसास करने फटफटिया पर बैठ कर निकल पड़ी तीनों या चारों महिलाएं जब नदी में निर्वस्त्र होकर नहाती हैं, तब वहां किसी कृष्ण के फटकने की जगह नहीं होती जो इन महिलाओं के कपड़े लेकर पेड़ पर भाग जाए! यानी हर अगले दृश्य में यह फिल्म मर्दवाद और पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री के सपने को एक नया आयाम देती है। इस सपने को किसी भी पुरुष के भरोसे पूरा नहीं होना है। जानकी के चोर और अय्याश पति का भाग जाना है, जानकी को उसका प्रेम हासिल हो जाना है, जो जाते समय उसकी किताबें और थैला थामता है, लज्जो के पति का जिंदा जल जाना है और रानी के 'शाहरुख खान' का पीछे छूट जाना है। आखिर समाज और परंपरा की दी हुई शक्ल को नोच और फेंक कर नई शक्ल के साथ जब बिजली, रानी और लज्जो एक चौराहे पर खड़ी होकर इस सवाल का सामना करती हैं कि अब राइट जाएं या लेफ्ट, तो आखिर में जवाब आता है कि इस बार तो हम तीनों अपने दिल की सुनेंगे...!</div>
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यहां इन्हें बचाने या इनका उद्धार करने के लिए के लिए कोई पुरुष नायक नहीं आता, शहरों की पढ़ी-लिखी और इंपावर महिलाओं को अपनी लड़ाई के लिए किसी पुरुष हीरो की छांव की जरूरत होती होगी, लेकिन गांव की अनपढ़ और साधनहीन 'पार्च्ड' की तीनों स्त्रियां जब घर की दहलीज से निकल जाती हैं तो वे अपने आप पर भरोसे से लबरेज होती हैं, उन्हें किसी हीरो की तलाश नहीं होती, अगर कोई 'शाहरुख खान' हीरो होना भी चाहता है तो वे उसे भी पीछे छोड़ कर निकल जाती हैं।<br />
इससे ज्यादा और साफ-साफ क्या कहा जा सकता था कि जिंदगी को जिंदगी तरह जीने की राह क्या हो सकती है..! गांव में कपड़े और वेशभूषा के हिसाब से ही दलित-वंचित परिवारों की महिलाओं को पहचान लिया जा सकता है। तो इनके जीवट का अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल है...! इससे ज्यादा पहचानना हो तो बिजली (स्त्री) के लिए दलाली करने को तैयार 'राणा' और पहले से दलाली करते 'शर्मा-वर्मा' (पुरुष) की साफ घोषणा का आशय समझा जा सकता है। 'राणा' और 'शर्मा-वर्मा' का मतलब आज के दौर में अलग से समझाने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।<br />
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बाकी टीवी, मोबाइल, स्थानीय कला को बेचने वाले एनजीओ वगैरह सिर्फ सहायक तत्त्व हैं। कहानी का केंद्र इनके सहारे नहीं, जानकी, बिजली, रानी और लज्जो के भरोसे टिका है।</div>
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पुनश्च-</div>
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एकः इस फिल्म में कमी के बिंदु मेरी निगाह में बस एक है- लज्जो के पति का घर में लगी आग में जलना और दूसरी ओर जश्न के तौर पर रावण के पुतले को जलाना। जब तीनों-चारों महिलाओं के नदी में निर्वस्त्र होकर नहाने के समय किसी कृष्ण को उनका कपड़ा लेकर पेड़ पर भाग जाने की कथा को खारिज किया गया, तो उसी सिरे से रावण-दहन से बचा जा सकता था, राम को भी कृष्ण की तरह खारिज किया जा सकता था।<br />
<br />
दोः 'पार्च्ड' सिनेमा आखिर किसके लिए बनाई गई है, उसका दर्शक वर्ग कौन होगा? 'पिंक' जैसी फिल्में भी किसी पीवीआर के साथ-साथ 'रीगल' जैसे साधारण सिनेमा हॉल में भी लगी थीं। इसलिए 'पिंक' तक आभिजात्य और साधारण, दोनों तबके पहुंचे। जबकि 'पार्च्ड' कम से कम दिल्ली के पीवीआर या ऐसे ही और बहुत कम और बेहद महंगे सिनेमा हॉल में लगी है। अंदाजा लगाइए कि यह फिल्म किस तबके की कहानी कहती है और उस तक पहुंचने और मनोरंजन करने वाले लोग किस तबके के ज्यादा होते हैं।<br />
<br />
बहरहाल, स्त्री और स्त्रीत्व से जुड़े मुद्दे पर फिल्म बनाते हुए शुजित सरकार और लीना यादव की फिल्मों ने बताया है कि एक ही विषय को डील करते हुए एक पुरुष और स्त्री की दृष्टि में कैसा और कितना फासला हो सकता है। पुरुष को साहस करना पड़ता है, इसलिए चीजें छूटेंगी या फिर गड़बड़ा जाएंगी, लेकिन स्त्री के पास अगर उसकी अपनी, अपने स्व की दृष्टि है तो उस गड़बड़ी को आमतौर पर संभाल लेगी। यह अंतर साफ करके सामने रखने के लिए लीना यादव से लेकर लहर खान तक को बहुत शुक्रिया...!</div>
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शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-7901973772990406342016-07-21T07:31:00.002-07:002016-07-21T07:32:43.942-07:00गुजरात दलित विद्रोहः स्वागत, इस सामाजिक क्रांति का...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9miaDCI0kMbbgHsNjQnAm0NPP3vwMD4PDYmvcIboHWcs9qRv8mo_w-XeFu1YjZS2h97pcyigg82irS6UgDI4e040NHlU2cpcdsqn8skVfpAZzPW4s4CKR7OYqb3cvkCetQQ8jOWBtOA0/s1600/cow.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9miaDCI0kMbbgHsNjQnAm0NPP3vwMD4PDYmvcIboHWcs9qRv8mo_w-XeFu1YjZS2h97pcyigg82irS6UgDI4e040NHlU2cpcdsqn8skVfpAZzPW4s4CKR7OYqb3cvkCetQQ8jOWBtOA0/s320/cow.jpg" width="263" /></a></div>
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<h3 style="text-align: left;">
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><span style="font-weight: normal;">गले का फांस बनी गाय की सियासत</span></span></span></h3>
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>गुजरात </b></span></span>में दलितों का विद्रोह खास क्यों है? यह इसलिए कि जिस गाय के सहारे आरएसएस-भाजपा अपनी असली राजनीति को खाद-पानी दे रहे थे, वही गाय पहली बार उसके गले की फांस बनी है। बल्कि कहा जा सकता है कि गाय की राजनीति के सहारे आरएसएस-भाजपा ने हिंदू-ध्रुवीकरण का जो खेल खेला था, उसके सामने बाकी तमाम राजनीतिक दल एक तरह से लाचार थे और उसके विरोध का कोई जमीनी तरीका नहीं निकाल पा रहे थे। गुजरात में दलित समुदाय के विद्रोह ने देश में आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति का सामना करने का एक ठोस रास्ता तैयार किया है।<br />
<br />
<b><span style="background-color: black;"><span style="color: red;">देश</span></span></b> में भाजपा की सरकार बनने के बाद पिछले लगभग दो सालों से लगातार कुछ ऐसे मुद्दे सुर्खियों में रहे हैं, जिनसे एक ओर वास्तविक मुद्दों से समूचे समाज का ध्यान बंटाए रखा जा सके और दूसरी ओर पहले से ही धार्मिक माइंडसेट में जीते ज्यादा से ज्यादा लोगों के दिमागों का सांप्रदायीकरण किया जा सके। साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ या दूसरे साधुओं-साध्वियों की जुबान से अक्सर निकलने वाले जहरीले बोल के अलावा जो एक मोहरा सबसे कामयाब हथियार के तौर पर आजमाया गया, वह था गाय को लेकर हिंदू भावनाओं का शोषण और फिर उसे आक्रामक उभार देना। हाल में इसकी चरम अभिव्यक्ति उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके में हुई, जहां सितंबर, 2015 में हिंदू अतिवादियों की एक भीड़ ने गाय का मांस रखने का आरोप लगा कर मोहम्मद अख़लाक के घर पर हमला कर दिया और उनके परिवार के सामने तालिबानी शैली में उन्हें ईंट-पत्थरों से मारते हुए मार डाला।<br />
<br />
<b><span style="background-color: black;"><span style="color: red;">लेकिन</span></span></b> इस तरह की यह कोई पहली घटना नहीं थी। अक्टूबर 2000 में हरियाणा में झज्जर जिले के दुलीना इलाके में पांच दलित एक मरी हुई गाय की खाल अलग कर रहे थे। उसी जगह से हिंदुओं के एक धार्मिक आयोजन से लौटती भीड़ ने उन पांचों को घेर लिया और गोहत्या का आरोप लगा कर उन्हें भी ईंट-पत्थरों से मार-मार कर मार डाला था। तब आरएसएस की एक शाखा विश्व हिंदू परिषद के एक नेता आचार्य गिरिराज किशोर ने कहा था कि एक गाय की जान पांच दलितों की जान से ज्यादा कीमती है।<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>गुजरात</b></span></span> में मरी हुई गाय की खाल उतारने ले जाते दलितों को बर्बरता से पीटे जाने की घटना से पैदा हुए तूफान के बाद भी एक बार फिर विश्व हिंदू परिषद ने अपनी वास्तविक राजनीति के अनुकूल बयान ही जारी किया। परिषद ने कहा- "नैसर्गिक रूप से मरी गायों और पशुओं के निपटान की हिंदू समाज में व्यवस्था है और वह परंपरागत रूप से चली आ रही है। इस व्यवस्था को गोहत्या कह कर कुछ तत्त्वों द्वारा जो अत्याचार हो रहा है, उसका विश्व हिंदू परिषद विरोध करती है।"<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>यानी</b></span></span> सैद्धांतिक तौर पर आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद मरी गायों और पशुओं के निपटान के लिए हिंदू समाज में 'परंपरागत व्यवस्था' होने की बात कहते हैं और व्यावहारिक तौर पर उन्हें जब भी अपनी राजनीति के लिए जरूरत होगी, मरी गायों को ले जाते या उनकी खाल उतारते दलितों को देख कर उन्हें गो-हत्यारा घोषित कर देंगें और फिर उनकी जान तक ले लेंगे। विश्व हिंदू परिषद या आरएसएस का रवैया इस मसले पर बिल्कुल हैरानी नहीं पैदा करता। बल्कि अच्छा यह है कि कई बार दबाव में आकर ये हिंदू संगठन अपना असली चेहरा दिखाते रहते हैं।<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>बौद्धिक</b> </span></span>हलकों में शायद इन सब पहलुओं से विचार किया गया होगा, इसके बावजूद सच यह है कि हिंदुत्व की सियासत में गाय के इस मोहरे का जवाब नहीं ढूंढ़ा जा सका था। पिछले तकरीबन दो सालों से देश के अलग-अलग इलाकों से आने वाली खबरें यह बताती रहीं कि समाज में 'गाय का जहर' हिंदू पोंगापंथियों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा है और जगह-जगह पर जिंदा या मरी हुई गाय ले जाते लोगों के साथ गऊ-रक्षक बेहद बर्बरता से पेश आते हैं। इसके अलावा, समूचे समाज में गाय अब एक मुद्दा बन चुकी है। बहुत साधारण रोजी-रोजगार में लगे लोग, जिन्हें गाय से कोई वास्ता नहीं है, वे 'गऊ-हत्या' के नाम पर उन्माद में चले जाते हैं। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के दनकौर में पंद्रह से पच्चीस वर्ष के तकरीबन पंद्रह युवाओं से एक साथ बात करते हुए मुझे हैरानी इस बात पर हुई थी कि वे यह कहने में बिल्कुल नहीं हिचक रहे थे कि 'कोई गऊमाता को मारेगा तो हम उसे काट देंगे जी...!' इन युवाओं में कुछ दलित पृष्ठभूमि से भी थे। दस मिनट की बातचीत के बाद 'गऊमाता' के सवाल पर दलित किशोर चुप हो गए, लेकिन बाकी अपनी राय पर कायम थे।<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>हालांकि</b></span></span> गाय को लेकर उन्माद पैदा करने की कोशिशें हिंदुत्व की राजनीति का एक औजार रही हैं, लेकिन पिछले दो-तीन सालों के लगातार आबो-हवा में गाय के नाम पर जहर घोलने का ही नतीजा है कि एक जानवर के नाम पर लोग इंसानों को मारने-काटने की बातें सरेआम करने लगे हैं। सड़कों पर गोरक्षक गुंडे खुले तौर पर कानून हाथ में लेते हैं और मवेशी ले जाते वाहनों को रोक कर लोगों को बुरी तरह मारते-पीटते हैं या मार भी डालते हैं। झारखंड के लातेहर और हिमाचल प्रदेश से गोरक्षक गुंडों द्वारा मवेशी ले जाते लोगों को पकड़ कर मार डालने की खबरें सामने आईं। लातेहर में एक किशोर और एक युवक को मार कर पेड़ पर लटका दिया गया था। जहां-जहां भाजपा की सरकार है, वहां तो जैसे इन्हें अभयदान मिला हुआ है।<br />
गुजरात के ऊना में जिन लोगों ने चार दलित युवकों को सरेआम बर्बरता से मारा-पीटा, वे भी एक तरह से बाकायदा जिस पुलिस से संरक्षण प्राप्त थे, वह भी भाजपा सरकार की ही है। यों भी, पुलिस अपने राज की सरकार के रुख के हिसाब से ही किसी को खुला छोड़ती है या उसके खिलाफ कोई कार्रवाई करती है। कम से कम गुजरात में तो सन 2002 के दंगों से लेकर अब तक पुलिस ने यही साबित किया है।<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>लेकिन </b></span></span>उन गोरक्षक गुंडों से लेकर शायद आरएसएस-भाजपा तक को इस बात का अंदाजा शायद नहीं रहा होगा कि जिस गाय के हथियार से वे बाकी मुद्दों को दफ्न करने की कोशिश में थे, वह इस रूप में उनके सामने खड़ा हो जाएगा। पिछले दो-ढाई सालों में यह पहली बार है जब गाय की राजनीति को इस कदर और मुंहतोड़ तरीके से जवाब मिला है। ऊना में मरी हुई गाय की खाल उतारने ले जाते दलितों पर बर्बरता ढाई गई, उसी के जवाब में गुजरात के कई इलाकों में दलित समुदाय में मरी हुई गायों को ट्रकों में भर कर लाए और कलक्टर और दूसरे सरकारी दफ्तरों में फेंक दिया। संदेश साफ था। जिस सामाजिक व्यवस्था ने उन्हें इस पेशे में झोंका था, अगर उससे भी उन्हें अपने जिंदा रहने के इंतजामों से रोका जाता है, उसके चलते उन पर बर्बरता ढाई जाती है तो वे यह काम सरकार और प्रशासन के लिए छोड़ते हैं। अब वही करें गायों के मरने के बाद उनका निपटान।<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>अपने</b></span></span> ऊपर हुए जुल्म के खिलाफ खड़ा होने का यह नायाब तरीका है, यह अपने खिलाफ एक राजनीति का करारा जवाब है, यह एक समूची ब्राह्मणवादी सत्ता की राजनीति की जड़ पर हमला है। अच्छा यह है कि मुख्यधारा के मीडिया के सत्तावादी रवैये के चलते गुजरात में आए इस तूफान की अनदेखी और सच कहें तो इसे दबाने की कोशिशों के बावजूद विरोध के इस तरीके की खबर देश के दूसरे इलाकों तक भी पहुंची है और इसके संदेश ने व्यापक असर छोड़ा है। अब जरूरत यह है कि मरी हुई या जिंदा गायों को इस देश में गोरक्षा का कथित आंदोलन चलाने वाले आरएसएस-भाजपा और उनके दूसरे संगठनों के सदस्यों के घर छोड़ दिया जाए, ताकि वे अपनी 'गऊमाता' के प्रति अपनी निष्ठा दर्शा सकें। मरी या जिंदा गाय से पेट भरने लायक जितनी आमदनी होती है, उससे ज्यादा दूसरे किसी रोजगार में हो सकती है।<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>जाहिर</b></span></span> है, यह एक ऐसा जवाब है जिससे आरएसएस-भाजपा की समूची ब्राह्मणवादी राजनीति की चूलें हिल सकती हैं। अगर यह आंदोलन आगे बढ़ा और समूचे देश के दलितों ने मरे हुए जानवरों के निपटान के काम सहित मैला ढोने, शहरों-महानगरों से लेकर गली-कूचों या फिर सीवर में घुस कर सफाई करने या जातिगत पेशों से जुड़े तमाम कामों को छोड़ कर रोजगार के दूसरे विकल्पों की ओर रुख करते हैं तो बर्बर और अमानवीय ब्राह्मणवादी समाज के ढांचे को इस सामंती शक्ल में बनाए रखना मुश्किल होगा।<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>गुजरात</b></span></span> में दलित समुदाय ने पहली बार मरी हुई गायों और दूसरे जानवरों के जरिए आरएसएस-भाजपा और हिंदुत्ववादी राजनीति के सामने एक ठोस चुनौती रखी है। इसके अलावा, उन्होंने सड़क पर उतर कर और उनमें से कुछ ने आत्महत्या की कोशिश में छिपे दुख को जाहिर कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराया है। इस स्वरूप के आंदोलन के महत्त्व आरएसएस को मालूम है और वह अपनी ओर से इससे ध्यान बंटाने के लिए कुछ भी कर सकता है। इसलिए इस विद्रोह की अनदेखी करने या दूसरे कम महत्त्व के मुद्दों में उलझने के बजाय अब दलित समुदाय की ओर से शुरू की गई इस सामाजिक क्रांति का स्वागत और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश उन सब लोगों को करने की जरूरत है, जो आरएसएस-भाजपा की ब्राह्मणवादी राजनीति को दुनिया का एक सबसे अमानवीय सामाजिक राजनीति मानते हैं।</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-20073941175511260782016-06-15T06:15:00.000-07:002016-06-15T06:15:16.114-07:00कैराना के झूठ के सहारे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTXypUBvpLwSy4dBN6AtkDL79K2vwuHwkpK7UOqBAtllf0JX59-s1srcKy5FWqplgXUYwY4GVNz95FSX_JoEAEM8UZnp1I_DqnmO4nKTy9r1quxDZWQKfXp-Cv-uNeMSxLsucSKIl_La4/s1600/epaper.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTXypUBvpLwSy4dBN6AtkDL79K2vwuHwkpK7UOqBAtllf0JX59-s1srcKy5FWqplgXUYwY4GVNz95FSX_JoEAEM8UZnp1I_DqnmO4nKTy9r1quxDZWQKfXp-Cv-uNeMSxLsucSKIl_La4/s320/epaper.jpg" width="247" /></a></div>
<br /><br /><b>साक्षी</b> महाराज या साध्वी प्राची जैसे नफरत की आग उगलने वाले लोगों की बेलगाम बातों को अब तक भाजपा उनकी व्यक्तिगत राय बता कर दिखने के लिए खुद को दूर करती रही है। हालांकि अब सब जानते हैं कि ये बेलगाम हिंसक बयान किस राजनीति का हिस्सा हैं, लेकिन अब वह परदा भी उठ रहा है।<br /><br />भाजपा के सांसद हुकुम सिंह की ओर से उठाए गए मुद्दे के बाद बाकायदा भाजपा अध्यक्ष की हैसियत से अमित शाह ने कहा कि 'उत्तर प्रदेश को कैराना की घटनाओं को हलके में नहीं लेना चाहिए, यह एक सदमे में डालने वाली घटना है... कैराना से (हिंदुओं का) भगाया जाना कोई साधारण घटना नहीं है!'<br /><br />वे उस दिन भी सार्वजनिक रूप से यह कह रहे थे जब हुकुम सिंह की ओर से जारी लिस्ट की कलई खुल चुकी थी और कैराना के झूठ की खबरें चारों तरफ चलने लगी थीं। हालांकि भाजपा के लिए यह कोई नया 'प्रयोग' नहीं है, लेकिन अब शायद भाजपा ने तय कर लिया है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता के लिए मैदान में उसकी भावी राजनीति क्या होगी! यानी कैराना के झूठ को बेशर्म तरीके से मुद्दा बनाने के साथ ही अब यह साफ हो गया लगता है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के भावी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर किस तरह का खेल खेलने जा रही है। हालांकि दादरी में मोहम्मद अख़लाक के मारे जाने के बावजूद अब नए सिरे से कथित फोरेंसिक जांच के बहाने कथित गोवंश के मांस का मुद्दा उठा कर वह यही करने की कोशिश में है। तो एक तरह से भाजपा ने मान लिया है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए उसके पास अब शायद 'विकास' का जुमला भी नहीं रह गया है।<br /><br />दरअसल, पिछले दो-ढाई दशक के दौरान सत्ता की उसकी राजनीति के केंद्र में यही अफवाह फैलाने या किसी भी रास्ते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का फार्मूला रहा है। लेकिन केंद्र की सत्ता के लिए तात्कालिक तौर पर 'विकास' के जुमले का परदा ओढ़ा गया था। अपने इस जुमले के बारे में भाजपा खुद कितनी आश्वस्त है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनावी जीत के लिए उसे अपने इस नारे पर भरोसा नहीं रह गया है। अपने नारे के प्रति ईमानदार नहीं रहना किसी भी व्यक्ति या समूह को इसी हालत में पहुंचा दे सकता है। सो, दो साल के भीतर-भीतर देश में इस कथित विकास के जुमले की हकीकत साधारण लोगों तक पहुंचने लगी है और इसमें खुद भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने पंद्रह लाख रुपए जैसे शिगूफों को जुमला घोषित कर मदद की।<br /><br />दिक्कत यह भी है कि इस ओढ़े गए परदे के अलावा भाजपा के पास अपनी राजनीति के लिए सनातनी या हिंदुत्व की राजनीति के सिवा और क्या है, जिसके सहारे वह मैदान उतरे!<br /><br />सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशों के नाकाम हो जाने के बाद बिहार में 'विकास' के नारे की परीक्षा हो चुकी थी और लोग समझ चुके थे कि भाजपाई विकास का मतलब क्या होता है! इसलिए वहां बेहद बुरी हार के बाद भाजपा ने असम में अपने एजेंडे का खुला खेल खेला और जीत हासिल की। तो वही आदर्श लेकर अब वह उत्तर प्रदेश का मैदान आजमाने की फिराक में है।<br /><br />थोड़ी राहत की बात यह जरूर है कि दो-तीन दिन के भीतर ही कुछ हलकों की ओर से कैराना के झूठ पर से परदा उठाने की कोशिश की गई और कैराना का खुला भाजपाई फर्जीवाड़ा अब सामने है। सवाल है कि कैराना से कथित तौर पर भगाए लोगों की लिस्ट में से कई लोग जब खुद कह रहे हैं कि उनके साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ, यह लिस्ट फर्जी है, मनगढ़ंत है, तब भी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की हैसियत से अमित शाह 'कैराना से हिंदुओं के निकाले जाने' पर क्यों 'चिंता' जता रहे हैं!<br /><br />क्या अब भाजपा के पास चुनावी जीत के लिए यही रास्ता बच गया है? क्या भारत के इस लोकतंत्र और संविधान के उसूलों को वह ताक पर रख चुकी है? भारत में सत्ता पर काबिज जिस पार्टी के अध्यक्ष खुद झूठ के सहारे नफरत की राजनीति करने वालों को बढ़ावा दे रहे हों, प्रधानमंत्री को अपनी राजनीतिक पार्टी की इस तरह की गतिविधियों पर सख्ती से रोक लगाने की जरूरत नहीं पड़ रही हो, तो क्या यह भारत के संविधान और लोकतंत्र के तहत भारत में शासन करने की उसकी क्षमता पर सवालिया निशान है?<br /><br />जिस तरह बहुत मामूली मुद्दों को भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है, उसका हासिल क्या होना है? देशभक्ति और देश की एकता के लिए मर-मिटने का आह्वान करने वाले ही शायद देश को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं!</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-22272803639689740412016-05-31T20:11:00.000-07:002016-05-31T20:11:03.739-07:00नस्ल और जाति के खिलाफ नफरत के 'मामूली' औजार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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फौजी रहे और फिलहाल देश के विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह की नजर में सबसे त्रासद और कई बार देश के सामने असुविधाजनक हालत खड़ी करने वाली घटनाएं भी 'मामूली' होती हैं। इसलिए जब दिल्ली में अफ्रीकी नागरिकों पर हमले के मामले पर व्यापक पैमाने पर चिंता जताई जा रही है, तो उन्होंने अपने विचार प्रकट किए कि ये हमले 'मामूली झड़प' थे और इसे महज मीडिया 'बढ़ा-चढ़ा कर' पेश कर रहा है। वीके सिंह के ये खयाल तब भी सबसे सामने हैं जब उनके ही महकमे की कैबिनेट मंत्री सुषमा स्वराज ने इस मामले की त्वरित सुनवाई के आदेश दिए हैं। ये वही वीके सिंह हैं जिन्होंने फरीदाबाद में दलित बच्चों को जिंदा जला दिए जाने की घटना पर कहा था कि 'कोई कुत्ते को पत्थर मारें, तो भी क्या सरकार जिम्मेवार है'।<br />
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सवाल है कि किसी अफ्रीकी मूल के व्यक्ति की सरेआम हत्या कर दी जाती है या उन पर बिना वजह के जानलेवा हमले किए जाते हैं, तो ऐसी घटनाएं वीके सिंह की नजर में 'मामूली' क्यों होती हैं? कहीं दो बच्चों को जिंदा जला दिया जाता है और उस घटना पर प्रतिक्रिया जाहिर करने के लिए वीके सिंह को कुत्ते का ही उदाहरण क्यों मिलता है? सामाजिक दुराग्रहों और आपराधिक कुंठाओं के साथ-साथ सीधे-सीधे व्यवस्था की नाकामी से उपजी घटनाओं के मामले में सरकार उन्हें पूरी तरह मासूम क्यों लगती है? आखिर कानून-व्यवस्था से लेकर सामाजिक विकास की कसौटी पर सरकार की जिम्मेदारी उन्हें इतनी 'मामूली' क्यों लगती है? वे फौजी रहे हैं, लेकिन अब वे विदेश राज्यमंत्री हैं। तो क्या उन्हें अपने पद की गरिमा और दायित्व का भी अहसास नहीं है?<br />
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दरअसल, वीके सिंह जो भी कहते रहे हैं, वे भारतीय आम जनमानस में घुले आग्रहों-पूर्वाग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। क्या यह छिपा हुआ है कि सड़कों पर जैसे ही अफ्रीकी मूल अश्वेत चेहरे देखते ही भारत के परंपरागत पिछड़ी मानसिकता में जीने वाले लोगों के भीतर कौन-से खयाल उमड़ने लगते हैं? अश्वेत लोगों के खिलाफ सीधे-सीधे नफरत के भाव का सिरा कहां से शुरू होता है? आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि अश्वेत समुदाय के लोगों को देखते ही भारत के ज्यादातर लोगों के मन में शायद ही कोई सकारात्मक भाव उभरता है? अश्वेत या काले रंग के लोगों के प्रति ये दुराग्रह किस तरह की सोशल कंडीशनिंग का नतीजा हैं?<br />
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कई बार खुद जनप्रतिनिधि कहे जाने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा होता है कि समाज को अपने आग्रहों के साथ और ज्यादा ठोस होने की खुराक मिलती है। दिल्ली में पहली बार जब आम आदमी पार्टी की सरकार बनी थी तब उसके एक मंत्री सोमनाथ भारती और उनके साथियों ने स्थानीय लोगों के साथ मिल कर अफ्रीकी मूल की चार महिलाओं के साथ जैसा अपमानजनक बर्ताव किया था, वह अश्वेत लोगों के प्रति सामाजिक दुराग्रहों का ऐसा ही उदाहरण था।<br />
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एक लोकतांत्रिक समाज में सरकारें तमाम ऐसे इंतजाम करती हैं जिनमें सभी नागरिकों के भीतर इंसान के प्रति बराबरी और संवेदनशीलता के भाव का विकास हो। लेकिन किन वजहों से एक मंत्री को अफ्रीकी मूल के लोगों पर किया गया 'नस्लीय हमला' कोई मामूली घटना लगती है? क्या यह सामाजिक सत्ताधारी तबकों के बीच नस्ल और जाति की सामाजिक हैसियत की वजह से अपमान और यातनाओं को एक सहज स्थिति मान लेने का प्रतिनिधि स्वर है?<br />
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यों, दुनिया भर में अश्वेत समुदायों के खिलाफ श्वेत माने जाने वाले समुदायों के बीच धारणाओं और व्यवहार का एक त्रासद इतिहास रहा है। लेकिन भारत में यह ज्यादा जटिल हो जाता है। यहां चूंकि पहले ही दलित-वंचित जातियों को उनकी सामाजिक अवस्थिति के अलावा शरीर के रंग से भी चिहि्नत किया जाता रहा है, उसमें जो लोग गौर-वर्ण नहीं हैं, उनके लिए सत्ताधारी तबकों के बीच सिर्फ हेय दृष्टि ही है। जातीय ऊंच-नीच की बुनियाद से तय होने वाले रंगों के प्रति यही आग्रह अश्वेत समुदाय तक पहुंचते-पहुंचते नस्लीय घृणा में तब्दील हो जाता है। समाज के स्तर पर इस भाव और सोच के बने रहने की अपनी वजहे हैं जहां पैदा होने के बाद से ही जाति और रंग को लेकर एक दुराग्रह का भाव पाला-पोसा जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि सरकार के स्तर पर भी फौरी प्रशासनिक कदमों के अलावा सामाजिक विकास के पैमाने पर कुछ भी ऐसा नहीं किया जाता है, जिससे साधारण लोगों के बीच इस तरह के भावों से दूरी बनाने की स्थिति बने, माइंडसेट के स्तर पर कोई बदलाव हो।</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-75902095074212382242016-05-23T21:01:00.002-07:002018-08-30T00:27:15.828-07:00"बुद्धा इन ए ट्राफिक जाम" : सियासी परदे में किसका एजेंडा...!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7jHBQ3kTIwdnKnuSt5o53_d4HMF8L0M8U7PYj9vu_QaF-8smICYcMPEhyphenhyphenPB-I2ZISB-6FLKp3z57RwjG4NQVn0E29odRQ6JzBgODsL8Uja8v7TwTSOH6t_kd5yRY1cECxm4fZ1-Wg_7o/s1600/buddha.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7jHBQ3kTIwdnKnuSt5o53_d4HMF8L0M8U7PYj9vu_QaF-8smICYcMPEhyphenhyphenPB-I2ZISB-6FLKp3z57RwjG4NQVn0E29odRQ6JzBgODsL8Uja8v7TwTSOH6t_kd5yRY1cECxm4fZ1-Wg_7o/s1600/buddha.jpg" /></a></div>
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<span style="color: red;"><b>'शहरी नक्सलवाद' का शिगूफ़ा..! </b></span><br />
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देश के 'सबसे बड़े दुश्मनों' और 'सबसे बड़ी समस्याओं' से लड़ने के तरीके और उनसे पार पाने के 'रास्ते' अब वॉलीवुड के फिल्मकारों ने बताना शुरू कर दिया है! हालांकि सिनेमा के परदे पर 'उपदेश' तो पहले भी होते थे, लेकिन उन्हें 'फिल्मी' कह और मान कर माफ कर दिया जाता था! लेकिन अब फिल्में बाकायदा राजनीतिक एजेंडे के तहत दर्शकों को संबोधित करती हैं।<br />
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इस लिहाज से देखें तो 'बुद्धा इन ए ट्राफिक जाम' के निर्माता-निर्देशकों ने नक्सलवाद और सरकारी तंत्र के फंसे आदिवासियों की सभी तकलीफों या समस्याओं का हल निकाल लिया है, आदिवासियों के उद्धारकों की खोज कर ली है! यह उद्धारक है 'बिजनेस' और जाहिर है 'बिजनेसमैन' यह उद्धार करने के लिए अपने और आदिवासियों के बीच के सारे 'मिडिलमैन' यानी बिचौलिये को खत्म करना चाहता है!<br />
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परदे पर शुरुआती दो दृश्यों में पिछले डेढ़ दशक से एक हालत में अभाव की जिंदगी जीते एक निरीह, लाचार आदिवासी को सत्ता और नक्सलियों के बीच पिसने के 'मार्मिक' दृश्यों के जरिए हॉल में बैठे दर्शकों को सहानुभूति के सागर में गोते लगाने पर मजबूर किया जाता है, फिर 'लोक-स्पर्श' के गीत के जरिए बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई कराने वाले आधुनिक लड़के-लड़कियों को अपना 'सरोकार' जताते दिखाया जाता है। इस 'सरोकार' प्रदर्शन में पश्चिमी अंगरेजी मादकता है, शराब है, नशा है, एक बिंदास उन्माद है, 'नैतिक पुलिस' का हमला है... और सब पर 'सरोकार' का संगीत है..! यानी 'शहरी नक्सलवाद'..!<br />
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खैर, फिल्म आगे बढ़ती है और बताती है कि कैसे एक प्रोफेसर (अनुपम खेर) इतने बड़े बिजनेस स्कूल में घुसपैठ करके वहां के विद्यार्थियों को नक्सली बनाने की फिराक में है, एक 'भोले' स्टूडेंट (अरुणोदय) सिंह को वह इसके लिए फंसाना चाहता है, नक्सलियों के कमांडर तक कैसे प्रोफेसर की सीधी पहुंच है, घर में उसका दोहरा चेहरा है और उसकी पत्नी तक को नहीं मालूम कि वह नक्सली है! एक एनजीओ चलाने वाली या कार्यकर्ता कैसे सरकार से फंड लेकर वह पैसा नक्सलियों तक पहुंचाती हैं, वह प्रोफेसर कैसे सीधे आदिवासियों की मदद के प्रस्ताव को खारिज कर देता है। नक्सली राष्ट्रद्रोही हैं, उन्होंने जितने जवानों को मारा, उतने तो कारगिल जैसी लड़ाइयों में भी नहीं मारे गए! ये नक्सली एनजीओ वाले और बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर की तरह चेहरा बदल कर सिस्टम के हर कोने में पैठ चुके हैं और अमेरिका की चकाचौंध को ठुकरा कर भारत में बिजनेस के जरिए उद्धार करने की आकांक्षा पाले एक 'लाचार' नौजवान को कैसे इन सबसे डरना चाहिए। परदे पर परदा, विरोधाभासों के बीच..! ये 'शहरी नक्सलवादी' सबसे बड़ी चुनौती हैं!<br />
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बहरहाल, इसमें बदलाव का सपना लिए 'पिंक चड्ढी कैंपेन' चलाने वाले इस बिजनेस के दीवाने नौजवान के अलावा एक और 'लाचार' पक्ष है- सत्ता! सत्ता पूरी तरह निर्दोष है, मासूम है, वह आदिवासियों का कल्याण करने के लिए एनजीओ वालों को पैसा देती है और वे लोग वह पैसा नक्सलियों तक पहुंचा देते हैं! इसका हल सिर्फ और सिर्फ बिजनेस है, जो हर तरह के बिचौलियों को खत्म करके सीधे आदिवासियों का 'कल्याण' करेगा! वह बिचौलिया चाहे एनजीओ वाले हों या सरकार हो!<br />
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नक्सली क्यों और कैसे उगे, एनजीओ कैसे और क्यों उगे, सरकार की क्या जवाबदेही है, व्यवस्था की नाकामी के लिए कौन जिम्मेदार है, इससे सबसे फिल्मकार को कोई मतलब नहीं। उसकी निगाह में आदिवासियों का भला सिर्फ और सिर्फ इंडियन बिजनेस स्कूल, बिजनेस और बिजनेसमैन ही कर सकते हैं! आदिवासियों के लिए संवेदना का समंदर हाथ में लिए बिजनेस-सॉल्यूशन-मॉडल में समूचे देश में जमीन कब्जाने के खेल पर सोचने की कोई जरूरत नहीं, इस मॉडल में मजदूरों के सवालों के लिए कोई जगह नहीं, इससे सरकार या तंत्र की जरूरत और उसकी जिम्मेदारियों का क्या होगा, इसकी फिक्र नहीं, सरकार की जिम्मेदारियों पर सवाल खड़े करने के बजाय उसे नाकारा बना कर पेश करना मकसद, लेकिन इस समूचे मसले पर एक खास राजनीतिक धारा के नजरिए का विस्तार...! इसी लोकेशन से मां शब्द से जुड़ी वीभत्स गाली का इतनी बार इस्तेमाल है कि जुगुप्सा हो जाती है...! लगता है कि फिल्मकार का मन इसी गाली में डूबा हुआ है..!<br />
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दिखने के लिए 'भारत माता की जय' के साथ मां की सबसे 'मशहूर' और वीभत्स गाली परोसने के सिरे से लगता है कि इसमें किसी के पक्ष से नहीं खेला गया है, लेकिन इस 'औपचारिकता' के अलावा जिन-जिन राजनीतिक धाराओं और संस्थानों को कठघरे में किया गया है, सरकार और तंत्र को बख्श दिया गया है, उससे इस फिल्म की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं! नक्सली संगठनों के बारे में अलग से कुछ भी ऐसा नहीं दिखाया गया, जो प्रचारित है। लेकिन सरकार क्या करती है, आदिवासी किन वजहों से उस हालत में पहुंचे, उसमें सरकार की क्या भूमिका या जिम्मेदारियां हैं, दो पाटों के बीच से वे कैसे निकलेंगे, इस पर जानबूझ कर परदा..! जवाब होगा कि एक फिल्म क्या-क्या करेगी! ठीक है! तो फिर यही क्यों किया..!<br />
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फिल्में अगर राजनीति नहीं हैं, एक एजेंडे के तहत नहीं बनाई गई, मनोरंजन हैं तो सलमान खान या कपिल शर्मा टाइप क्यों नहीं! एक ऐसा विषय क्यों, उसके साथ खिलवाड़ क्यों, उसमें सरकार से लेकर राजनीतिक दलों तक भूमिका की अनदेखी क्यों, जिसमें एक बड़ी आबादी कीड़ों-मकोड़ों की तरह समझी जा रही है, जमीन कब्जाने का व्यापक खेल चल रहा है! मारी जा रही आबादी की तकलीफों के साथ खिलवाड़ का अधिकार-पत्र कहां से जारी हुआ है..!<br />
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...और! एक जिक्र कि 'बुद्ध के समय का एक गांव इसलिए आज भी मौलिक कलाकृतियों के जरिए अपनी संस्कृति और इतिहास बता रहा है कि आज तक वहां कोई 'बाहरी' नहीं पहुंचा', शायद इस फिल्म के नाम 'बुद्धा इन ए ट्राफिक जाम' का आधार है। लेकिन क्या यह नाम इतना भोला और मासूम है..!</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-27133618180033932942016-04-13T04:07:00.000-07:002016-04-13T05:26:05.521-07:00आरएसएस-भाजपा: आंबेडकर से अनुराग का पाखंड<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPWBN0tSJ6sxOujF4TdjkWh_o90OKLvuIj98HX7MU6a_pYvLcwXGg9bbuahtD8c9o4riL73dzFI3qGLOzacQphvgaZMS20kSvPF-u1LzyB4yCsmAW-EL9dy_v7UIeVtLEedh2B42xL1cc/s1600/rss-21.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="178" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPWBN0tSJ6sxOujF4TdjkWh_o90OKLvuIj98HX7MU6a_pYvLcwXGg9bbuahtD8c9o4riL73dzFI3qGLOzacQphvgaZMS20kSvPF-u1LzyB4yCsmAW-EL9dy_v7UIeVtLEedh2B42xL1cc/s320/rss-21.jpg" width="320" /></a></div>
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>सन</b></span></span> 2015 के नवंबर महीने में अपने ब्रिटेन दौरे के दौरान जब लंदन स्थित आंबेडकर हाउस का उद्घाटन नरेंद्र मोदी के हाथों के होने की खबर आई तो वहां के सबसे बड़े दलित संगठन 'कास्ट वाच यूके' के अलावा दूसरे दलित संगठनों ने भी सख्त आपत्ति जताई।<b> <a href="http://www.castewatchuk.org/CasteWatchUK_Press_Release_14_Nov_2015.pdf" target="_blank">'कास्ट वाच यूके'</a></b><a href="http://www.castewatchuk.org/CasteWatchUK_Press_Release_14_Nov_2015.pdf" target="_blank"> ने अपने एक बयान में कहा कि भारतीय प्रधानमंत्री जिस तरह आंबेडकर की स्मृतियों को अपने राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, वह घिनौना है और उन दलितों को भ्रमित करने की कोशिश है </a>जो <a href="http://www.countercurrents.org/pr161115.htm" target="_blank">आज भारत में अपने मानवाधिकारों के लिए जंग लड़ रहे हैं</a> और ब्रिटेन में भी बराबरी के लिए अपनी मांग को सशक्त तरीके से दर्ज कर रहे हैं।<br />
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<a href="http://www.milligazette.com/news/13394-uk-dalits-angry-at-the-inauguration-of-ambedkar-house-by-narendra-modi" target="_blank">यह बयान </a>अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि अभी भी बाबा साहेब आंबेडकर के दर्शन से खौफ खाने वाली और वास्तव में उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाली आरएसएस-भाजपा के लिए आज आंबेडकर क्यों प्रिय होते दिख रहे हैं। यहां 'दिख रहे हैं' का इस्तेमाल जानबूझ कर किया गया है, क्योंकि 'दिखने' और 'होने' में कई बार बड़ा फासला होता है। ब्रिटेन में आंबेडकर हाउस का उद्घाटन करने से पहले महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद वहां आंबेडकर स्मृति स्थल निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। लेकिन भाजपा को कुछ समय पहले ही यह अंदाजा हो गया था कि आने वाले दौर की सामाजिक राजनीति की दिशा कैसे तय होगी। इसलिए लोकसभा चुनावों के पहले से ही खालिस ब्राह्मणवादी राजनीति करने की अभ्यस्त आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों की जमीनी गतिविधियों में आंबेडकर, ज्योतिबा फुले आदि दलित प्रतीक शख्सियतों की तस्वीरें आ गई थीं। खासतौर पर आंबेडकर का नाम भाजपा ने ऐसे ढोना शुरू किया गोया कि वह अपने गोलवलकर के दर्शन से हार गई हो।<br />
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<b><span style="background-color: black;"><span style="color: red;">लेकिन </span></span></b>सच यह नहीं था। पिछले दो-तीन दशकों के दौरान हुई राजनीतिक उठा-पटक ने एक तरह से अगले कुछ दशकों की राजनीति की दिशा कर दी है। यों चेतना और जागरूकता की दिशा तो जाति से मुक्त व्यवस्था की ओर होनी चाहिए, लेकिन फिलहाल जितना भी हुआ है, उसमें ऐतिहासिक तौर पर नाइंसाफी के शिकार सामाजिक तबकों ने अपने लिए न्याय की मांग करनी शुरू कर दी और इसे अपने हक की तरह देखा। यही आवाज आज दलित-वंचित तबके की ओर से लगातार उठते हुए राजनीति और समाज-व्यवस्था के सामने एक जबर्दस्त दखल बन चुकी है। अब चाह कर भी कोई राजनीतिक दल या समूह ऐतिहासिक रूप से सामाजिक वर्चस्व बनाए रखने वाले समूहों-जातियों की खुली पैरोकारी नहीं कर सकता है।<br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>यही</b></span></span> वजह है कि दलित-वंचित जातियों के लगातार बढ़ते एसर्शन और इस वर्ग की राजनीतिक उपयोगिता को देखते हुए इसे 'कोऑप्ट' करने या खुद में समा लेने की जो होड़ चली, उसमें आरएसएस और भाजपा ने प्रतीकों का सबसे ज्यादा और निर्लज्जता से इस्तेमाल किया है। आंबेडकर को अपने एक आदर्श-पुरुष के रूप में प्रचारित करने के पीछे मकसद सिर्फ दलित-वंचित तबकों को अपने मत-समूह के रूप में आकर्षित करना है। दरअसल, पिछले तीन-चार दशकों के दौरान इन वर्गों के बीच कई वजहों से हुए सामाजिक सशक्तीकरण ने इनकी चेतना को भी सशक्त किया है और अब वे अपने लिए कोई मेहरबानी नहीं, अधिकार मांग रहे हैं।<br />
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भारत का समाज यों भी प्रतीकों में जीने वाला, प्रतीकों से ताकत हासिल करने वाला समाज रहा है। अब चूंकि ये प्रतीक राजनीतिक अर्थों में अपनी अहमियत स्थापित करने और सत्ता में भागीदारी के लिए अहम औजार या संघर्ष के हथियार के तौर पर उपयोग हो रहे हैं, इसलिए आरएसएस-भाजपा ने भी इन प्रतीकों को अपनी राजनीति में शामिल कर लिया है। वरना आंबेडकर के रूप में जिस प्रतीक को वह आज अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करना चाह रही है या कर रही है, वही आंबेडकर आरएसएस की राजनीति के प्रस्थान-बिंदु के सबसे खिलाफ हैं। बल्कि कायदे से कहें तो आंबेडकर अपने विचार और अपने समग्र प्रतीक के रूप में जिस समाज और व्यवस्था की पैरोकारी करते हैं, उसके लिए आंदोलन करते हैं, वह आरएसएस के सपनों के समाज के बरक्स है, खिलाफ है, बराबरी और सम्मान पर आधारित एक नई दुनिया की योजना है।<br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>हम</b></span></span> सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि आंबेडकर ने जब ब्राह्मण-धर्म से पूरी तरह मुक्ति की बात की, तब आरएसएस के दिल पर क्या गुजरी होगी! लेकिन जिस आरएसएस के लिए ब्राह्मण-धर्म का पुनरोत्थान और उसकी स्थापना आज भी मूल मकसद है, उसके राजनीतिक मोर्चे पर आंबेडकर को खड़ा किया गया है। क्या यह समझना इतना मुश्किल है कि हिंदू कहे जाने वाले ब्राह्मण-धर्म के तहत जीने-मरने वाले समाज के जिस हिस्से यानी दलित-पिछड़ी जातियों पर उसे फिर से कब्जा चाहिए तो उसके लिए आंबेडकर से बेहतर 'राजनीतिक हथियार' और कुछ नहीं हो सकता? मगर दिलचस्प यह है कि आंबेडकर का झंडा आगे करने के बावजूद आरएसएस ने अब तक शायद यह कहीं और कभी नहीं कहा कि हम हिंदुत्व के ढांचे से ब्राह्मणों का वर्चस्व खत्म करेंगे, फिर जाति-व्यवस्था का जड़-मूल से नाश करेंगे। और अगर जाति-व्यवस्था को बनाए रखते हुए या इसे मजबूत करते हुए आरएसएस-भाजपा आंबेडकर को अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर दलित-पिछड़ी जातियों को अपनी ओर लुभाने की कोशिश कर रही है तो वह एक बार फिर किस सामाजिक व्यवस्था की दीवारों और जंजीरों को मजबूत करने की फिराक में है?<br />
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<b><span style="background-color: black;"><span style="color: red;">यों</span></span></b> राजनीतिक और स्वाभाविक रूप से आंबेडकर के प्रतीक और विचार से आरएसएस-भाजपा की सीधे-सीधे दुश्मनी बनी रहनी चाहिए। मुख्य वजह है आंबेडकर के स्थायी विचार। हिंदुत्व के बारे में अपने वक्तव्य 'जाति का उन्मूलन' में आंबेडकर कहते हैं- <i>"हमें यह मानना होगा कि हिंदू समाज एक मिथक है। 'हिंदू' नाम ही विदेशी है। मुसलमानों ने यहां के निवासियों से अपनी अलग पहचान बनाने की गरज से इन्हें हिंदू नाम दिया। ...उन्होंने कभी एक सामान्य नाम की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि अपने को एक समुदाय के रूप में बांधने की अवधारणा उनके पास थी ही नहीं। इस प्रकार से हिंदू समाज का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो जातियों का समूह मात्र है। हरेक जाति अपने अस्तित्व के प्रति सचेत है। इनका अस्तित्व जाति-व्यवस्था के जारी रहने का कुल परिणाम है। जातियां एक संघ भी नहीं बनातीं। कोई जाति दूसरी जातियों से जुड़ने की भी भावना नहीं रखती, सिर्फ हिंदू-मुसलिम दंगे के समय ये आपस में जुड़ती हैं। ...हरेक जाति केवल आपस में विवाह करती है। ...वास्तव में एक आदर्श हिंदू, बिल में रहने वाले उस चूहे की तरह है, जो अन्य लोगों (चूहों) के संपर्क में नहीं आना चाहता।<br /><br /><span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>...हिंदुओं</b></span></span> में सामूहिक चेतना की भारी कमी पाई जाती है। ...प्रत्येक हिंदू में जो चेतना होती है, वह अपनी जाति के लिए है। इसी कारण से यह नहीं कहा जा सकता कि ये एक समाज या राष्ट्र बनाते हैं। फिर भी ऐसे काफी भारतीय हैं जिनकी देशभक्ति उन्हें यह मानने की स्वीकृति नहीं देती कि भारत एक राष्ट्र नहीं है, बल्कि यह केवल असंगठित लोगों की भीड़ है।"</i><br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>यानी</b></span></span> बाबा साहेब आंबेडकर ने हिंदुत्व के नाम पर ब्राह्मणवाद के जिस ढांचे पर इतना तीखा सवाल उठाया और उसे ध्वस्त करने का आह्वान किया, उसी को बनाए रखने की राजनीति करने वाले समूह आज बाबा साहेब आंबेडकर को अपना राजनीतिक हथियार बना रहे हैं। जाहिर है, इसके पीछे एक गहरी साजिश है। <br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>न</b></span></span> सिर्फ राजनीतिक तौर पर, बल्कि आंबेडकर-पथ पर चलने वालों के समूचे समुदाय में घुस कर पहले उसे अपने असर में लेना, फिर धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म का गुलाम बने रहने पर मजबूर कर देना। बौद्ध धर्म से लेकर तमाम ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि ब्राह्मणवाद के बरक्स जैसे ही कोई ऐसा ध्रुव खड़ा होता हो जो इसकी समूची व्यवस्था को खत्म करने की ताकत रखता हो, एक नई व्यवस्था और समाज रच देने की क्षमता रखता हो, और ब्राह्मणवाद उससे सीधे निपट सकने की क्षमता नहीं रखता तो वह उसमें चुपके से सुनियोजित तरीके से घुसना शुरू कर देता है। उसके बाद किसी भी मत या विचारधारा का क्या हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह बेवजह नहीं है कि सबसे प्रगतिशील विचारधारा तक पर ब्राह्मणवाद बरतने के आरोप लगाने में मुश्किल नहीं होती।<br />
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<b><span style="background-color: black;"><span style="color: red;">लेकिन</span></span></b> एक लंबे दौर में हुआ यह है कि ब्राह्मणवाद के बरक्स खड़े संघर्षों के बीच में उसकी इस चाल की एक राजनीतिक प्रवृत्ति के तौर पर पहचान कर ली गई और इसी असलियत का परदाफाश होना ब्राह्मणवाद के लिए परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। आज उसे अपने असली एजेंडे को जमीन पर उतारना इसीलिए थोड़ा मुश्किल होगा कि 'हिंदुत्व' नाम के एक बड़े पहचान के बरक्स इसके ढांचे में छोटी पहचानें भी संघर्ष के लिए खड़ी हुईं और अपनी सामाजिक अवस्थिति के कारकों को सामने रख कर सवालों का जवाब मांगने लगीं। और चूंकि दलित-वंचित तबकों के लिए कभी समझौता नहीं करने और ब्राह्मणवाद की परतों को उघाड़ कर सम्मान, गरिमा और स्वाभिमान के समाज का सपना देने वाले आंबेडकर का मॉडल अब सामने है, इसलिए आरएसएस-भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी। आज अगर आरएसएस-भाजपा आंबेडकर को अपने माथे पर उठाए दिखने की कोशिश कर रही है तो उसकी मजबूरी यही है। अगर हिंदू कहे जाने वाले समाज में सबसे निचले तबके के तौर पर शुमार दलित-पिछड़े तबके किसी तरह ब्राह्मणवाद के ढांचे से छिटकने लगे तो आरएसएस के सपनों के समाज पर संकट आएगा। <br />
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<b><span style="color: red;"><span style="background-color: black;">लेकिन</span></span></b> इस हकीकत के बावजूद आरएसएस कभी-कभी अपने भीतर के सच को पूरी तरह ढक नहीं पाता। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जिस तरह सामाजिक यानी जाति के आधार पर मौजूदा आरक्षण-व्यवस्था पर पुनर्विचार करने का खयाल जाहिर किया, वह उसी मूल का सबूत है। हालांकि इस आरक्षण को खत्म करने का विचार आरएसएस का नया नहीं है, लेकिन भागवत के बयान के बहाने इस पर पर्याप्त बहस हुई और एक तरह से आरएसएस और भाजपा दोनों ही इस मसले पर फंसे हुए दिखे। जाहिर है, आंबेडकर के प्रतीक को अपनी राजनीति बनाना और आरक्षण का विरोध, दोनों एक साथ नहीं चल सकते। लेकिन फिर भी क्या वजह है कि आरएसएस-भाजपा आज आंबेडकर से प्रेम दर्शाने और उसे स्वीकार किए जाने का गुहार लगा रही है? <br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>जबकि</b></span></span> आरएसएस-भाजपा इस बात से अनभिज्ञ नहीं होगी कि हिंदू धर्म के बारे में आंबेडकर ने कितना कुछ कहा है। मसलन, अपनी पुस्तक <b>'दलित वर्ग को धर्मांतरण की आवश्यकता क्यों है'</b> में उन्होंने हिंदू धर्म को लेकर काफी सख्त बातें की थीं- <i>"यदि आपको इंसानियत से मुहब्बत है तो धर्मांतरण करो। हिंदू धर्म का त्याग करो। तमाम दलित अछूतों की सदियों से गुलाम रखे गए वर्ग की मुक्ति के लिए एकता, संगठन, करना हो तो धर्मांतरण करो। समता प्राप्त करनी है तो धर्मांतरण करो। आजादी प्राप्त करनी है तो धर्मांतरण करो। अपने जीवन की सफलता चाहते हो तो धर्मांतरण करो। मानवी सुख चाहते हो तो धर्मांतरण करो। ...हिन्दू धर्म को त्यागने में ही तमाम दलित, पददलित, अछूत, शोषित पीड़ित वर्ग का वास्तविक हित है, यह मेरा स्पष्ट मत बन चुका है।" </i><br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>इसके</b></span></span> अलावा, 'जाति के उन्मूलन' में वे आरएसएस के हिंदुत्व के बारे में साफ कहते हैं कि<i> "...हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदेशों और प्रतिबंधों की भीड़ है। ...अगर आपको हिंदू समाज में जाति-प्रथा के खिलाफ लड़ना है तो आपको तर्क न मानने वाले और नैतिकता को नकारने वाले वेदों और शास्त्रों को बारूद से उड़ा देना होगा। श्रुति और स्मृति के धर्म को खत्म करना होगा। इसके अलावा, कुछ और करना लाभदायक नहीं होगा। इस मामले में मेरा मत यही है।"</i><b> (जाति का उन्मूलन से।)</b><br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>तो</b></span></span> जो आंबेडकर हिंदुत्व और स्पष्ट कहें तो ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक ठोस योजना देते हैं, वेदों और शात्रों को बारूद से उड़ा देने की बात करते हैं, वे आंबेडकर हिंदुत्व और सच कहें तो ब्राह्मणवाद की राजनीति करने वालों के लिए अचानक कैसे प्रिय हो गए? बात फिर वहीं घूम कर आती है कि आरएसएस को बहुत अच्छे से मालूम है कि पिछले सौ सालों के दौरान जो सामाजिक आलोड़न हुए हैं, उसमें ब्राह्मणवाद की कुर्सी के पाए थोड़े हिले हैं, दलित-वंचित तबके ने सामाजिक साजिशों की पहचान की है। <br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>बहरहाल,</b></span></span> इन सब सच्चाइयों के बरक्स चौदह अप्रैल, 2015 यानी आंबेडकर के जन्मदिवस के मौके पर भाजपा-आरएसएस ने आंबेडकर को राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के तौर पर पेश करना चाहा। लेकिन यह वही भाजपा-आरएसएस है, जिसके सदस्य रहते हुए अरुण शौरी ने कुछ साल पहले अपनी किताब 'वर्शिपिंग फॉल्स गॉड' में आंबेडकर के खिलाफ अधिकतम जहर फैला दिया था... बेलगाम भाषा में आंबेडकर की शख्सियत को ध्वस्त करने में लगे थे और भाजपा-आरएसएस बल्लियों उछल कर उस किताब को आंबेडकर के खिलाफ हथियार बना रही थी। सवाल है कि उसकी नजर में आंबेडकर आज राष्ट्रवाद के प्रणेता कैसे हो गए! <br />
आंबेडकर के 'राष्ट्रवाद' का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि आंबेडकर ने राष्ट्रवाद की हकीकत यह बयान की कि <i>"मजदूरों के सबसे गंभीर विरोधी निश्चित ही राष्ट्रवादी हैं। ...मजदूरों को चाहिए कि वे राजनीति के रूपांतरण और पुनर्निर्माण के जरिए लोगों के जीवन में लगातार नई जान फूंकने पर जोर दें। अगर जीवन के इस पुनर्निर्माण और पुनर्गठन के रास्ते में राष्ट्रवाद बाधा बन कर खड़ा होता है तब मजदूरों को चाहिए कि वह राष्ट्रवाद को खारिज कर दे...!"</i> <br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>जाहिर</b></span></span> है, आंबेडकर दरअसल, आरएसएस-भाजपा के समूचे सियासी एजेंडे के खिलाफ खड़े होते हैं। लेकिन अब यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि जब एक विचार और व्यवस्था के रूप में आंबेडकर के दबाव को हिंदुत्व की राजनीति अपने तमाम धतकरमों के बावजूद रोक सकने में सक्षम नहीं हुई तो अब वह आंबेडकर को ही अपना मोहरा बनाने की फिराक में है। यह न सिर्फ आंबेडकर के खिलाफ एक साजिश है, बल्कि हाशिये के या वंचित वर्गों के जितने भी लोगों या समाजों ने आंबेडकर से चेतना और ताकत हासिल की और अब भाजपा-आरएसएस की ब्राह्मणवादी राजनीति की झांसे में नहीं आ रहे हैं, उनके सामने यह एक नया भ्रम परोसने का खेल है।</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-32964764266690528072014-12-09T23:23:00.003-08:002014-12-09T23:24:52.234-08:00विज्ञान बनाम आस्था के द्वंद्व का समाज...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiusaFMC-phb8XIj5wokrN9u4HN6-6DtN0yzYbKoQovrI7IOh1urhg4fjOeW-ZTIpH9q3v4qWkCZjX5cjrQlKJ8ojUOZZRTInIGx3Qrt5axC6pTMLr8ZEbAg3GOdMwQmiuXHlQd_Wr53nU/s1600/made-snana-karnataka.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiusaFMC-phb8XIj5wokrN9u4HN6-6DtN0yzYbKoQovrI7IOh1urhg4fjOeW-ZTIpH9q3v4qWkCZjX5cjrQlKJ8ojUOZZRTInIGx3Qrt5axC6pTMLr8ZEbAg3GOdMwQmiuXHlQd_Wr53nU/s1600/made-snana-karnataka.jpg" height="213" width="320" /></a></div>
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<div style="text-align: center;">
<b>(कर्नाटक में अपने रोग को दूर करने की मनोकामना के साथ ब्राह्मणों के जूठन पर लोटते दलित )</b></div>
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<span style="color: #660000;"><span style="background-color: #eeeeee;"><b><i>भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद पिछले छह-सात महीने में जिस तरह की खबरें सबसे ज्यादा चर्चा में रहीं, बल्कि दीनानाथ बतरा जैसे लोगों के बेवकूफी भरे विचारों और उनकी किताबों को नीतिगत स्तर पर भी लागू करने की कोशिश चल रही है, उसमें यह समझना जरूरी हो जाता है कि आखिर अंधविश्वासों पर आधारित मान्यताओं की स्वीकृति के लिए भी विज्ञान का सहारा क्यों लिया जाता है। क्या यह अपने आप में यह नहीं बताता कि अंधविश्वासों की पैरोकारों को भी अपनी राजनीति और कूढ़मगजी को स्थापित करने के लिए एक साजिश करने की जरूरत पड़ रही है, ताकि हर तरह के शोषण पर आधारित एक खास वर्ग की व्यवस्था कायम रहे और बाकी लोग अंधविश्वासों के अंधेरे में डूबे रहें? कुछ समय पहले प्रभात खबर अखबार के दीपावली विशेषांक पत्रिका के लिए यह लेख लिखा था। आजकल तमाम अंधविश्वासों को विज्ञान का सहारा लेकर स्थापित करने की जो कोशिश की जा रही है, उसमें लगा कि इसे ब्लॉग पर भी डाल देना चाहिए। </i></b></span></span><br />
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कुछ वाकये हमें उस तरह की सैद्धांतिकी के व्यावहारिक पहलुओं को समझने में मदद करते हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा उसकी चेतना पर अनिवार्य रूप से असर डालते हैं। इस लिहाज से विज्ञान और तकनीक के साथ समाज का साबका और उसका व्यक्ति के सोचने-समझने या दृष्टि पर असर का विश्लेषण सामाजिक विकास के कई नए आयाम से रूबरू कराता है। कुछ साल पहले की एक घटना है। राजधानी दिल्ली से सटे और तब ‘हाईटेक सिटी’ के रूप में मशहूर शहर गाजियाबाद में एक काफी वृद्ध महिला को उनके तीन बेटे तब तक (शायद चप्पलों से) पीटते रहे, जब तक उनकी जान नहीं निकल गई। किसी ‘ऊपरी असर’ से छुटकारा दिलाने के मकसद से ऐसा करने का निर्देश एक तांत्रिक बाबा का था।<br />
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अंधविश्वासों के अंधेरे कुएं में डूबते-उतराते हमारे समाज में साधारण लोगों के हिसाब से देखें तो इस तरह की यह घटना न अकेली थी और न नई। लेकिन यह घटना मेरी निगाह में इसलिए खास थी कि उस बुजुर्ग महिला को तांत्रिक के आदेश पर पीटते-पीटते मार डालने वाले तीन में से कम से कम दो बेटों की शैक्षिक पृष्ठभूमि विज्ञान विषय थी। उनमें से एक ने डॉक्टरी और दूसरे ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। यानी जिस विज्ञान और तकनीकी विकास ने समाज में अज्ञानता के अंधकार को दूर करने और समाज को अंधविश्वासों की दुनिया से काफी हद तक बाहर लाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है, उस विषय की शिक्षा-दीक्षा भी उन बेटों की चेतना पर पड़े अंधविश्वासों के जाले को साफ नहीं कर सकी। क्या यह विज्ञान की शिक्षा के ‘लेन-देन’ में वैज्ञानिक दृष्टि के अभाव का नतीजा नहीं है?<br />
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हाल ही में एक दिलचस्प अनुभव से रूबरू हुआ। हालांकि फिल्मों, टीवी धारावाहिकों और समाज में इस तरह की बातें आम हैं। एक बेहद सक्षम, जानकार और अनुभवी सर्जन-डॉक्टर के क्लीनिक में इस आशय का बड़ा पोस्टर दीवार टंगा था कि ‘हम केवल माध्यम हैं। आपका ठीक होना, न होना भगवान की कृपा पर निर्भर है! -आपका चिकित्सक।’ दूसरी ओर, अंतरिक्ष यानों के प्रक्षेपण जैसी विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिकी की चरम उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाते हुए हमारे इसरो, यानी अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के मुखिया जैसे पद पर बैठे लोग भी किसी यान के प्रक्षेपण की कामयाबी के लिए ‘ईश्वरीय कृपा’ हासिल करने के मकसद से किसी मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं। 24 सितंबर, 2014 को भारत के मंगलयान की शानदार कामयाबी इसरो के हमारे तमाम वैज्ञानिकों की काबिलियत की मिसाल है। मगर यह वही मंगलयान है, जिसके प्रक्षेपण के पहले चार नवंबर, 2013 इसरो के अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने तिरुपति वेकंटेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की और इसकी अभियान की कामयाबी के लिए प्रार्थना की थी। राधाकृष्णन के पूर्ववर्ती इसरो अध्यक्ष माधवन नायर भी यही करते रहे थे।<br />
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<b>वैज्ञानिक चेतना के बगैर विज्ञान का समाज</b><br />
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यह साधारण-सा सच है कि कोई भी पोंगापंथी, दिमाग से बंद, कूपमंडूक अंधविश्वासी व्यक्ति जब यह देखता है कि भारत के अंतरिक्ष प्रक्षेपण अनुसंधान संगठन, यानी इसरो का मुखिया विज्ञान पर केंद्रित किसी कार्यक्रम में शिरकत करते हुए या किसी उच्च क्षमता के अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण से पहले घंटों किसी मंदिर में पूजा करता है तो यह उसके भीतर बैठी हीनताओं को तुष्ट करता है। इसे उदाहरण बना कर वह कह पाता है कि इसरो जैसे विज्ञान के संगठन के वैज्ञानिक ऐसा करते हैं तो उसका कोई आधार तो होगा ही। जाहिर है, हमारे समाज में विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई और उस क्षेत्र में अच्छी-खासी उपलब्धियों में कोई कमी नहीं रही है। लेकिन वैज्ञानिक चेतना या दृष्टि का लगभग अभाव रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में महान खोजों से प्रशिक्षित, मस्तिष्क, तंत्रिका या हृदय की बेहद जटिल शल्य-क्रिया करके किसी मरीज को जीवन देने वाले सक्षम डॉक्टर जब अपनी काबिलियत और कामयाबी का श्रेय वैज्ञानिक खोजों के साथ-साथ अपनी मेहनत और कुशलता को देने के बजाय ‘अज्ञात शक्ति’ या भगवान को देते हैं तो इससे क्या साबित होता है! ऐसा करके या मान कर क्या हम उन तमाम लोगों की क्षमता, सालों की दिन-रात की मेहनत और वैज्ञानिक दृष्टि को खारिज नहीं करते हैं, जिनके जरिए कई बार हमारा जिंदा बच पाना मुमकिन होता है?<br />
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यह कोई नया आकलन नहीं है कि मानव समाज के विकास के क्रम में एक दौर ऐसा रहा होगा, जब मनुष्य ने अपनी सीमाओं के चलते मुश्किलों का हल किसी पारलौकिक शक्ति की कृपा में खोजने की कोशिश की होगी। लेकिन आज जब मंगल पर कदम रखने से लेकर ब्रह्मांड की तमाम जटिल गुत्थियों को खोलते हुए दुनिया का विज्ञान हर रोज अपने कदम आगे बढ़ा रहा है तो ऐसे में अलौकिक-पारलौकिक काल्पनिक धारणाओं में जीते समाज और उसके ढांचे को बनाए रखने का क्या मकसद हो सकता है?<br />
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<b>विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना का द्वंद्व</b><br />
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यहीं आकर एक बिंदु उभरता है जिसके तहत समाज में चंद लोगों या कुछ खास समूहों की सत्ता एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में आकार पाती है। यह व्यवस्था अगर शोषण-दमन और भेदभाव पर आधारित हुई तो संभव है कि भविष्य में प्रतिरोध की स्थिति पैदा हो, क्योंकि वैज्ञानिक चेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसी स्थिति को पैदा होने से रोकने के लिए लौकिक यथार्थों पर पारलौकिक धारणाओं का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है। ऐसी कवायदों का संगठित रूप धर्म के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि मानव समाज के लिए धर्म की अलग-अलग व्याख्याएं पेश की जाती रही हैं, लेकिन इसके नतीजे के रूप में सामाजिक सत्ताओं का ‘केंद्रीकरण’ ही देखा गया है। और चूंकि विज्ञान लौकिक यथार्थों पर चढ़े अलौकिक भ्रमों की परतें उधेड़ता है, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से धर्म का घोषित-अघोषित दुश्मन हो जाता है।<br />
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विडंबना यह है कि ब्रह्मांड और मानव सभ्यता के विकास का आधार होने के बावजूद विज्ञान अब तक दुनिया भर में धर्म के बरक्स एक सत्ता या व्यवस्था के रूप में खुद को खड़ा कर सकने में नाकाम रहा है। जबकि विज्ञान, तकनीकी या प्रौद्यागिकी के सहारे कई देश अपने आर्थिक-राजनीतिक ‘साम्राज्यवाद’ के एजेंडे को कामयाब करते हैं। हालांकि इसकी वजहों की पड़ताल कोई बहुत जटिल काम नहीं है। पहले से ही हमारे सामने अगर ‘राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत’ जैसी व्याख्याएं हैं तो ‘विकासवादी सिद्धांत’ भी है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि सामाजिक व्यवहार में ‘दैवीय सिद्धांत’ अक्सर हावी दिखता है!<br />
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दरअसल, राजनीतिक-सामाजिक सत्ताओं पर कब्जाकरण के बाद इसके विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को रोकने के लिए उन तमाम रास्तों, उपायों को हतोत्साहित-बाधित किया गया, जो पारलौकिकता या दैवीय कल्पनाओं पर आधारित किसी ‘प्रभुवाद’ की व्यवस्था को खंडित करते थे। चार्वाक, गैलीलियो, कोपरनिकस, ब्रूनो से लेकर हाल में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या जैसे हजारों उदाहरण होंगे, जिनमें विज्ञान या वैज्ञानिक दृष्टि को बाधित करने के लिए सामाजिक सत्ताओं के रूप में सभी धर्मों में मौजूद ‘ब्राह्मणवाद’ ने बर्बरतम तरीके अपनाए।<br />
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दिलचस्प यह है कि विज्ञान का दमन करने वाली ताकतें यह अच्छे से जानती थीं कि विज्ञान की ताकत क्या है। इसलिए एक ओर उन्होंने समाज में वैज्ञानिक नजरिए या चेतना के विस्तार को रोकने के लिए हर संभव क्रूरताएं कीं तो दूसरी ओर धार्मिक और आस्थाओं के अंधविश्वास को मजबूत करने के लिए विज्ञान और तकनीकों का सहारा लिया और उनका भरपूर उपयोग किया। एक समय सोमनाथ के मंदिर में जो मूर्ति बिना किसी सहारे के हवा में लटकी हुई थी और जिसे देख कर लोग चमत्कृत होकर और गहरी आस्था में डूब जाते थे, उसमें चुंबकीय सिद्धांतों की बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल किया गया था। इसे ‘मैग्नेटिक लेविटेशन’ या चुंबकीय उत्तोलन कहते हैं, जिसका अर्थ है चुंबकीय बल के सहारे हवा में तैरना। इसी तरह, किसी सीधे खड़े संगमरमर के पत्थरों से दूध भरे चम्मच का किनारा सटते ही चम्मच में मौजूद दूध का खिंच जाना गुरुत्व के सिद्धांत से संबंधित है और इसकी वैज्ञानिक व्याख्या है। लेकिन इसी का सहारा लेकर तकरीबन दो दशक पहले समूचे देश में गणेश की मूर्तियों को अचानक दूध पिलाया जाने लगा था।<br />
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<b>विज्ञान के बरक्स अंधविश्वास का समाज</b><br />
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धार्मिक स्थलों के निर्माण से लेकर जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, झाड़फूंक, चमत्कार वगैरह विज्ञान और तकनीक के सहारे ही चलता रहा है। यह बेवजह नहीं है कि मर्सिडीज बेंज या बीएमडब्ल्यू जैसी आधुनिक तकनीकी से लैस कारें चलाने वाले और ऊपर से बहुत आधुनिक दिखने वाले लोग अपनी कार में ‘अपशकुन’ से बचने के लिए नींबू और हरी मिर्च के गुच्छे टांगे दिख जाते हैं। इसी तरह, उच्च तकनीकी के इस्तेमाल से बनने वाली इमारतें बिना भूमि-पूजन के आगे नहीं बढ़तीं। बहुत आधुनिक परिवारों के लोग अपने शानदार और हाइटेक घरों के आगे या कहीं पर एक ‘राक्षस’ के चेहरे जैसी आकृति टांगे दिख जाएंगे, जिसका मकसद मकान को ‘बुरी नजर’ से बचाना होता है! यानी जिन वैज्ञानिक पद्धतियों और तकनीकी का इस्तेमाल अंधविश्वासों को दूर कर समाज को गतिमान बनाने या आगे ले जाने के लिए होना था, वे समाज को जड़ और कई बार प्रतिगामी बनाने के काम में लाई जाती रही हैं।<br />
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इसकी वजह यह है कि विज्ञान अपने आप में दृष्टि है, लेकिन वैज्ञानिक सिद्धांत, संसाधन या तकनीक एक ‘उत्पाद’ की तरह है, जिसका इस्तेमाल कोई भी कर सकता है- विज्ञान का दुश्मन भी। बहुत ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। मौजूदा दौर में ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार के अलावा फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स ऐप जैसे सोशल मीडिया के मंचों और मोबाइल जैसे संचार के साधनों के दौर को हम विज्ञान और तकनीक के चरम विकास का दौर कह सकते हैं। लेकिन हम देख सकते हैं कि इन संसाधनों पर किस तरह वैसे लोगों या समूहों का कब्जा या ज्यादा प्रभाव है जो विज्ञान और तकनीकी का इस्तेमाल वैज्ञानिक चेतना या दृष्टि को कुंद या बाधित करने में कर रहे हैं।<br />
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आधुनिकी उन्नत तकनीकों के इस्तेमाल से बनाई गई अंधविश्वास फैलाने वाली फिल्में या धारावाहिक पहले से चारों तरफ से अंधे विश्वासों में मरते-जीते आम दर्शक की जड़ चेतना को ही और मजबूत करते हैं। टीवी चैनलों पर धड़ल्ले से अंधविश्वासों को बढ़ाने या मजबूत करने वाले कार्यक्रम ‘धारावाहिक’ के तौर पर चलते ही रहते हैं, कई बार ‘समाचार’ के रूप में भी दिखाए जाते हैं। यह ‘बाबाओं’ और ‘साध्वियों’ के प्रवचनों और विशेष कार्यक्रमों से लेकर फिल्मों के हीरो-हीरोइनों या मशहूर हस्तियों के जरिए ‘धनवर्षा यंत्र’ या ‘हनुमान यंत्र’ आदि के प्रचारों के अलावा होता है। अखबार इसमें पीछे नहीं हैं। इससे टीवी चैनलों मीडिया संस्थानों को कमाई होती है, मुनाफा होता है, लेकिन समाज को कितना नुकसान होता है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता! इसके अलावा, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया का मोबाइल पर व्हाट्स ऐप जैसे संवाद-साधनों के जरिए किस तरह सांप्रदायिकता का जहर परोसा जा रहा है, यहां तक कि दंगा भड़काने में भी इनका इस्तेमाल किस पैमाने पर किया जा रहा है, यह जगजाहिर तथ्य है। <br />
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यानी विज्ञान के जरिए की वैज्ञानिक दृष्टि या चेतना को कैसे कुंद किया जा रहा है और विज्ञान का सहारा लेकर समाज को किस तरह अंधविश्वासों के अंधेरे में झोका जा रहा है, यह साफ दिखता है। दरअसल, किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है कि वह विज्ञान के सहारे अपने जीवन की सुविधाएं तो सुनिश्चित करे, लेकिन उसे किसी ‘अज्ञात शक्ति’ की कृपा माने। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग ही आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते है। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बौद्धिकों, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में कोई हिचक नहीं होती। <br />
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दलील दी जाती है कि आस्था निजी प्रश्न है। लेकिन विज्ञान की कामयाबियों के साथ आस्था का घालमेल आखिरकार वैज्ञानिक चेतना को भ्रमित करता है। और यही वजह है कि गहन और जटिल ऑपरेशन हो या भूकम्प और बाढ़ जैसी आपदाएं, इनकी वजहें जानने, उसका विश्लेषण करने के बावजूद व्यक्ति या खुद इसके विशेषज्ञ इन सबको किसी भगवान का चमत्कार, कृपा या फिर कोप के रूप में देखते-पेश करते हैं। यह अपने ज्ञान-विज्ञान और खुद पर भरोसा नहीं होने-करने का, अपनी ही क्षमताओं को खारिज करने का उदाहरण है। क्षमताओं के नकार की यह स्थिति किसी विनम्रताबोध का नहीं, बल्कि भ्रम और हीनताबोध का नतीजा होती है। और जब हम विज्ञान के विद्याथियों या वैज्ञानिकों तक को इस तरह के द्वंद्व और भ्रम में जीते देखते हैं तो ऐसे में साधारण इंसान या समाज से क्या उम्मीद हो, जो जन्म से लेकर मौत तक वैज्ञानिक चेतना से बहुत दूर दुनिया के धर्मतंत्र और अलौकिक-पारलौकिक आस्थाओं के चाल में उलझा रह जाता है।<br />
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जाहिर है, असली चुनौती यह है कि विज्ञान केवल लोगों के जीवन को सहज नहीं बनाए, बल्कि दुनिया के यथार्थ को समझने के लिए समाज को वैज्ञानिक चेतना से भी लैस करे। यह समाज के ज्यादातर हिस्से को सोचने-समझने के तरीके या माइंडसेट पर कब्जा जमाए पारलौकिक आस्थाओं के बरक्स एक बहुत बड़ी चुनौती है। अगर यह कहा जाए कि जिस पैमाने पर समाज धार्मिकता के जंजाल में उलझा है, अगर उसी पैमाने पर वैज्ञानिक चेतना होती तो हमारा समाज शायद अभी से कई हजार साल आगे होता, तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी।<br />
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शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-73589695257567975112014-06-21T03:14:00.000-07:002014-06-30T00:24:28.338-07:00ध्रुवीकरण की राजनीति में गुम अस्मिताएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyHwhPBVloOGqfi7XY5CyaAAf48HE3AWjCXt9Owz6blqwBQhc-u6S81lv7JqMU7uC6L3eQAVIx5HAMTLuAD_YjjBwfKohR20cBKE562_JANhS2TnXP2YNqX6L_iDc0mCxFV84cvHM9Cj8/s1600/polarisation.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyHwhPBVloOGqfi7XY5CyaAAf48HE3AWjCXt9Owz6blqwBQhc-u6S81lv7JqMU7uC6L3eQAVIx5HAMTLuAD_YjjBwfKohR20cBKE562_JANhS2TnXP2YNqX6L_iDc0mCxFV84cvHM9Cj8/s1600/polarisation.jpg" height="240" width="400" /></a><br />
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नरेंद्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री के रूप शपथ-ग्रहण के बाद अब शायद यह कहना अप्रासंगिक होगा कि खुद भाजपा को भी इतनी सशक्त जीत की उम्मीद नहीं थी। इसके बावजूद अगर भाजपा ने चुनावों से पहले से ही खुद को एक तरह से जीते हुए पक्ष के रूप में पेश करना शुरू कर दिया था तो इसकी क्या वजहें रही होंगी, सोचने का मसला यह है। सवाल है कि आखिर भाजपा किस भरोसे यह दावा कर रही थी। क्या वह इस बात को लेकर आश्वस्त थी कि सियासी शतरंज पर उसने जो बिसात बिछाई है, उसमें नतीजे उम्मीद के हिसाब से ही आएंगे? वह बिसात बिछाते हुए आरएसएस या भाजपा ने किन-किन चुनौतियों को ध्यान में रखा और उसके बरक्स कौन-से मोर्चे मजबूत किए? उसके सामने चुनौतियों की शक्ल में जितनी भी राजनीतिक ताकतें थीं, उनके लिए यह अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल था कि वे आरएसएस की चालों को भांप तक नहीं पाए? आम अवाम के पैमाने पर क्या ऐसा किया गया कि अब तक भाजपा के लिए चुनौती रहा एक साधारण वोटर एक खास तरह के "हिप्नोटिज्म" की जद में आकर भाजपा के पाले में जा खड़ा हुआ? क्यों ऐसा हुआ कि यह सब विकास लगभग बिना किसी सवाल या रोकटोक के अपने अंजाम तक पहुंचा?<br />
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इसी जगह पर जवाब की तरह यह सवाल सामने आता है कि भारत जैसे देश में सामाजिक विकास फिलहाल जिस पायदान पर है, उसमें उसे अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए आखिर कौन-कौन से रास्ते अख्तियार किए जाने चाहिए? इस सवाल से अब तक सबसे बेहतर तरीके से कांग्रेस निपटती आई है। अब शायद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज भाजपा जिस बुनियाद पर अपना महल खड़ा कर सकी है, वह बुनियादी तौर पर कांग्रेस की ही तैयार की हुई है। क्या वजह है कि आजादी के बाद लगभग पूरे समय सत्ता में रहते हुए भी उसने आम जनता की समझदारी को मूल्यांकन या विश्लेषण आधारित बनाने की अपनी जिम्मेदारी की आपराधिक स्तर की न केवल अनदेखी की, बल्कि संवैधानिक तकाजों को भी ताक पर रखते हुए उसने यथास्थितिवाद की जमीन को और मजबूत ही किया? यह यथास्थितिवाद आखिर किस खास व्यवस्था के लिए खाद-पानी का काम कर सकता है, करता रहा है? यह समझने के लिए कोई बहुत ज्यादा मंथन करने की जरूरत शायद नहीं है कि कांग्रेस ने जिस खेल की जमीन तैयार की थी, उसमें भाजपा एक ज्यादा ताकतवर खिलाड़ी के रूप में इस बार सामने आई है। और पता नहीं, यह रिवायत किन हालात में शुरू हुई होगी कि अकेले भारत में नहीं, शायद समूची दुनिया की आम जनता आखिर विजेता के पक्ष में खड़ी होती है, बिना इस बात पर विचार किए कि युद्ध में किसने किसी को पराजित करने के लिए कौन-सा तरीका आजमाया।<br />
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अपने पिछले दो शासनकाल में कांग्रेस ने जिस घनघोर स्तर पर सबसे जरूरतमंद वर्गों की उपेक्षा की, उन्हीं आस्थाओं का नरम कारोबार किया, जिस पर भाजपा एक स्पष्ट चेहरे के साथ लोगों के सामने थी, वैसी हालत में अभाव में मरते-जीते लोगों को उनके ‘मूल’ और उनकी ‘परंपरागत’ भावनाओं और सपनों का पोषण करके बड़ी आसानी से अपने पक्ष में किया जा सकता था। यों सपनों को जमीन पर उतारना और जीवन की भूख का हल करना इस देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी की जवाबदेहियों-जिम्मेदारियों में शामिल नहीं रहा है। पिछली बार मजबूरी में वामपंथी दलों के सहयोग के चलते उसने जनता के सामने अपने सरोकार की सरकार का दावा किया भी था, लेकिन इस बार सच यही रहा कि कुल मिला कर अपने बीते एक दशक के रिकार्ड के हिसाब से कांग्रेस जनता के सामने यह पांसा भी फेंक सकने की हालत में नहीं थी। दूसरी ओर, उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में भाजपा के पास ‘जड़ों' की खुराक भी थी और अभाव में पलते समाज के सामने ‘विकास’ के मिथकों से लैस सपने भी थे। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह कि इन दोनों हथियारों के बेहतर इस्तेमाल के लिए उसके पास एक सुचिंतित तंत्र भी था जो एक ओर आरएसएस के स्वयंसेवकों के रूप में तमाम परंपरागत अवधारणाओं के औजार से लोगों के ‘मूल’ को ‘जगा’ रहा था, तो दूसरी ओर अपने कार्यकर्ताओं से लेकर मीडिया के रूप में उसे हर स्तर पर बने-बनाए कार्यकर्ता मिल गए थे, जो दिन-रात उसकी खेत की सिंचाई कर रहे थे। नतीजा सामने है।<br />
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सवाल है कि भाजपा के बरक्स जितनी भी राजनीतिक ताकतें थीं, क्या उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनका समर्थक वर्ग जिस समाज का हिस्सा है, पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान सचेत तौर पर उसकी चेतना में किन-किन तरीकों से किस तरह की व्यवस्था घोल दी गई है? वह व्यवस्था ज्यादातर लोगों के लिए एक नियति की तरह है, जिस पर वे सोचना नहीं चाहते। किसी भी राजनीतिक पार्टी ने शहरों से लेकर दूरदराज के इलाकों तक में छोटे-बड़े जागरण टाइप के उन धार्मिक आयोजनों या पूजा-पाठ की सार्वजनिक गतिविधियों पर गौर करना जरूरी नहीं समझा, जिसके जरिए समाज के हिंदू मानस को तुष्ट किया गया, उसके राजनीतिक दायरे को लगातार छोटा करके एक केंद्र में समेटने की कोशिश की गई, सांप्रदायीकरण किया गया और इस तरह आखिरकार ध्रुवीकरण की राजनीति की जमीन तैयार हुई। यह ध्रुवीकरण बहुत छोटी-छोटी बातों से सक्रिय की जा सकती थी। सामाजिक चेतना के बरक्स धार्मिक चेतना को खड़ा करके उस पर हावी करने के लिए आस्था को बतौर हथियार इस्तेमाल किया गया और उसका सबसे आसाना जरिया रहा नरेंद्र मोदी के रूप में एक प्रतीक को उसी "तैयार की गई" जनता के सामने खड़ा कर देना। ये नरेंद्र मोदी "गुजरात-2002" की छवि वाले मोदी थे, जो एक आम हिंदू मानस को सहलाता है। इसमें आरएसएस पूरी तरह कामयाब रहा।<br />
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धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के सामने इस जटिल चुनौती से निपटने का क्या कोई रास्ता नहीं था? जब अपने ही राजनीतिक आदर्शों को ताक पर रख दिया जाता है तब ऐसे हालात का सामना एक स्वाभाविक परिणति होती थी।<br />
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मैदान में खड़ा होकर सामने करने का एकमात्र रास्ता था कि शासक अस्मिताओं के बरक्स शासित अस्मिताओं को सीधे संबोधित किया जाए। इसके कामयाब प्रयोग का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। करीब ढाई दशक पहले जब मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल की घोषणा हुई तो उसके बाद यह हुआ भी। तभी पहली बार यह लगा कि एक सहज-सी दिखने वाली व्यवस्था के जरिए जिस यथास्थितिवाद का पालन-पोषण होता आ रहा था, उसकी परतों के नीचे कितने विद्रूप पल रहे हैं।<br />
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उसी दौर में मंडल आंदोलन ने शासित सामाजिक वर्गों की अस्मिता की लड़ाई के जरिए एक ऐसे नेतृत्व वर्ग की शृंखला खड़ी की, जो पहले से चली आ रही शासन और समाज व्यवस्था के ढांचे में सीधे-सीधे तोड़-फोड़ थी। इसका अहसास उसी समय सत्ताधारी तबकों को हो गया था और प्रतिक्रिया भी बहुत तीखी शक्ल में सामने आई थी, लेकिन वह बाद में बहुत सोच-समझ कर किसी दीर्घकालिक योजना का हिस्सा साबित हुई। तब मेरिट की शक्ल में आसानी से "पॉपुलर" होने वाले जुमलों से लैस सवाल उछाले गए, आरक्षण के खिलाफ आत्मदाही ‘आंदोलन’ या दूसरे प्रतिगामी प्रचारों से जब काम नहीं चलता लगा तब लालकृष्ण आडवाणी की ‘रथयात्रा’ चल पड़ी, जिसने शासित अस्मिताओं के उभार को रोकने और आखिरकार इस चुनाव में अपने हिंदू अस्मिता में समाहित कर लेने में कामयाबी हासिल कर ली। आरएसएस और भाजपा को इस "प्रोजेक्ट" को ताजा निष्कर्ष तक लाने में महज सवा दो या ढाई दशक का वक्त लगा।<br />
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जिन अस्मिताओं से हिंदुत्व के मूल ढांचे को नुकसान हो सकता था, उनके बीच से कुछ हिम्मती चेहरे सामने तो आए, लेकिन एक ओर सत्ता और तंत्र के बीच फर्क समझ सकने में नाकामी और अदूरदर्शिता के साथ-साथ दूसरी ओर इनके बीच से ही कुछ स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी और अवसरवादी तत्त्वों ने सत्ता में पहुंचने के लिए उस समूचे आंदोलन का बेड़ा गर्क करने में अपनी पूरी भूमिका निबाही। अस्मिता के संघर्ष का मकसद जहां इसके जरिए ऐतिहासिक रूप से छीने गए अधिकारों को हासिल करके भेदभाव पर आधारित एक व्यापक पहचान, यानी हिंदुत्व के ढांचे को तोड़ना था, वहां अस्मिता ही राजनीति का एक हथियार बन गया। ऐसी स्थिति में जो होना था, वही हुआ। संघर्ष मुक्ति के लिए होना था, लेकिन उसने अपने लिए ऐसे दायरे पैदा किए, जिसके भीतर ही उसे गोल-गोल घूमना था। जबकि मकसद उसी दायरे को तोड़ कर आगे का रास्ता अख्तियार करना होना चाहिए था। क्या इस दायरे की दीवार इतनी मजबूत है कि उससे पार न पाया जा सके? यह शायद आखिरी सच नहीं है। लेकिन किसी दबाव से उपजे संघर्ष की दिशा कई बार भ्रम का शिकार हो जाती है। जबकि यही संघर्ष अगर किसी सुचिंतित योजना का हिस्सा हो तो नई व्यवस्था की जमीन तैयार कर सकता है।<br />
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जाति की अस्मिता धर्म की व्यापक अस्मिता के दायरे के भीतर की चीज थी। इसलिए जब अधिकारों के लिए खड़ी हुई अस्मिताएं संघर्ष का रास्ता छोड़ कर वैचारिक रूप से भी जातिगत दायरे में सिमटने लगीं तो ऐसे में उस पर उसकी व्यापक अस्मिता का हावी होना लाजिमी था। हिंदुत्व की व्यवस्था चलाने वाले एक सक्षम समूह के रूप में आरएसएस को यह बहुत अच्छे से मालूम है कि अगर उसकी व्यवस्था के मूल ढांचे को खतरा हो तो उसे समान हथियार से ही वापस मोड़ा जा सकता है। तो जिस तरह सामाजिक वंचना के नतीजे में छीने गए अधिकारों को हासिल करने के लिए जाति की अस्मिता आंदोलन की शक्ल में खड़ी हुई, उसी जाति को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन के साए में आरएसएस ने उसकी व्यापक अस्मिता, यानी हिंदुत्व में समाहित करने के लिए रथयात्रा से अपना अभियान शुरू किया और फिर गुजरात जनसंहार से लेकर हिंदू-मुसलिम तनाव को एक मुद्दे के रूप में जिंदा रखने की कामयाब कोशिश की।<br />
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लेकिन यह अगर आरएसएस की राजनीति का प्रत्यक्ष और हावी पहलू रहता तो देश से लेकर दुनिया भर में यह साबित करना मुश्किल होता कि उनकी यह राजनीति ‘प्रतिगामी’ नहीं है। इसलिए गुजरात जनसंहार के बाद कट्टर हिंदुत्व के नायक के चेहरे के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी नेतृत्व में ही विकास के ‘गुजरात मॉडल’ का मिथक खड़ा किया गया, ठीक उसी तरह जिस तरह धर्म और पारलौकिक मिथकों के सहारे सामाजिक सत्ताएं अपना शासन बनाए रखती हैं, शासित तबकों के सोचने-समझने, विश्लेषण करने के दरवाजों को बंद रखती हैं।<br />
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इन सबको जमीनी स्तर पर पहुंचाने के लिए जहां आरएसएस के पास अपने स्वयंसेवक थे, वहीं इस सामाजिक सत्ता-तंत्र में पहले से ही एक ‘इम्यून सिस्टम’ की तरह काम करने वाले वाचाल तंत्र को सिर्फ शह की जरूरत थी। इसके अलावा, आज दूरदराज के इलाकों तक अपनी मजबूत पहुंच और दखल बना चुके मीडिया ने अपने सामाजिक ढांचे और कारोबारी क्षमता का अपूर्व प्रदर्शन करते हुए आरएसएस की तमाम परोक्ष कवायदों को स्थापना दी। मूल तत्त्व हिंदुत्व की व्यापक अस्मिता में जातीय अस्मिताओं को समाहित करना था, लेकिन उस पर विकास के ‘गुजरात मॉडल’ की चमकीली चादर टांग दी गई। यानी ‘प्रतिगामी’ होने के तमाम आरोप अब ‘अग्रगामी’ संदेशों में तब्दील हो गए। इसके बाद इस ढांचे से लड़ने की चुनौती इस रूप में खड़ी हुई कि अस्मिता के संघर्ष को राजनीति में झोंकने वालों की जमीन खिसक गई और उस पर हिंदुत्व की अस्मिता का महल खड़ा हो गया।<br />
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इसलिए कम से कम यह न कहा जाए कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत ने साबित किया है कि जाति की राजनीति खत्म हो गई। जाति या अस्मिता की राजनीति खत्म नहीं हुई। बल्कि वह ज्यादा बड़ी अस्मिता में विलीन हुई है और उसमें घुल-मिल जाने के बाद जो अस्मिता की राजनीति मुखर होगी, वह ज्यादा खतरनाक साबित होगी, जिसकी गाज आखिरकार वंचित और कमजोर जातियों पर ही गिरनी है। इस वंचना की सबसे बड़ी त्रासदी की तुलना पारलौकिक अंधविश्वासों में डूबी उस गुलाम चेतना से लैस समाज के अंत से की जा सकती है जिसमें कोई व्यक्ति कुछ मनचाहे की कामना पूरी होने के लालच में किसी पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ने के बाद अपने ही हाथों से अपनी गर्दन काट लेता है।<br />
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बहरहाल, भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के एक सक्षम सत्ताधारी ताकत के तौर पर उभरने के बाद अब इसके पीछे कॉरपोरेट, पूंजी-जगत, सत्ता-तंत्र, हजारों करोड़ रुपए खर्च कर तैयार की गई चुनावी ‘परियोजना’ के सूत्रधारों की खोज और व्याख्या की जाएगी और की जानी चाहिए। लेकिन भारत जैसे देश में आग्रहों-पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों, भक्ति, व्यक्ति पूजा, प्रचार, अफवाहों पर मारने-मरने पर उतर जाने वाले समाज में एक अर्धविकसित मतदाता अगर दक्षिणपंथ के लिए अपना हाथ उठाता है तो यह किसी भी विकासमान समाज की नाकामी है। वह मतदाता विकास नहीं समझता। उसे विकास का ‘गुजरात मॉडल’ समझाया जाता है, जो दरअसल एक नफरत की एक अनदेखी बुनियाद पर खड़ा होता है। लेकिन उस अनदेखी बुनियाद पर परदा उतारने का जिम्मा आखिर किसका है?<br />
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अब चुनौती उन ताकतों के सामने है जो हिंदुत्व की मौजूदा धारा के खिलाफ एक तरह से व्यवस्था विरोधी प्रतीक के रूप में खड़े हुए थे, लेकिन बाद में उन्होंने भी नरम कार्ड खेलना शुरू किया था। बिना इस सच को समझे कि उनकी मूल ताकत और चुनौती क्या है और कौन है...! नब्बे के दशक में राजनीति की एक वैकल्पिक जमीन तैयार करने के साथ-साथ विचारधारा के स्तर पर व्यवस्था-विरोधी प्रतीक के रूप में देखे जाने वाले राजनीतिक समूहों के सामने अब खुद को बचाए रखने का सवाल सबसे अहम है। अगर वे पहचान सकें कि इस प्रतीक के रूप में उन पर कहीं व्यवस्था के एजेंट तो हावी नहीं है और उन्हें दूर करना उनका सबसे पहला मकसद होना चाहिए, तो शायद बचने-बढ़ने और एक विकल्प की उम्मीद को जमीन पर उतारा जा सकता है...!</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-7018027304292633382014-02-27T00:45:00.002-08:002020-03-04T09:26:37.497-08:00इंसानी सभ्यता पर कलंक वह "शासकीय कत्लेआम"... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><span style="font-size: large;">मास्टर साहब की डायरी</span></span></span></b><br />
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<b>अरविंद शेष</b><br />
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राजकीय आदर्श विद्यालय फतेहपुर में तबादले के बाद पिछले तीन महीने में अख़्तर साहब ने कई समझौते किए थे। मसलन, कुर्ता और चौड़े घेरे का पायजामा पहनना छोड़ कर पैंट-शर्ट पहन लगे थे। सिर पर की टोपी हटा ली थी, लंबी दाढ़ी को छोटा करवा लिया था और स्कूल के सभी मास्टर साहबों के साथ-साथ नई भर्ती से आए मास्टर संतलाल को भी दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जोड़ कर मिलते ही 'नमस्कार संतलाल जी' कह कर- 'कैसे हैं' कहना नहीं भूलते थे। उन्होंने अब दाहिने हाथ का अंगूठा तलहथियों से लगा कर 'आदाब' या 'अस्सलाम-वालेक़ुम' करना छोड़ दिया था। हालांकि संतलाल को उनकी किसी बात से कभी कोई परेशानी नहीं हुई थी, लेकिन मुश्किल यह थी कि स्कूल संतलाल की सुविधा-असुविधा के हिसाब से नहीं चलता था और अख़्तर साहब को संतलाल जी की नहीं, बल्कि बाकी चारों शिक्षकों रामाधार शर्मा, महेश तिवारी, हेडमास्टर प्रेमशंकर झा और हरेंद्रगुप्ता की सुविधा-असुविधा का खयाल जरा ज्यादा करना पड़ता था। स्कूल में गणित शिक्षक के रूप में आने के आठ-दस दिन बाद से ही आपसी बैठकी में अख़्तर साहब पर छोटी-छोटी टिप्पणियां शुरू हो गई थीं, जैसे- 'आप भी अख़्तर साहब महान हैं। महाराज रहते हैं हिंदुस्तान में और दिखाई देते हैं पाकिस्तानी जैसा।' 'हाथ जोड़ के नमस्कार करने में अपमान बुझाता है क्या अख़्तर साहब!' -ये टिप्पणियां हंसते हुए की जातीं, लेकिन अख़्तर साहब लगभग पचास के हो चले थे, सो बातों के छिपे भावों को ताड़ लेते थे और धीरे-धीरे उन्होंने समझौते करने शुरू कर दिए थे। <br />
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पिछली फरवरी से स्कूल में 'हिंदुस्तान' की जगह 'दैनिक जागरण' अखबार आने लगा और इस बदलाव के परिणाम उनके चेहरे पर पढ़े जाने लगे तब भी अख़्तर साहब को कोई खास परेशानी नहीं हुई। लेकिन अट्ठाईस फरवरी को स्कूल पहुंचते ही 'शो काउज़' की तरह जब अखबार उनके सामने पटका गया तो वे प्रेमशंकर झा का मुंह ताकने लगे। <br />
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'मुंह क्या ताकते हैं? देखिए, साठ गो कारसेवक को ... मियां सब जला के राख कर दिया।' अखबार की ओर उंगलियां दिखा कर गंदी गाली देते हुए प्रेमशंकर झा ने कहा।<br />
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'ये जिसने भी किया है, बहुत गलत किया है।' अख़्तर साहब बोले। <br />
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'अरे जिसने क्या! गोधरा में और रहता कौन है? सब मुसलमाने सब मिल के सबको जिंदा जला दिया महाराज! औरत आ बच्चो को नहीं छोड़ा। एतना क्रूर होता है सब। बाप रे!' रामाधार शर्मा भी कुढ़ते हुए बोले। <br />
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'हम भी वही कह रहे हैं। जिसने भी ये हरकत की है, अल्लाह उसे माफ नहीं करेगा।' अख़्तर साहब ने वहां से हटना चाहा। <br />
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'जाइए महाराज! अबहियो जिसने पर अटके हुए हैं।' प्रेमशंकर झा ने कहा और एक छात्र को बुला कर क्लास लगने की घंटी बजा देने को कहा। <br />
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और एक मार्च को अखबार वाला बिल दे गया। पता नहीं स्कूल में सरकार अखबार के लिए अलग से पैसे देती है या नहीं, स्कूल में सभी मास्टर साहब सत्रह-सत्रह रुपए मिला कर अखबार मंगाते थे। दो मार्च को अखबार का बिल चुका दिया गया। अख़्तर साहब से बिना पैसे लिए। सिहरते हुए उन्होंने जब महेश तिवारी से इस बारे में पूछा तो जवाब मिला, 'बिल चुका दिया गया है। आपको देने की जरूरत नहीं है।'? <br />
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यही बात अख़्तर साहब को अखर गई। उन्हें लगा कि जैसे गोधरा में ट्रेन उन्होंने ही जला दिया और उसी की सजा उन्हें मिल रही है।<br />
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संतलाल जी थोड़ा खुल कर अख़्तर साहब से बात करते थे। इस पर उन्हें भी थोड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्हें भी सिर्फ सत्रह रुपए लगे थे। यानी बाकी के पैसे उन लोगों ने आपस में बांट कर अदा किए। कायदे से अख़्तर साहब को पैसे नहीं लगने का मतलब संतलाल के पैसों में बढ़ोतरी होनी थी। <br />
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लेकिन चार-पांच मार्च से अखबार के रुख की तरह प्रेमशंकर झा, शर्मा जी और तिवारी जी का रुख भी बदलने लगा। हरेंद्र गुप्ता अब अपनी ओर से अख़्तर साहब को प्रणाम करने लगे और झा जी क्लास लगने से पहले अखबार पढ़ने-पढ़ाने काम उत्साहपूर्वक करते। अख़्तर साहब को भी प्रथम पृष्ठ की खबरें दिखाई जातीं। जाहिर है, अखबार गुजरात के दंगों से पटे पड़े होते थे। एक बार प्रेमशंकर झा और एक बार महेश तिवारी अख़्तर साहब को कह चुके थे- 'आपने ठीक कहा था अख़्तर साहब, अल्लाह माफ नहीं करेगा।' <br />
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अख़्तर साहब सब कुछ समझते। लेकिन खुद को बच्चों में झोंके रहते। बावजूद इसके उनके दिमाग में सीतामढ़ी दंगे का दृश्य बार-बार घूम जाता और वे गुजरात की कल्पना कर दिन--ब-दिन और ज्यादा सिहरते जा रहे थे।<br />
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तब वे सीतामढ़ी मध्य विद्यालय में पदस्थापित थे। उस साल मोहर्रम उन्होंने वहीं बिताया था। अंसारी टोले का ताजिए का जुलूस खैरका रैन पर तीन घंटे में चल कर पहुंचता था। दूसरे कई ताजिए उस रैन पर पहुंचते थे। अंसारी टोले के उस्मान और उसका पड़ोसी रामबदन राय जब लाठी से भिड़ते तो दो घंटे में भी फैसला नहीं हो पाता था। मुकाबला हमेशा बराबर रहा। इस मुकाबले को देखने वालों की भीड़ हिंदू ज्यादा होते थे कि मुसलमान- कहना मुश्किल था। उसी साल दशहरे में दुर्गा की प्रतिमा के विसर्जन जुलूस में भी कितने हिंदू थे और कितने मुसलमान, कोई नहीं कह सकता था।<br />
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...और कोई नहीं कह सकता था कि किसने पत्थर फेंका और किसने दुर्गा की प्रतिमा का सिर काट दिया। लेकिन इसके बाद कितने लोगों के सिर कटे- यह भी कोई नहीं कह सकता था। <br />
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अख़्तर साहब दशमी को अपने घर मोतिहारी के मुरैना से सीतामढ़ी के गणेशपुरा में अपनी बहन के घर आ गए थे कि परसों से स्कूल खुलेगा। लेकिन स्कूल क्या खुलेगा, दंगा शहर और आसपास के इलाकों में बुरी तरह फैल चुका था। रात साढ़े ग्यारह बजे गणेशपुरा में भी चीख-पुकार मची। अख़्तर साहब की बहन का घर उत्तर की तरफ था। दंगाई दक्षिण से आए थे। बहन और तीनों बच्चों को लेकर अख़्तर साहब और उत्तर की ओर भागे। बहनोई लंबा चाकू लेकर चीख-पुकार की दिशा में भागा, फिर कभी नहीं लौटा। उत्तर की ओर भागते हुए रास्ते में गांव से बाहर लखना डोम का घर था। उसके थोड़ी दूर के बाद गणेशपुरा का एक और मुस्लिम टोला था। पहले लखना को देख कर अख़्तर साहब डरे, लेकिन लखना ने अपने घर का दरवाजा खोल दिया। एक पल उन्होंने लखना को देखा, फिर बच्चों औऱ बहन को लेकर लखना के घर में घुस गए। घर में पहले से आठ और लोग छिपे थे। लखना ने घर का दरवाजा बाहर से लगा दिया और बरामदे पर बिछे बिछावन पर लेट गया।<br />
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गणेशपुरा को आग में झोंकने के बाद दंगाइयों की भीड़ जब इसी ओर बढ़ने लगी तो दरवाजे की झिर्रियों से झांकते अख़्तर साहब का खून सूखने लगा। भीड़ लखना के घर के सामने थी। अंधेरे में किसको पहचानें। लखना जन्म से ही गांव में था। वह भी किसी को नहीं पहचान रहा था। लेकिन उसने जयराम शर्मा को जरूर पहचाना। जयराम शर्मा ने यही सोचा कि भागने वाला टोले की ओर भागा होगा। इस डोम के घर में कौन घुसेगा! भीड़ में से किसी ने पूछा कि किधर भागा है सब? लखना ने बेसाख्ता पूरब की ओर उंगली बता दिया। लेकिन भीड़ जयराम शर्मा के इशारे पर उत्तर की ओर मुस्लिम टोले की तरफ बढ़ गई। पांच मिनट में ही वहां से भी चीख-पुकार की आवाज और धधकती हुई आग नजर आने लगी। <br />
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आधे घंटे में भीड़ लौटी। भीड़ को चुपचाप अपना काम करना था, वह चुपचाप अपना काम करके जा रही थी। लखना के घरके सामने से जब भीड़ गुजर गई तो पीछे से जयराम शर्मा लखना के पास आया। सौ-सौ के पांच नोट लखना के हाथ में देते हुए चुप रहने की हिदायत दी। लखना ने हसरत भरी निगाहों से नोटों की ओर देखा और 'हां'? में सिर हिलाया। आश्वस्त होकर जयराम शर्मा आगे बढ़ा कि पीछे से कत्ते का भारी वार गर्दन पर पड़ा। मुंह से आवाज भी निकली। <br />
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भीड़ गुजर चुकी थी। किसी का ध्यान भी नहीं गया। या गया भी होगा, तो भीड़ को अब जयराम शर्मा की जरूरत नहीं थी। <br />
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उधर गांव से ट्रकों से खुलने और जाने की आवाज आई। जिन ट्रकों में भीड़ आई थी, उसी में चली गई। बाद में घायल और बचे हुए लोगों ने भी पुलिस को बताया कि हमारे पड़ोसियों ने हमें नहीं मारा। हथियारों से लैस लोग बाहर से ट्रकों में भर कर आए थे। उस भीड़ में जयराम शर्मा को छोड़ कोई भी गांव का आदमी नहीं था। उसी की लाश अब लखना के घर के सामने थी। जयराम शर्मा की लाश की तरह सब कुछ शांत पड़ चुका था। लेकिन गणेशपुरा गांव और टोले- दोनों तरफ से रोने-पीटने और कराहने की आवाजें लगातार आ रही थीं। <br />
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लखना ने घर का दरवाजा खोला और कहा, 'सब चला गया। आप सभे गोरा रात में नहीं जाइए। जयराम शर्मा के साफ कर दिए। ऊहे सार सब करवाया। हम ओकर लाश के गांव में फेंक के आते हैं। एहे में खप जाएगा। सार तहिने, भरल चौक पर बांस के फट्ठा से मार के बन-बन फोड़ दिया था, जानते हैं, काहेला? मरल बिलाई फेंके, आ खाली पांच गो रुपइया मांगे थे। ऊ दुइए गो दे रहा था। आज सार के सभे निकाल दिए।' <br />
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गजब की संतुष्टि भी लखना के चेहरे पर। वह फिर दरवाजा बाहर से बंद कर बलराम शर्मा की लाश कंधे पर उठा कर गांव में सबसे पूरब उसी के घर के सामने फेंक आया। अपने घर के सामने कुदाल से खून सनी मिट्टी भी हटा दिया। सुबह जब पुलिस आई, तब लखना ने सबको अपने घर से जाने दिया। अख़्तर साहब को बहनोई की लाश मिल गई थी, वे बहन और बच्चों को संभालने में लग गए थे। दहशत में लगभग सारा गांव खाली हो गया था। मुसलमान अगले हमले की आशंका और हिंदू पुलिस से पकड़े जाने के डर से गांव छोड़ कर भाग चुके थे। हालांकि जाते हुए हताहत मुसलमानों ने पुलिस से एक भी शिकायत गांव के हिंदुओं के बारे में नहीं की थी। दूसरे दिन तक दंगे पर नियंत्रण हो चुका था। कर्फ्यू लग चुका था। अख़्तर साहब भी अपनी बहन और बच्चों को लेकर किसी तरह अपने घर मुरैना लौट चुके थे। कर्फ्यू और तनाव के बाद स्कूल छठ तक छुट्टी के बाद ही खुल सका था। <br />
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सीतामढ़ी शहर अब सामान्य दिखता है, लेकिन इतना कमजोर कि जरा-सा उंगली लगाओ तो भरभरा कर गिर जाने का खतरा। दंगे के इतने साल बाद भी हालत यह है कि अभी कुछ दिन पहले रेलवे स्टेशन पर किसी की बारात उतरी थी। स्टेशन से बस रिजर्व थी। लोग उसमें बैठ चुके थे। छह-सात लोग पान खाने नीचे किसी दुकान पर रुके थे कि किसी की नजर धीरे-धीरे बढ़ चुकी बस पर पड़ी। छहो-सातों लोग आगे जा रही बस को पकड़ने तेजी से दौड़ पड़े। दौड़ते हुए लोगों को देख कर आसपास के सारे लोग घबरा गए। किसी ने किसी से कुछ नहीं पूछा। अचानक सिर्फ दुकानों के शटर गिरने की आवाज आने लगी। जिसको जिधर बन पड़ा, भाग चले। उस बस को भी जहां जाना था, चली गई। दस मिनट के भीतर शहर में पूरी तरह सन्नाटा छा गया और आधे घंटे के भीतर चप्पे-चप्पे पर पुलिस के जवान तैनात हो गए। खुद एसपी और डीएम ने मेहसौल चौक पर डेरा डाल दिया, मामले के साफ होने तक। एक तेरह साल के पप्पा बिस्कुट बेचने वाले लड़के ने एसपी के सामने मामला साफ किया था। लेकिन तनाव को हरा होना था, हरा हो गया। दशहरे का हो या मोहर्रम का जुलूस, बसें शहर के दो किलोमीटर बाहर रोक दी जाती हैं। सरकार ने सीतामढ़ी शहर को सांप्रदायिक दृष्टि से अति-संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर रखा है। <br />
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तो आज फिर अख़्तर साहब स्कूल में टिफिन यानी मध्यावकाश में लगे बच्चों के साथ खेलने। संतलाल भी खेल में शामिल थे। खेल में पहली से चौथी कक्षा तक के बच्चे भाग ले रहे थे, लेकिन पूरे स्कूल के बच्चे दर्शक थे। खेल का शीर्षक था- 'बोल भाई कितने, आप चाहें जितने...।' लगभग बीस बच्चों को गोल घेरा बना कर खड़ा किया गया था। घेरे में अख़्तर साहब भी थे। संतलाल बीच में बोलते हुए तेजी से घूम रहे थे- 'बोल भाई कितने', बच्चे जवाब देते- 'आप चाहें जितने।' घूमते-घूमते अचानक संतलाल ने कहा- 'पांच।' पूरा गोला घेरा टूट कर पांच-पांच के समूह में बंट गया। जो एक बच गया, अब उसकी बारी थी, गोल घेरे में 'बोल भाई कितने' बोलते हुए घूमते हुए। ऐसे ही बाकी बच्चों को भी अन्य खेलों में शामिल किया जाता। <br />
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बच्चों के साथ अख़्तर साहब और संतलाल का खेलना, खेलने के साथ-साथ पढ़ाना भी होता था। खाली समय के अलावे अक्सर ये दोनो ही कक्षा में धमाचौकड़ी मचा देते थे। हेडमास्टर प्रेमशंकर झा की नाराजगी के बात ये खेल मध्यावकाश और शाम की छुट्टी के समय होने लगे थे। <br />
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ऐसे मामलों में नाराज होने के लिए किसी कारण नहीं, बल्कि सिर्फ द्वेष की जरूरत होती है। और कुछ लोगों में द्वेष के लिए सिर्फ दूसरे के सुख की जरूरत होती है। तो चूंकि सारे के सारे बच्चे अख़्तर साहब और संतलाल में सर जी- सर जी कहते हुए जहां उलझे होते थे, वहीं बाकी सर जीयों से सिहरे रहते। उन सर जीयों को इस बात से बड़ा सुख मिलता कि बच्चे उनसे डरते हैं, लेकिन अख़्तर साहब और संतलाल में उलझे रहते हैं- इससे उन्हें परेशानी होती थी। यही परेशानी बैठकी में फूटती थी।<br />
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'मरदे स्कूल को मजाक बनाके रख दिया है।' महेश तिवारी ने हेडमास्टर प्रेमशंकर झा का मूड भांपते हुए कहा। <br />
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'समझे में नहीं आता है कि क्या किया जाए। ऐसे में तो बच्चा सब माथा पर चढ़बे करेगा।' रामाधार शर्मा ने भी तुक्का जोड़ा। <br />
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गुप्ता जी कैसे पीछे रहते- 'देखते हैं, पहिले टिफिने में सब ससुरी भाग जाता था। अब छुट्टियो के बाद घरे जाने का नाम नहीं लेता है सब।' <br />
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'क्या कीजिएगा! सरकारो सार नया-नया ट्रेनिंग चला दिया है कि गतिविधि आधारित पढ़ाई कराइए। इससे बच्चा सब ज्यादा समझेगा। समझेगा ... ! मूस मोटाएगा त लोढ़ा होगा। अरे इ स्कीम-उस्कीम से कुछो होता है। जिसको जो काम करना है उ करबे करेगा। हं..., इ खेले-कुदे वाला बात से लइका सब आदर करना छोड़ दिया है। कुछो होय, हमरा त अबहियो लइका सब प्रणाम सर जी कहबे करेता है।' निराशा और संतुष्टि के भाव से प्रेमशंकर झा बोले। <br />
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'कुछो कहिए, स्कूल का माहौल पहिले ऐसा नहीं था। जब से इ मियां जी आया है, क्लास रूम को खेल का मैदान बना दिया है।' महेश तिवारी ने फिर कुढ़ते हुए कहा। <br />
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'आ ताड़कोला! ठीके कहते हैं, सोलकन के सोलह आना धन हुआ नहीं कि लगा फुदकने।' रामाधार शर्मा ने खैनी मलते हुए संतलाल की व्याख्या की। <br />
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संतलाल के चाचा अब भी ताड़ के पेड़ से ताड़ी उतारते थे।<br />
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'अब हेडमास्टरे साहब को कुछो करना पड़ेगा। हम सब त कहेंगे त कह देगा कि तुम कौन होता है। हेडमास्टरो साहब नहीं कुछ किए, त बूझिए कि लइका सब नाच पार्टी में जाएगा। लौंडा बनेगा, नाटक करेगा। हं..., त निर्लज्ज बनेगा त नाचे पाटी में न जाएगा।' गुप्ता जी इस वक्त सोलकन से फॉरवर्ड बनने पर तुले हुए थे, सो उन्होंने हेडमास्टर साहब को चुनौती दी। शांति से सिर हिलाते हुए हेडमास्टर साहब बोले- 'अच्छा धीरज धरिए। कहीं गुजरात वाला हवा एनहू बह गया न...!' <br />
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इसी के बाद हेडमास्टर साहब ने कक्षा में खेलों को लेकर अख़्तर साहब से अपनी नाराजगी जताई थी और संतलाल को भी हिदायत दी। संतलाल ने अकेले में अख़्तर साहब से कहा- 'जो अपने दुख से दुखी होता है, उसका तो इलाज है, लेकिन जो दूसरो के सुख से दुखी है, उसका क्या इलाज है?' <br />
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संतलाल अगर दर्शन की भाषा में अख़्तर साहब को तसल्ली देते थे, तो इसलिए कि बीए करने के बाद पटना घूमने गए। उस वक्त पटना के गांधी मैदान में पुस्तक मेला चल रहा था, सो वह भी घूम लिए। आठ-दस किताबें खरीदीं और तभी से किताबें खरीदने हर साल पुस्तक मेले में पटना जाते रहे। इसलिए बीए की पढ़ाई बेकार नहीं गई और धीरे-धीरे आदमी बनने लगे। हो सकता है कि अनुसूचित जाति के आरक्षण पर शिक्षक की नौकरी हासिल कर ली हो, लेकिन साहित्य और सामयिक किताबों से खुद को लगातार समृद्ध करते रहे। डायरी लिखने की आदत भी इसी दौरान पड़ी।<br />
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तो संतलाल ने फिर आज रात में सोते वक्त सिरहाने की ओर चौकी पर लालटेन रखा। पेट के बल लेट कर डायरी लिखने लगे- '...! अमर्त्य सेन ने कहा भी है, 'धार्मिक कट्टरवाद या सांप्रदायिक फासीवाद या संकीर्ण राष्ट्रवाद के लिए निरक्षरता का होना जरूरी नहीं है। लेकिन लड़ाकू कठमुल्लापन को कायम रखने के लिए निरक्षरता की अहमियत को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता।' <br />
<br />
संतलाल ने डायरी बंद की। एक ग्लास पानी पिया। लालटेन धीमा किया, और सो गए।<br />
<br />
छब्बीस मई को स्कूल में गर्मी की छुट्टियों के बाद अख़्तर साहब अपने गांव मुरैना जाने को तैयार थे। उसी दिन फतेहपुर के धनी-मानी राजपूत जयकांत सिंह के बेटे की बारात मोतिहारी से आगे मुरैना होते हुए फूलपुर जाने वाली थी। जयकांत सिंह ने दो-तीन मजदूर अख़्तर साहब को जानते थे। उन तीनों को ट्रैक्टर पर बारात में जाने वाली मिठाइयों और पकवानों के साथ जाना था। उन लोगों ने अख़्तर साहब को उसी पर बैठा लिया कि रास्ते में मुरैना है, उतर जाइएगा। <br />
<br />
लेकिन मोतिहारी में प्रवेश करने के पहले ही सड़क की एक पुलिया टूटी थी। नीचे पानी नहीं था। दक्षिण से खेत में होकर रास्ता लगा हुआ था जो आगे सड़क में मिल जाता था। एक दिन पहले की बारिश में रास्ता पूरा कीचड़ हो चुका था और उसी कीचड़ में एक जीप फंसी हुई थी। रास्ता पूरी तरह बाधित था। वहां ट्रैक्टर काम तो आ सकता था, लेकिन जीप के आगे होता तब। ढाई घंटे इंतजार के बाद विपरीत दिशा से एक ट्रैक्टर आया। उसी से जीप को खींच कर निकालने की जुगत हुई और रास्ता खुल सका। मोतिहारी पहुंचते-पहुंचते ट्रैक्टर को रात आठ बज गए। लड़की वालों की तरफ से दो लोग मुख्य चौक पर इसी ट्रैक्टर के इंतजार में खड़े थे। रास्ता बताया गया कि मुरैना होकर रास्ता बहुत खराब हो चुका है, इसलिए परशुरामपुर होकर चलिए।<br />
<br />
मुश्किल केवल अख़्तर साहब को थी। यहां से मुरैना नौ किलोमीटर था और फूलपुर से दो किलोमीटर। ट्रैक्टर पर बैठे जगरनाथ ने कहा कि इतनी रात को अब पैदल कहां जाइएगा। फूलपुर चलिए, वहां से सबेरे चले जाइएगा। अख़्तर साहब को भी यही ठीक लगा। फूलपुर पहुंचने में दस बज गए। सूखी और चांदनी रात होती तो इस वक्त भी चले जाते, लेकिन बरसात और कीचड़ के कारण रुक गए और जनवासे के शामियाने में एक कोना पकड़ लिया। तीनों मजदूर ट्रैक्टर का सामान लेकर लड़की वालों के घर की ओर जा चुके थे। बारात भी चल चुकी थी।<br />
<br />
एक घंटे में द्वार-पूजा और नाश्ते के बाद लोग लौट आए। तब तक सब ठीक था। लेकिन भोजन के लिए बुलाने आए कुछ लोग जब बारातियों से चलने का आग्रह करते-करते अख़्तर साहब के पास पहुंचे तो बखेड़ा हो गया। अख़्तर साहब की दाढ़ी छोटी थी, लेकिन उसकी कटिंग देख कर उनमें से एक व्यक्ति ने कहा- 'इ त लगता है मुसलमान है। इहां कइसे आया।'<br />
<br />
सबके कान खड़े हो गए। मुसलमान है, मुसलमान है- भनभनाहट होने लगी। जितने लोग थे, सभी अख़्तर साहब के चारों तरफ घेरा बना कर खड़े हो गए। दो-तीन लोगों ने अख़्तर साहब से पूछताछ शुरू कर दी। अख़्तर साहब ने सब कुछ बताया कि किन हालात में वे यहां आ गए हैं। लेकिन उन्हें जानने वाले तीनों मजदूर लड़की वालों के दरवाजे पर थे। सो इन्क्वायरी चल रही थी। किसी के मुंह से निकला- 'अरे एकरा सब पर भरोसा करना खतरा खरीदना है। बेग चेक कीजिए।' <br />
<br />
और मौखिक इन्क्वायरी चेकिंग पर पहुंच गई। अख़्तर साहब का बैग लेकर उसमें से एक-एक सामान बाहर निकाल दिया गया- तौलिया, भागलपुरिया चादर, पैंट-शर्ट, शेविंग सेट, कुछ किताबें, कलम और कपड़े में लपेटी हुई एक तस्वीर। कपड़ा हटा कर तस्वीर निकाली गई। तस्वीर किसी युवती की थी। <br />
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'देखिए! सार अपने बुढ़ा गया है, आ बेटी के उमर के बीबी रखे हुए है।' फोटो देखने वाले ने कहा। <br />
<br />
'अरे एकरा सब में एहे सब होएबे करता है। चार-चार गो रखता है सब! क्या कीजिएगा!' दूसरे ने जोड़ा।<br />
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अख़्तर साहब का धीरज छूटा- 'नहीं बाबू, यह मेरी बेटी की तस्वीर है।' <br />
<br />
लेकिन तस्वीर चटखारेदार विश्लेषणों के साथ भीड़ में घूमने लगी। साथ-साथ अख़्तर साहब की आवाज भी घूमती रही कि 'नहीं बाबू, ये मेरी बेटी की तस्वीर है।' एक आवाज यहां तक आ गई कि 'क्या मरदे अकेल्ले आ गया है। जौरे इसको भी लेते आता। बाई जी के नाच के कमी पूरा हो जाता।' <br />
<br />
अख़्तर साहब दोनों हाथ सिर पर रख कर बैठ गए। लाचार-से बोले- 'ऐसा मत कहिए बाबू! यहां भी किसी बेटी की ही शादी है। ऐसा मत कहिए।' <br />
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पटना से बारात में आए दूल्हे के एक दोस्त से देखा नहीं गया। उसने तस्वीर लगभग छीन कर अपने हाथ में ले लिया और जोर से बोला- 'क्या करने पर तुले हैं आप लोग? क्या जरा भी आदमीयत नहीं बची है?' और उसने अख़्तर साहब के हाथ में वह तस्वीर दे दी।<br />
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'इ कोन है हो? मियां जी के दमाद है का? इसको हटाओ त...! आ मियां जी के जेबी चेक करो। कोनो ठीक नहीं है। नेपाल माहे आईएसआई वाला सार सब देस में घुस रहा है।' और दो लोगों ने ऊपर से लेकर नीचे तक अख़्तर साहब की एक-एक पर्ची तक चेक कर डाला। जब कुछ हाथ नहीं लगा, तब दूल्हे के चाचा ने कहा, 'अच्छा छोड़ दीजिए, सबेरे चले जाएंगे।' <br />
<br />
शांति की प्रक्रिया शुरू हुई और बात यहां तक पहुंची कि 'अच्छा मौलवी साहब, छोड़िए, चलिए खाना खा लीजिए। लइका सब है, नहीं समझता है।' <br />
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'अब क्या खाएं बाबू! इतना खा चुके कि अब कुछ नहीं बचा।' अख़्तर साहब रोने लगे। बेआवाज! उन्हें खुद याद नहीं कि कितने दिनों के बाद उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे कि रुक नहीं रहे थे। <br />
<br />
बैग और सामान अब भी उनके सामने बिखरा पड़ा। लोग उन्हें जिद्दी और नाटकबाज कहके जा चुके थे। धकिया के अलग कर दिया गया पटना से आया वह दूल्हे का दोस्त अब भी खाने नहीं गया था। वह धीरे-धीरे अख़्तर साहब के पास आकर सामान समेटने में उनकी मदद करने लगा। अख़्तर साहब के कंधे पर हाथ रखके उसने उन्हें दिलासा दिया- 'जाहिलों की जमात से आप क्या उम्मीद करते हैं बाबा।'<br />
<br />
अख़्तर साहब ने आंख उठा कर उसकी ओर देखा और हल्के से फफक पड़े।<br />
<br />
और सुबह अख़्तर साहब कब चले गए। किसी को खबर भी नहीं हुई। एक हल्ला हुआ कि देखो कहीं किसी का कोई सामान तो लेकर नहीं भागा है। सबके-सब ईमानदार निकले और कहा कि उनका सब कुछ ठीक है।<br />
<br />
एकदम सुबह पहुंचते ही अख़्तर साहब की पत्नी ने सवाल किया तो चुपचाप कमरे में चले गए और पत्नी के पास आते ही उसकी छाती में मुंह छिपा कर रोने लगे। पत्नी ने भी बच्चों की तरह थपकाते हुए पूछा- 'क्या हुआ...?' मुंह हटा कर सिर्फ इतना कह सके- 'इतना गैरयकीनी! इतना शक! इतनी नफरत!' थोड़ा रुक कर बोले- 'थोड़ी चाय बनाओ।' और पत्नी को सब कुछ बता दिया। <br />
<br />
'वह लड़का कौन था?' पत्नी ने दूल्हे के उस दोस्त के बारे में पूछा। <br />
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'नहीं मालूम। लेकिन ऐसे ही लोगों के भरोसे चलना पड़ता है।' अख़्तर साहब ने कहा। <br />
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गर्मी की छुट्टियों के खत्म होने के बाद स्कूल फिर से खुल गया था। बच्चे संतलाल और अख़्तर साहब के और ज्यादा करीब होते जा रहे थे। अख़्तर साहब के साथ लगे होने की वजह से संतलाल भी बाकी सबकी नजरों में चढ़ते जा रहे थे।<br />
<br />
एक दिन प्रेमशंकर झा ने व्यंग्य मारा- 'हं..., लगे रहिए। लइका सब कलक्टर नहीं त आपके जइसा मास्टरो बन जाए।' <br />
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हरेंद्र गुप्ता से भी नहीं रहा गया- 'क्या संतलाल! चाय के पइसा अख्त..रे साहब देते हैं क्या?' <br />
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संतलाल तुरंत मतलब समझ गए। लेकिन आज उन्हें भी नहीं रहा गया- 'हां, आप पीजिएगा त आपका भी पैसा उन्हीं से दिलवा देंगे। खाली कहिए त सही!' <br />
<br />
'देखिएगा, चाय पीते-पीते कहीं संतलाल से सलीम न बन जाइए!' हरेंद्र गुप्ता कुढ़ते हुए जाने लगे। <br />
<br />
'अभिए आप कोन अपना माने बैठे हैं।' संतलाल ने भी जड़ा और दूसरी ओर चले गए। <br />
<br />
उस रात संतलाल ने अपनी डायरी में लिखा- 'इस प्रकार के द्वेष की जड़ें आखिर कहां हैं? बाकी तीनों का आग्रह तो समझ में आता है। लेकिन हरेंद्र गुप्ता! वे शिक्षक भी हैं। क्या कभी विश्लेषण के दौर में नहीं जाते?' और आगे उन्होंने पढ़ी हुई किसी किताब का एक अंश लिखा- ' ...चीखते हुए दादू ने हिंदू राष्ट्र का घोष करने वाले उन दस-बारह लड़कों के झुंड से कहा- पता है कहां थे तुमलोग जब उज्जयिनी की सड़कों पर वसंत सेना की पालकी निकलती थी? तुम उसको कंधा देते थे। कहां थे जब जगन्नाथ का रथ निकलता था? तुम उसका रस्सा खींचते थे। और कहां थे, जब राजाओं की अश्वमेध होता था? तुम भट्टी के सामने बैठ कर तलवार बनाते थे। तुम हमेशा सिर्फ सीढ़ियां रहे हो। और सीढ़ियां खुद कहीं नहीं जातीं। केवल दूसरे लोग उस पर पांव रख कर ऊपर जाते हैं। आज भी तुम वही हो- सबसे नीचे की सीढ़ियां, जो सिर्फ इस्तेमाल होती हैं।' <br />
<br />
उधर गुजरात गौरव-यात्रा का दंश झेल कर 'गौरवान्वित' हो रहा था, तो इधर अख़्तर साहब को अखबारों में छपी दंगों की खबरों का पाठ बड़े उत्साह से सुनाया जाता। और गुजरात में फिर से दो-तिहाई की जीत पर राजकीय आदर्श विद्यालय फतेहपुर में भी मिठाइयां बंटीं। दूसरे लोगों के साथ संतलाल को भी एक लड्डू मिला, लेकिन अख़्तर साहब को दो लड्डू मिले। अख़्तर साहब और संतलाल ने एक-दूसरे का मुंह देखते हुए लड्डू खा लिया। <br />
<br />
पिछले स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने के बाद 'जन-गण-मन अधिनायक जय है' हुआ और एक जलेबी देकर छुट्टी दे दी गई। सो, इस बार गणतंत्र दिवस पर अख़्तर साहब ने अपना एक आइटम बच्चों के साथ मिल कर तैयार करना शुरू कर दिया। आइटम सिर्फ यही था कि कुछ बच्चे कोरस में 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा' की तैयारी कर रहे थे। संतलाल ने भी गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के बारे में पूरी जानकारी देने वाला नाटक तैयार करा लिया। इसी को देख कर महेश तिवारी ने कुछ बच्चों से 'वंदे मातरम' तैयार करा लिया। तय हुआ कि झंडोत्तोलन के बाद पहले 'वंदे मातरम' होगा, उसके नाटक, फिर 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।' <br />
<br />
पच्चीस जनवरी को नाटक के पूर्वाभ्यास में राष्ट्रगीत औऱ राष्ट्रगान के लेखकों का नाम आने पर हेडमास्टर साहब ने अख़्तर साहब ने पूछा- 'इ सारे जहां से अच्छा किसका लिखा हुआ है?' <br />
<br />
अख़्तर साहब ने बताया- 'इकबाल।' <br />
<br />
उसी शाम छुट्टी के बाद जब अख़्तर साहब और संतलाल बच्चों में उलझे थे, बैठकी में प्रेमशंकर झा ने कहा- 'अब बुझाया! मौलाना को वंदे मातरम काहे नहीं सूझा। इहो अगर कोनो इकबाल का लिखा हुआ रहता जरूर सूझता।'<br />
<br />
और कल होकर झंडोत्तोलन हुआ, राष्ट्रगान हुआ और जलेबी बंट गई। सभी बच्चे ताकते रह गए कि अब उनके द्वारा तैयार आइटम पेश होगा। लेकिन जलेबी बंट चुकी थी। अख़्तर साहब और संतलाल बच्चों को लेकर स्कूल के प्रांगण में चले गए और 'बोल भाई कितने, आप चाहें जितने' खेलने लगे। <br />
<br />
गणतंत्र दिवस की रात संतलाल ने अपनी डायरी में यह भी जोड़ा- '...फासीवादी ताकतें दूसरी-दूसरी पहचानों की ओर में काम करते हैं। आमतौर पर वह अपनी ओट बनाते हैं राष्ट्रवाद के एक अतिवादी रूप को, जिसके चलते राष्ट्रवाद के साथ ही एक फासीवादी परिभाषा नत्थी हो जाती है।' संतलाल ने डायरी बंद की और आज अपने चुप रह जाने के कारणों पर विचार करने लगे। ...तो क्या आज भी मेरी चेतना पर वही मानसिकता हावी है, जो सिर्फ मूकदर्शक रहना सिखाती है? <br />
<br />
राजकीय मध्य विद्यालय फतेहपुर का अगला एक महीना बेहद तनावों भरा गुजरा। अख़्तर साहब ज्यादा समय चुप रहने लगे थे। बच्चों के खेल में भाग नहीं लेते, बस खेलते हुए देखते। उन्हें कभी-कभी चक्कर आने लगा था। डॉक्टर ने आखिरकार स्थायी रूप से उच्च रक्तचाप की दवा लेने की सलाह दे दी। संतलाल ने अपने तबादले के लिए हाथ-पांव मारना शुरू कर दिया। लेकिन उसके साथ ही हेडमास्टर प्रेमशंकर झा तक को खरी-खरी सुनाना भी शुरू कर दिया।<br />
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लक्षणा में एक दिन प्रेमशंकर झा ने जड़ा- 'क्या संतलाल! सुनते हैं कि आपके अंबेडकर मुसलमान को देखना तक नहीं चाहते थे! आप त इहां...।' कि पलट कर संतलाल ने सीधा जवाब दिया- 'सोझे बजरंग दल के टिकट पर एमपीये का चुनाव लड़ न जाइए महाराज! काहेला मास्टरगीरी में चले आए हैं?'<br />
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उस दिन से प्रेमशंकर झा ने संतलाल से सीधे कभी बात नहीं की। संतलाल ने भी जिला शिक्षा अधिकारी के यहां स्थानांतरण के लिए सीधी अर्जी देने को सोच लिया। अपनी पहली पसंद अपना गांव लगमा बताया, फिर लिख दिया कि आप जहां चाहें, वहीं मुझे सुविधा होगी। रात में ही अर्जी तैयार भी कर ली।<br />
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इधर अख़्तर साहब तबीयत ज्यादा खराब होते जाने के बावजूद कक्षाओं में बच्चों में उलझे रहते। उन्होंने संतलाल से भी धीरे-धीरे कटना शुरू कर दिया था। यह देख कर कि उनके चलते संतलाल को भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे ही समय में क्रिकेट विश्व कप का बुखार तेजी से बढ़ता जा रहा था। खास कर एक मार्च को भारत-पाकिस्तान के मैच को लेकर माहौल तनाव की हद तक पहुंच चुका था। बयान-दर-बयान और शुभकामनाएं-दर-शुभकामनाएं आ रही थीं कि भारत और किसी से जीते न जीते, पाकिस्तान से मैच जीत जाना विश्व कप जीतने के बराबर होगा। या यों कहिए कि पाकिस्तान पर फतह होगा।<br />
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बाईस फरवरी को अख़्तर साहब ने आवेदन दे दिया कि मेरी तबीयत ज्यादा खराब होती जा रही है, थोड़े आराम की जरूरत है। सोचा कि बंबई से बेटा भी आया हुआ है, उसके सात पटना जाकर ठीक से इलाज भी करा लेंगे।<br />
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आवेदन देते समय चौकड़ी जमी हुई थी। महेश तिवारी ने खैनी मलते हुए पूछा- 'तब अख़्तर साहब! फटक्का भारत में छूटेगा कि पाकिस्तान में!' संदर्भ क्रिकेट मैच को लक्षित था।<br />
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'इसके लिए पाकिस्तान जाने की क्या जरूरत है! हर गांव आ शहर में कहीं-न-कहीं पाकिस्तान हइये है की!' रामाधार शर्मा ने तुक मिलाया।<br />
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अख़्तर साहब मुस्कराए। सिर्फ इतना कहा- 'मेरा भरोसा अभी टूटा नहीं है।' और बाहर निकल गए। कल होकर ही मुरैना के लिए निकल पड़े। घर में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। वेतन उठाने के बाद बेटे के साथ पटना जाने का भी मन बना चुके थे। बीच में ही ब्लड प्रेशर की नियमित दवाई खत्म हो गई। टालने में दो दिन टल गए।<br />
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सुबह चाय पीकर कुछ पैसों के इंतजाम में अपने गांव से दो किलोमीटर दूर शाहपुर एक संबंधी के घर गए। संबंधी आज भारत-पाकिस्तान मैच देने के लिए बैटरी चार्ज कराने गए थे। लौटने तक रुक गए। उनके आने पर पैसे भी मिल गए। पैसे लेकर घर को लौट रहे थे कि बीच रास्ते में ही छाती में बांईं ओर कचोटने जैसा दर्द शुरु हो गया। बांईं बांह में लगा कि जैसे कोई जोर-जोर से चुटकी काट रहा हो। एक रिक्शे वाले से मदद मांग कर किसी तरह घर पहुंचे। पत्नी गोद में सिर रख कर तेल लगा कर जोर से मलने लगी। बेटा छाती और बांह मलने लगा। इसी बीच अख़्तर साहब ने दाहिने हाथ से बांईं छाती को जोर से भींचा। मुंह खोल कर कुछ कहना चाहा, लेकिन अचानक ठहर गए। गर्दन पत्नी की गोद में दाहिनी ओर ढलक गई। दोनों हाथों से अपनी छाती पीट कर 'या अल्लाह' कहती हुई पत्नी पीछे की ओर बेहोश होकर गिर पड़ी। बेटा पहले 'अब्बा' कह कर चिल्लाया, फिर 'अम्मी' कहते हुए संभालने दौड़ा।<br />
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तीन मार्च को अख़्तर साहब का बेटा स्कूल में पहुंचा। हेडमास्टर प्रेमशंकर झा से बोला- 'मैं शकील अख़्तर ...। ...शमीम अख़्तर का बेटा। ...अब्बा का शनीचर के रोज इंतकाल हो गया। ...मैं बाद में फिर आऊंगा। ...अभी खबर देने आ गया था।'<br />
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इतना कह वह जाने लगा कि प्रेमशंकर झा ने पूछा कि कैसे हो गया। अख़्तर साहब के लड़के ने रुक-रुक कर बता दिया। जाते वक्त संतलाल उसे वस तक दिलासा देते हुए छोड़ने आए और कहा- 'जैसी भी मदद की जरूरत हो, बेहिचक कहना।'<br />
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संतलाल स्कूल में वापस आए। चौकड़ी की बैठकी चुटकियों के साथ चल रही थी।<br />
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'मैचवा के पहिले मरा कि बाद में हो?' रामाधार शर्मा ने पूछा।<br />
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'न..., दुपहरे में में खत्तम हो गया था।' प्रेमशंकर झा ने कहा।<br />
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'हो सकता है कि बेचारा के पहिलहिं आभास हो गया हो।' महेश तिवारी ने सुर मिलाया।<br />
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'अब इ न सोचिए कि अपने त चलिए गया, लेकिन बेटा के नौकरी दे के गया।' हरेंद्र गुप्ता ने जोड़ा।<br />
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'हं, इहे त एगो दुख के बात है कि बेटा के नौकरी हो जाएगा। न त आपलोगों को असली मिठाई त आजे बांटना चाहिए था।' संतलाल ने कमरे में घुसते हुए कहा और अपना हाथ में टांगने वाला थैला लेकर निकलते हुए बोले- 'आज त कम-से-कम स्कूल बंद रखिएगा?' और सभी व्यंग्य की नजर फेंकते हुए बाहर निकल गए।<br />
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और आज संतलाल ने डायरी के पन्नों की सीमा तोड़ दी। लिखते गए, लिखते गए ' ...अब सवाल यह नहीं रह गया लगता है कि पूर्वाग्रहों को त्याग कर तथ्यों और तर्कों के सहारे आगे कैसे बढ़ा जाए। बल्कि सवाल अब यही रह गया लगता है कि भावुकता के सहारे पीछे कैसे लौटा जाए। आगे बढ़ने के लिए तथ्यों और तर्कों की जरूरत पड़ती है, जिस पर मेहनत करना पड़ता है- सभी स्तरों पर। और भावनाओं में बहाने या भावुकता में बहने के लिए मेहनत की जरूरत नहीं पड़ती, इसलिए आसान है...। अख़्तर साहब की मौत पर हमारे स्कूल में की टिप्पणियां इसलिए साधारण नहीं हैं, क्योंकि ये टिप्पणियां समाज के एक ऐसे तबके की गई हैं जो समाज की बुनियाद तैयार करता है। और जब बुनियाद डालने वाले हाथ ही पूरी तरह संवेदनहीन औऱ खोखले हों तो? दरअसल, धार्मिक कट्टरता से त्रस्त व्यक्ति जिस गुलामी को भोग रहा होता है, उसे न वह देख पाता है, न समझ पाता है। इससे बड़ी त्रासदी यह है कि यह गुलामी उसे अच्छी लगती है। एक डरे हुए शंकाग्रस्त व्यक्ति से 'मनुष्य' होने की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है। लेकिन उम्मीद कहां है...?'<br />
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कल मुरैना जाऊंगा...। पता नहीं, अख़्तर साहब के परिवार वाले किस हाल में होंगे। यही सोचते-सोचते संतलाल सोने लगे कि ध्यान आया कि ट्रांसफर के लिए अर्जी देने भी जाना है...। अब थोड़े ही दिनों में मैं भी चला जाऊंगा। ...तब वे लोग आराम से रह सकेंगे। ...लेकिन बच्चे! मैं भी भाग जाऊं तो बच्चे!<br />
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...नहीं-नहीं कहते हुए वे उठ बैठे। एक ग्लास पानी पिया और ट्रांसफर के लिए जो अर्जी उन्होंने तैयार की थी, उसे लेकर एक बार पढ़ा और अगले ही पल उसे फाड़ डाला।<br />
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<b>(समाप्त) </b><br />
<b> (पाखी में प्रकाशित) </b></div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-29188228124255822482014-01-04T07:14:00.000-08:002014-01-06T07:15:19.111-08:00सामंतवाद की दीवार में सिर फोड़ता सामाजिक न्याय...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b>नवंबर</b> 2005 में जब बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी का तथाकथित "जंगल राज" खत्म हुआ और तय हो गया कि भाजपा के सहारे से नीतीश कुमार बिहार के मुखिया बन जाएंगे, उस वक्त मैं बिहार के सीतामढ़ी जिले मे अपने गांव से पांच किलोमीटर दूर गाढ़ा चौक पर था। जदयू-भाजपा की जीत की मुनादी पीटती हुई भीड़ चौक की तरफ आ रही थी। पास आने पर "नीतीश कुमार जिंदाबाद" जैसे नारों के साथ जो मुझे सुनाई पड़ा, वह किसी भी होशमंद शख्स को दहलाने के लिए काफी था। लगभग दो सौ लोगों की भीड़ गुलाल-अबीर से होली खेलती उन्माद में चीख रही थी कि "हमारा राज वापस आ गया... हमारा राज वापस आ गया...।"<br />
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यहां मुझे यह साफ करने की जरूरत शायद नहीं है कि वे लोग कौन थे जो इस बात की होली मना रहे थे कि "हमारा राज वापस आ गया...।" मैं अंदाजा लगा सकता था, लेकिन फिर भी मैंने वहां पिछले कई साल से कंधे पर डोलची टांग कर पान बेचते सुखो भाई से पूछा कि ये कौन लोग हैं। उन्होंने मुझे जवाब के तौर पर सवाल दिया कि इस चौक पर और किसकी हिम्मत होगी दिवाली के साथ होली मनाने की। फिर उन्होंने धीरे और सहमी हुई आवाज में बताया कि सब बाबू साहब हैं।<br />
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लालू प्रसाद की तरह नीतीश कुमार भी पिछड़ी जाति, यानी ओबीसी की ही पृष्ठभूमि से आते हैं। लेकिन गाढ़ा चौक पर "बाबू साहबों" की भीड़ क्यों खुशी मना रही थी और नारे लगा रही थी कि "हमारा राज वापस आ गया...।"<br />
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मैं नहीं जानता कि कुछ उदार कहे जाने वाले लोगों को आज भी यह वहम क्यों है कि नीतीश भाजपा के साथ खड़े हैं, लेकिन भाजपाई नहीं हैं। इस देश की असली मुश्किल यही है कि यहां ब्योरा जमा करना और उसे पेश करना अपनी जिम्मेदारी का पूरा होना मान लिया जाता है। हमें यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर हमें यहां से आगे बढ़ना है तो किसी भी क्या के क्यों पर बात करनी होगी, उसकी करनी होगी।<br />
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गाढ़ा चौक पर "हमारा राज वापस आ गया..." की मुनादी पीटते हुए लोग कोई चाणक्य नहीं थे, लेकिन वे क्यों निश्चिंत थे कि उनका "राज" वापस आ गया? क्या सिर्फ इसलिए कि भाजपा सत्ता की हिस्सेदार थी? मामला केवल हिस्सेदारी का नहीं था, बल्कि उस भरोसे का था जो नीतीश कुमार ने दिया था और उस मानसिकता का था, जिसमें नीतीश कुमार जीते हैं। यहां शायद बिहार में अति पिछड़ी जातियों और महादलितों के लिए की गई उनकी तथाकथित "क्रांति" की हकीकत का बयान करने का मौका नहीं है।<br />
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लेकिन 2005 के नवंबर से आज तक अलग-अलग मौकों पर गाढ़ा चौक पर गूंजते वे नारे अगर मुझे जिंदा दिखे हैं तो इसलिए कि नीतीश कुमार और उनकी सरकार ने हर मौके पर उसे पाला-पोसा और मजबूत किया है।<br />
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सत्ता में आने के महज तीसरे महीने उन्होंने अपना सबसे पहला बड़ा फैसला लिया और उस पर तुरंत अमल किया वह था अमीरदास आयोग को भंग करना। मुझे अक्सर यह शक होता है कि कहीं यह नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने की पूर्व शर्त तो नहीं थी! वरना क्या वजह हो सकती है कि जो अमीरदास आयोग अपनी लगभग सारी रिपोर्ट पूरी कर चुका था, बस उसके सौंपे जाने की औपचारिकता बाकी थी, उसे आखिरी वक्त में भंग कर दिया गया?<br />
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दरअसल, अमीरदास आयोग शायद चाह कर भी उन हकीकतों को नजरअंदाज नहीं कर सकता था कि भूमिहारों की रणवीर सेना को खाद-पानी से सींचने और पालने-पोसने वाले लोग भाजपा और जदयू के वैध साए में जनतांत्रिक राजनीति कर रहे थे और उसके पांव राजद के भीतर भी फैले हुए थे। इसलिए इस आयोग का भंग किया जाना सबके लिए सुविधाजनक था और शायद इसीलिए किसी को भी इस पर हंगामा खड़ा करना जरूरी नहीं लगा। लालू प्रसाद की उस राजद के लिए भी नहीं, जिसके सत्ताकाल में रणवीर सेना द्वारा किए गए कत्लेआमों की पड़ताल और उसके तारों की जांच के लिए वह आयोग बिठाया गया था।<br />
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अमीरदास आयोग को भंग किए जाने को मैं नीतीश कुमार की सामाजिक राजनीति की दृष्टि मानता हूं। और उनकी सरकार की समूची कार्यशैली ने इसे बार-बार पुष्ट किया है। फर्क सिर्फ यह है कि उनके कामकाज का आलकन एक लगभग बिके हुए और समर्पित मीडिया के "ट्रांसफॉर्म्ड बिहार" टाइप रिपोर्टों के आधार पर होता रहा है। सवाल है कि नीतीश कुमार की मेहरबानी से बिहार को ट्रांसफॉर्म्ड बताने वालों का समाज कौन-सा है और उसे अपने निष्कर्षों का आधार बनाने वाले लोग कौन हैं? पैदा होने के बाद रणवीर सेना की बर्बरताओं को राजद सरकार की नाकामी करार देना सही था, लेकिन इसी मीडिया के लिए अमीरदास आयोग को भंग करना किसी परेशानी की वजह नहीं था। क्यों?<br />
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यही वही दौर था जब 2002 में रणवीर सेना का मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह पकड़े जाने के बाद से जेल में बंद था और बथानी टोला जैसे तमाम कत्लेआमों के सिलसिले में जहां भी अदालतों में उसकी खोज होती, नीतीश सरकार के सिपाही उसके "फरार" होने की खबर दे देते। और आखिरकार नीतीश कुमार की दोस्ताना मेहरबानी से जब ब्रह्मेश्वर सिंह जेल से बाहर आ गया तो इस पर क्यों किसी को हैरान होना चाहिए? यहां तक कि लालू प्रसाद या रामविलास पासवान को भी इस पर चुप रहना जरूरी लगा तो इसके कुछ तो कारण रहे होंगे।<br />
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और जब पटना हाईकोर्ट के जजों ने लक्ष्मणपुर बाथे या बथानी टोला कत्लेआम के निचली अदालत में साबित तमाम अपराधियों को रिहा किया तो कम से कम मुझे सचमुच कोई हैरानी नहीं हुई। लालू प्रसाद की राजद सरकार ने बहुतेरे धतकरम किए होंगे, लेकिन कम से कम लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोला मामले में उसने पीड़ितों के पक्ष में इतना जरूर किया कि सेशन कोर्ट ने कइयों को छोड़ने के बावजूद कइयों को फांसी और उम्रकैद की सजा दी थी। लेकिन जब "अपना राज" वाली सरकार आ गई तो राज्य की बदली हुई तस्वीर का असर अदालतों पर भी तो पड़ना चाहिए! सो हाईकोर्ट के जजों को स्वाभाविक रूप से उस कत्लेआम के गवाह भरोसेमंद नहीं लगे। निचली जातियों के लोग सिर्फ जान देते वक्त भरोसेमंद होते हैं। वे अदालत के कठघरे में भरोसेमंद नहीं होते हैं।<br />
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अभी बहुत दिन नहीं बीते हैं जब दिल्ली में रोहिणी की एक अदालत की जज कामिनी लाउ ने भी हरियाणा के मिर्चपुर कांड के पीड़ितों को "गैरभरोसेमंद" गवाह घोषित किया था और तीन को छोड़ कर तमाम आरोपियों को मासूम होने का तमगा देकर रिहा कर दिया था। दलितों पर अत्याचार के मुकदमों में सजा की दर महज दो प्रतिशत के आसपास है। खुद केंद्र सरकार कहती है कि दलितों पर जुल्म से संबंधित लगभग अस्सी फीसद मामले लंबित हैं। यानी सौ में करीब अस्सी मामले अदालतों तक पहुंचे ही नहीं। और हममें से बहुत सारे लोग हैं जो न्यायिक सेवाओं में आरक्षण की मांग को एक पिछड़ा और द्वेषपूर्ण मांग करार देते हैं! हो सकता है, यह शक सही हो। लेकिन वे कौन-सी वजहें होंगी कि उसी पटना हाईकोर्ट को अमौसी हत्याकांड में दस लोगों को फांसी की सजा देने में कोई हिचक नहीं हुई। क्या इसलिए कि नीतीश सरकार की परिभाषा के हिसाब से वे आरोपी महादलित थे और अदालत को वे सभी गवाह "भरोसेमंद" लगे जो सवर्ण थे? यह देश के दूसरे इलाकों का भी सच हो सकता है। लेकिन बिहार में पुलिस थानों के दारोगा को शायद जज भी बना दिया गया है जो उत्पीड़न, अत्याचार या अपराध के मामले दर्ज नहीं करता है, तत्काल थाने में ही निपटा देता है। आंकड़ों में अपराध में कमी वैसे ही नहीं होती है। और दलितों-पिछड़ों पर जुल्म ढाने वाली सामंती ताकतों ने नीतीश कुमार को यों ही नहीं बिठाया है बिहार की कुर्सी पर!<br />
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नीतीश एक अच्छे प्रतिनिधि साबित हुए हैं उन ताकतों के, जो उनके पहले के तकरीबन डेढ़ दशक के तथाकथित जंगल राज में निराश हो गए थे। लालू प्रसाद अपने शुरुआती सत्ताकाल में कहते थे- "गाय चराने वालों, सुअर चराने वालों, पढ़ना लिखना सीखो, पोथी-पतरा फेंको, पढ़ना-लिखना सीखो।" सुअर या बकरी चराने वालों के पढ़ने-लिखने और पंडितों का पोथी-पतरा फेंक देने के "खतरे" का अंदाजा किसे नहीं था। फिर लालू के ही नाम से प्रचारित "परवल का भुजिया खाओ" या "भूरा बाल साफ करो..." जैसे जुमलों ने सचमुच बहुत सारे लोगों के दिमाग में कुछ गड़बड़ पैदा की। लालू की खासियत यही थी और शायद उनकी सीमा भी कि इससे ज्यादा वे कुछ नहीं कर सके। शायद कर भी नहीं सकते थे। और उनके जुमले आखिरकार एक खास तरह का दिशाभ्रम परोसने से ज्यादा का दर्जा हासिल नहीं सके। बाद में उन्होने जो रास्ता पकड़ा, उसे उम्मीदों के साथ धोखा करना कहा जाए, तो वह भी कम होगा। पोथी-पतरा फेंको का नारा देने वाले वही लालू प्रसाद आज मंदिरों में दर-दर भटकते हुए जेल पहुंच चुके हैं और अपने भविष्य के लिए तंत्र-मंत्र, पूजा-पाठ और पंडितों के आगे दंडवत हैं।<br />
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लेकिन असली मुश्किल शायद भाकपा (माले) की थी। 2004 तक मैं पटना में ही था और मैंने देखा है कि भाकपा (माले) की रैलियों में किसी भी दूसरी पार्टी की रैलियों से बहुत ज्यादा भीड़ होती थी। लेकिन उस भीड़ को वे शायद कभी अपनी ताकत के रूप में तब्दील नहीं कर पाए। समूचे मध्य बिहार में जिस संघर्ष की लहर भाकपा (माले) ने पैदा की, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन वे कौन-सी वजहें रहीं कि उसकी जमीन पर कब्जा किसी और का हो गया। क्यों इसके भीतर वे तमाम लोग किनारे लगा दिए गए, जिन्होंने इसे खड़ा किया? यह पार्टी जिनके लिए लड़ाई लड़ने का दावा करती रही है, उनके बीच का कोई भी चेहरा पटल पर नहीं दिखता है तो क्यों?<br />
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वैसे यह अकेले माले की दिक्कत नहीं है। माकपा और भाकपा ने भी इसी पैमाने पर जो खाली, लेकिन बेहद उपजाऊ जमीन छोड़ी, उस पर किसी न किसी को तो फसल उगाना था! कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए जो लोग अपने हो सकते थे, उन्हें ये पार्टियां अपनी नहीं लगीं, क्यो? क्यों उन नक्सली समूहों को मौका मिला जिन्होंने दलित-पिछड़ी जातियों के सबसे कमजोर तबकों को रणवीर सेना और सरकारी पुलिस के बीच में खड़ा कर दिया? जिस स्थिति में नक्सली समूह रहे हैं, उसमें उत्पीड़ित तबकों को वे इससे ज्यादा क्या दे सकते थे? लक्ष्मणपुर बाथे या बथानी टोला के बदले सेनारी कर दिया जाएगा, लेकिन पटना हाईकोर्ट में कौन खड़ा होगा लक्ष्मणपुर बाथे या बथानी टोला के भुक्तभोगियों के लिए? क्या इस देश के समाज को समझना इतना मुश्किल है?<br />
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नब्बे के दशक में बिहार में दलितों और पिछड़ी जातियों का जो उभार हुआ था, उसका नेतृत्व वामपंथी दलों को करना था। लेकिन क्यो यह ताकत लालू का दामन थाम कर आगे बढ़ी और नीतीश के जरिए फिर वहीं वापस लौट गई, जहां वह थी। सोशल जस्टिस के नारे को सोशल इंजीनियरिंग में तब्दील करने के जितने बड़े अपराधी नीतीश कुमार हैं, लालू की जिम्मेदारी उससे कम नहीं बनती। लेकिन वामपंथी पार्टियों ने क्या किया? क्यों नीतीश जैसे फर्जी लोगों को निचली जातियों का उद्धारक घोषित कर दिया जाता है, जबकि नीतीश की मूल दृष्टि सामंती ताकतों की जड़ें मजबूत करती हैं? कुछ सपने दिखाए गए और ढेर सारी उम्मीदों के साथ लोग इंतजार करते रहे और कोई सोशल जस्टिस से बेईमानी करता रहा, कोई सोशल इंजीनियरिंग को पुख्ता करता रहा तो कोई इसे पचड़ा कह कर दूर भागता रहा।<br />
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इस देश में जाति से निपटे कौन-सा वर्ग खड़ा किया जा सकता है? इस देश में वर्ग के परदे से जाति को ढकना क्या एक मजाक नहीं लगता?<br />
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खैर, कोई भी सत्ता बिना तंत्र पर कब्जे के मन-मुताबिक नहीं चल सकती। लालू प्रसाद के कथित "जंगल राज" में जो थोड़ी तोड़-फोड़ हुई थी, नीतीश के चेहरे के जरिए उसी को दुरुस्त किया जा रहा है। नौकरशाही को खुली छूट दे दो, वह आपको सत्ता का मुखौटा बने रहने में कोई अड़चन नहीं पैदा करेगा। और किसी को यह समझने के लिए बहुत मेहनत नहीं करनी होगी कि बिहार की नौकरशाही और बिहार का तंत्र आज भी किसका है, किसके लिए है। साइकिल वितरण टाइप योजनाएं दरअसल वे परदे हैं जिसके पीछे दो दशकों में सामाजिक यथास्थितिवाद के मनोविज्ञान के गड़बड़ाए हुए पुर्जे दुरुस्त किए जा रहे हैं। सभी मोर्चों पर...!<br />
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बिहार का मीडिया हमें दिखाता है कि नीतीश सरकार ने स्कूलों-अस्पतालों की हालत अच्छी कर दी है। वह हमें यह नहीं बताता कि स्कूल-अस्पताल की इमारतों पर रंग-रोगन के अलावा पढ़ाई-लिखाई या डॉक्टर-इलाज की हकीकत क्या है। हम अखबारों के पन्नों पर बिहार की चमकती सड़कों की खबरें पढ़ कर खुश होते हैं। कोई नहीं बताता कि हर वक्त पैसे का रोना रोने वाली बिहार सरकार अपने कुल बजट का अड़तीस फीसद हिस्सा केवल सड़कों के लिए देती है तो इसके पीछे मकसद क्या केवल सड़कें दुरुस्त करना है? कंस्ट्रक्शन और सेवा क्षेत्र की चमकती तस्वीर पर ग्रोथ-रेट के फर्जीवाड़े से किसका चेहरा खिल रहा है? यह पता लगाने की जरूरत है कि सड़क निर्माण से लेकर कंस्ट्रक्शन के तमाम ठेके समाज के किस वर्ग के हिस्से जा रहे हैं।<br />
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बहुत अच्छी सड़कों वाले हरियाणा से कोई खबर आ जाती है कि किसी दलित ने किसी सवर्ण के घड़े से पानी पी लिया और उसके हाथ काट दिए गए। और बहुत चमकती सड़कों की ओर तेजी बढ़ते और दावा करने वाले बिहार में भी एक दलित किसी सवर्ण के घर के आगे लगे सरकारी हैंडपंप से पानी पी लेता है तो उसे पीट-पीट कर मार डाला जाता है। फारबिसगंज में जो हुआ था, वह अररिया की तरह चुपचाप दफन हो जाता, अगर चोरी से बनाया गया वीडियो क्लिप बाहर नहीं आ जाता। हमारी बहुत अच्छी सड़कों की मंजिल कहां हैं?<br />
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हम लक्ष्मणपुर बाथे या बथानी टोला पर हाईकोर्ट के फैसले से परेशान होते हैं। लेकिन इस व्यवस्था में इससे अलग कोई फैसला होना भी कहां है? लक्ष्मणपुर बाथे या बथानी टोला कत्लेआम को अंजाम देने वाली रणवीर सेना के गुंडे जब ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद राजधानी पटना में नंगा नाच करते हैं और उसे पोसने वाली सरकार इस तांडव का मजा लेते हुए कहती है कि उन्हें रोकने से दंगा भड़क जाता तो हम किससे उम्मीद कर रहे हैं? रणवीर सेना के गुंडों का तांडव दंगा नहीं था और उसे रोकने से दंगा भड़क जाता! याद कीजिए कि बथानी टोला कत्लेआम पर पटना हाईकोर्ट के फैसले के बाद नीतीश कुमार ने कुछ भी कहा हो।<br />
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नीतीश सरकार ठीक कहती है। उन्हें रोका जाता तो समाज की दबी-कुचली पिछड़ी जातियों को यह संदेश कैसे पहुंचता कि रणवीर सेना के नेतृत्व में सवर्ण वर्चस्व आज भी कितनी ताकत रखता है। यानी एक मोर्चे पर तंत्र चुपचाप अपना काम कर रहा है और अब दूसरा मोर्चा भय का मनोविज्ञान रच रहा है।<br />
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नीतीश कुमार की यह वही सरकार है जिसके हाथ सरकारी स्कूल के टीचरों से लेकर आशा की महिला कार्यकर्ताओं के शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर बर्बर लाठी चार्ज करते हुए नहीं कांपते। लेकिन रणवीर सेना का नंगा नाच शायद वह मंत्रमुग्ध होकर देखती है। कॉमरेड एबी बर्धन जब कहते हैं कि नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद से सत्ता पाने के लिए रणवीर सेना जैसे सामंती संगठनों का सहारा लिया तो उसे एक विवादित बयान कहा जाता है। लेकिन नीतीश सरकार का वह कौन-सा चरित्र है जो उसे एबी बर्धन की राय से उसे अलग करता है। वैसे कॉमरेड एबी बर्धन ने सिर्फ वही कहा जो बहुत सारे लोगों के साथ-साथ खुद नीतीश सरकार भी पहले से जानती है। क्या यह बेवजह होगा कि जातिगत आतंक और कत्लेआम का प्रतीक बन चुका रणवीर सेना का मुखिया कहता है कि नीतीश बिहार में अच्छा काम कर रहे हैं? (हालांकि यही कॉमरेड एबी बर्धन अब मानते हैं कि नीतीश कुमार बिल्कुल धर्मनिरपेक्ष हैं और लालू प्रसाद उनके सामने संकट पैदा कर रहे हैं। पता नहीं, यह दिशाभ्रम कॉमरेडों को कहां लेकर जाएगा।)<br />
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ब्रह्मेश्वर सिंह की रिहाई, बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे जनसंहार पर पटना हाईकोर्ट का फैसला, ब्रह्मेश्वर की हत्या के बाद पटना में तांडव- सभी एक ही जगह पहुंचने वाले अलग-अलग रास्ते हैं।<br />
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ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद अगले कम से कम पंद्रह दिन तक के बिहार के कम से कम हिंदी अखबारों के पन्ने पलटे जा सकते हैं। करीब दो हफ्ते में इन अखबारों ने बताया कि बिहार के सत्ताधारी सामाजिक वर्ग का चरित्र क्या है, वह कैसे काम करती है। लगातार दस-बारह दिनों से अगर पहले पन्ने पर आठ कालम हत्यारों के किसी सरगना को "मुखिया जी" या दूसरे संबोधनों के साथ समर्पित हो तो क्या इसके मायने समझने में किसी को दिक्कत होनी चाहिए? यहां तक कि ब्रह्मेश्वर के श्राद्ध के भोज के एक दिन पहले जब सत्ताईस गैस सिलेंडर फटे और उसमें बहुत कुछ खाक हुआ तो उसे भी किसी आरती की तरह पेश किया गया। उसी में एक सरकारी स्कूल के खाक हो जाने पर एक लाइन की चिंता नहीं दिखी। वह सरकारी स्कूल किसका था और किसने उसके इस्तेमाल की इजाजत दी? लेकिन जब राज ही अपना हो तो इजाजत कैसी?<br />
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एक दुर्दांत हत्यारे की हत्या के बाद उसका महिमामंडन करता यह वही मीडिया है जिसे बथानी टोला या लक्ष्मणपुर बाथे कत्लेआम पर हाईकोर्ट के फैसले की खबर भीतर के पन्नों के लायक लगी। फैसले पर सवाल तो दूर, पीड़ितों की राय तक के लिए जगह नहीं थी। यही आपराधिक निर्लज्जता फिलहाल बिहार के मीडिया की सबसे बड़ी खासियत है जिसके सहारे चेतना के स्तर पर सामंती शासन को स्वीकार करने की जमीन मजबूत की जा रही है।<br />
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लेकिन इन सबके बीच चुपचाप जो हुआ, क्या खुद नीतीश कुमार उस पर गौर कर रहे हैं। ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद बिहार के अखबारों में उनकी तथाकथित सेवा यात्रा की जगह क्या थी? उनकी जिन यात्राओं का ब्योरा अखबारों के पहले पन्ने का आभूषण होता था, वह भीतर के नवें-दसवें या बारहवें-तेरहवें पन्ने पर क्यों खिसक गया? क्या यह नीतीश कुमार के लिए कोई चेतावनी है? हां, उन्हें ध्यान रखना होगा कि वे जिनके मोहरे हैं, वे उनके खिलाफ नहीं जा सकते, बल्कि उनकी अनदेखी भी नहीं कर सकते। परना जिस व्यवस्था के वे नुमाइंदगी कर रहे हैं, वह उन्हें झटकने में एक पल की भी देरी नहीं करेगी।<br />
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इसीलिए वे अमीरदास आयोग को भंग करते हैं, बद्योपाध्याय कमिटी की सिफारिशों को खारिज करते हैं, सवर्ण आयोग बनाते हैं, बथानी टोला या लक्ष्मणपुर बाथे जनसंहार पर पटना हाईकोर्ट के शर्मनाक फैसले पर चुप रहते है और रणवीर सेना का सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह के गुंडो को पटना में आग लगाने की पूरी आजादी देते हैं।<br />
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2002 में नरेंद्र मोदी ने भी गुजरात में यही किया था। हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने की पूरी आजादी दी गई और अब वहां सब कुछ सहज दिखता है। विकास के जिस परदे से नरेंद्र मोदी के अपराधों को ढका जा रहा है वही परदा नीतीश कुमार ने अपने आगे टांग रखा है।<br />
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<i>(यह लेख कुछ समय पहले लिखा गया था। अपने आलसीपने का क्या जवाब हो सकता है?)</i></div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-12580687515019949272013-10-05T08:53:00.004-07:002013-10-05T08:55:00.253-07:00सामाजिक सत्तावाद के बरक्स समांतर सत्ता-संदर्भ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b>आमतौर</b> पर किसी अदालत के फैसले के खिलाफ कोई विपरीत राय नहीं जाहिर की जाती है और उसे एक सही फैसला माना जाता है। इसलिए झारखंड में सीबीआइ की अदालत से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद को चारा घोटाले के मामले में आए फैसले के खिलाफ भी कुछ नहीं कहा जाना चाहिए। बल्कि कानूनी कसौटी पर उसे एक सही फैसला मान लिया जाना चाहिए। लेकिन अगर किसी को लगता है कि चारा घोटाले में लालू प्रसाद को हुई सजा किसी कानूनी लड़ाई का नतीजा है तो इसका मतलब है कि वह जाने-अनजाने इस समूचे परिप्रेक्ष्य में सामाजिक राजनीति के आयामों की अनदेखी कर रहा है या फिर उस पर परदा डाले रखना चाहता है। यह एक राजनीतिक लड़ाई भी थी, जिसमें तंत्र के अपने खिलाफ होने की वजह से लालू प्रसाद को दूसरी बार जेल जाना पड़ा। मैं यहां घोटालों की परतों या उसकी कानूनी बारीकियों के बारे में बात नहीं करूंगा। इसके बावजूद 1990 के दशक में पटना टाइम्स ऑफ इंडिया के स्थानीय संपादक रहे उत्तम सेनगुप्त की यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि जिस चारा घोटाले में लालू प्रसाद को सजा हुई, उसमें मुकदमा दर्ज करने या फिर जांच के आदेश बतौर मुख्यमंत्री खुद लालू प्रसाद ने ही दिया था। झारखंड अदालत में सजा सुनाए जाने के बाद लालू प्रसाद ने लगभग रिरियाते हुए यही तथ्य जज साहब को सुनाते रहे। लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री और वित्तमंत्री के रूप में वे बिहार की राजधानी पटना से कई सौ किलोमीटर दूर चाइबासा के ट्रेजरी से अवैध तरीके से धन निकासी करने वालों की अनदेखी करने के दोषी ठहराए गए।<br />
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बहरहाल अदालती फैसले की तकनीकी व्याख्या के हिसाब से लालू प्रसाद पशुपालन घोटाले के मामले में दोषी हैं। लेकिन इस देश की सामाजिक राजनीति के इतिहास में उनके "गुनाह" कुछ दूसरी ही शक्ल में दर्ज किए जाएंगे। बिहार की राजनीतिक जमीन पहले भी बहुत उर्वर रही है, मगर 1990 में लालू प्रसाद के अचानक मुख्यमंत्री बनने के साथ ही जिस तरह की राजनीति ने उस जमीन पर अपने पांव रखे, उसके बाद उसे नजरअंदाज करना राज-समाज के किसी भी अध्येता के लिए मुमकिन नहीं था। यह एक चौंकाने वाला दौर था, जिसमें कोई व्यक्ति सरकार बनाने के बाद और उसका मुखिया होने के बावजूद सामाजिक सवालों पर मुखर होकर दखल दे रहा था। वरना कोई भी राजनीतिक दल विपक्ष या किसी भी खेमे की राजनीति करता हुआ सामाजिक जटिलताओं के मुद्दे से बचता है या भागता है। यह अब तक की राजनीतिक परंपराओं और उन सरकारी औपचारिकताओं के खिलाफ था, जिसमें सरकार घोषित तौर पर अपने सभी नागरिकों के लिए समानता का व्यवहार रखने का दावा करती है। हालांकि भारत की सामाजिक व्यवस्था में समानता की खोज अपने-आप में एक प्रहसन से कम नहीं है।<br />
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तो 1990 में केंद्र की वीपी सिंह सरकार की मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा से लेकर लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान देश के दूसरे इलाकों की तरह बिहार में भी जो आरक्षण विरोधी "आंदोलन" जैसी प्रतिक्रियाएं उभरीं, उसमें अपनी सरकार के बतौर मुखिया लालू प्रसाद सीधे-सीधे एक सामाजिक पक्ष में खड़े हो गए। इसके बाद आरक्षण विरोध के उस कथित आंदोलन के मसले पर सरकारी सख्ती और लालू प्रसाद के नाम से उड़ाए गए "भूरा बाल" जैसे जुमलों ने उन्हें एक साथ नायक और खलनायक, दोनों बना दिया। फिर समूचे देश की धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और संविधान को रौंदती हुई आडवाणी की रथयात्रा को जब लालू प्रसाद ने समस्तीपुर में तोड़ दिया और आडवाणी को मसानजोर के गेस्टहाउस में कैद कर दिया तो उसके बाद शायद यह साफ करने की जरूरत नहीं थी कि वे किसके लिए नायक बने और किसके लिए खलनायक बन गए।<br />
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इसी के बाद लालू की लड़ाई सामाजिक सत्ता-प्रतिष्ठानों से शुरू हो चुकी थी, जिसमें उनकी हार कई-कई वजहों से तय थी। एक राज्य के मुख्यमंत्री को किसी सरकारी रेडियो के बारे में अगर यह टिप्पणी करनी पड़ती है कि "ये सा... एआईआर वाले केवल झा-मिश्रा और पांडेय का समाचार देते हैं,' तो इसे कुछ लोग हताशा, पूर्वाग्रह या कुंठा का नतीजा मानेंगे। लेकिन पिछले दो-ढाई दशकों में तंत्र की राजनीति पर से जैसे-जैसे परदे उठ रहे हैं, उसमें यह समझना मुश्किल नहीं है कि लालू को वह टिप्पणी किन हालात में करनी पड़ी होगी।<br />
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बहरहाल, यही वह दौर था, जब लालू प्रसाद राज्य में सबसे गंदगीतरीन और अभावग्रस्त बस्तियों में खुद जाकर दलित परिवारों को साफ-सफाई से रहने के लिए "डांटते-फटकारते" और दलित बच्चों को अपने हाथ से साबुन लगा कर नहलाते हुए दिखने लगे थे। आसमान में हेलिकॉप्टर से गुजरते हुए किसी खेत में काम करती सिर्फ चार-पांच महिलाओं को देख कर हेलिकॉप्टर कहीं भी उतार देना या गांव के पिछड़े हुए समाज के गरीब बच्चों को हेलिकॉप्टर देखने के लिए नजदीक ले जाना शायद एक मुख्यमंत्री के सहज व्यवहार में नहीं गिना जा सकता। उनकी इस तरह की "हरकतों" के लिए उन्हें "जोकर" से लेकर "विदूषक" तक की उपाधि दी गई, लेकिन आज भी रुकुनपुरा जैसे कई इलाकों के उन दलित-वंचित परिवारों से जाकर लालू के उस "नाटक" के बारे में पूछना चाहिए, जिनके "गंदे-मैले-कुचैले" बच्चों को एक राज्य के मुख्यमंत्री ने साबुन लगाकर नहलाया था या किसी गरीब की झोंपड़ी के सामने रुक कर उससे पानी मांग कर पिया था। (कुछ ऐसा ही करते हुए आज देश के एक भावी प्रधानमंत्री तारीफ पाते हैं)।<br />
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खैर, यह सब करते हुए उस दौर के "नाटकबाज" लालू एक और काम करते थे। शायद उन्होंने खुद ही कवितानुमा कुछ लाइनें तैयार की थीं, जिसे वे कहीं भी भीड़ के सामने गाना शुरू कर देते थे। उनमें से कुछ जो मुझे याद हैं, वे ये हैं- "सुअर चराने वालों, भेड़ चराने वालों, गाय चराने वालों, भैंस चराने वालों, बकरी चलाने वालों, चारा लाने वालों, कूड़ा बीनने वालों, पढ़ना-लिखना सीखो, पढ़ना-लिखना सीखो... पोथी-पतरा फेंको, पढ़ना-लिखना सीखो...!" तभी लालू प्रसाद के दिमाग से "चरवाहा विद्यालय" भी निकला था, जो अपनी अवधारणा में महान था, कहीं-कहीं शुरू भी हुआ, लेकिन लालू प्रसाद अपने काल में भी उसकी कामयाबी सुनिश्चित नहीं कर सके। (पोथी-पतरा फेंको कितना "समाज विरोधी" और "व्यवस्था-विरोधी" शब्दावली है, यह किसके खिलाफ है, यह किस जड़ पर जानलेवा हमला करती है, इसकी प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, यह समझने के लिए थोड़ा अपनी जड़ों से ऊपर उठना पड़ेगा।)<br />
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लेकिन सरकार की किसी भी योजना को जमीन पर पर कौन उतारता है? पटवारी-बीडीओ-डीएम... तमाम आईएएस या प्रशासनिक अधिकारी... टीचर-डॉक्टर... दारोगा-इंस्पेक्टर-एसपी... तंत्र के इन पुर्जों की मर्जी के बिना कौन सरकार अपनी किसी योजना को वास्तव में जमीन पर उतार सकती है, अगर करना भी चाहे तो ! फिर भी, अंग्रेजों के राज से लेकर आजादी के बाद अब तक आम गरीब जनता के बीच कुछ समय तक अगर नौकरशाही का खौफ कम या खत्म हुआ था तो यह लालू प्रसाद के उसी बेलगाम बड़बोलेपन का नतीजा था। तंत्र में समाज के दलित-पिछड़े वर्गों के जो लोग अफसर के रूप में 'शंटिंग' में सेवा दे रहे थे, उन्हें फील्ड में भेजने की व्याख्या और विकास के दुश्मन के रूप में उनका मूल्यांकन अभी बाकी है। लेकिन वंचित जनता के हक में बेलगाम बड़बोलेपन से कोई उस जनता का दोस्त हो सकता है, लेकिन उसे कुछ दे नहीं सकता, क्योंकि उसी बड़बोलेपन से उसने उन समूहों को भी अपना दुश्मन बना लिया होता है, जिनका राज-समाज और तंत्र पर कब्जा होता है। और जब तंत्र दुश्मन हो तो किसी जनता को अपना बना कर भी कोई क्या कर लेगा? तंत्र पर कब्जे के बिना सत्ता पर कब्जा करना न सिर्फ बेमानी है, बल्कि कई बार आत्मघाती भी!<br />
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<span style="background-color: red;"><b><span style="color: #fce5cd;">आगाज़ के बरक्स अंजाम के धुंधलके</span></b></span><br />
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<b>लालू प्रसाद</b> के पास चूंकि अपने बेलगाम बड़बोलेपन के अलावा सामाजिक चेतना को मथने की कोई ठोस सुचिंतित योजना या दृष्टि नहीं थी, इसलिए उनके लिए ज्यादा आसान यह था कि वे यथास्थितिवादी व्यवस्थावाद के एक पुर्जे बन कर पहले की सत्ताओं की तरह सब कुछ "सहज" रूप से चलने देते। सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक दंगों के मामले में सरकार में रहते हुए लालू प्रसाद ने जो उदाहरण पेश किया वह उन तमाम नरेंद्र मोदियों के लिए एक जवाब की तरह है कि अगर सरकार और शासन नहीं चाहे तो दंगे दो-तीन घंटे से ज्यादा नहीं चल सकते। इस मामले में उन्होंने सांप्रदायिकता की जमीन को खोखला करने के लिए जो सामाजिक मोर्चाबंदी की, उसने साबित किया कि सांप्रदायिक नफरत का इलाज इसी समाज के उपकरणों से किया जा सकता है। इच्छाशक्ति और काबिलियत रखने वाले और भी रास्ते खोज सकते हैं। खैर, सांप्रदायिक दंगों पर काबू पा लेने की काबिलियत को छोड़ दें तो पशुपालन घोटाला एक उदाहरण था, शायद शासन की बाकी प्रवृत्ति भी अपने "सामाजिक स्वभाव" में अपनी गति से चल ही रही थी। "अविकास" और उनके "विकास विरोधी" होने के तमाम आरोप इसके सबूत हैं। तो क्या लालू प्रसाद अपनी नाकामी पर परदा डालने के लिए सामाजिक स्तर पर "दखल" दे रहे थे? मुमकिन है कि ऐसा रहा हो। लेकिन जो समाज ऐतिहासिक रूप से एक ऐसे यथास्थितिवाद में जी रहा हो, जहां उसके अधिकार के कुछ टुकड़े उसे भीख या रहम की शक्ल में मिलते रहे, वहां चाहे अपनी नाकामी की भरपाई के लिए ही सही, लालू प्रसाद ने अगर चेतना के स्तर पर थोड़ा हिलाने-डुलाने की कवायद की, तो यह मेरी नजर में एक ज्यादा जरूरी पहल थी। नहीं तो यह वैसे लोगों का देश है ही, जहां कस्बे के किसी स्कूल-कॉलेज से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय ये जेएनयू में शिक्षित जनता जिस बर्बर सामंती जातीय-धार्मिक संस्कारों में जन्म लेती है, उसी में मर भी जाती है। अमेरिका और जापान बनती राजधानी दिल्ली में, आर्थिक राजधानी मायानगरी मुंबई में या सिलिकॉन वैली बंगलोर में भी। इससे कहीं किसी को शिकायत नहीं होती।<br />
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और इसीलिए बहुत अच्छी सड़कें, बहुत ऊंची इमारतें, बहुत सारे सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र), मॉलों और सोसाइटियों से चमकते शहरों की दुनिया तैयार करने वाले हरियाणा या गुजरात जैसे इलाके इस व्यवस्था को ज्यादा प्रिय हैं, भले ही वह दुनिया छीनी गई जमीन पर उगी हो और उसकी सिंचाई खून से की गई हो। दलितों या समाज के कमजोर तबकों पर जुल्म की व्यवस्था वाहक के बावजूद हरियाणा एक "विकसित' और "आदरणीय" राज्य है, हजारों मुसलमानों के कत्लेआम और एक बर्बर हिंदू व्यवस्था का सपना जमीन पर उतारने वाला नरेंद्र मोदी इस "देश" और दुनिया को सुहा रहा है। धर्म और समाज की व्यवस्था बनाए रखना किसी नेता को "प्रिय" और "प्यारा" बनाता है, इस व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की कोशिश उसे खलनायक बना देती है।<br />
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लेकिन इस व्यवस्था की बारीकियों को समझना इतना आसान नहीं है। लालू प्रसाद को जो "खलनायकी" का प्रमाण-पत्र मिला, उसमें उनकी "सामाजिक जुबानी बेलगामी" का कोई जिक्र नहीं है। वे "चारा घोटालेबाजों" के संरक्षक के तौर पर जेल गए। 2013 तक आते-आते इस जनतंत्र ने इतना मुमकिन कर ही दिया है कि कम से कम लालू प्रसाद की हैसियत वालों को कानूनी-प्रक्रिया के तहत जेल भेजा जाता है। वरना आज भी हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे कई इलाकों में जाति के बाहर शादी करने वालों को "सजा" के तौर पर सार्वजनिक रूप से मौत दी ही जाती है, या अंधे विश्वासों पर चोट करने वाले नरेंद्र दाभोलकर को मार ही डाला जाता है।<br />
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लालू प्रसाद के सत्ता के शुरुआती चार-पांच साल इसी 'सामाजिक उत्पात' के थे, जिसने चुपके-चुपके ही सही, चेतना के स्तर पर असर डाला था। और आज उसी को बहुत सारे लोग 'बेजुबानों' को जुबान मिलने के तौर पर दर्ज करते हैं। मगर उसके बाद के लालू वही नहीं थे। नब्बे के दशक से काफी पहले से चलता आ रहा पशुपालन घोटाले का 'पिशाच' 1993 में खड़ा हो चु्का था और उससे बचने की छटपटाहट ने लालू प्रसाद को वहां खड़ा कर दिया, जहां उन्हें अपने ही सामाजिक न्याय के नारे के साथ बेईमानी करने वाला कहा जा सकता है। 1995 से अगले दस साल और उनकी सत्ता रही, लेकिन हर रोज इस बात का इंतजाम करते हुए कि किसी तरह बच जाएं। मगर जिस व्यवस्था में धोखे से ही सही, उन्होंने अपने शुरुआती तीन-चार सालों में जो छेद कर डाला था, उसके लिए माफी नहीं होती। ऐसे उदाहरण खोजने पड़ेंगे जिसमें अनियमितता के आरोपी किसी मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करने के लिए बाकायदा सेना भेजने की कोशिश की गई हो या फिर खुलेआम अखबारों में पहले पन्ने पर मोटे अक्षरों में लीड छपा हो कि 'लालू नेपाल भागेंगे!'<br />
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लालू कहीं नहीं भागे। लेकिन उन्होंने उस व्यवस्था के सामने समर्पण कर दिया, जिसके बरक्स कभी वे खड़े हुए थे। पिछले एक-डेढ़ दशक का उनका इतिहास यथास्थितिवादी सामंती व्यवस्था के सामने उनके गिड़गिड़ाने का ब्योरा भर है कि मुझे बख्श दो! और इसी दौर में उनसे "हरियाणवी" या "गुजराती" विकास की मांग को वाजिब कहा जा सकता है। बिहार की दुर्दशा के लिए लालू-राबड़ी के पंद्रह सालों को जिम्मेदार बताने वालों की समस्या और तकलीफ समझी जा सकती है। लेकिन उनकी पार्टी के दूसरे और तीसरे कार्यकाल का हिसाब मांगना उतना गलत भी नहीं है। इसके बावजूद कि इस दौरान भी वे कई तरह के अदृश्य जंजीरों में जकड़े हुए थे और उससे छूट पाने की छटपटाहट में थे। इस पूरे दौर में वे सामाजिक रूप से सत्ताधारी जातियों को यह भरोसा दिलाने में लगे रहे कि अब मैं आपका ही खयाल रखूंगा, मंदिर-मंदिर भटकते हुए पूजा-पाठ कराते, मंदिरों के लिए चंदा देते लालू अपनी सामाजिक न्याय की मांग के बरक्स सिर के बल खड़ा होकर यही गुहार लगा रहे थे कि अब मैं आपका हूं, मुझे बख्श दो। लेकिन इस व्यवस्था में उन प्रतीकों को माफ नहीं किया जाता, जो मौजूदा सामाजिक सत्ता के ढांचे को चुनौती दे या समांतर सत्ता का वाहक बने। वे कोई रेडिकल कम्युनिस्ट या नास्तिक नहीं थे कि हम उनसे मंदिर, पूजा-पाठ जैसी चीजों से पूरी तरह मुक्त हो जाने की उम्मीद कर लें। लेकिन लालू इतने खोखले कैसे हो गए थे? उनका खुद पर से भरोसा इतना कैसे डिग गया था कि अपनी उस राजनीति को ही उन्होंने धोखा दे दिया, जिसकी वे उपज थे और जो उनकी असली ताकत थी?<br />
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आज देश और दुनिया यही जानती है कि लालू प्रसाद को पशुपालन घोटाले में सजा हुई है। लेकिन खुद लालू भी शायद समझते होंगे कि आज वे जिस अंजाम तक पहुंचे हैं, उसका आगाज़ और उसके बाद का रास्ता कहां-कहां से गुजरा है!<br />
(विस्तार बाकी.) </div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-21618321600204592742013-08-24T09:46:00.004-07:002013-08-24T09:46:52.192-07:00सवालों से डरा हुआ धर्म-तंत्र...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBTSsfNnVI8egB82If4ACQoEl1F8V-cwjcV7ivtrdasKnldTcSUmlAGLmG9nBk68C6Yy_rM027zuki9RL-eA5zIwxqEvpAeccjCxDLFAzTLc8EnNg8FzYnFR-Vf2NPOm98FUPTWkbUcoI/s1600/s-1.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBTSsfNnVI8egB82If4ACQoEl1F8V-cwjcV7ivtrdasKnldTcSUmlAGLmG9nBk68C6Yy_rM027zuki9RL-eA5zIwxqEvpAeccjCxDLFAzTLc8EnNg8FzYnFR-Vf2NPOm98FUPTWkbUcoI/s1600/s-1.jpeg" /></a></div>
कुछ साल पहले कुछ कट्टरपंथी हिंदू समूहों ने इस बात पर संतोष जताया था कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाए गए अंधविश्वास विरोधी कानून का भारी विरोध हुआ। वे समूह शायद इस कानून को हिंदुत्व को खत्म करने की साजिश मानते हैं। ऐसा करते हुए हिंदुत्व के वे उन्नायक खुद ही बता रहे थे कि चूंकि हिंदुत्व की बुनियाद अंधविश्वासों पर ही टिकी है, इसलिए अंधविश्वासों का खत्म होना, हिंदुत्व के खत्म होने जैसा होगा। हालांकि यह केवल हिंदुओं के धर्म-ध्वजियों का खयाल नहीं है। सभी धर्म और मत के 'उन्नायक' यही कहते हैं कि सवाल नहीं उठाओ, जो धर्म कहता है, उसका आंख मूंद कर पालन करो। और धर्म की सांस से जिंदा तमाम लोगों के भीतर का भय बाहर आने के लिए छटपटाते सारे सवालों की हत्या कर देता है। हमारी विडंबना यह है कि अपने जिन "उद्धारकों" से हम सवाल उठाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे खुद एक ऐसा मायावी लोक तैयार करने में लगे होते हैं, जहां कोई सवाल नहीं होता। दरअसल, वे हमारे स्वघोषित "उद्धारक" होते ही इसीलिए हैं कि न केवल उनकी "भूदेव" की पदवी कायम रहे, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था भी अनंत काल तक बनी रहे, जिसमें अंधकार का साम्राज्य हो और समूचे समाज को अंधा बनाए रखा जा सके।<br />
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खासतौर पर जिस हिंदुत्व पर हम गर्व से अपनी छाती ठोंकते रहते हैं, उसमें यह साजिश ज्यादा विकृत इसलिए हो जाती है, क्योंकि यहां यह केवल आस्थाओं का कारोबार नहीं होता, बल्कि जन्म के आधार पर ऊंची और नीची कही जाने वाली जातियों की मानसिक और चेतनागत अवस्थिति बनाए रखने में भी अंधविश्वासों और आस्थाओं को हथियार के बतौर इस्तेमाल में लाया जाता है।<br />
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जाहिर है, बेमानी पारलौकिक विश्वासों को हथियार बना कर जड़ता की व्यवस्था को बनाए रखने में लगे लोगों-समूहों के पास अपने पक्ष में कोई तर्क नहीं होता, इसलिए वे सवालों से डरते हैं। अव्वल तो उनकी कोशिश यह होती है कि एक पाखंड और धोखे पर आधारित व्यवस्था को लेकर किसी तरह का सवाल नहीं उठे और इसके लिए वे सवालों और संदेहों को आस्था का दुश्मन घोषित करते हैं। वहीं एक भय की उपज पारलौकिकता की धारणाओं-कल्पनाओं में जीता व्यक्ति सवाल या संदेह करने को अपनी "आस्था" की पवित्रता भंग होना मानता है। अगर किन्हीं स्थितियों में किसी व्यक्ति के भीतर आस्था के तंत्र के प्रति शंका पैदा होती है और वह इसे जाहिर करता है तो धर्माधिकारियों से लेकर उनके अनुचरों तक की ओर से उसकी आस्था में खोट बताया जाता है या उसे अपवित्र घोषित कर दिया जाता है।<br />
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इसके अलावा, सवालों से निपटने के लिए एक और तरीका अपनाया जाता है। सवाल उठाने वाले को संदिग्ध बता कर उसके सवालों पर पूरी तरह चुप्पी साध ली जाती है। इससे भी हारने के बाद अक्सर धर्माधिकारी यह कहते पाए जाते हैं कि प्रश्न उठाने वाला व्यक्ति "ईश्वर का ही दूत है... और ऐसा करके वह वास्तविक भक्तों की परीक्षा ले रहा है।" कई बार उसे मनुष्य-मात्र की दया का पात्र भी घोषित कर दिया जा सकता है। इसके बावजूद जब "धर्म" की व्यवस्था पर खतरा बढ़ता जाता है, तब खतरे का जरिया बने व्यक्ति की आवाज को शांत करने के लिए उस रास्ते का सहारा लिया जाता है, जिसमें नरेंद्र दाभोलकर को अपनी जान गंवानी पड़ी।<br />
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सामाजिक विकास के एक ऐसे दौर में, जब प्रकृति का कोई भी उतार-चढ़ाव या रहस्य समझना संभव नहीं था, तो कल्पनाओं में अगर पारलौकिक धारणाओं का जन्म हुआ होगा, तो उसे एक हद तक मजबूरी मान कर टाल दिया जा सकता है। लेकिन आज न सिर्फ ज्यादातर प्राकृतिक रहस्यों को समझ लिया गया है, बल्कि किसी भी रहस्य या पारलौकिकता की खोज की जमीन भी बन चुकी है। यानी विज्ञान ने यह तय कर दिया है कि अगर कुछ रहस्य जैसा है, तो उसकी कोई वजह होगी, उस वजह की खोज संभव है। तो ऐसे दौर में किसी बीमारी के इलाज के लिए तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका का सहारा लेना, बलि चढ़ाना, मनोकामना के पूरा होने के लिए किसी बाबा या धर्माधिकारी जैसे व्यक्ति की शरण में जाना एक अश्लील उपाय लगता है। बुखार चढ़ जाए और मरीज या उसके परिजनों के दिमाग में यह बैठ जाए कि यह किसी भूत या प्रेत का साया है, यह चेतना के स्तर पर बेहद पिछड़े होने का सबूत है, भक्ति या आस्था निबाहने में अव्वल होने का नहीं। इस तरह की धारणाओं के साथ जीता व्यक्ति अपनी इस मनःस्थिति के लिए जितना जिम्मेदार है, उससे ज्यादा समाज का वह ढांचा उसके भीतर यह मनोविज्ञान तैयार करता है। पैदा होने के बाद जन्म-पत्री बनवाने से लेकर किसी भी काम के लिए मुहूर्त निकलवाने के लिए धर्म के एजेंटों का मुंह ताकना किसी के भी भीतर पारलौकिकता के भय को मजबूत करता जाता है और उसके व्यक्तित्व को ज्यादा से ज्यादा खोखला करता है।<br />
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सवाल है कि समाज का यह मनोविज्ञान तैयार करना या इसका बने रहना किसके हित में है? किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते हैं। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में शर्म नहीं आती। यही नहीं, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक तक अंतरिक्ष यानों के सफल प्रक्षेपण की प्रार्थना करते हुए पहले मंदिरों में पूजा करते दिख जाते हैं। यह बेवजह नहीं हैं कि कला या वाणिज्य विषय तो दूर, स्कूल-कॉलेजों से लेकर उच्च स्तर पर इंजीनिरिंग या चिकित्सा जैसे विज्ञान विषयों में शिक्षा हासिल करने के बावजूद कोई व्यक्ति पूजा-पाठ या अंधविश्वासों में लिथड़ा होता है।<br />
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ऐसे में अगर कोई अंतिम रूप से यह कहता है कि मैं ईश्वर और धर्म का विरोध नहीं करता हूं, मैं सिर्फ अंधविश्वासों के खिलाफ हूं तो वह एक अधूरी लड़ाई की बात करता है। धर्म और ईश्वर को अंधविश्वासों से बिल्कुल अलग करके देखना या तो मासूमियत है या फिर एक शातिर चाल। हां, अंध-आस्थाओं में डूबे समाज में ये अंधविश्वासों की समूची बुनियाद के खिलाफ व्यापक लड़ाई के शुरुआती कदम हो सकते हैं। इसे पहले रास्ते पर अपने साथ लाने की प्रक्रिया कह सकते हैं। लेकिन बलि, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, गंडा-ताबीज, बाबा-गुरु, तांत्रिक अनुष्ठान आदि के खिलाफ एक जमीन तैयार करने के बाद अगर रास्ता समूचे धर्म और ईश्वर की अवधारणा से मुक्ति की ओर नहीं जाता है तो वह अधूरे नतीजे ही देगा।<br />
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वैज्ञानिक चेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह तो नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति बलि देने या बीमारी का इलाज कराने के लिए चमत्कारी बाबाओं का सहारा तो न ले, लेकिन ईश्वर या धर्म को अपनी जीवनचर्या का अनिवार्य हिस्सा माने। अगर वह सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार किसी भी तरह के मत-संप्रदाय का अनुगामी है तो उसका रास्ता आखिरकार एक पारलौकिक अमूर्त व्यवस्था की ओर जाता है, जहां वह खुद पर भरोसा करने के बजाय अपने अतीत, वर्तमान या भविष्य के लिए ईश्वर से की गई या की जाने वाली कामना को जिम्मेदार मानता है। इससे बड़ा प्रहसन क्या हो सकता है कि उत्तराखंड में बादल फटने या प्रलयंकारी बाढ़ के बावजूद अगर कुछ लोग बच गए तो उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया जाए और उसी वजह से कई-कई हजार लोग बेमौत मर गए, तो उसके लिए ईश्वर को जिम्मेदार नहीं माना जाए। बिहार के खगड़िया में कांवड़ लेकर भगवान को जल अर्पित करने जाते करीब चालीस लोग रेलगाड़ी से कट कर मर जाते हैं तो इसके लिए ईश्वर जिम्मेदार नहीं है और जो लोग बच गए, उन्हें ईश्वर से बचा लिया...!!!<br />
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यह ईश्वरवाद किस सामाजिक व्यवस्था के तहत चलता है। अपनी अज्ञानता की सीमा में छटपटाते लोगों ने पारलौकिकता की रचना की, कुछ लोगों ने उसकी व्याख्या का ठेका उठा लिया, उनकी महंथगीरी ने एक तंत्र बुन दिया, वह धर्म हो गया। यह केवल हिंदू या सनातन धर्म का नहीं, बल्कि सभी धर्मों का सच है। इसके बाद बाकी लोग सिर्फ पालक हैं, जिनके भोलेपन और प्रश्नविहीन होने के कारण ही यह धार्मिक-तंत्र चलता रहता है। ईश्वर-व्यवस्था के प्रति लोगों के भीतर कोई संदेह नहीं पैदा हो, इसके लिए तमाम इंतजाम किए जाते हैं। यह इंतजाम करने वाले वे लोग होते हैं, जो किसी भी धर्म-तंत्र के शीर्ष पर बैठे होते हैं। हालांकि यह "इंतजाम" का मनोविज्ञान अपने आप नीचे की ओर भी उतर जाता है और एक "ईश्वरीय" व्यवस्था या धर्म पर शक करने या उस पर सवाल उठाने वालों से निचले स्तर पर वे लोग भी "निपट" लेते हैं, जो खुद ही किसी धार्मिक-व्यवस्था के पीड़ित और भुक्तभोगी होते हैं।<br />
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ये "मैजोकिज्म" और "सैडिज्म" के मनोवैज्ञानिक चरणों के नतीजे हैं। "मैजोकिज्म" की अवस्था में कोई व्यक्ति अपने धर्मगुरु (इसे किसी धार्मिक व्यवस्था में जीवनचर्या को प्रभावित-संचालित करने वाले उपदेश भी कह सकते हैं) की किसी भी तरह की बात या व्यवहार पर कोई सवाल नहीं उठाता, भले कहीं कोई बात उसे गलत लगे। लेकिन वास्तव में यह गलत लगना उसके भीतर एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया को जन्म देता है, जिसे वह खुद भी नहीं समझ पाता, लेकिन अपने भीतर जज्ब कर लेता है। लेकिन यह प्रकृति का नियम है कि आप कुछ ग्रहण करेंगे तो उसका त्याग अनिवार्य है। इसलिए गुरु की किसी बात से मन में उपजी प्रतिक्रिया हर हाल में "रिलीज" होती है, यानी अपने निकलने का कोई न कोई रास्ता खोज लेती है। लेकिन तब इसका स्वरूप खाना सहज तरीके नहीं पचने के बाद उल्टियां होने की तरह बेहद विकृत हो सकता है। यानी यह "सैडिज्म" की अवस्था है। तो अपने धर्मगुरु की हर बात पचाने वाला व्यक्ति अपने घर में अपनी पत्नी या बच्चों के साथ बेहद बर्बर तरीके से पेश आ सकता है, किसी कमजोर व्यक्ति या कमजोर सामाजिक समूह के खिलाफ नफरत से भरा दिख सकता है, जोर-जोर की आवाज में बेहद वीभत्स गालियां बक सकता है या किसी वस्तु की बेमतलब तोड़फोड़ भी कर सकता है। इस तरह की कई मानसिक अवस्थाएं हो सकती हैं।<br />
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बहरहाल, नरेंद्र दाभोलकर आम जीवन में पसरे जिन अंधविश्वासों के खिलाफ मोर्चा ले रहे थे, उसका सिरा आखिरकार धर्म-तंत्र और फिर ईश्वर पर संदेहों की ओर जाता था। और जाहिर है, यह संदेह अंधविश्वासों और अंध-आस्थाओं पर टिके समूचे कारोबार और समाज के सत्ताधारी तबकों का साम्राज्य ध्वस्त कर सकता है। इसलिए इस तरह के संदेहों के भय से उपजी प्रतिक्रिया भी उतनी विकृत हो सकती है, जिसके शिकार नरेंद्र दाभोलकर हुए। यह हत्या दरअसल अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले तमाम धर्मों और उनके धर्माधिकारियों के डर और कायरता का सबूत है। यह अंधे विश्वासों के सरमायेदारों के डर का प्रतीक है। अपनी दुकान के बंद हो जाने के डर से एक ऐसे शख्स की जान तक ले ली जा सकती है, जिसने अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों के खिलाफ इंसान की आंखें खोलने के आंदोलन में खुद को समर्पित कर दिया हो। यह केवल एक शख्स की हत्या नहीं है, यह तथाकथित धर्म के क्रूर मनोविज्ञान के खिलाफ एक विचार की हत्या की कोशिश है। इंसान के खुद पर भरोसे की और इंसानियत की एक नई और रौशन दुनिया के ख्वाब की हत्या की कोशिश है।<br />
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लेकिन क्या नरेंद्र दाभोलकर की हत्या से अंधविश्वासों के खिलाफ उनके विचारों को खत्म क्या जा सकेगा? जिन्हें भी लगता है कि अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों ने इस इंसानी समाज को बांटने, उसे कुंठित करने, नफरत फैलाने, सभ्यता को कुंद करने या एक तरह से मनुष्य विरोधी दुनिया बनाने में भूमिका निभाई है, उन सबको नरेंद्र दाभोलकर के नाम को अपनी ताकत बना कर आगे बढ़ना चाहिए। नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों और उसके अपराधी योजनाकारों को बताना चाहिए कि एक नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद हजारों और ऐसे लोग पैदा हो चुके हैं।
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शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-86840414709658994632013-08-20T07:31:00.001-07:002013-08-20T07:37:06.869-07:00अंधे विश्वासों के सरमायेदारों का डर...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="color: #fff2cc;"><span style="background-color: black;"><span style="background-color: red;"><a href="http://www.ndtv.com/article/india/anti-superstition-activist-narendra-dabholkar-shot-dead-in-pune-407920?pfrom=home-lateststories" target="_blank">महाराष्ट्र के पुणे में रहने वाले नरेंद्र दाभोलकर की हत्या अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले तमाम धर्मों और उनके धर्माधिकारियों के डर और कायरता का सबूत है।</a> यह अंधे विश्वासों के सरमायेदारों के डर का सबूत है। अपनी दुकान के बंद हो जाने के डर से एक ऐसे शख्स की जान तक ले ली जा सकती है जिसने अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों के खिलाफ इंसान की आंखें खोलने के आंदोलन में खुद को समर्पित कर दिया हो। यह केवल एक शख्स की हत्या नहीं है, यह तथाकथित धर्म के क्रूर मनोविज्ञान के खिलाफ एक विचार की हत्या की कोशिश है। इंसान के खुद पर भरोसे की और इंसानियत की एक नई और रौशन दुनिया के ख्वाब की हत्या की कोशिश है। लेकिन क्या नरेंद्र दाभोलकर की हत्या से अंधविश्वासों के खिलाफ उनके विचारों को खत्म क्या जा सकेगा? जिन्हें भी लगता है कि अंधविश्वासों की बुनियाद पर पलने वाले धर्मों ने इस इंसानी समाज को बांटने, उसे कुंठित करने, नफरत फैलाने, सभ्यता को कुंद करने या एक तरह से मनुष्य विरोधी दुनिया बनाने में भूमिका निभाई है, उन सबको नरेंद्र दाभोलकर के नाम को अपनी ताकत बना कर आगे बढ़ना चाहिए। नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारों और उसके अपराधी योजनाकारों को बताना चाहिए कि एक नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद हजारों और ऐसे लोग पैदा हो चुके हैं। "अंधविश्वास के अंधकार में" लेख नवंबर 2008 में लिखा था। सत्य साईं बाबा की मौत के बाद एक बार इसे नया किया था। नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के बाद इसे एक बार फिर सबके साथ साझा करना जरूरी लगा हैः</span></span></span></div>
<span style="color: #990000; font-style: italic;"><br /></span>
<span style="color: #990000; font-style: italic;">तो</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">पनचानबे</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">साल</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">में</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">मरने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">की</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">घोषणा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">करने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">वाले</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">भगवान</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सत्य</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">साईं</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बाबा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लगभग</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">दस</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">साल</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">पहले</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">मर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">गए।</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सत्य</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">साईं</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बाबा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">को</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">एक</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">भगवान</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">रूप</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">में</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">पहचान</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">दिलाने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">का</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">श्रेय</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">उनके</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">उन</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> "</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">चमत्कारों</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">" </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">को</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जाता</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जो</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अक्सर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">वे</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">अपने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">भक्तों</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सामने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">प्रदर्शित</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">करते</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">थे।</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हवा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">में</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हाथ</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हिला</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">कर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">कभी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सोने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">की</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अंगूठी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">तो</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">कभी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">कोई</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">मिठाई</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अपने</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">भक्तों</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हाथ</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">में</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">रख</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">देने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जैसे</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">करतब</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">ने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लोगों</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">को</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">कहां</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">-</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">कहां</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">से</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">उनकी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">आंखें</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">छीन</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लीं</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">, </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">यह</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">साई</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बाबा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बेहतर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जानते</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हैं</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">और</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">इसके</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">साथ</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हमारी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">यह</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सामाजिक</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">-</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">धार्मिक</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">व्यवस्था</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">भी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जानती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जो</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">खुद</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">को</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सत्ता</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बनाए</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">रखने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लिए</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">इस</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">तरह</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">चमत्कारों</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">और</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अंधविश्वासों</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">को</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">ही</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अपना</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हथियार</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बनाती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है।</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">एक</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">ऐसा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">संजाल</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">रचती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">, </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">उसमें</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लोगों</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">को</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">उलझाती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">, </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">ताकि</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लोग</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">खुद</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">पर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">से</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">भरोसा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">खो</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">दें</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">और</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">ऐसे</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">चमत्कारों</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">में</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अपना</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">उद्धार</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">देखने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लगें।</span><br />
<br />
<span style="color: #990000; font-style: italic;">"</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">मैजोकिज्म</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">" </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">मनोविज्ञान</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">का</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">एक</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">टर्म</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">, </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जिसमें</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">कोई</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">व्यक्ति</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अपने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सामने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">किसी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">गुरु</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जैसी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">शख्सियत</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">की</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बात</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सामने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सिर्फ</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सिर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">नवाता</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">, </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">वह</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बात</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">चाहे</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">भली</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हो</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">या</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">कितनी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">भी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">वीभत्स</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हो।</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लेकिन</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">इसका</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">नतीजा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">यह</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">होता</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">कि</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">इस</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">क्रम</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">में</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">स्वाभाविक</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">प्रतिक्रिया</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">की</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जो</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">लहरें</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">उसके</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">भीतर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">ही</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">उमड़ती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">-</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">घुमड़ती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जमा</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हुई</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">रहती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हैं</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">, </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">वे</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">किसी</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">कमजोर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">निशाने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">पर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अपनी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">समूची</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">विकृति</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">साथ</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">फूटती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है।</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">इस</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">नतीजे</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">को</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> "</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सैडिज्म</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">" </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">का</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">नाम</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">दिया</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">गया</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है।</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">यानी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">इस</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">पूरी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">प्रक्रिया</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">में</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हम</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अपने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">समाज</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">और</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">धर्म</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">की</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">पूरी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">व्यवस्था</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">को</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">देख</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सकते</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हैं</span><span style="color: #990000; font-style: italic;">, </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">जिसमें</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">इसकी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बुनियाद</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">में</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">अंधविश्वास</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है।</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">और</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">इसी</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">के</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">शोषण</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">की</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">बुनियाद</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">पर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">यह</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">व्यवस्था</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हमारे</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सामने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">अट्टहास</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">करती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">रहती</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">है</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">और</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हम</span> <span style="color: #990000; font-style: italic;">उसके</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सामने</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सिर</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">नवाए</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">चुपचाप</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">देखते</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">और</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">उसे</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">सही</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">मानते</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">रहते</span><span style="color: #990000; font-style: italic;"> </span><span style="color: #990000; font-style: italic;">हैं।</span><br />
<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXHet4fop7InG4He2vUMPUPcMhnM-xxb7zYHof9pPzKBw2-c-WUhq5mZLcSIMo2YMmiIcDp6fBLU-1XvpJfRcrVMuXZp7Qk7-GKqgUaaeLmZ7uSHKFeW0EIjeoccW_1mAbTEGbO514Abs/s1600/one.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5601010715882097762" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXHet4fop7InG4He2vUMPUPcMhnM-xxb7zYHof9pPzKBw2-c-WUhq5mZLcSIMo2YMmiIcDp6fBLU-1XvpJfRcrVMuXZp7Qk7-GKqgUaaeLmZ7uSHKFeW0EIjeoccW_1mAbTEGbO514Abs/s200/one.jpg" style="cursor: pointer; display: block; height: 136px; margin: 0px auto 10px; text-align: center; width: 200px;" /></a><br />
<br />
<br /></div>
<span style="background-color: #ea9999;"><span style="color: red; font-size: 180%;">अंधविश्वास के अंधकार में...</span></span><br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: 130%;"><span style="color: red;">"किसी को आत्मा के अमरत्व में विश्वास करने के लिए लगा दो और उसका सब कुछ लूट लो। वह हंसते हुए इस लूट में तुम्हारी मदद भी करेगा"-</span><span style="color: #330000;"> </span></span><span style="font-size: 130%;"><span style="color: #330000;">अप्टन सिनक्लेयर।</span></span></div>
<br />
<br />
<ul style="text-align: left;">
<li><b><i><span style="color: #990000;">तंत्र-मंत्र
और रूहानी इल्म के माहिर/ खुला चैलेंज/ लाभ 100 प्रतिशत/ 20 मिनट में
गारंटी कार्ड के साथ/ जैसा चाहोगे, वैसा होगा/ माई प्रॉमिस/<br /> </span></i></b></li>
<li><b><i><span style="color: #990000;">नोट- अगर आपका विश्वास किसी ज्योतिष, पंडित-बाबा, मियां-मुल्ला, तांत्रिक से उठ गया हो तो एक बार अवश्य मिलें<br /><br />मनचाहा वशीकरण स्पेशलिस्ट<br /> </span></i></b></li>
<li><b><i><span style="color: #990000;">कारोबार
में रुकावट, बंदिश, गृह-क्लेश, मियां-बीवी के झगड़े, तलाक, दुश्मन और सौतन
से छुटकारा, कर्ज मुक्ति, संतानहीनता, कोख बंधन, मुठकरनी, विदेश यात्रा,
लव-मैरिज, फिल्मी और मॉडलिंग कैरियर में रुकावट जैसी जीवन की जटिल समस्याओं
का समाधान।<br /> </span></i></b></li>
<li><b><i><span style="color: #990000;">चेतावनीः मेरे किए को काटने वाले को 1,51,000 रुपए ईनाम।<br /><br />सभी इल्मों की काट हमारे पास है।<br /> </span></i></b></li>
<li><b><i><span style="color: #990000;">प्यार में चोट खाए स्त्री एवं पुरुष एक बार अवश्य मिलें।</span></i></b></li>
<li><b><i><span style="color: #990000;">एक अगरबत्ती का पैकेट दो नींबू साथ लाएं।</span></i></b></li>
<li><b><i><span style="color: #990000;">रुहानी और सातों इल्मों के बेताज बादशाह। वर्ल्ड फेमस</span></i></b></li>
</ul>
<div style="text-align: left;">
<b><i><span style="color: #990000;">-सिद्ध गुरू अकबर भारती या समीरजी (बंगाली)</span></i></b></div>
<br />
<span style="background-color: #444444;"><span style="color: red;"><b>नगर</b></span></span>
सेवा की बसों, सड़क के किनारे या पेशाबखानों की दीवारों जैसी जगहों पर
चिपकाए गए 'गुप्त रोगों का शर्तिया इलाज' की तरह के ऐसे विज्ञापनों पर एक
'पढ़े-लिखे' और 'सभ्य' व्यक्ति होने के नाते हमारी क्या प्रतिक्रिया होती
है? हम मुंह बिचकाते हैं, ऐसा विज्ञापन करने वालों को ठग और मक्कार कहते
हैं और उनके पास जाने वाले लोगों को मूर्ख मानते हैं। अगर हम ऐसा विज्ञापन
करने वाले ठगों और मक्कारों को अपराधी की तरह देखते हैं या उनके खिलाफ
हमारे भीतर नफरत के भाव पैदा होते हैं तो शायद यह गलत नहीं है।<br />
<br />
<span style="background-color: #666666;"><span style="color: red;"><b>ऐसी</b>
</span></span> राय रखने वाले हम सब आमतौर पर बहुत अच्छी शिक्षा प्राप्त, बहुत अच्छी और
साफ-सुथरी जीवनशैली वाले, सूटेड-बूटेड टाईयुक्त कपड़े पहनने वाले और अपनी
पहुंच के लगभग सभी आधुनिक उपकरणों-संसाधनों का इस्तेमाल करने वाले होते
हैं। वैसे विज्ञापनों पर ऐसे 'सभ्य, शिक्षित और विकसित' समाज का हिस्सा
होने के नाते हमारी इस तरह की प्रतिक्रिया के बाद हम अपनी 'सभ्यता' और
'सामाजिक ऊंचाई' में थोड़ा और इजाफा होता हुआ महसूस करते हैं।<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>और</b></span></span>
जब समूचे समाज और उसकी सभ्यता को 'दिशा' देने वाले मीडिया को भी हम कुछ
इसी तरह का या इससे भी ज्यादा असरदार तरीके से ऐसा ही काम करते हुए देखते
हैं, तब हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है? जब हम टीवी पर सूटेड-बूटेड
टाईयुक्त और 'सभ्यता की पराकाष्ठा' पर पहुंचे हुए लोगों को लगभग चिल्ला कर
यह कहते हुए देखते-सुनते हैं कि 'प्रलय... अब धरती बस खत्म होने वाली है'
तो हमारे भीतर कौन-से भाव पैदा होते हैं? उस वक्त क्या हमें सड़क के किनारे
या पेशाबखानों की दीवारों पर चिपकाए हुए वे विज्ञापन याद आते हैं? क्या
ऐसे विज्ञापन करने वालों की मक्कारी और 'समस्याओं से मुक्ति' के लिए उन
जगहों पर जाने वाले लोगों की मूर्खता याद आती है?<br />
<br />
<b><span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;">शायद</span></span></b>
नहीं। गहरे सम्मोहन के उस दौर की गुलामी की बात ही निराली है। उदयपुर के
राकेश और राजग़ढ़ की छाया ने जो किया, उसी सम्मोहन के उन्माद का चरम है,
जिसमें झूमते हुए तो बहुत सारे लोगों को देखा जा सकता है, लेकिन 'अंत' से
पहले खुद को खत्म कर लेना सबके लिए मुमकिन नहीं होता। हां, 'जिंदा' रहते
हुए मौत की चाहे जितनी पीड़ा वे झेल लें।<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>एक</b></span></span> टीवी चैनल पर
ज्योतिष संबंधी कार्यक्रम देखने के बाद राकेश ने एक कागज पर लिखा-
'कार्यक्रम को देख कर मुझे लगा कि मैं गलत ग्रह-नक्षत्र में पैदा हुआ हूं
और इस वजह से मैं काफी परेशान हूं।' इसके बाद उदयपुर के बीएन कॉलेज में
स्नातक प्रथम वर्ष के उस छात्र ने गले में फंदा लगा कर जान दे दी। इसी तरह
एक ओर 'बिग बैंग' की सच्चाई की खोज में विज्ञान अब तक के सबसे बड़े प्रयोग
की तैयार कर रहा था और टीवी चैनल इस प्रयोग के साथ ही 'धरती के अंत' की
मुनादी कर रहे थे। पर्दे पर चीखते-चिल्लाते कुछ सूटे़ड-बूटेड टाईयुक्त
पत्रकारनुमा लोग डरावने जंगल के वीराने या मौत के खौफ से आच्छादित श्मशान
कब्रिस्तान के अघोड़ियों या तांत्रिकों से कम नहीं लग रहे थे। उससे पैदा
होने वाली उत्तेजना में छाया ने तो कीटनाशक की दवा खाकर जान दे दी (मरने से
पहले उसने पुलिस को बयान भी दिया), लेकिन हजारो-लाखों जानते हैं कि उस
पूरे दौर में वे किस तरह तिल-तिल कर मरने के अहसास से गुजरते रहे।<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><br /></span>
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>कुछ</b></span></span>
समय पहले विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए काम करने
वाली संस्था 'स्पेस' ने इस बात पर गहरा क्षोभ जताया था कि विज्ञान के जिन
आविष्कारों का इस्तेमाल अंधविश्वासों के जाले साफ करने में किया जाना
चाहिए, उसी का सहारा लेकर आदमी को और अंधा बनाया जा रहा है। सवाल है कि
विज्ञान के कंधों पर सवार ये आधुनिक और विकसित-से दिखने वाले 'प्राणी' ऐसा
क्यों कर रहे हैं?<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4PznCwSeUPEW_3OStDK9yUlowRl4mqVg5xldfvt69JW6h3Z63tAr_cn7TsIBH-NYNacaRKWiTWAyExqWK_bpxd6-ARZvbc8VVnHeEi6BRevlllyoUU24TYLEU3saVIdsh6q29dm7GJBY/s1600/two1.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5601010913289366834" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4PznCwSeUPEW_3OStDK9yUlowRl4mqVg5xldfvt69JW6h3Z63tAr_cn7TsIBH-NYNacaRKWiTWAyExqWK_bpxd6-ARZvbc8VVnHeEi6BRevlllyoUU24TYLEU3saVIdsh6q29dm7GJBY/s200/two1.jpg" style="cursor: pointer; float: left; height: 156px; margin: 0pt 10px 10px 0pt; width: 200px;" /></a><br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>दरअसल,</b></span></span>
जब अक्ल को केवल तिजारत का हथियार बना लिया जाता है तो सारी नैतिकताएं
पीछे छूट जाती हैं। अगर बात केवल टीवी चैनलों की करें तो जैसा कि कभी-कभी
अंदाजा लगाया जाता है, खेल क्या केवल टीआरपी बढ़ाने का है? एक मकसद यह जरूर
है। मगर यह सिर्फ दिखाई देने वाला व्यापार है। इसके पीछे जो महीन और शातिर
मिजाज काम कर रहा होता है, एकबारगी उस पर यकीन होना मुश्किल है। लेकिन
किसी भी गतिविधि को उसके असर की गहराई की बुनियाद पर आंका जाना चाहिए।<br />
<br />
<span style="color: red;"><span style="background-color: #eeeeee;"><b>कई
</b></span></span>बार लगता है कि जादू-टोना और झाड़-फूंक के चमत्कार से मन की साध पूरी
कराने का दावा करने वाले ओझाओं और टीवी चैनलों या अखबार में इस तरह की
खुराक परोसने वाले संचालक एक ही पायदान पर खड़े हैं और उन्हें समाज के
मनोविज्ञान की गहरी समझ होती है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी
व्यक्ति या समाज का मनोविज्ञान उसका सांस्कृतिक परिवेश तैयार करता है। अनंत
ब्रह्मांड में सैर करती हमारी कल्पनाएं और जीवन की सीमाओं के बीच झूलती
उम्मीदें और मायूसियां। जिन चीजों तक हमारी पहुंच होती हैं और जो किसी भी
तरह से हमारे सामने मुहैया हो जाती हैं या जो कम-से-कम साक्षात हैं, उससे
इतर कुछ भी पाने के लिए तो चमत्कार का ही आसरा है न! पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ
रही चमत्कार या अदृश्य शक्तियों की धारणाएं हमारी चेतना में इस कदर गहरे
पैठी होती हैं कि तुरत-फुरत कुछ हासिल कर लेने की हसरत या एक छोटी नाकामी
भी हमें बेबस या लाचार बना देती है। फिर शुरू होता है दिमागी काहिली का
दौर, जो जिंदगी को आखिरकार चमत्कार के रहमोकरम पर ले जाकर छोड़ देता है।<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>और</b></span></span>
चमत्कारों या अदृश्य दुनिया के खयाल का तिजारत करने वाले लोग हमारी उसी
बेबसी का शोषण करते हैं। हम बिल्कुल भरे-पूरे, हर तरह से खुद को सेहतमंद
महसूस करेंगे, लेकिन ज्यों ही हमें बताया जाएगा कि 'स्वर्ग जाने वाली
सीढ़ियां खोज ली गई हैं', हम तुरंत ही अपनी उस ख्वाबों की दुनिया में पहुंच
जाते हैं जो हमारे दिमाग में सोच का एक हिस्सा बना बैठा होता है। 'मर्दखोर
परियां' एकबारगी हमें जन्नत की हूरों के साथ फूलों की सेज पर ला पटकती
हैं। सीता से जुड़ी जगहों को श्रीलंका में खोज लेने की खबर आती है और
तत्काल हम खुद को 'तथास्तु' कहते हुए 'श्रीराम' के सामने पाते हैं। भूतों
की लड़ाई की 'लाइव कवरेज', रावण की वायुसेना और हवाईअड्डों पर 'ब्रेकिंग
न्यूज' हमारी कल्पनाओं की पुष्टि करते लगते हैं। कुछ समय पहले एलियंस 'धरती
पर हमला' करने आ रहे थे। ये सारी बातें 'शोधकर्ताओं' के हवाले से कही जाती
हैं, ताकि इन्हें ज्यादा से ज्यादा विश्वसनीय बनाया जा सके। शकुन-अपशकुन
पर आधारित कर्मफल का ब्योरा देता ज्योतिषि केवल कमाई नहीं कर रहा होता है।
वह खूब जान रहा होता है कि इन सबसे कैसे उसका वर्गहित कायम रहता है और
सामाजिक शासन और शोषण-परंपरा की बुनियाद और मजबूत होती है।<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>हमारी
</b></span></span>त्रासदी केवल पंडे-तांत्रिक या मीडिया तक ही सीमित नहीं है। तल्ख हकीकतों
से लबरेज 'सत्या' जैसी फिल्म बनाने वाले रामगोपाल वर्मा 'फूंक' बना कर यह
खुली चुनौती पेश करते हैं कि अगर कोई थियेटर में अकेले इस फिल्म को देख
लेगा तो उसे पांच लाख रुपए ईनाम के तौर पर दिए जाएंगे। 'फूंक' में
भूत-प्रेत या भगवान में यकीन नहीं रखने वाले नायक के साथ-साथ विज्ञान,
चिकित्सा-विज्ञान और एक प्रगतिशील सोच को हारते और 'काला जादू' को जीतते
दिखाया गया है। यह हजारों सालों से 'काला जादू' की गिरफ्त में जीते समाज के
भावनात्मक शोषण के अलावा और क्या है?<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>लेकिन</b></span></span> बात अगर यहीं
खत्म हो जाती तो बात और थी। विज्ञान की बुनियाद पर अपनी पहचान कायम करने
वाले एक पूर्व राष्ट्रपति से लेकर इस देश के कई शीर्ष नेताओं तक को
'चमत्कारी बाबाओं' के पांव पखारने में शर्म के बजाय गर्व ही महसूस होता रहा
है। मानव संसाधन विभाग (यह मंत्रालय देश में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने
के लिए जिम्मेदार है) के एक पूर्व राज्यमंत्री ने तो बाकायदा
ओझाओं-तांत्रिकों का सम्मेलन ही करा डाला था। हाल ही में एक विधायक ने एक
बड़े आयोजन में 265 भेड़ों की बलि दी, क्योंकि परमाणु करार के मुद्दे में
खतरे में पड़ी यूपीए सरकार 'किसी तरह' विश्वासमत में जीत सकी। कुछ विधायकों
की उनके कार्यकाल में अलग-अलग कारणों से हुई मौत के चलते विधानसभा भवन को
भूत-प्रेत से ग्रस्त मान लिया जाता है। यह महज संयोग नहीं है कि ज्योतिष
शास्त्र को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए जाने की वकालत सिर्फ इसलिए की जाती है
क्योंकि यह भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। देश को नेतृत्व देने
का दावा करने वाले ऐसे राजनेताओं को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि
इससे देश-समाज कितना पीछे जाता है या आधुनिक दुनिया में देश की कैसी छवि
बनती है।<br />
<br />
<b><span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;">सवाल </span></span></b>है कि अगर कोई तांत्रिक या व्यक्ति किसी
बच्चे की बलि देता है तो उसके लिए कौन-सी स्थितियां जिम्मेदार हैं? सुना है
कि कानून अपराध के लिए प्रेरित करने वाले को भी अपराधी ही मानता है।
तांत्रिकों-ज्योतिषियों सहित ताजा फिल्में- 'फूंक' या '1920' जैसी फिल्में
बनाने वाले ऐसे लोगों को क्या अंधविश्वासों और सामाजिक जड़ता को बनाए रखने
का अपराधी नहीं माना जा सकता? इनके लिए कौन-सा कानून लागू होता है?<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>यह</b></span></span> सब जवाहरलाल नेहरू के उस देश में हो रहा है, जो समाज को एक वैज्ञानिक सोच की जमीन पर खड़े होकर देखना चाहते थे।<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHEKD9I48XMdpLKDwlvzyVZzizxnVBIr_O04gmEObLo1yM4z6856_FbGRciT8RSoPVh6wmVmUJElPmFHJErRKtBs8YuecrR4ZhWX7EHOpEkecNVsZZGJL_Ms3s-Aw6Acw38NejRZw0YeU/s1600/isro.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5601011245617500866" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHEKD9I48XMdpLKDwlvzyVZzizxnVBIr_O04gmEObLo1yM4z6856_FbGRciT8RSoPVh6wmVmUJElPmFHJErRKtBs8YuecrR4ZhWX7EHOpEkecNVsZZGJL_Ms3s-Aw6Acw38NejRZw0YeU/s200/isro.jpg" style="cursor: pointer; float: left; height: 123px; margin: 0pt 10px 10px 0pt; width: 157px;" /></a>
<span style="color: red;"><span style="background-color: #cccccc;"><b>हाल </b></span></span>ही में एक अति पिछड़े माने जाने वाले समाज की एक सांस्कृतिक गतिविधि
के साक्षात के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि किस तरह करीब हजार
लोगों की भीड़ के बीच भयानक उन्माद पैदा करते ओझाओं ने भेड़ों की बलि दी और
उसके खून से खुद को नहाया। यह सुदूर देहात के एक पिछड़े इलाके की घटना है।
लोग भूले नहीं होंगे कि सारी आधुनिकताओं से लैस देश की राजधानी के एक
उपनगर गाजियाबाद में, जो संयोग से 'हाईटेक' भी घोषित हो चुका है, तीन बेटों
ने अपनी मां की पीट-पीट कर इसलिए बलि दी क्योंकि एक तांत्रिक ने उन्हें
ऐसा करने की सलाह दी थी। लेकिन विज्ञान की डिग्रियों की मार्फत इंजीनियर या
डॉक्टर बने उन बेटों की मूढ़ता और त्रासदी पर हमक्या अफसोस जताएं। हमारे
देश के अंतरिक्ष शोध संस्थान, यानी <a href="http://www.telugupeople.com/Tirupati/News.asp?newsID=62737&catID=58">'इसरो'
का मुखिया जब पीएसएलवी जैसे अंतरिक्ष यानों के सफल प्रक्षेपण के लिए
मंदिरों में पूजा आयोजित करता है और भगवान से खुद को कामयाब करने की याजना
करता है</a> तो एक पिछड़े समाज के सामने ओझाओं के उस उन्माद प्रदर्शन पर कौन-सा सवाल उठाया जाए?<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>दूरदराज</b></span></span>
के इलाकों में बहुत सारे मां-बाप अपने बच्चों की ओर आज भी यह जुमला उछालते
हुए मिल जाएंगे कि 'देह बढ़ गया और दिमाग वहीं रह गया।' तो क्या हमारा
समाज आधुनिकता की तमाम ऊंचाइयों को छूने की कोशिश के बावजूद अब भी किसी एक
जगह पर ठहरा हुआ है? या उसे जड़ बनाए रखने की साजिश चल रही है? क्यों हम अब
तक ऐसा कोई कारगर कानून बना सकने में नाकाम रहे हैं जो ओझाओं-तांत्रिकों,
ग्रह-नक्षत्रों का पाठ पढ़ाने वाले ज्योतिषियों, चमत्कारों और अमूर्त
दुनिया के किस्से परोसने वाले मीडिया आदि के ठगी के धंधे से समाज को बचा
सकें?<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>इन </b></span></span>सवालों के जवाब शायद विश्व हिंदू परिषद के
'अंतरराष्ट्रीय मुख्यमंत्री' रहे प्रवीण तोगड़िया के उस बयान में मिल जाते
हैं, जो उन्होंने कुछ साल पहले गोलवलकर गुरु के सौंवे जन्म दिवस के मौके पर
आयोजित 'विराट हिंदू सम्मेलन' में दिया था। महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाए
गए अंधविश्वास विरोधी कानून के मसले पर उनका कहना था कि हिंदुओं को इस
कानून का विरोध करना चाहिए क्योंकि यह हिंदुत्व को खत्म करने की साजिश है।
साफ है कि एक तरह से वे यह भी कर रहे थे कि हिंदुत्व की बुनियाद इन
अंधविश्वासों पर ही टिकी है और अंधविश्वासों का खत्म होना, हिंदुत्व के
खत्म होने जैसा ही होगा। और विहिप का 'हिंदुत्व' कया है, क्या यह किसी को
बताना होगा?<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>यह </b></span></span>केवल हिंदुओं के धर्म-ध्वजियों का खयाल
नहीं है। सभी धर्म और मत के 'उन्नायक' यही कहते हैं कि सवाल नहीं उठाओ, जो
धर्म कहता है, उसका अनुसरण करो। और हमारे भीतर का भय बाहर आने के लिए
छटपटाते सारे सवालों की हत्या कर देता है। हमारी विडंबना यह है कि जिनसे हम
सवाल उठाने की उम्मीद कर रहे होते हैं, वे खुद एक ऐसा मायावी लोक तैयार
करने में लगे होते हैं, जहां कोई सवाल नहीं होता।<br />
<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJGJX09piNfOpFO4ftNfoOr5aZeBW69osy8vNmcjK8YPYC2ib8ntJwZRv4RyFAlOJIP1qvGGePYS4rSZy2qamDR2IQp7DR9QySDANT7tqey-2PdhwwTvJszHLPDcg46x_TUIz7mXRQKLI/s1600/three.jpg" onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}"><img alt="" border="0" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5601011094063059378" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJGJX09piNfOpFO4ftNfoOr5aZeBW69osy8vNmcjK8YPYC2ib8ntJwZRv4RyFAlOJIP1qvGGePYS4rSZy2qamDR2IQp7DR9QySDANT7tqey-2PdhwwTvJszHLPDcg46x_TUIz7mXRQKLI/s200/three.jpg" style="cursor: pointer; float: right; height: 143px; margin: 0pt 0pt 10px 10px; width: 200px;" /></a><span style="background-color: #999999;"><span style="color: red;"><b>इसमें</b></span></span>
कोई शक नहीं कि देश-दुनिया से रूबरू कराने में टीवी चैनलों ने हर मुमकिन
कोशिश की है। लेकिन असली मुश्किल यह है कि लगभग सारी प्रस्तुतियों में ऐसा
कुछ भी नहीं होता जो हमें घटनाओं के विश्लेषण की ताकत देता हो। हम
देश-दुनिया को देखें, मगर उसी निगाह से, जिससे हमें दिखाया जाता है। तो
क्या यह मीडिया की सीमा है कि वह कुछ 'नया' देने के नाम पर हमें और
'पुराना' बना रहा है? क्या मीडिया इस बात से अनजान है कि भूत-प्रेत,
जादू-टोना, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष, प्रलय-चमत्कार से जुड़े किसी भी
कार्यक्रम का एकमात्र असर सामाजिक यथास्थिति और जड़ता को कायम रखना है?<br />
<br />
<span style="background-color: #cccccc;"><span style="color: red;"><b>मकसद</b></span></span>
सिर्फ यह है कि समाज सोचने और सवाल उठाने के दौर में न पहुंचे। ऐसे
कार्यक्रम परोसने वाले और ऐसी गतिविधियां चलाने वाले धर्मध्वजी यह खूब
जानते हैं कि जिस समाज ने सवाल उठाना शुरू कर दिया, उनमें चमत्कारों और
तकदीर बताने की दुकान बंद हो जाएगी। इसलिए दिमाग पर पड़े जाले बनाए रखने और
नए-नए डिजाइन में नए जाले पेश करने का खेल जारी है। साधना या संस्कार जैसे
चैनलों की तो बात छोड़ दें, प्रगतिशील कहे जाने वाले समाचार चैनलों के
साथ-साथ इस खेल में हर वह तबका शामिल है, जो दुनिया को दिशा देने का दावा
करता है।<br />
<br />
<span style="background-color: #666666;"><span style="color: red;"><b>कुछ </b></span></span>ही समय पहले एक टीवी चैनल के मुखिया ने इस
तरह के पाखंडों वाले कार्यक्रम दिखाने के मसले पर साफ जवाब दिया कि मुझे इस
बात के लिए कतई शर्मिंदगी नहीं है। शायद वे सही कह रहे थे। इससे इतना तो
जाहिर होता ही है कि जो कुछ हो रहा है, वह अनायास बिल्कुल नहीं है। एक सजग
और सचेत समाज केवल यह नहीं देखेगा कि 'क्या' है, बल्कि वह उस 'क्या' के
'क्यों' की भी मांग या खोज करेगा। लेकिन सिर्फ 'क्या' परोस कर 'क्यों' का
सवाल सिरे से गायब कर देने की कोशिश लगातार और सायास तरीके से चल रही है।</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-51765688294414189102013-05-15T07:57:00.000-07:002013-06-17T08:52:13.521-07:00एक थी डायनः बर्बरता की संस्कृति की आपराधिक दुकानदारी...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="font-weight: bold;">स्पष्टीकरणः</span> <span style="color: #cc0000; font-style: italic; font-weight: bold;"> "आप फिल्म को फिल्म की तरह देखते हैं। आप समाज को भी फिल्म की तरह देखते हैं।</span> <span style="color: #cc0000; font-style: italic; font-weight: bold;">...मैं फिल्म को समाज की तरह देखता हूं... और समाज को राजनीति की तरह देखता हूं।"</span><br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgh4Pfjw7DkzpRR0PFx2O9v2KdYG7R8f1ytce0WunU8wUFPwu8s1VFzljmXInfrmb03PE6RcR1KiKfIK1Z0IhsLTmGtekhNdZdc88vkgubtuuAl0pjdrDyMe_VoHNgfJS0scxPyw4nGLos/s1600/witch-1.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgh4Pfjw7DkzpRR0PFx2O9v2KdYG7R8f1ytce0WunU8wUFPwu8s1VFzljmXInfrmb03PE6RcR1KiKfIK1Z0IhsLTmGtekhNdZdc88vkgubtuuAl0pjdrDyMe_VoHNgfJS0scxPyw4nGLos/s1600/witch-1.jpeg" /></a></div>
<br />
<br />
<br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: white;"><a href="http://charwakshesh.blogspot.in/2008/11/blog-post.html" target="_blank">अंधविश्वास के अंधकार में...</a></span></span><br />
<br />
<br />
<ul style="text-align: left;">
<li>पिछले साल मई में सरकार ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि 2008 से 2010 के बीच डायन के संदेह में पांच सौ अट्ठाईस महिलाओं की हत्या कर दी गई। इसमें मारपीट और यातना देने के मामले शामिल नहीं हैं।</li>
<li>पिछले साल जुलाई में राष्ट्रीय महिला आयोग ने बताया था कि देश के अलग-अलग राज्यों में पचास से साठ जिले ऐसे हैं जहां <a href="http://www.lnstarnews.com/news/kepari-leniata" target="_blank">डायन बता कर महिलाओं को अपमानित-प्रताड़ित करने, उन्हें निर्वस्त्र करके गांव में घुमाने या उनकी हत्या कर देने जैसी विकृतियां गहरे पैठी हुई हैं।</a></li>
</ul>
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>त्रासद अंधेरे की आग...</b></span><br />
<br />
दो साल पहले गांव गया था तो एक दिन पड़ोस में रहने वाली एक तकरीबन सत्तर-बहत्तर साल की वृद्ध महिला घबराई हुई मेरे घर में घुसी और कमरे में रखी चौकी के नीचे बिल्कुल कोने में दुबक गई। इससे पहले उसने मेरे सामने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा था कि "बउआ रे बउआ, हम कुछो न कलियइ ह...!" (मैंने कुछ नहीं किया है। मुझे बचा लो।)<br />
<br />
मैं कुछ समझ पाता, इससे पहले उस वृद्ध महिला के घर के सामने गली से जोर-जोर से गाली-गलौच की आवाज आने लगी। निकला तो देखा कि लाठियों से लैस दर्जनों लोग मां-बहन की वीभत्स गालियां बकते हुए वृद्धा को घर से निकालने की मांग कर रहे थे। उन सबका कहना था कि वे उस महिला का सिर मूंडेंगे, उसे पाखाना पिलाएंगे, तभी आगे की बात होगी।<br />
<br />
वहीं जमी भीड़ में से एक व्यक्ति से मैंने पूछा कि क्या हुआ है तो उसने बताया कि चौक पर वीरेंद्र शर्मा की मिठाई की दुकान है। वहीं चूल्हे पर बड़ी-सी कढाई चढ़ी थी जिसमें तेल था। "भगवानपुर वाली" (वृद्ध महिला) ने हलवाई से कहा कि आज क्या बना रहे हो, कढ़ाई में तेल ज्यादा है। यह कह कर वह वहां से चली गई। इसके बाद कढ़ाई में फटाक-फटाक की आवाज के साथ तेल चारों तरफ उड़ने लगा। दो लोगों के हाथ और गाल पर पड़ गया, जिससे फफोले निकल आए। उसने यह भी बताया कि भगवानपुर वाली "डायन" है और वही कुछ जादू-टोना करके चली आई थी।<br />
<br />
लोग बहुत ज्यादा तैश में थे। मैंने उन्हें शांत करने की कोशिश की, लेकिन उनमें से कुछ ने मुझे धमकाना शुरू किया। हार कर मैंने कहा कि ठीक है, मैं पुलिस को फोन करता हूं। इसके बाद अचानक लोग छंटने लगे। तब मैंने जोर से चिल्ला कर धमकी दी कि अगर इस बुजुर्ग महिला को कोई भी नुकसान हुआ तो सबको जेल भिजवा दूंगा। थोड़ी देर में सभी वहां से चले गए। उनमें से कुछ लोग मुझे गालियां भी दे रहे थे।<br />
<br />
कितने त्रासद अंधेरे में मरने-सड़ने के लिए छोड़ दिया दिया गया है उन लोगों को जो इतना भी समझ सकने लायक नहीं हैं कि पानी से भीगे ठंडे बर्तन में तेल डाल कर चूल्हे पर चढ़ा देने और बर्तन के गर्म होने पर फटाक-फटाक की आवाज के साथ पानी उड़ेगा ही। उनकी बेअक्ली की सजा एक कमजोर बुजुर्ग महिला को भुगतनी पड़ेगी, जिसे "डायन" मान लिया गया है।<br />
<br />
महज संयोग से उस दिन मेरी वजह से भगवानपुर वाली बच गई। लेकिन ऐसी खबरें आम हैं, जिसमें किसी महिला को डायन कह कर सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र कर समूचे गांव में घुमाया गया, जबर्दस्ती पाखाना खिलाया गया, या फिर उसकी हत्या कर दी गई।<br />
<br />
मैं अपने में घर लौटा। वह वृद्ध महिला मेरे गले लग कर जोर से रो पड़ी और बार-बार यह कहने लगी कि "बउआ रे बहुआ..., हम कुछो न कलियइ ह...!" वह थर-थर कांप रही थी और मेरी आंखों से आंसू निकल पड़े। गुस्सा इतना ज्यादा था कि लग रहा था कि "डायन" का खयाल पैदा करने या उसे बनाए रखने के जिम्मेदार लोग मिल जाएं तो उन्हें जिंदा जला दूं।<br />
<br />
हां, उन धर्माधीशों, पंडों, गुरुओं, महंथों, ओझाओं और तांत्रिकों को, जिन्होंने दिमागी अंधापन फैला कर मर्दवाद और ब्राह्मणवाद की अपनी दुकानदारी बनाए रखने के लिए एक मोहरा "डायन" को भी बनाया था। सदियों पहले अपने जो एजेंट उन्होंने समाज में छोड़े थे, वे आज भी बड़ी शिद्दत से उनके उस अपराध और कुकर्म की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। कोई यह दलील न दे कि "डायन" की धारणा एशिया-अफ्रीका से लेकर यूरोप तक के समाजों में भी पाई जाती है, फिर इसके लिए ब्राह्मणवाद पर सवाल क्यों? सभी समाजों के अपने-अपने ब्राह्मणवाद हैं और अपने मूल व्यवहार में वे वही हैं। बस सबकी शक्ल थोड़ी अलग-अलग होती है। जहां भी पारलौकिक हवाई घोड़े, भगवान या धर्म की व्यवस्था के जरिए समाज के मुट्ठी भर लोगों के शासन, मजे और ऐय्याशी के इंतजाम होंगे, वहां शासितों को काबू में रखने के लिए "डायन" जैसे तमाम अंधविश्वासों के इंतजाम भी होंगे।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>अंधविश्वासों के जहरीले दलाल...</b></span><br />
<br />
बहरहाल, उसी छल आधारित व्यवस्था के बहुत सारे नए और आधुनिक दल्लों में विशाल भारद्वाज और एकता कपूर भी हैं, जिन बेईमान पाखंडियों (संदर्भः विशाल भारद्वाज की "मकड़ी") को "एक थी डायन" फिल्म की दुकानदारी से पहले शायद एक बार भी यह खयाल नहीं आया होगा कि यह एक शब्द "डायन" किसके लिए और कितनी बड़ी त्रासदी रहा है।<br />
<br />
हालांकि जब आप किसी को दुकानदार कहते हैं तो यह मान लेना पड़ता है कि मुनाफा कमाना उसका "धर्म" है। लेकिन क्या किसी दुकान से कोई सामान खरीदते हुए कोई व्यक्ति मुफ्त में अपने खाने के लिए जहर भी लेता है? अगर उसे पता हो तो वह कतई ऐसा नहीं करेगा।<br />
<br />
तो "एक थी डायन" के जरिए विशाल भारद्वाज और एकता कपूर ने इसके अलावा और क्या किया है कि मनोरंजन के बहाने अंधविश्वासों के जहर के असर को थोड़ा और गहरा किया है। पहले से ही गैरजानकारी या अज्ञानता के अंधेरे में डूबते-उतराते दर्शक वर्ग की चेतना को थोड़ा और कुंद किया, जो आखिरकार यथास्थितिवाद को बनाए रखने का सबसे बड़ा हथियार है।<br />
<br />
कोई यह दलील दे सकता है कि एकता कपूर या विशाल भारद्वाज ने कोई पहली बार इस तरह की फिल्म नहीं बनाई है। हो सकता है, यह सही हो। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में जब दुनिया के वैज्ञानिक ब्रह्मांड की गुत्थियों को खोलने के करीब पहुंच चुके हैं, बॉलीवुड ही नहीं, हॉलीवुड में भी धड़ल्ले से भूत-प्रेत या शैतान की कहानियों पर फिल्में बनाई जा रही हैं। मगर रामसे बंधुओं से लेकर आज तक की तमाम हॉरर फिल्मों का हवाला होने के बावजूद विशाल भारद्वाज और एकता कपूर की "एक थी डायन" भारतीय संदर्भों में ज्यादा आपराधिक है, बनिस्बत इसके कि वह कुछ "मनोरंजन" करती है। किसी शातिर चोट्टे ने "काला जादू और डायन" नाम की किताब लिखी और उसके सहारे चलते हुए किस्से में इन दोनों फिल्मकारों ने उन तमाम खामखयालियों की दुकानदारी की, जो "डायन" को लेकर एक अक्ल से हीन समाज में पाई जाती है। "डायन बारह बजे रात से अपनी तंत्र-साधना शुरू करती है; डायन के पांव उल्टे होते हैं; डायन अपने सबसे प्रिय बच्चे की बलि लेकर या उसे "खाकर" ही जिंदा रहती है...!!!" ये सारी बातें गांव से लेकर शहर-महानगर तक अनपढ़ या फिर पढ़े-लिखे चेतनाविहीन अक्ल के दुश्मनों की कल्पना में हर वक्त रहती हैं।<br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9Z4y7xrmjF-nL83HjK0aHS36tuEReKqBDlnMxg3YiylN-5tsqeaMffFrstBqCivD-SoyUizvR-LmRTT2ANAhchyphenhyphenKdI4RnsImx2oY859ARJHtW-vKl4raOzYzplnI7Tiid6rju3ET962g/s1600/3.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9Z4y7xrmjF-nL83HjK0aHS36tuEReKqBDlnMxg3YiylN-5tsqeaMffFrstBqCivD-SoyUizvR-LmRTT2ANAhchyphenhyphenKdI4RnsImx2oY859ARJHtW-vKl4raOzYzplnI7Tiid6rju3ET962g/s1600/3.jpg" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZx7nOkbuPV_4C8lY7V5dUFp_1E-WHX-lHwfBriYXEfe49vfaw-qYDM55h4KXqrpazutrsoVY6eYOsSe6i_8r5j1XUi8OYZQx6DQkipoTpWyVBli2kecs8w6oL1Hlfw4uQYKQUhCBdvXo/s1600/2.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><br /></a></div>
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>हाईटेक काहिली-जाहिली...</b></span><br />
<br />
गांव में भगवानपुर वाली को "डायन" कह कर मारपीट पर उतारू वे लोग अनपढ़ और जाहिल थे। मगर इस मामले में शहरों-महानगरों के पढ़े-लिखों की क्या औकात है? कुछ साल पहले दुनिया के एक हाईटेक घोषित शहर गाजियाबाद की एक घटना चर्चा में आई थी। "ऊपरी असर" से परेशान तीन बेटों ने एक तांत्रिक का सहारा लिया, तांत्रिक ने "गहनतम" तंत्र-मंत्र साधना के बाद बेटों की अत्यंत वृद्धा मां को "डायन" घोषित किया और उसकी सलाह से बेटों ने मिल कर अपनी बेहद वृद्ध हो चुकी मां को चप्पलों से तब तक पीटा, जब तक उसकी मौत नहीं हो गई। बर्बरता और मूर्खता का सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है। इन तीन बेटों में से एक डॉक्टर और एक इंजीनियर था। यानी विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई भी उनकी अक्ल पर पड़े परदों को हटा नहीं सकी।<br />
<br />
लेकिन इससे एकता कपूर या विशाल भारद्वाज को क्या फर्क पड़ता है। बल्कि यों कहें कि जिस त्रासदी के कायम रहने से ही एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों की दुकानदारी चमकती है, बल्कि इससे उनके सामाजिक सत्ताधारी वर्ग की सत्ता की कुर्सी के पाए और मजबूत होते हैं, उससे उन्हें क्या फर्क पड़ेगा। अब तो लगता है कि "एक थी डायन" जैसी तमाम फिल्में बनाने वाली एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों का मुख्य मकसद जितना इन फिल्मों से पैसा कमाना होता है, उससे ज्यादा ये उन साजिशों को अमल में लाने का जरिया होते हैं, जिनसे इस समूचे समाज को काहिली-जाहिली के अंधेरे में डुबोए रखा जा सके। "मकड़ी" के जरिए "चुड़ैल" की कल्पना के झूठ को सामने रखने वाले "विशाल" पर पता नहीं क्यों उनका "भारद्वाज" चढ़ बैठा और वे "एक थी डायन" के झूठ को बतौर सच पेश करने में लग गए जो एक मर्दवादी और ब्राह्मणवादी सत्ता और उसके प्रभाव को स्थापित करने और विस्तार देने के लिए रचा गया था।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>लाचार मायावी-रूहानी ताकतें...</b></span><br />
<br />
इस फिल्म में पहली "डायन" का नाम "डायना" रखने से लेकर बच्चे की बलि, चोटी में जान जैसे वे सभी तुक्के आजमाए गए और "डायन" के कुछ "करिश्मे" भी दिखाए गए जो एक पिछड़ी हुई चेतना के आम अंधविश्वासी के भीतर पाई जाती है। दिक्कत यह है कि जब इस तरह के खिलवाड़ को "आधुनिक" ट्रीटमेंट दिया जाता है, तो वह चुपके-से अपनी वास्तविक क्षमता के मुकाबले हजार गुणा ज्यादा घातक असर करता है। "एक थी डायन" में महानगर में रहने वाले एक उच्चवर्गीय परिवार में अपनी "मादकता" के सहारे घुसने वाली वह "डायन" पता नहीं उससे पहले मुंबई के ताज होटल में रहती थी या अमेरिका के ह्वाइट हाउस में...! इससे पहले उसे फिल्म के बच्चा बोबो जैसा "हीरो" मिला था या नहीं, जो चुटिया काट कर उसे खाक कर देता है। वही चुटिया, जिससे वह आखिर में चमत्कारी फंदे का काम लेती है! लेकिन वह चमत्कारी फंदा और तमाम चमत्कारी रूहानी शक्तियां उसकी जान बचाने के काम कहां आती हैं? उसकी तो चुटिया बस एक बच्चा बोबो के हाथों साधारण से चाकू से काट दी जानी है, उस खौफनाक और सबको हवा में नचा-नचा कर मारने वाली "डायन" की सभी रूहानी ताकतों को लाचार मुंह ताकते रह जाना है। ठीक उसी तरह, जैसे शहर से गांव तक में किसी लाचार और निचली कही जाने वाली जाति की महिला को "डायन" कह कर बाल मुंड़ दिए जाते हैं, दांत तोड़ दिए जाते हैं, पाखाना घोल कर पिला दिया जाता है, निर्वस्त्र करके पीटते हुए समूचे गांव या बस्ती में घुमाया जाता है या कभी जिंदा जला दिया जाता है, लेकिन "डायन" की "शैतानी" और "मायावी" शक्तियां उसकी कोई मदद नहीं करतीं!<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>विज्ञान के दुश्मन...</b></span><br />
<br />
सवाल है कि इस महान सांस्कृतिक अनुष्ठान को अंजाम देने या इसके प्रति श्रद्धाभाव से भरे अक्ल के हीन लोगों के माइंडसेट में परदे पर आधुनिक स्वरूपा "डायन" और उसकी वही पुरानी "करस्माएं" और कैसा जहर घोलेंगी? यह साधारण-सा सच है कि पोंगापंथी, दिमाग से बंद, कूपमंडूक अंधविश्वासी पुजेड़ी जब यह देखता है कि भारत के <a href="http://www.telugupeople.com/Tirupati/News.asp?newsID=62737&catID=58" target="_blank">अंतरिक्ष प्रक्षेपण अनुसंधान संगठन यानी इसरो का मुखिया विज्ञान पर केंद्रित किसी कार्यक्रम में शिरकत करते हुए या किसी उच्च क्षमता के अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण से पहले घंटों किसी मंदिर में घंटा डोलाता है </a>तो उसे कैसा लगेगा? एक औसत दिमाग का आदमी भी यह समझ सकता है कि इस तरह के उदाहरण एक अंधविश्वासी मन की कुंठाओं, हीनताओं और विकृतियों को "जस्टीफिकेशन" देते हैं। बल्कि मेरा दावा है कि इससे <a href="http://news.webindia123.com/news/ar_showdetails.asp?id=704210780&cat=&n_date=20070421" target="_blank">किसी भी पोंगापंथी व्यक्ति के भीतर मौजूद अंधविश्वासी पगलापन एक सबसे मजबूत खुराक पाएगा और वह किसी को भी अंगुली दिखा कर कह सकता है कि जब माधवन नायर</a> या <a href="http://articles.economictimes.indiatimes.com/2013-02-24/news/37270210_1_chairman-k-radhakrishnan-indo-french-satellite-pslv" target="_blank">राधाकृष्णन जैसे इसरो अध्यक्ष और विज्ञान के पहरुए मंदिर में घंटा हिला कर अंतरिक्ष यानों का कामयाब प्रक्षेपण सुनिश्चित करते हैं</a> तो हम तो सिर्फ "भगवान" की एक "सामान्य व्यवस्था" को ही निबाहते हैं, "डायन" को निर्वस्त्र करके घुमाते हैं, मैला पिलाते हैं या उसे उसकी "हैसियत" दिखाते हैं!<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGufpRRmbSP74BeIp-_8twiQARTffyVPo9c0_fO2CY9ewAKgSE7GZmIBe4bn6Su5NSKdB0hdk6jV5ZH8eACoX_7wmgNC0SUWA85_CvBfEtlNTKN1t-i6Kob3-3KSSosTEG0SNCu1plfpI/s1600/isro.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGufpRRmbSP74BeIp-_8twiQARTffyVPo9c0_fO2CY9ewAKgSE7GZmIBe4bn6Su5NSKdB0hdk6jV5ZH8eACoX_7wmgNC0SUWA85_CvBfEtlNTKN1t-i6Kob3-3KSSosTEG0SNCu1plfpI/s1600/isro.jpg" /></a></div>
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"एक थी डायन" जैसी फिल्में उसी इसरो अध्यक्षों जैसी भूमिका बनाते हैं, जिनमें विज्ञान और आधुनिक तकनीकी के जरिए उन तमाम खयाली घोड़ों और हवा-हवाई बातों को मूर्त देकर परदे पर पेश किया जाता है और पहले से ही चारों तरफ से अंधे विश्वासों में मरता-जीता उसका एक आम दर्शक "डायन" के झूठ को थोड़ा और साकार रूप देने लगता है। इसकी वजह भी वही "जस्टीफिकेशन" है जो विज्ञान और तकनीकी के जरिए उसके सामने साकार की गई, लेकिन जिसका कोई भी आधार नहीं है। और "डायन" अब तक सिर्फ उसकी धारणा थी। (आखिर एक अंधविश्वासी व्यक्ति भी विज्ञान की ताकत को तो समझता ही है।) उन धारणाओं में जो भी बातें शामिल थीं, एकता कपूर और विशाल भारद्वाज ने उन सबका शोषण किया और परदे पर बेचा। ऐसे व्यापारियों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि "डायन" की समूची कल्पना किस कदर आज भी महिलाओं और खासतौर पर दलित-जनजातीय या निचली जाति की कितनी महिलाओं के लिए त्रासदी की वजह बन चुकी है, या बन रही है। सामाजिक सत्ताधारी वर्गों के मूल से उपजे इन व्यापारियों को इस बात की फिक्र आखिर हो भी क्यों? जो समस्या अपने या अपने वर्गों के सामने होती है, फिक्र उसी की की जाती है!<br />
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इस फिल्म की साजिश सबसे ज्यादा खुल कर तब सामने आती है जब इसमें एक पात्र के रूप में मौजूद मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक को पहले "डायन" को खारिज करते और फिर उसी "डायन" की मायावी ताकत के जरिए बुरी तरह मारे जाते दिखाया जाता है। यानी अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ाई के लिए जो सबसे मजबूत तर्क मनोविज्ञान मुहैया कराता है, उसे हारता हुआ, अंधविश्वासों के सामने, उसके हाथों मुंह की खाता हुआ दिखाया जाए। कल्पना करिए कि एक औसत दिमाग और अपने घोर अंधविश्वासों-पूर्वाग्रहों के साथ सिनेमा हॉल में बैठा दर्शक किसी भी इस तरह की कहानी के इस पहलू से किस तरह प्रभावित होगा। यानी, लोग अंधविश्वासों के अंधेरे में डूबते-उतराते रहें, समाज की यथास्थिति बनी रहे, इसके लिए एकता कपूर या विशाल भारद्वाज जैसे धनपशुओं ने एक जड़ व्यवस्था के संचालकों-कर्णधारों की दलाली में निर्लज्जता की सारी सीमाएं तोड़ दीं।<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><b>"डायन" वही क्यों...</b></span><br />
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दरअसल, "एक थी डायन" में एकता कपूर और विशाल भारद्वाज का पूरा "लोकेशन" बिल्कुल साफ है। उनकी फिल्म का पुरुष जादूगर है, जो सिर्फ सबका मनोरंजन करता है, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। दूसरी ओर, फिल्म में मुख्य रूप से तीन स्त्री पात्र हैं जिनमें दो साफ तौर पर "डायन" हैं, तीसरी "लगभग" "डायन" के रूप में दर्शकों के लिए खुला अंत छोड़ जाती है। फिल्म में "डायन" का स्वरूप वही है, जो गांव-शहर के अंधविश्वासी लोगों के दिमाग में पाया जाता है। यानी वह सिर्फ नुकसान पहुंचा सकती है। यानी जादूगर के रूप में पुरुष मनोरंजन करता है, तांत्रिक के रूप में वह ("डायन" के) "ऊपरी" हमलों से बचाता है। दिलचस्प है, जादू-टोना करने वाली स्त्री बच्चों को "खा" जाने वाली "डायन" हो जाती है और जादू-टोना अगर पुरुष करेगा तो वह तांत्रिक होगा। और तांत्रिक होना बचाने वाले की भूमिका है।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZx7nOkbuPV_4C8lY7V5dUFp_1E-WHX-lHwfBriYXEfe49vfaw-qYDM55h4KXqrpazutrsoVY6eYOsSe6i_8r5j1XUi8OYZQx6DQkipoTpWyVBli2kecs8w6oL1Hlfw4uQYKQUhCBdvXo/s1600/2.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZx7nOkbuPV_4C8lY7V5dUFp_1E-WHX-lHwfBriYXEfe49vfaw-qYDM55h4KXqrpazutrsoVY6eYOsSe6i_8r5j1XUi8OYZQx6DQkipoTpWyVBli2kecs8w6oL1Hlfw4uQYKQUhCBdvXo/s1600/2.jpeg" /></a></div>
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पितृसत्ता, पुरुषवाद और ब्राह्मणवाद के खेल बड़े निराले हैं। इस खेल में यह कोई नहीं पूछता िक इस साजिश का शिकार हमेशा और सौ फीसद स्त्री ही क्यों होती है? और किसी अजूबे अपवाद को दलील के तौर पर पेश न किया जाए तो "डायन" स्त्री हर बार दलित या निचली कही जाने वाली जाति की ही क्यों होती है?<br />
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तो...! एक व्यापक की त्रासदी को खत्म या कम करने की औकात विशाल भारद्वाज या एकता कपूर के पास नहीं है, तो उस दुख को मनोरंजन बना कर बेचना और इस तरह "डायन" की झूठी अवधारणा को आधुनिक तकनीकी के जरिए मूर्त बना कर पेश करने का उन्हें क्या हक है? क्या उन्हें यह मामूली बात समझ में नहीं आती कि समाज का माइंडसेट या मानस तैयार करने या उसे बनाए रखने में आज का सिनेमा कितनी अहम भूमिका में आ चुका है? अगर वे सब कुछ जानते-समझते हैं तो क्या वे ऐसा जान-बूझ कर रहे हैं?<br />
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व्यवस्था के शातिर और छिपे हुए अपराधियों ने कभी आम जन की मजबूरी और उनके अज्ञान का फायदा उठा कर "डायन" की कल्पना को सामाजिक धारणा के रूप में स्थापित किया होगा। तब किसी अकेली या संपत्ति की वारिस स्त्री पर अत्याचार ढाने या उसे लूट लेने के लिए उस काल्पनिक सामाजिक धारणा में कहानियां गूंथी गई होंगी और फिर जनमानस में उसका प्रचार किया गया होगा। आज के दौर में "एक थी डायन" जैसी तमाम व्यवस्थावादी फिल्में समाज में यही भूमिका निभा रही हैं।<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><b>राजनीति का परदा...</b></span><br />
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अब यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कुछ सालों में समाज में सोचने या विश्लेषण करने की प्रक्रिया को बाधित करने, अंधविश्वास फैलाने, स्त्री की स्थिति को हीनतर बनाने, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण या आम लोगों के सांप्रदायीकरण के एजेंडे पर फिल्में बन रही हैं। और अगर इसमें कोई दक्षिणपंथी कट्टर धार्मिक समूह बड़े पैमाने पर पैसा लगा रहा हो तो हैरान होने की बात नहीं होगी। अंधविश्वासों को विस्तार देना या धार्मिक-सामाजिक और लैंगिक पूर्वाग्रहों-विद्रूपों को मजबूत करना यथास्थितिवाद की नियामक ताकतों की असली राजनीति है। और चूंकि एक सबसे ज्यादा असर डालने वाले "मनोरंजन" कला माध्यम के रूप में सिनेमा की आम जनता के बीच व्यापक पहुंच है, इसलिए अथाह पैसा लगा कर इसे नियंत्रित और अपने मुताबिक संचालित करने की कोशिशों की रफ्तार बहुत तेज है। शीतयुद्ध के दौरान और आज भी खासतौर पर अमेरिका ने दुनिया के मानस तैयार करने के लिए फिल्मों का कैसा इस्तेमाल किया है, यह किसी से छिपा नहीं है।<br />
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मुश्किल यह है कि अगर कोई व्यक्ति सिनेमा के सामाजिक पहलू या सिनेमा के सामाजिक असर की बात करता है तो व्यवस्थावादियों की ओर से एक झटके में उसे शुद्धतावादी घोषित कर दिया जाता है। दलील दी जाती है कि सिनेमा बदलते सामाजिक ढांचे और भावनाओं को दर्शाता है, और समाज में बदलाव से ही सिनेमा में बदलाव आते हैं। फिलहाल सिर्फ "एक थी डायन" का ही संदर्भ लें तो क्या सच केवल यह है कि समूचा समाज आज भी "डायन" की गिरफ्त में है और उसी की गिरफ्त में रहना चाहता है? क्या "डायन" प्रथा के खिलाफ कहीं भी कोई स्वर नहीं है? क्या अंधविश्वासों के बरक्स विज्ञान और तर्क इस समाज में बिल्कुल अनुपस्थित है? सिनेमा में समाज का यथार्थ परोसने के नाम परोसा गया विभ्रम ऐसे ही विद्रूप रचता है।<br />
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दरअसल, सिनेमा के समाज के हिसाब से चलने की बात इतनी चालाक दलील है कि इसके सहारे वे एक जड़ व्यवस्था को बनाए रखने में एक कला-माध्यम के इस्तेमाल करने के अपने तमाम कुकर्मों को ढकना चाहते हैं। क्या किसी समाज का अध्ययन और उसके निष्कर्ष उसे टुकड़ों में बांट कर देखने से सही-सही सामने आएगा? सेलेक्टिव तरीके से एक व्यापक जनसमुदाय के बीच जड़ता को बनाए रखने के इन अपराधियों की इस बेहद उथली साजिश को समझना इतना मुश्किल नहीं है, बस इनकी बोलियों के हर्स्व और दीर्घ मात्राओं पर ध्यान रखिए...!<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><b>मधुमाला देवी की अदालत में...</b></span><br />
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थोड़े समय पहले बिहार से एक खबर आई कि मधेपुरा जिले के एक गांव <a href="http://www.jansatta.com/index.php/archive/32768-2012-11-16-05-00-04" target="_blank">मिठाही की मुखिया ने यह घोषणा की कि समूचे पंचायत क्षेत्र में अगर किसी ने किसी महिला को "डायन" कहा तो उसे इक्कीस सौ रुपए जुर्माना देना होगा।</a> गांव में रहने वाली, कम पढ़ी-लिखी, कम आधुनिक और कम पैसे वाली मधुमाला देवी संघर्ष के बाद पंचायत की मुखिया के एक छोटे-से पद पर किसी तरह पहुंचते ही इतना बड़ा क्रांतिकारी फैसला लेती है। लेकिन बहुत पढ़ी-लिखी, बेहद धनाढ्य, "अति आधुनिक" एकता कपूर और बौद्धिक परदाधारी विशाल भारद्वाज अक्ल से पैदल या शातिर पंडों-तांत्रिकों की साजिश के नतीजे में उपजी "डायन" के सिर पर एक हथौड़ा और मारते हैं। पद और हैसियत का इस्तेमाल मधुमाला देवी ने भी किया है और एकता कपूर और विशाल भारद्वाज ने भी। मगर मधुमाला देवी के बरक्स एकता कपूर और विशाल भारद्वाज को कैसे देखा जाए? क्या एकता कपूर और विशाल भारद्वाज को मधुमाला देवी की पंचायत-अदालत में खड़ा करके इक्कीस सौ रुपए जुर्माने के अलावा और सख्त सजा देने की जरूरत नहीं है? अगर "एक थी डायन" जैसी फिल्मों के जरिए समाज की मूर्खता और हजारों स्त्रियों की त्रासदी की दुकानदारी करने वाली एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों को जेल में बंद करने के लिए कोई कानून नहीं है तो भारत सरकार से मैं मांग करता हूं कि वह इस मसले पर सख्त से सख्त कानून बनाए और ऐसे तमाम एकता कपूरों और विशाल भारद्वाजों को गिरफ्तार करके जेल में सड़ने के लिए छोड़ दे, क्योंकि "एक थी डायन" के जरिए इन लोगों ने वैसे ठगों, बाबाओं और तांत्रिकों से अलग कोई काम नहीं किया है जो समाज को दिमागी तौर पर अंधा और चेतना से हीन बनाए रखने के अपराधी हैं...!
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शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-14447293431357591442013-04-24T06:48:00.000-07:002015-12-16T10:03:32.514-08:00हां, ऑनरेबल कबीर, यह टुकड़ों में बंटे समाज का सच है...!!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQY7RBTXTy1B8J4g2cPfpvNrf8-fyyMB7GVjGAuBxq_Iw73Q_vGgjmBATZ7LSyspecckQS5g-xOzW66z403Z0fJOLx1nA8NnbM6H0jrzEgU3uOaKD-SnDetHws42iXwQMMTa5hprwAD6M/s1600/dalitwomen.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQY7RBTXTy1B8J4g2cPfpvNrf8-fyyMB7GVjGAuBxq_Iw73Q_vGgjmBATZ7LSyspecckQS5g-xOzW66z403Z0fJOLx1nA8NnbM6H0jrzEgU3uOaKD-SnDetHws42iXwQMMTa5hprwAD6M/s320/dalitwomen.jpg" width="226" /></a></div>
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>इस</b></span></span> साल एक जनवरी से पंद्रह अप्रैल तक अकेले दिल्ली में चार सौ तिरेसठ बलात्कार की घटनाएं पुलिस में दर्ज हुईं, इनमें दो सौ अड़तीस नाबालिग या बहुत कम उम्र की बच्चियां हैं। (बलात्कार के मामले दर्ज न होने की स्थितियों के बारे में तो शायद अब बात करना भी बेमानी है।) लेकिन पांच महीने के भीतर यह सिर्फ दूसरी बार है, जब दिल्ली की घटना के बाद दिल्ली और देश के दूसरी राज्य-राजधानियों में गम और गुस्सा उमड़ा है। जो हो, इससे यह उम्मीद बंधी है कि कभी न कभी इस आक्रोश में मुजफ्फरपुर के गांव मंडई की सकली देवी जैसी तमाम महिलाओं और देश के दूरदराज के इलाकों में मासूम बच्चियों के साथ हुई वीभत्सता और बर्बरता की पीड़ा को भी जगह मिलेगी। यह एक मांग भी है, क्योंकि जो अगुवा होते हैं, अगर वे किसी की अनदेखी करेंगे तो उनसे अपने लिए किसी जगह या सम्मान की उम्मीद करने का उन्हें हक नहीं है और उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठेंगे...!!!<br />
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<b><span style="color: red;"><span style="background-color: #fff2cc;">पिछले </span></span></b>महीने महिला दिवस के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने इस देश के बेईमान मध्यवर्ग और सत्ता-केंद्रों के खिलाफ एक जलता हुआ सवाल उछाला। उन्होंने कहा कि पिछले साल दिल्ली में सोलह दिसंबर को सामूहिक बलात्कार की बर्बर घटना दुखद जरूर थी, लेकिन यह ऐसा कोई अकेला मामला नहीं है। जिस दिन यह वारदात हुई उसके अगले दिन मीडिया की सुर्खियों में घटना के खिलाफ चीख-चीख कर आक्रोश जाहिर किए जा रहे थे। लेकिन उसी दिन दस साल की एक मासूम दलित बच्ची के साथ भी सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर उसे जिंदा जला दिया गया। मगर इस घटना को चुपके से दबा दिया गया, या फिर अंदर के पेज पर पांच से दस लाइनों में समेट दिया गया। दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की दिवंगत पीड़ित के परिवार को सरकार के साथ-साथ दूसरे कई पक्षों ने भी भारी मुआवजा और मदद दी, लेकिन उस मासूम छोटी-सी बच्ची के लिए क्या किया गया?<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>भारत</b></span></span> के चीफ जस्टिस के इस सवाल का जवाब इस देश की सरकार, समाज और मीडिया के भाग्य-विधाताओं के पास शायद होगा, मगर वे कुछ नहीं बोलेंगे। लेकिन ऑनरेबल जस्टिस अल्तमस कबीर... मैं आपके इस सवाल का जवाब देना चाहता हूं। हां, जस्टिस कबीर... ऐसा इसलिए, क्योंकि इस देश में बलात्कार और बलात्कार में फर्क है।<br />
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<b><span style="color: red;"><span style="background-color: #fff2cc;">इस</span></span></b> देश के सत्ताधारी सामाजिक वर्गों की महिला के खिलाफ यौन हिंसा की कोई घटना होगी तो राजधानी का राजपथ एक झटके में क्रांतिपथ की शक्ल में तब्दील हो जाएगा, लेकिन महिला किसी "नीच" कही जाने वाली जाति या वर्ग की हुई, तो जंतर-मंतर या इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जलाना तो दूर, एक पल के लिए भी किसी को इस पर सोचना तक जरूरी नहीं लगेगा।<br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>चुने हुए दुःख...</b></span></span><br />
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<b><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;">इस</span></span></b> साल की होली गुजरे ज्यादा दिन नहीं बीते।<a href="http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/19291884.cms" target="_blank"> मार्च के आखिरी दिनों में, जब यह हिंदू समाज होली की खुमारी उतारने में लगा हुआ होगा, बिहार के ही मुजफ्फरपुर में सकरा प्रखंड में मंडई गांव की सकली देवी (बदला हुआ नाम) अपने पति के साथ अपने एक संबंधी की मृत्यु के क्रिया-कर्म में शामिल होकर लौट रही थी, दोनों को घेर कर पति के हाथ-पैर बांध कर उसके सामने सकली देवी के साथ छह-सात लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया, विरोध करने पर उसके पूरे शरीर को दांतों से काटा गया, भयानक यातनाएं दी गईं, और निजी अंगों में कपड़े, पत्थर, मिट्टी और कीचड़ डाल कर क्षत-विक्षत कर दिया गया और तड़पते हुए मरने के लिए छो़ड़ दिया गया।</a> किसी तरह पति और कुछ लोग उसे अस्पताल ले गए। लेकिन जब तक उसकी जान जा चुकी थी।<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>पुलिस</b></span></span> से लेकर अस्पताल तक में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में घपले के जरिए रफा-दफा करने की तमाम कोशिशों के बावजूद एकाध जगह आधी-अधूरी खबर छप गई। जनवादी महिला समिति ने स्थानीय स्तर पर जरूर विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन दिल्ली की घटना के बाद "देश" को आंदोलित कर देने वालों को मुजफ्फरपुर की घटना में कुछ भी ऐसा नहीं लगा कि वह उसे उतना ही महत्त्व दे। दिल्ली की घटना के बाद दिल्ली के राजपथ, जनपथ, इंडिया गेट या जंतर मंतर की क्रांति से देश और दुनिया को हिला देने वाले देश के श्रेष्ठिवर्ग, क्रांति का ठेका उठाने वाले मध्यवर्ग की छाती मंडई जैसे गांवों की सकली देवियों के दुःख से नहीं फटती।<br />
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<b><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;">मैंने</span></span></b> दिल्ली की घटना के बाद आक्रोश और गुस्से से भरे स्त्री-पुरुषों को देखा था, कई-कई महिलाओं-युवतियों को हाथ में जलती मोमबत्ती लिए सचमुच के आंसुओं के साथ रोते देखा था। मीडिया किसके लिए आंदोलन को ताकत और प्रसार दे रहा था? हमारे देश के श्रेष्ठिवर्ग के लोग किसके लिए इतने आक्रोशित थे और मोमबत्ती थामे युवक-युवतियां किसके लिए रो रही थीं? दरअसल, ये लोग, इनके वर्ग सिर्फ "अपनों" को पहचानते हैं। और "अपनों" के साथ किसी भी तरह की त्रासदी घटे, दुख और गुस्सा लाजिमी है! वर्ग और अपनापे के साथ एक बड़ी शर्त यह है कि इस तरह की किसी घटना का दिल्ली में होना जरूरी है। मोहन भागवत जैसा आदमी यों ही यह मुनादी नहीं करता है कि बलात्कार शहरों-महानगरों में होता है, गांवों में नहीं। न मामला दर्ज होगा, न उसे गिना जाएगा।<br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>बर्बरता के चेहरे... </b></span></span><br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>सकली</b></span></span> देवी पर ढाए गए जुल्म का जितना ब्योरा सामने आ सका, उस घटना के दौरान के दृश्य की कल्पना भर समूची दुनिया का नाश कर देने के बराबर गुस्सा पैदा करती है। दिल्ली में सोलह दिसंबर को हुए सामूहिक बलात्कार की घटना के संदर्भ में सबसे ज्यादा जोर देकर यह कहा गया कि अपराधियों में से एक ने पीड़ित युवती के यौनांगों को लोहे के रॉड से क्षत-विक्षत कर दिया था। यह कुंठा, विकृति और वीभत्सता की पराकाष्ठा थी और यह अकेली वजह किसी संवेदनशील इंसान को अवसाद में डाल दे सकती है, या उसके गुस्से को बेलगाम कर दे सकती है। इसलिए दिल्ली के राजपथ से लेकर देश भर में जहां-जहां गुस्से का इजहार किया गया, वह किसी समाज के बचे होने का सबूत है।<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAn4bPUfaQsQu8qk-48kju7v96SGggLykQ07_krNmlkePyAQofS3qK_SmLlAdBF0pt50oVT94kmB3XOBmcQHR3a2oghiVUH3eCWT7qREzSimbCPYSEWZwHf1p4HG0F08EorxYWHhq6c64/s1600/aaa.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAn4bPUfaQsQu8qk-48kju7v96SGggLykQ07_krNmlkePyAQofS3qK_SmLlAdBF0pt50oVT94kmB3XOBmcQHR3a2oghiVUH3eCWT7qREzSimbCPYSEWZwHf1p4HG0F08EorxYWHhq6c64/s1600/aaa.jpeg" /></a></div>
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>लेकिन</b></span></span> अपने बचे हुए का सबूत देने वाला वह समाज दरअसल किसका है? उसी दिन सामूहिक बलात्कार के बाद जिंदा जला दी गई दस साल की या सामूहिक बलात्कार के बाद हाथ और गर्दन तोड़ कर मार डाली गई आठ साल की बच्ची के मामले लोगों के गुस्से में शामिल क्यों नहीं हो सके? सकली देवी के साथ जो हुआ, बर्बरता की वह कौन-सी सीमा है, जिसे अपराधियों ने पार नहीं की? मगर तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह बिकने वाली "चीज" नहीं थी। कुछ लोगों ने अपनी सीमा में इस खबर का प्रसार भी किया। इसके बावजूद मध्यवर्गीय और सामाजिक सत्ताधारी तबकों के साथ-साथ मीडिया का भी जमीर क्यों गहरी नींद में सोया रहा? कोई मुझे एक भी वाजिब वजह बताए कि सकली देवी के साथ जो हुआ, वह बर्बरता के पैमाने पर दिल्ली की घटना से कहीं ज्यादा वीभत्स होने के बावजूद नजरअंदाज करने लायक था!<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>चुप्पी</b></span></span> की राजनीति और चु्प्पी की साजिश की परतें उधेड़ना कोई खेल नहीं है। जिस चुप्पी को "महानता" के पर्याय के तौर पर प्रचारित किया जाता है है, उसी हथियार से व्यवस्था पर काबिज वर्गों ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयां जीती हैं। इसीलिए सकली देवी के साथ जो हुआ, वह इन वर्गों के जमीर को झकझोर नहीं पाता और दिल्ली की घटना से उपजे आक्रोश से देश और यों कहें कि दुनिया हिल उठती है।<br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>लेकिन सकली देवी कौन थी...!!!</b></span></span><br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>लेकिन</b></span></span> सकली देवी कौन थी? अपने इलाके में मनरेगा और पीडीएस, यानी जनवितरण प्रणाली में घोटालों के खिलाफ आवाज उठाने वाली सकली देवी कौन थी? समूचे बिहार के हरेक पंचायत में शराब के दो ठेके खोल कर "सुशासनी" सरकार ने स्थानीय समाज को जिन दुःशासनों की फौज के हवाले कर दिया है, उनके खिलाफ खड़ा होने वाली और शराब के ठेके बंद करने के आंदोलन में मुखर वह सकली देवी किसकी दुश्मन थी?<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>ऐसी</b></span></span> कोई भी सकली देवी हर उस शख्स की दुश्मन होगी, जिसकी सामाजिक सत्ता को उससे खतरा पैदा होता हो। सामाजिक सत्ताधारी तबकों ने अपने असली चेहरे का खुलासा करने वाले अपनी ही जाति-वर्ग के किसी व्यक्ति को जिंदा जला कर मारा डाला है, फिर कोई दलित, और उसमें भी एक स्त्री यह हिम्मत कैसे कर सकती है? निचली कही जाने वाली जातियों के लिए उत्पीड़न और यातना की तय कर दी गई नियति के निशाने पर जब स्त्री आती है तो सबसे बेशर्म बर्बरताएं और वीभत्सताएं भी शर्म से पानी-पानी हो जाती हैं।<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>क्या</b></span></span> यहां किसी को राजस्थान की वह साथिन भंवरी बाई याद आ रही है?<br />
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<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>साथिन भंवरी की साथिन सकली...</b></span></span><br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>साथिन</b></span></span> भंवरी का भी कसूर क्या था, सिवाय इसके कि उसने अपने आसपास पिछड़ेपन, अशिक्षा और अज्ञान के अंधेरे में अपना वक्त काटते लोगों को थोड़ा हिलाने-डुलाने की कोशिश की थी? यह कोई मामूली खतरा नहीं था कि वे लोग नींद से जाग उठें, जिनका सदियों से सोए रहना ही इस समूची व्यवस्था के कायम रहने के लिहाज से ज्यादा बेहतर रहा है। इसलिए व्यवस्था के रखवालों ने पति के सामने भंवरी के साथ सामूहिक बलात्कार किया और एक तरह से भंवरी से उपजे "खतरों" को दफन करने की कोशिश की।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>सकली</b></span></span> देवी का "गुनाह" भी साथिन भंवरी के गुनाह जैसा था। कोई दलित और वह भी स्त्री अगर इस तरह के "गुनाह" करे तो उसके लिए वह सजा निर्धारित है जो भंवरी बाई को मिली, सकली देवी को मिली। भंवरी को जो सजा दी गई, वह उसके गांव के गुंडा सवर्ण सामंतों ने सुनाई थी तो भारत के कानून के मंदिरों में बैठे एक मनुपुत्र ने उससे भी बड़ा फैसला दिया था कि अगर एक ऊंची जात का आदमी किसी दलित को छू नहीं सकता तो उसके साथ बलात्कार कैसे कर सकता है! सकली देवी के साथ जो हुआ, उसके लिए स्थानीय पुलिस ने पहले उसके पति को ही गिरफ्तार कर लिया था। पति के हाथ-पांव बांध कर उसके सामने जिसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, यौनांगों में पत्थर, कपड़े, मिट्टी, कंकड़ आदि डाल कर क्षत-विक्षत कर दिया गया, उसके बारे में पुलिस ने घोषणा की कि उसके साथ बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई। अब हम अदालत से "इंसाफ" के फैसले की मुनादी का इंतजार करेंगे, जिसकी बुनियाद पुलिस की एफआइआर और प्राथमिक जांच रिपोर्ट होती है, जिसका इंतजाम पुलिस ने पहले ही कर लिया है।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>मोहन</b></span></span> भागवत जैसा आदमी यों ही यह मुनादी नहीं करता है कि बलात्कार शहरों-महानगरों में होता है, गांवों में नहीं। न मामला दर्ज होगा, न उसे गिना जाएगा।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>बहरहाल,</b></span></span> दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की बर्बरता (वैसे बलात्कार अपने आप में क्या बर्बरता का पर्याय नहीं है?) के खिलाफ इस देश के सभ्य समाज और मीडिया ने राजपथ को क्रांतिपथ बना दिया, तो सकली देवी के साथ कहीं त्रासद पैमाने की बर्बरता (अगर बर्बरता ही पैमाना है तो...) और वीभत्सता से उस सभ्य समाज और मीडिया का दिल क्यों नहीं दहला? क्या इसलिए कि सकली देवी इन सबके लिए कहीं से भी "अपनी" नहीं थी? जनवादी महिला समिति ने मुजफ्फरपुर में जरूर एक विरोध आंदोलन किया, पटना में भी धरना दिया और सकली देवी के परिवार को थोड़ी राहत दिला सकी। लेकिन दिल्ली की घटना के खिलाफ राजपथ पर आंदोलन का आगाज करने वालों में सबसे अहम भूमिका निभाने वाले संगठनों को सकली देवी के मामले को लेकर दिल्ली में एक औपचारिक प्रतिरोध भी दर्ज करना जरूरी क्यों नहीं लगा? जबकि सकली देवी एक मामूली दलित महिला, भारत में एक कमजोर वर्ग की गरीब नागरिक थी, बल्कि एक महिला संगठन की सदस्य भी थी।<br />
<br />
<span style="background-color: black;"><span style="color: red;"><b>अपने-अपने लोग...</b></span></span><br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>दिल्ली </b></span></span>की दोनों घटनाओं पर आक्रोश की लहरें पटना की सड़कों पर भी उमड़ीं। कई महिला संगठनों ने पटना में दिल्ली की घटना पर गम और गुस्से का इजहार किया। इसके अलावा, एपवा, यानी अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन एक जुल्मी विधायक की हत्या करने वाली रूपम पाठक की रिहाई के लिए अभियान चलाती है, मानव शृंखलाएं बनाती है, लेकिन उसकी नजर में सकली देवी की त्रासदी अनदेखा करने लायक क्यों थी? महिलाओं पर अत्याचारों के खिलाफ पटना की सड़कों पर सबसे मुखर दिखने वाली एपवा के लिए सकली देवी के साथ घटी घटना किस वजह से चुप रह जाने लायक थी? उससे यह मांग क्यों नहीं की जानी चाहिए कि रूपम पाठक के दुख के बराबर शिद्दत का प्रदर्शन वह सकली देवी के दुःख पर भी करती? किसी स्त्री पर ढाए गए जुल्म का विरोध करने के लिए अगर अपने समूह या वर्ग का चुनाव करना प्राथमिक शर्त है तो इंतजार करिए कि कब आपके वर्ग की कोई महिला दरिंदों का शिकार बने! फिर कोई आंदोलन खड़ा करिएगा और बताइगा कि आप दुनिया की महिलाओं के सम्मान, गरिमा और सुरक्षा की बहाली की लड़ाई लड़ रहे हैं।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>दिल्ली </b></span></span>में पांच साल की गरीब बच्ची के साथ हुई बर्बरता के बाद दिल्ली एक बार फिर खौली। इस उबाल में सारे देश को शामिल होना चाहिए। जितना गुस्सा, सदमा और संवेदनाएं दिख रही हैं, उसे ज्यादा की जरूरत है। इस मामले में आरोपी पकड़ा गया। पुलिस वालों को धन्यवाद। विरोध में आंदोलन हो रहे हैं। आंदोलनकारियों को धन्यवाद! दुख जताने के लिए नरेंद्र मोदी के गुजरात के लिए भाड़े पर ब्रांड एंबेसडरी करने वाले अमिताभ बच्चन का भी धन्यवाद...! लेकिन जिस अपराधी के पकड़े जाने के बाद बिहार के मुजफ्फरपुर का नाम आज मशहूर हो गया है, महज एक पखवाड़े पहले उसी जिले के एक गांव मंडई में तो सकली देवी के साथ भी इससे ज्यादा बड़ी वीभत्सता हुई! मुजफ्फरपुर और मंडई का नाम किसने जाना? हां, याद आया! मुजफ्फरपुर पर चर्चा करने के लिए भी मुजफ्फरपुर का दिल्ली में होना जरूरी है...!!! वरना ऐसे तमाम मुजफ्फरपुर, सहरसा, बुलंदशहर, कैथल, करनाल, हिसार, जींद जैसे इलाकों की त्रासदी पर बात करना या उस पर उबलना गैरजरूरी है, क्योंकि वह दिल्ली नहीं है...!!!<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>खैरलांजी</b></span></span> में वीभत्सता और बर्बरता का जो नंगा नाच हुआ था, उस जैसी तमाम घटनाएं घटती हैं और चुपचाप दफन कर दी जाती हैं। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। टुकड़ों में बंटे समाज की प्रतिक्रिया भी टुकड़ों में ही होगी। सभी अपने-अपने वर्गों की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसमें जिस वर्ग के पास जितना ‘सामर्थ्य’ है, वह व्यवस्था पर उतना ‘सार्थक’ दबाव डाल पाता है। इसमें उन वर्गों की तकलीफ को व्यापक दुख के लायक नहीं समझा जाना स्वाभाविक है, जिनके पास न सत्ता-केंद्रों की ताकत है, न उनकी चीखें सुनने वाला कोई है।<br />
<br />
<b><span style="background-color: black;"><span style="color: red;">टुकड़ों में क्रांति...</span></span></b><br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>कुछ</b></span></span> घटनाओं के चर्चित होने के बाद आंदोलन करते दिखते लोगों को अभी इस सवाल से जूझना बाकी है कि दहेज से लेकर दूसरे तमाम घरेलू हिंसा और भेदभाव और दोयम दरजे पर आधारित समूची सामाजिक दृष्टि ही जहां मीसोजीनिस्ट, यानी स्त्री विरोधी हो, वहां एक बलात्कार को स्त्री की कोई एकमात्र पीड़ा मान कर कैसे इसके खिलाफ लड़ा जाएगा और क्या हासिल कर लिया जाएगा। वैसे जिस सामाजिक ढांचे में हम रहते हैं, उसमें हिंसा की हाइरार्की पर अलग से बात करने की जरूरत है।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>बहरहाल</b></span></span>, जस्टिस कबीर ने दस साल की एक दलित बच्ची के बलात्कार और उसे जिंदा जला देने की घटना का जिक्र किया। सोलह दिसंबर के ही एक दिन बाद बिहार के सहरसा जिले के बेलरवा गांव में भी एक आठ साल की दलित बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, उसके पांव और गर्दन तोड़ दिए गए, फिर उसे मार कर एक पोखर में फेंक दिया गया। कहीं ज्यादा वीभत्सता और बर्बरता के बावजूद उसी दौरान बलात्कार के खिलाफ धधकती ज्वाला में इन बच्चियों की त्रासदी को रत्ती भर भी जगह देने लायक नहीं समझा गया। हाशिये के बाहर मर-जी रहे समुदाय की महिलाओं-बच्चियों के साथ ये बर्बरताएं रोजाना की हकीकत हैं, मगर हमारे "आंदोलनकारी" वीर-बहादुरों के लिए ये कोई मुद्दा नहीं है या फिर "सेलेक्टिव" होना उनकी मजबूरी है। और जाहिर है, फिर सरकार को इस बात की फिक्र क्यों होगी!<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>इस</b></span></span> सवाल का जवाब वक्त मांगेगा कि दिल्ली की घटना के बाद राजधानी में राजपथ पर उमड़ी भीड़, मीडिया, नारीवादियों के संगठन और स्त्री अधिकारों के झंडाबरदार दूसरी तमाम महिला संगठनों की निगाह में सकली देवी की त्रासदी "इग्नोरेबल" क्यों रही? एक पिछड़े हुए राज्य के गुमनाम-से गांव में हाशिये पर मर-जी रही सकली देवी गरीब थी, दलित थी! शायद इसीलिए सकली देवी इस समाज की बेटी, बहन या मां नहीं हो सकती, दामिनी, अमानत या निर्भया नहीं हो सकती, स्त्री की त्रासदी का प्रतिनिधि मामला नहीं हो सकती है और देश का चेहरा होना तो न कभी मुमकिन रहा है, न शायद कभी होगा...!!!<br />
<br />
<span style="background-color: #eeeeee;"><b>चलते-चलतेः</b></span><br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;">दिल्ली</span></span></b> में पांच साल की बच्ची के साथ हुई बर्बरता का आरोपी बिहार के मुजफ्फरपुर जिले का निकला, इसलिए बिहार के सुशासन बाबू मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी घटना पर अपने दुखी मन का इजहार किया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार साहब ने कहा कि दिल्ली की घटना बर्बर है, इसने मानवता को शर्मसार किया है और अपराधी को सबसे सख्त सजा दी जानी चाहिए। इसी तरह उनके उप-साहब उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने भी कहा कि यह घटना मानवता पर कलंक है। दोनों ने अपने "भीतर की मानवीय संवेदना" का जो उदाहरण पेश किया है, उसके लिए इनके प्रति आभारी होना चाहिए, इनकी तारीफ की जानी चाहिए! लेकिन ये दोनों वही साहब हैं जिनकी संवेदना पर मुजफ्फरपुर के मंडई गांव में सकली देवी के साथ बर्बर बलात्कार और उसकी हत्या से कोई फर्क नहीं पड़ा और पटना के सामूहिक बलात्कार एक एमएमएस कांड से लेकर सहरसा तक के दर्जनों वीभत्स और बर्बर बलात्कार के मामलों पर कभी शर्म नहीं आई! क्यों? मंडई में उनकी पुलिस ने जो किया, उस पर भी उन्हें शर्म नहीं आई और दुःखी होना जरूरी नहीं लगा। क्यों? अक्सर औपचारिकता वह परदा होती है, जिसके तले तमाम पाखंडों को निबाहना आसान होता है...!!!
</div>
</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-60438366082898931152013-04-01T08:28:00.000-07:002013-04-03T00:08:53.172-07:00"असली मर्द" चेतन भगत को "मेन्स डे" की जरूरत है...!!!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<span style="color: red;"><span style="font-size: large;">चेतन भगत के नाम खुला पत्र... </span></span> <br />
<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>प्यारे चेतन भगत जी,</b></span><br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyECQCC37iqM9TR3YjeXmWnQwH0SvkppRWRNjwqAWZEXR-iGeqbIOmwpvDfnwCPM9jDkXI1SpTMKvWo4hv285qC1zn_h8t5q5Ok2K1BZwChDTn1ETAkP7SnavIvJbg71ub9BuOnpO19mQ/s1600/modi-chetan-bhagat.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyECQCC37iqM9TR3YjeXmWnQwH0SvkppRWRNjwqAWZEXR-iGeqbIOmwpvDfnwCPM9jDkXI1SpTMKvWo4hv285qC1zn_h8t5q5Ok2K1BZwChDTn1ETAkP7SnavIvJbg71ub9BuOnpO19mQ/s320/modi-chetan-bhagat.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>अंतरराष्ट्रीय</b></span> महिला दिवस के हिसाब से उसके एक
दिन पहले महिलाओं के नाम लिखे गए आपके खुले चिट्ठीनुमा उपदेश <a href="http://www.bhaskar.com/article/ABH-happy-womens-day-4200139-NOR.html" target="_blank">"महिलाओं को बड़े सपने देखना चाहिए"</a> पढ़ने का मौका मिला। मैं आपके इस उपदेश-खंड के लिए उपमा तलाश रहा था कि
मुझे वह पुरानी उक्ति याद आई कि "नया में आके साधु बने तो पानी को बोले
जल...!" आप सोच रहे होंगे कि ये मैंने कौन-सा तुक्का कहां से जोड़ा! दरअसल,
उपमाओं की सुविधा यह होती है कि आप अपनी सुविधा से किसी विचार या स्थिति
की व्याख्या को सहज बनाने के लिए इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। इस लिहाज से
देखें तो अपने उपदेश-अध्याय में आपने महिलाओं को जो कई सलाह पेश किए, उस
क्रम में न सिर्फ आपके व्यक्तित्व का "पुरुष" सिर कर चढ़ बोलता दिखा, बल्कि
चुपके-से आपने अपने प्रवचन में ऐसे खेल किए जो प्रथम दृष्ट्या प्रगतिशीलता
का स्वागत लगता है, मगर वास्तव में मुक्ति और अपनी अस्मिता के लिए
जद्दोजहद करती स्त्री को "डिग्रेड" करता है, उसे खारिज करता है और उसकी
खिल्ली उड़ाता है।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>लेकिन</b></span> इसमें नया क्या है! कुछ समय पहले आपकी एक किताब <a href="http://www.rediff.com/news/slide-show/slide-show-1-erotic-promo-of-chetan-bhagats-new-book/20120121.htm" target="_blank">"रिवोल्यूशन- 2020" का विज्ञापन</a> प्रसारित हुआ था। यहां आपको नहीं, जरा अपनी भुलक्कड़ जनता को याद दिलाना
चाहिए। एक लड़का बेडरूम में बिस्तर पर लेटा आपकी किताब पढ़ रहा है। कमरे
में एक युवती आती है, अदाएं बिखेरती हैं, एक-एक कर अपने सारे कपड़े उतार
देती है, लड़के को "आमंत्रित" करती है। लेकिन यह सब देखता हुआ लड़का किताब
में "मगन" है और उस युवती की उपेक्षा करता है। युवती हार कर लड़के के बगल
में लेट जाती है और वह भी किताब के पन्नों को देखने लगती है। अपनी किताब के
प्रचार के लिए स्त्री के "व्यक्ति" पक्ष को इतना डि-ग्रेड करना, अपमानित
करना शायद आपसे ही संभव था भगत जी! जबकि आपको पता होगा कि आपकी किताबों का
सबसे बड़ा पाठक वर्ग युवा महिलाएं ही हैं और शायद इसीलिए आप संदर्भ दूसरा
देते हैं, मगर घोषणा करते हैं "अधिकांश भारतीय महिलाएं भावनात्मक रूप से
मूर्ख होती है।" मेरा मानना है कि मूर्खता की आपकी परिभाषा पर जिस दिन उनका
ध्यान जाएगा तो वे सबसे पहले आपकी किताबों को ही कूड़े में डालेंगी। <br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">आपकी</span></b> किताब में क्या है, था, इस पर सिर खपाना अपनी ही बेवकूफी का
विज्ञापन होगा। लेकिन एक बचकाना-सा सवाल आपसे है भगत महोदय कि क्या आप अपनी
"किताब" के विज्ञापन में लड़के और लड़की की जगह अदला-बदली नहीं कर सकते
थे? मुझे लगता है कि नहीं कर सकते थे। मैने कई "माइसोजिनिस्टों" को अपनी
स्वीकार्यता के प्रसार के लिए "प्रोग्रेसिव" चोला ओढ़े देखा है। लेकिन
आखिरकार मामला नजरिये या "माइंडसेट" का होता है, जिससे वह व्यक्ति संचालित
होता है। बस उसकी चाल पर थोड़ी-सी नजर रखी जाए और किसी वक्त एक पेड़ की आड़
में होकर धीरे-से "हुआं" कर दिया जाए! वह खुद-ब-खुद "हुआं-हुआं..." गाना
शुरू कर देगा।<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">बहरहाल, </span></b>आपकी इस चिट्ठी को पढ़ने के बाद साफ हो जाता है कि आपने इसे
लिखने के पहले खूब तैयारी की, एक-एक बिंदु पर खूब सोचा और फिर अपनी "तलवार"
के साथ-साथ एक बहुत मजबूत-सी ढाल का भी प्रदर्शन किया जो आखिरकार एक
लिजलिजा परदा भर साबित हुआ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>यह</b></span> आपके लिए शायद नई बात होगी कि सामाजिक इतिहास में प्राकृतिक
बाध्यताओं का फायदा उठा कर पुरुष ने स्त्री पर कब्जा जमाया तो उसे एक विधान
का शक्ल देना भी उसे जरूरी लगा होगा। सो, वेदों-शास्त्रों को खींचते हुए
उसने (मनु)- स्मृति तक सफर तय किया। आपकी "प्रगतिशील" बातें उन्हीं
"स्मृतियों" का आधुनिक रूपांतर लगती हैं। इस आधुनिक कहे जाने वाले वक्त में
अपने "प्राचीन स्वरूप में स्मृतियां" जिंदा रह भी कैसे सकती थीं! उस
प्राचीनता में आधुनिकता की छौंक जरूरी थी। सो, यह आपके चेहरे के जरिए भी
संभव हुआ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>दरअसल,</b></span> सामाजिक सत्ताओं की शक्ल में कायम कोई भी व्यवस्था इसी तरह
चेहरे बदल कर व्यवस्था विरोधी तत्त्वों के बीच घुसती है और फिर उसकी
कमजोरियों का फायदा उठा कर उसे अपने कब्जे में ले लेती है। इसी सूत्र को
आजमाते हुए आपने भी ऐसी ही घुसपैठ की कोशिश की है। आप जानते हैं कि आपको
इसका मौका कैसे और क्यों मिला। यह सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी अपने सहज
ज्ञान से आकलन कर सकता है कि किसी भी रास्ते महंत बन जाया जाए, उसके बाद
प्रवचन सामाजिक विशेषाधिकार हो जाते हैं। तो अपने महंत बनने का रास्ता भी
आप अच्छी तरह जानते होंगे!<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">वैसे </span></b>आप तो यह भी जानते ही होंगे कि "मैज़ोकिज्म" के अभ्यस्त बना दिए
गए हमारे समाज में जो लोग इसका शिकार होते हैं, उनसे सबसे पहले उनका
अस्तित्व ही छिन जाता है। त्रासदी यह कि इसका उसे पता भी नहीं चल पाता।
तमाम धर्माधिकारियों की सत्ता इसी सूत्र की वजह से खड़ी होती है, पलती और
मोटाती है।<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">कुछ</span></b> "लोकप्रिय" किताबों के "लोकप्रिय" होने और फिर आपके "मशहूर" होने
के बाद कुछ अखबारों ने आपका नाम अधिक बिक्री योग्य समझा और आपके कॉलम भी
"लोकप्रिय" होने लगे। फिर जब आपने गुजरात जनसंहार के नायक की आरती गाना और
उसके साथ फोटू खिंचवाना शुरू किया तो सामाजिक सत्ता-केंद्रों को आपको महंत
के तौर पर कबूल करने में कोई उज्र नहीं हुआ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>एक</b></span> स्वघोषित महंत पहले जबर्दस्ती प्रवचन देता है, फिर मजबूरी की
स्वीकृति के बाद उससे प्रवचन मांगे जाने लगते हैं। भगत जी! मुमकिन है कि आप
इस प्रक्रिया को समझते नहीं हों, लेकिन चूंकि इससे गुजर रहे हैं, इसलिए
थोड़े रोमांचित जरूर होते रहे होंगे।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>बहरहाल,</b></span> आप थोड़े दया के पात्र इसलिए भी हैं कि महिलाओं के लिए अपने
उपदेश जारी करते हुए आप लगभग शुरू में यह बताते हैं कि आप सौ फीसद और चौबीस
कैरेट मर्द हैं और घोषणा करते हैं "जोखिम उठाना (हम) मर्दों के लिए कोई
नई बात नहीं है।" आपकी इस बात पर मेरे कान में दो-तीन बातें गूंजने लगीं-
"जबर्दस्ती महंत बनना "मर्दों" के लिए कोई नई बात नहीं है...!", " हर मामले
में अपनी नाक घुसेड़ना "मर्दों" के लिए कोई नई बात नहीं है...!", "अपनी
रीढ़ को किसी के हाथों गिरवी रख देना "मर्दों" के लिए कोई नई बात नहीं
है...!"<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">खैर,</span></b> आपने महिलाओं के लिए जो पांच सलाह जारी किए, वे इस प्रकार शुरू
होती हैं- "महिलाओं को दूसरी महिलाओं के बारे में राय बनाने की उत्कट इच्छा
होती है; स्कर्ट पहनी किसी लड़की को देख कर महिलाओं के दिमाग में उनके
चरित्र को लेकर शंकाएं पैदा होने लगती हैं, जबकि वे खुद भी हर पैमाने पर
परफेक्ट नहीं हैं; वे दूसरी महिलाओं को खुल कर सांस लेने का मौका नहीं
देतीं।"<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>तो</b></span> भगत जी, अव्वल तो किसी भी मूर्ख को आपकी इन बातों पर मुग्ध होना
चाहिए। लेकिन आप जब इस तरह स्थापनाएं प्राकृतिक सत्य की तरह "उदघाटित" कर
रहे हैं तो क्या आपने कभी ये सोचने की जहमत उठाई कि अगर ऐसा है तो इसकी
जड़ों में क्या वजहें हो सकती हैं? चलिए, आपने जो कहा, मैं उसे थोड़ा
स्पष्ट करता हूं। हिंदू समाज में दहेज के लिए जिन महिलाओं को मार डाला जाता
है, उसमें आमतौर पर सबसे बड़ी भूमिका सास और ननद की होती है। तो आपके
फार्मूले के हिसाब से ये हुआ कि महिलाएं ही महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन
हैं। लेकिन चूंकि आप महंत जी हैं, इसलिए आप स्त्री के उद्धार को लेकर फतवा
जारी कर सकते हैं और किसी स्त्री के "परफेक्टनेस" के पैमानों की घोषणा कर
सकते हैं। ऐसी स्थिति में आपसे यह समझने की उम्मीद करना बेवकूफी होगी कि
दहेज के लिए बहू को प्रताड़ित करने या मार डालने में सहयोग करती हुई वह सास
या ननद दरअसल उन पितृसत्तात्मक मूल्यों को ही जी रही होती हैं जो पैदा
होने के बाद उनके दिमाग में ठूंसी जाती रही हैं, उसी के तहत उसकी कंडीशनिंग होती है। यह भी शायद आपके लिए नई
बात होगी कि पितृसत्ता एक संस्कृति है, जिसमें पलने-बढ़ने वाला कोई भी
व्यक्ति उन्हीं मूल्यों को जीएगा, उसी माइंडसेट से संचालित होगा- वह पुरुष
हो या स्त्री।<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">और</span></b> इसीलिए पितृसत्ता सवालों की दुश्मन है। स्त्री के दिमाग में अपनी
त्रासदी को लेकर प्रश्न पैदा हो, इससे पहले ही वह उसे दफन करने का हर
इंतजाम करती है। बल्कि त्रासदियों का महिमामंडन और इन पर गर्व करने की
साजिशों का सफल खेल अगर देखना हो तो खासतौर पर भारतीय हिंदू पितृसत्ता का
अध्ययन करना चाहिए। इतनी सहज और साधारण बात अगर आपकी समझ में नहीं आई तो यह
स्वाभाविक ही है और आपसे इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मनोविज्ञान को समझ
पाने की उम्मीद करना आपके साथ थोड़ी ज्यादती होगी!<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">आपकी</span></b> इसी बेवकूफी से आपकी दूसरी सलाह पैदा होती है कि स्त्रियां
पुरुषों के अहं को तुष्ट करने के लिए तत्काल तैयार हो जाती हैं; पुरुषों के
चुटकुलों पर हंसती हैं; ऑफिस में मर्दों के मुकाबले कम महत्त्वपूर्ण काम
करने के लिए तैयार हो जाती हैं; और सामूहिक रूप से समानता की मांग का कोई
मतलब नहीं है, अगर कोई स्त्री व्यक्तिगत स्तर पर पुरुषों को खुश करने के
लिए खुद को कमतर और नासमझ दिखाने को तैयार रहती हैं। इसी में आपका तीसरा
उपदेश भी जुड़ा हुआ है कि महिलाएं संपत्ति के अपने वैधानिक अधिकार को अपने
भाई-बेटे या पति के लिए "छोड़ देती हैं।" इसकी वजह आपकी निगाह में यह है कि
"अधिकांश भारतीय महिलाएं भावनात्मक रूप से मूर्ख होती हैं।"<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>दिलचस्प</b></span> है! जिस व्यक्ति को इस समाज की सत्ता-संरचना, इसकी बुनियाद पर
तैयार होने वाले सामाजिक मनोविज्ञान और व्यक्ति की चेतना के लिए जिम्मेदार
सामाजिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी नहीं लगता, लेकिन वह यह फतवा जारी करने
में आगे रहना चाहता है कि कोई व्यक्ति या समूह मूर्ख है। तो उसकी दयनीयता
की वजह समझी जा सकती है।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>भगत जी, </b></span>किसी भी समाज से लेकर किसी दफ्तर में "पावर" और "पोजीशन" के
संबंध और कार्य-व्यवहार पर उसके असर के बारे में आपने कभी सोचा है? अजी
छोड़िए! ये भी क्या सवाल कर लिया आपसे! अगर आपने सोचा ही होता तो क्या बात
थी! बहरहाल, भगत साहब, "पद" और "हैसियत" एक ऐसी "ताकत" है, जिसके बूते किसी
भी मातहत या सहयोगी को मानसिक दबाव की स्थिति में लाया जा सकता है। खासतौर
पर आपकी महान भारतीय परंपरा में केवल दफ्तरों में नहीं, बल्कि समाज में हर
कदम पर "पद" और "हैसियत" आमतौर पर खुद से एक क्रम "नीचे" वाले को निगल कर
ही अपनी सत्ता बचाए रखता है। वहां स्त्री हो या पुरुष, हर जतन से उसे तुष्ट
करने की स्वाभाविक कोशिश करेंगे, ताकि खुद को ज्यादा से ज्यादा वक्त तक
बचाए रख सकें।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>जहां </b></span>तक पुरुषों के मुकाबले कम महत्त्वपूर्ण काम करने के लिए तैयार हो
जाने का सवाल है, तो प्यारे भगत जी, जरा पता कीजिएगा कि किसी भी ऑफिस में
सक्षम होने के बावजूद किसी स्त्री को कम महत्त्व के काम ही क्यों सौंपे
जाते हैं; कई जगहों पर बराबर महत्त्व और मेहनत के काम के एवज स्त्री को कम
मेहनताना क्यों दिया जाता है। अगर किसी स्त्री को महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी
दी जाती है तो वे कहां कमतर साबित होती हैं और तब उसके पुरुष मातहत या
सहयोगियों का रवैया कैसा रहता है? पुरुषों के "शाही अहं" से क्या आप इतने
अनभिज्ञ हैं, प्यारे भगत जी! ऐसा लगता तो नहीं है!<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><b>आपकी</b></span> इस बात में किसी मजेदार लतीफे-सा असर है कि सामूहिक रूप से समानता
की मांग बेमानी है, अगर कोई स्त्री व्यक्तिगत स्तर पर पुरुषों को खुश रखने
के लिए खुद को कमतर आंकती है। आपको यह सोचना जरूरी क्यों लगे कि निजी स्तर
पर खुद को किसी के सामने कमतर आंकना एक व्यक्ति की मजबूरी भी हो सकती है।
लेकिन अगर वही व्यक्ति सामूहिक रूप से समानता की मांग करता है तो इसका मतलब
यह है कि चेतना के स्तर पर वह अपनी स्थिति को लेकर एक पायदान ऊपर चढ़ चुका
है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। निजी स्तर पर विरोध की सीमाओं के कारण
ही कोई व्यक्ति सामूहिक स्तर पर उठाई जाने वाली आवाज में शामिल होता है।
सामूहिक रूप से समानता की मांग के असर में अगर एक समानता आधारित व्यवस्था
की बुनियाद पड़ती है तो व्यक्ति का व्यवहार खुद-ब-खुद उससे निर्धारित होगा,
बदलेगा। यह द्विपक्षीय भी हो सकता है। इसलिए सामूहिक और वैयक्तिक व्यवहार
को एक तराजू पर हर बार नहीं तोला जा सकता। लेकिन आप चूंकि महंत जी हैं,
इसलिए आपको किसी भी मसले के "क्यों" पर सोचना जरूरी नहीं लगता और सीधे तौर
पर संपत्ति छोड़ने वाली महिलाओं आप भावनात्मक तौर पर मूर्ख घोषित कर दे
सकते हैं। बजाय इसके कि भाई-बेटे, पति या "इमोशनल ब्लैकमेलिंग" पर आधारित
पितृसत्तात्मक मनोविज्ञान पर भी जरा विचार कर लें।<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">बहरहाल,</span></b> जब आप अपनी चौथी सलाह में कहते हैं कि हमारी सामाजिक संरचना ही
शायद ऐसी है कि महिलाओं को पुरुषों की तरह महत्त्वाकांक्षी बनने के लिए
प्रोत्साहित नहीं किया जाता, तो एकबारगी ऐसा लगता है कि आप अगर कोशिश करें
तो सोच सकते हैं। मगर अपने अगले और आखिरी उपदेश में जब आप महिलाओं को अपनी
अहमियत पहचानने के लिए शिव खेड़ा और स्वेट मार्टन टाइप फार्मूले बताते हैं,
तो पेट पकड़ कर हंसने का मन करता है। फिर जब आप अपने श्रीमुख से घोषित
"भावनात्मक रूप से मूर्ख महिलाओं" के लिए अपने उपदेशों से उपजने वाले संकट
का अंदाजा लगा कर अपनी बातों का मतलब और उसके पीछे की भावना को समझने की
गुहार लगाते हैं तब जाकर पता लगता है कि मूर्खता दरअसल होती क्या चीज है!<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;">और </span></b>भगत जी, आखिर में मैं आपको एक उपदेश देना चाहूंगा। आज की जिस स्त्री
को आपने संबोधित किया है, वे दरअसल उतनी मूर्ख नहीं रह गई हैं कि आपकी
बेसिरपैराना महंतई प्रवचनों के हिसाब से अपनी जिंदगी का फलसफा गढ़ें। वे
अपने बूते एक नई जमीन, नई दुनिया रच रही हैं। आप जैसे पितृसत्ता के चौबीस
कैरेट मर्द एजेंट के लिए कोई संकट खड़ा करने में वे अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं
करेंगी, जिसकी आशंका आपने जताई है। जाहिर है, आने वाले वक्त की स्त्री जो
दुनिया गढ़ने वाली है, उसमें अपने बचाव के लिए आप चाहें तो अपने मित्र
नरेंद्र मोदी से किसी "मेन्स डे" की व्यवस्था की गुहार लगा सकते हैं, जिसके
न होने का डर आपने जाहिर किया है!<br />
<br />
<span style="color: red;"><span style="background-color: #fff2cc;"><b>शुक्रिया...</b></span></span></div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-26017588876801628932013-02-22T06:44:00.000-08:002015-12-25T10:02:08.364-08:00रसूख वाले बलात्कारी नहीं होते... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<i>केरल के सूर्यानेल्ली में लगातार चालीस दिनों तक बयालीस वहशी धोखेबाज
मर्दों ने बर्बरता की सारी हदें पार कर सूर्यानेल्ली की उस सोलह साल की
बच्ची को जैसे चाहा रौंदा था और लगभग मर जाने के बाद उसके घर के आसपास फेंक
दिया था। वह किसी तरह बच गई और आज तैंतीस साल की उम्र में भी वह अपने
आसपास के अंधेरों का सामना करती हुई अपनी लड़ाई को अंजाम देने के लिए अपने
बूते खड़ी है, हर अगले पल अपने सामने एक शैतानी साम्राज्य से लड़ते हुए। हां, वह मेरी
हीरोईन है, वह सबकी नायिका है।<br />
<br />फिलहाल हकीकत यह है कि दूरदराज के इलाकों में होने वाली ऐसी तमाम
घटनाएं हमारी संवेदना को नहीं झकझोर पाती हैं। सवाल करने वाले कर रहे हैं
कि क्या हम केवल तभी परेशान होते हैं जब कोई घटना देश की राजधानी में हो,
हमारे अपने वर्ग से जुड़ी हो। वरना दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्कार की
घटना के बाद इंडिया गेट के व्यापक आंदोलन से निकले संदेश के बीच इसी दौर
में बिहार में सहरसा जिले के एक गांव में किसी दलित और मजदूर परिवार की आठ
साल की बच्ची के साथ या मुजफ्फरपुर के मंडई गांव में एक दलित महिला के साथ
देश के दूरदराज के इलाकों में सामूहिक बलात्कार करके बर्बरता की सारी हदें
पार कर मार ही डाला जाता है... और इस तरह की तमाम घटनाएं अपनी त्रासदी के
साथ लगातार घट ही रही हैं। लेकिन हमारे भीतर कभी भी गुस्सा पैदा नहीं
होता... किसी टीवी वाले को इन घटनाओं पर लोगों को आंदोलित करने की जरूरत
नहीं पड़ती... इंडिया गेट पर कभी शोक में डूबी मोमबत्तियां नहीं जलाई
जातीं...!<br />
<br />केरल में सूर्यानेल्ली की यह लड़की किसी तरह जिंदा बच गई थी। अगर देश
के सुप्रीम कोर्ट ने दफन कर दिए गए मुकदमे पर सवाल नहीं उठाया होता तो
इसमें भी अदालतों ने चुपचाप सभी अपराधियों को पवित्र ब्रह्मचारी घोषित कर
ही दिया था। इसके बावजूद इस देश की महान पार्टी कांग्रेस के एक महान और
"पवित्र" सांसद पीजे कूरियन यह कहते रहे कि उनके खिलाफ झूठा प्रचार किया जा रहा है। इस देश में सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी
कूरियन का झंडा उठा कर कूद रही थी... सत्ता की दावेदार एक पार्टी अपनी इस
बात की फिक्र को दूर करने की फिराक में लग रही कि उसके पूरे गिरोह को 'भगवा
आतंकवाद' के आरोप से मुक्त कर दिया जाए...। <br />
<br />इस मामले में एक अपराधी धरमराजन ने बाकायदा टीवी चैनल पर यह कहा था कि
"मैंने पूछताछ के दौरान डीआईजी सिबी मैथ्यू को सब कुछ सच-सच बता दिया है,
लेकिन उन्होंने मुझे कूरियन का नाम लेने से मना किया; आज मैं इसलिए सच बता
रहा हूं, क्योंकि मैं उस लड़की के लिए दुखी हूं; मैंने काफी बर्दाश्त कर
लिया; अब मुझे इस बात की फिक्र नहीं कि आगे मेरे साथ क्या होगा; लेकिन सच
सामने आना चाहिए; आज समूची दुनिया सोचती है कि मैं ही एक शैतान था; मैंने
कूरियन को कुमिली आने के लिए नहीं कहा था, वे एक दूसरे कांग्रेसी नेता के
लड़की के मेरे कब्जे में होने की खबर पाकर गए थे।<br />
<br />इतना साफ-साफ और सोच-समझ कर सब कुछ बताने के बाद अब वह एक बार फिर अपने
बयान से मुकर गया और निचली अदालतों के साथ-साथ केरल हाईकोर्ट तक ने उस
लड़की की यह फरियाद खारिज कर दी कि कूरियन को कठघरे में खड़ा किया जाए,
क्योंकि वे कांड में शामिल थे। इसके पीछे के खेल का अंदाजा लगाना मुश्किल
नहीं है। इन हालात में यह उम्मीद करना बेमानी है कि इस लड़की की फरियाद
किसी अदालत में सुनी जाएगी। फिर भी आखिरी हार तक एक उम्मीद की जाएगी, उस
सुप्रीम कोर्ट से, जिसके आदेश पर एक बार फिर यह मामला खुल सका था।<br />
<br />बहरहाल, इस मामले में आगे क्या होगा, सभी अपराधी एक बार फिर से
पवित्रीकरण की प्रक्रिया से गुजरेंगे या फिर सूर्यानेल्ली की लड़की पर ढाए
गए जुल्म की सजा पा सकेंगे, यह हमारी व्यवस्था, अदालतों, राजनीतिक दलों के
रुख पर निर्भर करेगा। लेकिन इसी के साथ राजधानी दिल्ली और ताकतवर
मध्यवर्गीय संवेदनाओं से उपेक्षित ऐसी तमाम घटनाएं एक बार फिर सचमुच की
समाजी और इंसानी संवेदनाओं की परीक्षा की कसौटी पर भी गुजरेंगी...। रोजाना
के अनगिनत ऐसे मामलों की तरह... ।<br />
</i><i>17 फरवरी 2013 टाइम्स ऑफ इंडिया में सूर्यानेल्ली की लड़की की यह पीड़ा उसी के शब्दों में प्रकाशित हुई थी। अनुवाद करने की कोशिश मैंने ही की है। अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं है। इसलिए जहां भी जरूरी लगे, एक बार <a href="http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2013-02-17/special-report/37144142_1_identification-parade-school-girl-nirbhaya" target="_blank">इस लिंक</a><a href="http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2013-02-17/special-report/37144142_1_identification-parade-school-girl-nirbhaya" target="_blank"> </a>पर क्लिक कर लीजिएगा, लेकिन पढ़िएगा जरूर... </i><span style="color: red;"><b><span style="font-size: large;"> </span></b></span><br />
<br />
<br />
<span style="color: red;"><b><span style="font-size: large;">मैं सचमुच अपने पहले प्यार का कत्ल कर देना चाहती थी...</span></b></span><span style="font-size: large;"><b> </b></span><b><span style="font-size: small;"><span style="font-size: small;"> </span></span></b><br />
<br />
<br />
<b><span style="font-size: small;"><span style="font-size: small;">-</span> सूर्यानेल्ली की लड़की</span></b><br />
<br />
आपने शायद कभी मेरा नाम नहीं सुना हो! मुझे उस पहचान के साथ नत्थी कर दिया है, जिससे मैं छुटकारा नहीं पा सकती- मैं सूर्यानेल्ली की लड़की हूं। पिछले सत्रह (अब उन्नीस) सालों से मैं इंसाफ पाने की (एक हारी हुई) लड़ाई लड़ रही हूं। कुछ लोग मुझे बाल-वेश्या कहते हैं तो कुछ पीड़ित। लेकिन किसी ने मुझे दामिनी, निर्भया या अमानत जैसा कोई नाम नहीं दिया। मैं कभी भी इस देश के लिए गर्व नहीं बन सकती! या उस महिला का चेहरा भी नहीं, जिसके साथ बहुत बुरा हुआ।<br />
<br />
मैं तो स्कूल में पढ़ने वाली सोलह साल की एक मासूम लड़की भी नहीं रह सकी, जिसे पहली बार किसी से प्यार हो गया था। लेकिन उसी के बाद उसने अपनी जिंदगी ही गंवा दी। अब तैंतीस साल की उम्र में मैं रोज डरावने सपनों से जंग लड़ रही हूं। मेरी दुनिया अब महज उस काली घुमावदार सड़क के दायरे में कैद है जो मेरे घर से चर्च और मेरे दफ्तर तक जाती है।<br />
<br />
लोग अपनी प्रवृत्ति के मुताबिक मुझ पर तब तंज कसते हैं जब मैं उन चालीस दिनों को याद करती हूं, जब मैं सिर्फ एक स्त्री शरीर बन कर रह गई थी और जिसे वे जैसे चाहते थे, रौंद और इस्तेमाल कर सकते थे। मुझे जानवरों की तरह बेचा गया, केरल के तमाम इलाकों में ले जाया गया, हर जगह किसी अंधेरे कमरे में धकेल दिया गया, मेरे साथ रात-दिन बलात्कार किया गया, मुझे लात-घूंसों से होश रहने तक पीटा गया।<br />
<br />
वे मुझसे कहते हैं कि मैं कैसे सब कुछ याद रख सकती हूं, और मैं हैरान होती हूं कि मैं कैसे वह सब कुछ भुला सकती हूं? हर रात मैं अपनी आंखों के सामने नाचते उन खौफ़नाक दिनों के साथ किसी तरह थोड़ी देर एक तकलीफदेह नींद काट लेती हूं। और मैं एक अथाह अंधेरे गहरे शून्य में बार-बार जाग जाती हूं जहां घिनौने पुरुष और दुष्ट महिलाएं भरी पड़ी हैं।<br />
<br />
मैं उन तमाम चेहरों को साफ-साफ याद कर सकती हूं। सबसे पहले राजू आया था। यह वही शख्स था, जिसे मैंने प्यार किया था और जिस पर भरोसा किया था। और उसी ने मेरे प्यार की इस कहानी को मोड़ देकर मुझे केरल के पहले सेक्स रैकेट की आग में झोंक दिया। रोजाना स्कूल जाने के रास्ते में जिस मर्द का चेहरा मेरी आंखें तलाशती रहती थीं, वही उनमें से एक था जिसे मैंने शिनाख्त परेड में पहचाना था और अदालत के गलियारे में मेरा उससे सामना हुआ। उन दिनों... मैं सचमुच उसका कत्ल कर देना चाहती थी। हां... अपने उस पहले प्रेमी का...।<br />
<br />
लगभग मरी हुई हालत में उन्होंने मुझे मेरे घर के नजदीक फेंक दिया। लेकिन मेरे दुख का अंत वहीं नहीं हुआ। मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा था। मैंने यह सोच कर मुकदमा दायर किया कि ऐसा किसी और लड़की के साथ नहीं हो। मैंने सोचा कि मैं बिल्कुल सही कर रही हूं। लेकिन इसने मेरे पूरे भरोसे को तोड़ दिया। मेरे मामले की जांच के लिए जो टीम थी, वह मुझे लेकर राज्य भर में कई जगहों पर गई। उसने मुझे अनगिनत बार उस सब कुछ का ब्योरा पेश करने को कहा जो सबने मेरे साथ किया था। उन्होंने मुझे इस बात का अहसास कराया कि एक औरत होना आसान नहीं है, वह पीड़ित हो या किसी तरह जिंदा बच गई हो।<br />
<br />
मेरे लिए यह राहत की बात है कि दिल्ली की उस लड़की की मौत हो गई। वरना उसे सभी जगह ठीक वैसे ही अश्लील सवालों से रूबरू होना पड़ता जो उसे उस खौफनाक रात को भुगतना पड़ा। इसकी वजह बताने के लिए उसे बार-बार मजबूर किया जाता। और अकेले बिना किसी दोस्त के वह अपनी ही छाया से डरती हुई जिंदगी का बाकी वक्त किसी तरह काटती।<br />
<br />
मेरा भी कोई दोस्त नहीं। मेरे दफ्तर में कोई भी मुझसे बात नहीं करना चाहता। मेरे मां-बाप और कर्नाटक में नौकरी करने वाली मेरी बहन ही बस वे लोग हैं जो मेरी आवाज सुन पाते हैं। हां, कुछ वकील, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता भी।<br />
<br />
मैंने इन दिनों खूब पढ़ा है। फिलहाल केआर मीरा की एक किताब "आराचार" (द हैंगमैन) पढ़ रही हूं।<br />
<br />
मेरे परिवार के अलावा कोई भी नहीं जानता कि मैं अपनी गिरती सेहत को लेकर डरी हुई हूं। लगातार सिर दर्द, जो उन चालीस दिनों की त्रासदी का एक हिस्सा है जब उन्होंने मेरे सिर पर लात से मारा था। मेरे डॉक्टर कहते हैं कि मुझे ज्यादा तनाव में नहीं रहना चाहिए। और मैं सोचती हूं कि सचमुच ऐसा कर पाना दिलचस्प है।<br />
<br />
मेरा वजन नब्बे किलो हो चुका है। जब मैं अपनी नौकरी से नौ महीने के लिए मुअत्तल कर दी गई थी, उस दौरान मेरा ज्यादातर वक्त बिस्तर पर ही कटता था और इसी वजह से वजन भी बढ़ता गया। अब मैं कुछ व्यायाम कर रही हूं। पूरी तरह ठीक हो पाना एक सपना भर है। लेकिन कुछ प्रार्थनाएं मुझे जिंदा रखे हुए हैं।<br />
<br />
भविष्य पर मेरा यह यकीन अब भी जिंदा है कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैं हर सुबह और रात को प्रार्थना करती हूं। मैं नहीं पूछती कि फिर मुझे ही क्यों...! मैं उन दिनों भी उस पर भरोसा करती रही, जब मैं मुश्किल से अपनी आंखें खोल पाती थी या किसी तरह जिंदा थी। मैंने प्रार्थना की। मैं लैटिन चर्च से आती हूं जो कैथोलिक चर्च में सबसे बड़ा चर्च है। मगर पिछले सत्रह सालों से कहीं भी और किसी भी चर्च में मेरे लिए कोई प्रार्थना नहीं की गई। पवित्र मरियम को कोई गुलाब की माला अर्पित नहीं की गई और न ही कोई फरिश्ता अपने दयालु शब्दों के साथ मेरे दरवाजे पर आया।<br />
<br />
लेकिन मेरा भरोसा टूटा नहीं है। इसने मुझे हफ्ते के सातों दिन चौबीसों घंटे चलने वाले टीवी चैनल देखने की ताकत बख्शी है, जहां कानून के रखवाले मुझे बाल-वेश्या बता रहे हैं, और कुछ मशहूर लोग इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि मेरे मुकदमा टिक नहीं पाएगा। यहां तक कि जब मैं दफ्तर में वित्तीय धोखाधड़ी के मामले में फंसाई गई हूं और मेरे माता-पिता बहुत बीमार चल रहे हैं, तब भी मैं खुद को समझाती हूं कि यह भी ठीक हो जाएगा... एक दिन..!!!</div>
शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-67769300294214530712012-10-16T23:59:00.002-07:002012-10-17T00:31:41.053-07:00मानेसर-मारुति कांडः यकीनन साजिश, लेकिन किसकी...?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj512RjPZErqwwCRQ3uv0FdUh9ShU7vjfoBwkihEn8Lm2A5pkzc3oAtXllVe540I-Y9hAoHRcWHoVhcIY5qLeJMXwgk_XYk6MZej35oWfxwj_0lOeXb547EWR4dC95JSgOFfAWemx13tXY/s1600/marut-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="224" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj512RjPZErqwwCRQ3uv0FdUh9ShU7vjfoBwkihEn8Lm2A5pkzc3oAtXllVe540I-Y9hAoHRcWHoVhcIY5qLeJMXwgk_XYk6MZej35oWfxwj_0lOeXb547EWR4dC95JSgOFfAWemx13tXY/s320/marut-1.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>मौसम "खराब" हैः माओवादियों का हाथ है...</b></span></span><br />
<br />
हाल ही में एक अंग्रेजी टेबलायड ने अपने पहले पूरे पन्ने (इसके अलावा एक और लगभग पूरे पन्ने पर) पर बड़े अक्षरों में लीड स्टोरी छापी, जिसके रिपोर्टर ने खुफिया विभाग के हवाले से बड़े उत्साह के साथ बताया कि हरियाणा में मानेसर के मारुति फैक्ट्री में हुई हिंसा के पीछे माओवादियों का हाथ है। कुछ सत्ता-तंत्र के सुरक्षा विशेषज्ञों के सहारे मामले पर रोशनी डालते हुए रिपोर्टर ने लिखा कि यह दहलाने वाला खुलासा सिर्फ उन आशंकाओं की पुष्टि करता है, जो लंबे समय से जताई जा रही थी। रिपोर्टर के मुताबिक खुफिया एजेंसियों का मानना है के कि शहरी इलाकों में वामपंथी अतिवादियों का आधार फैल रहा है और दिल्ली और समूचा एनसीआर, या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (फरीदाबाद, गुड़गांव, गाजियाबाद, नोएडा आदि) इलाकों (मजदूरों की हकमारी और शोषण के अड्डे ) में तेजी से फैल रहे हैं। रिपोर्टर कहता है कि अब यह एक तथ्य है। जबकि शुरुआती दौर में हरियाणा पुलिस ने अपनी जांच में मानेसर की घटना में माओवादियों का हाथ होने की बात को खारिज कर दिया था। इस पर रिपोर्टर बड़े राहत-भाव के साथ लिखता है कि "आज यह साबित हो गया है कि वह (हरियाणा पुलिस) गलत थी।"<br />
<br />
यह अंदाजा लगाने में मुश्किल नहीं होना चाहिए कि सरकार किसके लिए काम करती है और क्या स्थापित करना चाहती है। पिछले डेढ़-दो दशक के दौरान आतंकवाद और माओवाद से निपटने के नाम पर किस कदर हिंसक और बर्बर खेल खेला गया है, यह किसी से छिपा नहीं है। जहां भी सरकार विफल होती है, अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाहती है, या हक और मांगों को खारिज करना या उसका दमन करना चाहती है, वह संबंधित पक्षों को आतंकवादी या माओवादी घोषित कर देती है, ताकि उनके मानवाधिकारों से जुड़े सारे सवाल अपने-आप खारिज हो जाएं और इनके खिलाफ किसी भी हद तक जाने को आम जनता तक सही मान ले।<br />
<br />
<b><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;">मनमोहनी उदारवादः सोचना बंद करो...</span></span></b><br />
<br />
तो क्या मानेसर-मारुति कांड, उसकी पृष्ठभूमि और उसके बाद के हालात को भारत में मनमोहनी नवउदारवाद की एक स्वाभाविक परिणति के संकेत के तौर पर देखा जा सकता है? और, क्या यह कांड यह समझने के लिए एक संदर्भ है कि पिछले दो दशकों में इस देश की सरकारों ने खालिस दुकानदार की तरह काम किया और एक दुकानदार आखिरकार दूसरे दुकानदार का पेट भरेगा और उसी की ओर से मोर्चा लेगा?<br />
<br />
यों इस मानेसर कांड के पहले भी हीरो होंडा से लेकर कई ऐसे मौके आए हैं जो सीधे नब्बे के दशक से जारी मजदूरों की दुश्मन सरकारों की कारगुजारियों का नतीजा थीं। लेकिन भारत की तमाम राजनीतिक-सामाजिक सत्ताओं को अपनी शासित "प्रजा" की लाचारी का शोषण करने और बगावतों से निपटने का सदियों पुराना अनुभव रहा है। इसलिए मजदूरों के असंतोष से खेलने और फिर उन्हें "निपटा" देने में उन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आती। इस लिहाज से मानेसर-मारुति कांड को भविष्य में एक पैमाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा, जिसमें निजी क्षेत्र में मजदूरों की ओर से खड़ी होने वाली सबसे जटिल चुनौती से निपटने का एक फार्मूला ईजाद किया गया है।<br />
<br />
यह फार्मूला एक तरह से इतना "फुल प्रूफ" था कि शायद ही किसी को ठीक उन बातों पर भरोसा नहीं हुआ जो मारुति के प्रबंधन और पुलिस ने लोगों के सामने परोसा। हालांकि उस वक्त भी कम से कम मानवीय लिहाज से एक बार यह सोचने की गुंजाइश बची थी कि जिन मजदूरों की निर्भरता वह फैक्ट्री है, वे उसे क्यों खाक करेंगे। लेकिन कुछ कर्मचारियों की पिटाई के अलावा एक एचआर मैनेजर को हाथ-पांव बांध कर जिंदा जला दिए जाने की घटना ने सोचने के सारे दरवाजे बंद कर दिए। खबरें सिर्फ उतनी सामने आ रही थीं जितनी प्रबंधन चाह रहा था। पुलिस से लेकर राज्य का समूचा तंत्र मारुति के सामने हाथ-पांव जोड़ने में लगा था।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>सौ लोगों की कारगुजारी...!</b></span></span><br />
<br />
खबर परोसने की तमाम साजिशें भुक्तभोगियों और मजदूरों के सीने में दफन हो जातीं, अगर विशेष जांच टीम के मुखिया और गुड़गांव पुलिस के एक डीसीपी महेश्वर दयाल का बयान (धोखे से सही) एक अंग्रेजी अखबार ने नहीं छाप दिया होता। नौ अगस्त 2012 के "टाइम्स ऑफ इंडिया" में डीसीपी (पूर्व), महेश्वर दयाल का बयान छपा कि <a href="http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-08-09/gurgaon/33118233_1_maruti-s-manesar-maruti-factory-haryana-police" target="_blank">"मारुति-मानेसर कांड में हुई सभी तरह की हिंसा को अंजाम देने वालों में ज्यादा से ज्यादा सौ लोग शामिल थे।"</a> प्रबंधन और पुलिस ने यह तादाद पहले बारह सौ, फिर बाद में साढ़े छह सौ मजदूरों की बताई थी।<br />
<br />
सवाल है कि अगर हिंसा को अंजाम देने वाली भीड़ की तादाद ज्यादा से ज्यादा सौ थी तो यह संख्या क्या संकेत देती है? खबरों की भीड़ में से ही किसी तरह कुछ लोगों की नजर घटना के बाद शुरुआती दौर में आई उस खबर पर जरूर गई होगी कि मारुति कंपनी ने 18 जुलाई की हिंसा के डेढ़-दो महीने पहले ही एक से डेढ़ सौ "बाउंसरों" की भर्ती की थी, ताकि वे फैक्ट्री के भीतर "सुरक्षा-व्यवस्था" बनाए रखें। 18 जुलाई को भी जब जियालाल को जातिसूचक गाली दी गई और बात के तूल पकड़ने पर पहली शिफ्ट के कामगार धरने पर बैठ गए तो उन "बाउंसरों" को इन मजदूरों को इर्द-गिर्द खड़ा कर दिया गया। इसके बाद की खबर बस यही है कि हिंसा शुरू हो गई और एक एचआर मैनेजर को जला कर मार डाला गया। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि गुड़गांव पुलिस की उपर्युक्त रपट में यह बताया गया कि स्थिति के बेकाबू होने के पहले पचास से ज्यादा की तादाद में पुलिसकर्मी फैक्ट्री में मौजूद थे। यानी सिर्फ सौ लोगों द्वारा की जा रही हिंसा को रोक सकने में पचास से ज्यादा पुलिसकर्मी अक्षम थे। डीसीपी दयाल का कहना है कि पुलिसवाले गेट के बाहर थे और "कामगार" उन्हें धक्का देकर परिसर मे घुस गए।<br />
<br />
पूरा मामला ही संदिग्ध लगता है।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>आइए कल्पना करें...</b></span></span><br />
<br />
चलिए, इसके बरक्स हम एक काल्पनिक दृश्य की रचना करते हैं। मारूति प्रबंधन, हरियाणा सरकार, पुलिस और अदालतें मेरे गढ़े गए इस दृश्य को महज खयाल और तुक्केबाजी मानें।<br />
<br />
तो दृश्य यह है कि जियालाल पर जातिगत टिप्पणी के बाद नाराज होकर धरने पर बैठे मजदूरों को धीरे-धीरे सुरक्षा के नाम पर "बाउंसरों" ने घेर लिया। मजदूर सुपरवाइजर के खिलाफ कार्रवाई की मांग पर अड़े थे। शाम को अचानक मजदूरों को पता चला कि फैक्ट्री के भीतर आगजनी शुरू हो गई है। स्वाभाविक रूप से फैक्ट्री के भीतर और बाहर खड़े मजदूर पुलिस के हाथों पकड़े जाने के डर से भाग गए। वहां पुलिस भी मौजूद थी और अंदर कुछ कर्मचारियों के साथ मारपीट की घटना हो रही थी। हिंसा करने वाले लोगों ने जो वर्दी पहनी हुई थी, वह बिल्कुल मारुति के कामगारों की तरह ही थीं। वे कर्मचारियों को पकड़ते, थोड़ी-बहुत उनकी पिटाई करते और छोड़ देते। वह हिंसक जत्था एचआर डिपार्टमेंट पहुंचा। पहले एचआर मैनेजर को मारते-पीटते उसके पांव तोड़ दिए और विभाग में आग लगा कर उसे भी उसमें झोंक दिया। इसके अलावा, दो-तीन और जगहों पर आगजनी हुई, जिसमें कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं जला। (माना जाता है कि वह एचआर मैनेजर कामगारों की निगाह में काफी मानवीयता से
पेश आता था, मजदूरों से उसके अच्छे संबंध थे, वह सहृदय और विनम्र था!)<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>ईश्वरीय कृपा-सी हिंसा...!!!</b></span></span><br />
<br />
जैसी कि सूचनाएं सामने आईं, "इतनी बड़ी" हिंसा में इस तरह की ईश्वरीय कृपा का जोड़ा नहीं मिलता कि कारों के प्रोडक्शन यूनिटों और संयंत्रों को जरा भी नुकसान नहीं पहुंचा और यों कहें कि हिंसा खत्म होने के ठीक बाद भी वहां कारों का उत्पादन सहज तरीके से हो सकता था। एक सबसे जरूरी बात- इस पूरी हिंसा के दौरान कंपनी में जगह-जगह लगे सीसीटीवी कैमरे कहां चले गए थे। शुरुआती दौर में किसी अखबार ने खबर दी थी कि "मजदूरों" ने हिंसा के वक्त सीसीटीवी कैमरों को या तो तोड़ दिया था या फिर उसका रुख छत की ओर कर दिया था।<br />
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वे गजब के सुनियोजित और सुशिक्षित "मजदूर" थे! जाहिर है, कंपनी प्रबंधन, मीडिया और पुलिस ही शायद सही कह रही होगी, वे मजदूर नहीं, जिनका कहना है कि उन्हें तो इस बात का पता भी नहीं था कि कंपनी में सीसीटीवी कैमरे लगे थे।<br />
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यानी इस पूरी हिंसा की पटकथा पहले से तैयार थी और सिर्फ इसके प्रदर्शन का इंतजार था। सिर्फ एक बहाने की तलाश थी जो जियालाल को जातिसूचक गालियां देने के बाद कामगारों के धरने ने मुहैया करा दिया था।<br />
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यह छब्बीस सितंबर, 2012 को पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स यानी पीयूडीआर की जांच रपट की जारी प्रेस विज्ञप्ति से भी साफ होता है कि जेल में बंद करीब डेढ़ सौ मजदूरों में से बहुत सारे का उस तथाकथित अपराध से किसी तरह का लेना-देना नहीं था। बल्कि 18-19 जुलाई 2012 को जो तिरानबे मजदूर गिरफ्तार हुए, उनमें से कई घटना के समय फैक्ट्री में मौजूद तक नहीं थे। आमतौर पर चिह्नित और सूचीबद्ध उन मजदूरों को गिरफ्तार किया गया जो 2011 के मध्य में हुए विरोध में सक्रिय थे और खुल कर बोलने वाले थे। इस बात का जवाब तो सिर्फ मारुति प्रबंधन, बल्कि श्रम कानूनों के पहरुओं और भारत सरकार को देना होगा कि इस देश के किस कानून के तहत मारूति ने तहकीकात पूरी होने के पहले ही लगभग साढ़े पांच सौ मजदूरों को बर्खास्त कर दिया। श्रम कानून के रखवाले किसके इशारों पर काम करते हैं, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि किसी का किसी से चेहरा भर मिलने से गिरफ्तार कर लिया गया, किसी नामजद के परिवार वालों को प्रताड़ित किया गया, तो गिरफ्तार मजदूरों को हिरासत में भयानक थर्ड डिग्री की यातनाएं दी गईं और सादे कागज पर दस्तखत करने के लिए उन्हें मजबूर किया गया। यानी पुलिस की मंशा साफ है कि वह किसके इशारे पर और किसके हित में काम कर रही है।<br />
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बहरहाल, दिलचस्प है कि बिना किसी मजबूत आधार के मारुति साढ़े पांच सौ कामगारों को निकाल देती है, लेकिन उस सुपरवाइजर के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने की सूचना नहीं मिल सकी है, जिसकी जातिबोधक गाली के चलते सारा फसाद खड़ा किया गया। <br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>यकीनन साजिश...</b></span></span><br />
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तो क्या 18 जुलाई के फसाद की योजना पहले से तैयार थी और सिर्फ बहाने और मौके का इंतजार किया जा रहा था? लेकिन यह योजना किसकी थी और कौन इंतजार कर रहा था? यह मानना अपने आप में अपनी ही बुद्धि को कटघरे में खड़ा करना होगा कि यह मजदूरों की सुनियोजित साजिश थी। जो मजदूर पिछले साल तीन चरणों में अट्ठावन दिनों की हड़ताल के बावजूद धीरज, संयम और पूरी परिपक्वता के साथ सिर्फ अपने हक का सवाल उठाते रहे, वे इस बार भी सिर्फ इतनी-सी मांग कर रहे थे कि जियालाल को जाति की गाली देने वाले कर्मचारी के खिलाफ कार्रवाई हो। पिछले साल जब उतनी बड़ी तादाद में मजदूरों का धरना शांतिपूर्ण रहा तो इस बार उन्हें नियंत्रित करने के लिए मारुति को सौ या डेढ़ सौ "बाउंसरों" (गुंडों) की जरूरत क्यों पड़ गई? उन सभी बाउंसरों को मजदूरों का ही ड्रेस क्यों पहनाया गया था? क्या यह संयोग है कि विशेष जांच टीम का नेतृत्व करने वाले गुड़गांव के एक डीसीपी महेश्वर दयाल ने आखिरकार बताया कि फसाद में ज्यादा से ज्यादा सौ लौग शामिल थे और मारूति के "बाउंसरों" की संख्या भी उतनी ही बताई जाती है? डीसीपी की रिपोर्ट के मुताबिक अगर यह मान भी लिया जाए कि वे सौ लोग मजदूर ही थे, तो मारुति के वे एक-डेढ़ सौ "बाउंसर" और पचास से ज्यादा पुलिसकर्मी क्या उन सौ मजदूरों को रोक सकने में सक्षम नहीं थे? (कुछ ही देर में वह पूरा इलाका पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था!)<br />
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ये सारी स्थितियां किसकी साजिश की ओर इशारा करती हैं? जिसकी साजिश कामयाब हुई है, उसे तो हक है मजदूरों को अपराधी करार देने का, लेकिन पुलिस, प्रशासन और पूरी सरकार से लेकर समूचा मीडिया किन वजहों से मजदूरों के खिलाफ हाय-हाय करता रहा और अपने "मालिकों" के सामने अंधा होकर सिर नवाता रहा? क्या नया संविधान बनाया जा चुका है, जिसमें मजदूरों को अब खुद को गुलाम मान कर काम करना होगा? जब मारुति जैसी देश की "नाक" कंपनी मजदूरों के दमन के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है, तो दूसरी जगहों की क्या हालत होगी, क्या इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है? इस देश के तमाम "सेजों" (विशेष आर्थिक क्षेत्रों) को तो किसी भी तरह की कानूनी बाध्यताओं से पहले ही आजाद किया जा चुका है। बाकी जगहों पर भी बचे-खुचे श्रम कानूनों पर अमल की व्यावहारिक हकीकत जिस बर्बर शक्ल में है, वह अध्ययन का विषय है। सवाल है कि जनकल्याण के सिद्धांतों पर काम करने का दायित्व उठाने वाली हमारे देश की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें किसकी सेवा में हाजिरी बजा रही हैं?<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>पूंजीवाद के घोड़े पर सवार सामंतवाद...</b></span></span><br />
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पिछले साल तीन चरणों में लगभग दो महीने की हड़ताल की कामयाबी इस बात का साफ संकेत थी कि मजदूरों की बिखरी हुई लड़ाई अगर ठोस शक्ल लेती है तो पिछले दो दशकों में कॉरपोरेटों और पूंजीपतियों की दलाल सरकार की मदद से तैयार वह ढांचा ढह जा सकता है, जो मजदूरों के ज्यादा से ज्यादा शोषण से मालिकानों के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा सुनिश्चित करता है। जाहिर है, 2011 के अट्ठावन दिनों के हड़ताल के बाद छह महीने में वे तमाम इंतजाम किए गए जो पिछले दो दशकों की "उपलब्धियों" को बचा सके और उसे पुख्ता आधार दे सके।<br />
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इसलिए चार-पांच या छह-सात हजार रुपए महीने की तनख्वाह उठाने वाले ज्यादातर ठेका मजदूरों से स्थायी कर्मचारियों को अलगाने की सभी कोशिशें की गईं। लेकिन सच यह है कि एक अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के तहत अपना धंधा चलाने का दावा करने वाली इस कंपनी के भीतर श्रम की स्थितियां दरअसल शोषण चक्र की बर्बर दास्तान थी। इसके बारे में कई ब्योरे अनेक रिपोर्टों में आ चुके हैं। इसका सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर कोई कामगार अचानक तबियत खराब होने की वजह से काम पर नहीं जा पाता तो न सिर्फ उसकी तनख्वाह से एक दिन के तीन सौ बीस रुपए काट लिए जाएंगे, बल्कि महीने भर की तनख्वाह के मद में ही जुड़ी अठारह सौ की राशि भी हड़प ली जाएगी, तो हालत क्या होगी। यह वहां का नियम था। लोकतंत्र की चादर ओढ़ कर किस बर्बर लुटेरी सरकार ने किसी दुकानदार को इंसान का लहू चूसने का हक दिया? क्या यहां के दुकानदारों की तमाम दुकानें आजाद देश हैं और वहां उनका अपना संविधान चलता है? क्या अब उनके हक में संविधान को बदल दिया जाएगा या बदल दिया गया है?<br />
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पूंजीवाद के परदे के पीछे से सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के यूरोप के सामंतवाद की रगों में बहते वर्णवाद ने पिछले दो-ढाई दशक में मजदूरों के व्यापक हितों और खासतौर पर ट्रेड यूनियनों के खिलाफ जो जहर फैलाया है वह अब अपने पूरे असर के साथ सामने आ रहा है। काम और जरूरत के बीच के प्रबंधन में अपनी बेईमानी, काहिली और अक्षमताओं को छिपाने के लिए ट्रेड यूनियनों पर यह आरोप मढ़ देना आसान है कि उनके चलते काम की संस्कृति बिगड़ी। लेकिन इसके पीछे असली मंशा क्या होती है, यह बताने में इसलिए शर्म आती है क्योंकि फिर इससे यह परदा उतर जाएगा कि मकसद यह है कि कम से कम मजदूरों का ज्यादा से ज्यादा शोषण करके अपने मुनाफे को कितना ज्यादा बढ़ाया जा सकता है।<br />
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पूंजीवाद के घोड़े पर सवार सामंतवादियों को यह अच्छे से पता है कि भारत जैसे देश की सरकारों को अब वे इतनी छूट देने की हालत में ला चुके हैं कि वे चाहें तो किसी मजदूर के जिंदा रहने भर के लिए पेट भर कर उसके लहू का एक-एक कतरा तक चूस ले सकते हैं, यहां कोई रोक-टोक नहीं है। देश के कई इलाकों के औद्योगिक क्षेत्रों से यह मांग उठ चुकी है कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की वजह से उद्योगों को "सही मजदूरी" पर काम करने वाले लोग मिलने बंद हो गए हैं, इसलिए नरेगा जैसी योजना को बंद कर देना चाहिए। अंदाजा लगाया जा सकता है कि सौ दिन के बजाय अगर साल भर के रोजगार की गारंटी सुनिश्चित कर दी जाए तो शोषण के इन कारखानों की क्या दशा होगी। यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि मनरेगा जैसी योजनाओं का वास्तविक लाभार्थी कौन है और किसे इस योजना से आपत्ति है और कौन इसे खत्म करने की मांग कर रहा है। तमाम सरकारी कल्याण कार्यक्रमों के तहत मिलने वाले लाभों की जरूरत समाज के किस तबके को है और सब कुछ का हल निजीकरण और विदेशी पूंजी निवेश में देखने वाले लोग आखिरकार किसके हित की वकालत कर रहे हैं? सिर्फ एक उदाहरण काफी है। नब्बे के दशक में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू हुआ, उसके बाद सरकारी नौकरियां लगातार कम होती गईं और निजी क्षेत्र के लिए मैदान खुला छोड़ दिया गया। दरअसल, आरक्षण की "समस्या" का सीधा जवाब निजीकरण था और नब्बे के बाद अब तक की पूंजीपरस्त सरकारों का मकसद जितना आर्थिक सुधार है, उससे ज्यादा बड़ी लड़ाई वह सामाजिक मोर्चे पर लड़ने में लगी है।<br />
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<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="color: red;"><b>जनतंत्र की नाक और सामंती सत्ता-तंत्र...</b></span></span><br />
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पिछले दो दशक में मजदूरों के हक में बनाए गए तमाम कानूनों की क्या गत कर दी गई है, यह जानने के लिए देश के तथाकथित लोकतंत्र की नाक दिल्ली और इससे सटे गुड़गांव, फरीदाबाद, नोएडा या गाजियाबाद जैसे इलाकों में तमाम फैक्ट्रियों या काम देने वाले संस्थानों का अध्ययन किया जा सकता है। देश का श्रम मंत्रालय और श्रम निरीक्षक अब श्रम कानून पर अमल सुनिश्चित करने के बजाय मालिकों की सुविधा सुनिश्चित करने में लगे हैं।<br />
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कितनी न्यूनतम तनख्वाह होनी चाहिए; काम के अधिकतम घंटे कितने होने चाहिए; काम और श्रमिकों का क्या अनुपात होना चाहिए; लागत और मुनाफे का क्या अनुपात होगा; मुनाफे में मजदूरों को कितना न्यायपूर्ण हिस्सा मिलना चाहिए; मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा नीतियों के क्या इंतजाम हैं या इन पर अमल की क्या हकीकत है... जैसे न जाने कितने सवाल हैं। लेकिन इन पर बात करना अब पिछड़ेपन की निशानी मान लिया गया है। यानी मानवीयता के तमाम तकाजों को ताक पर रख कर ही "अगड़ेपन" का झंडा उठाया जा सकता है। फिर भी, दुनिया से सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा...! ठीक है...! तो क्या यहीं यह सवाल भी उठा दिया जाए कि अगर यही सच है तो यह "सिस्टम" बताए कि क्या वह अनंतभूतकाल से "अगड़ेपन" का आसन जमाए तबकों की प्रतिनिधि है?<br />
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आठ घंटे काम और उसके हिसाब से मेहनताना अब केवल बचे हुए सरकारी नौकरों के खाते में है। वहां भी निजी ठेकेदारी का बोलबाला है और सरकार खुद ठेकेदार बन कर और मजदूरों को बंधुआ गुलाम बना कर भर्ती करने की रिवायत शुरू कर चुकी है। बाकी ज्यादातर जगहों पर रजिस्टर पर आठ घंटे की ड्यूटी और छह हजार रुपए की तनख्वाह दर्ज कर मजदूरों से हस्ताक्षर कराने वाले ठेकेदार कंपनियां किस तरह मजदूरों को चार हजार रुपए पर बारह घंटे खटवाती हैं, इसका हिसाब लेने वाला कोई नहीं है। पहले इस्तीफा लिखवा कर किन शर्तों पर नौकरी दी जाती है या किन हालात में मजदूरों को काम करना पड़ता है; महंगाई के नाम पर लगातार बढ़ती लूट के बीच कितने लोग न्यूनतम खर्चे लायक भी आमदनी भी नहीं हो पाने की वजह से अपने गांव लौट गए; विकास के नाम पर दिल्ली जैसे शहरों को चुपके-चुपके किनके लिए टिक सकने लायक बनाया जा रहा है; अपना और अपने परिवार का पेट नहीं पाल पाने की हताशा में खुदकुशी कर लेने के फैसलों के पीछे कौन-सी वजहें हैं; इन सबकी सच्चाई अगर आम हो जाए तो यह तय करना मुश्किल होगा कि यह देश कैसे आधुनिक पैमानों पर आगे बढ़ता एक लोकतांत्रिक देश है और क्यों नहीं इसे आदिम या मध्ययुगीन बर्बर नियम-कायदों में मरने-जीने वाले किसी सामंती समाज के सत्ता-तंत्र और उसी व्यवस्था के तौर पर देखा जाए...!</div>
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शेषhttp://www.blogger.com/profile/02424310084431510395noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9014245926951665678.post-71512896216563962482012-10-01T00:09:00.001-07:002012-10-04T00:08:37.139-07:00गैंग्स ऑफ वासेपुरः नकली यथार्थ का हिंसक चेहरा... <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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अनुराग कश्यप और अनुराग बसु के जातिबोधक पुछल्ले को छोड़ कर कई चीजें संयोग से समान हैं। दोनों के नाम एक ही हैं, दोनों ही बॉलीवुड में पुरबिए हैं और दोनों ने लगभग एक साथ फिल्में बनानी शुरू कीं। बतौर सह-स्क्रिप्ट लेखक "सत्या" के यथार्थ का सिरा थाम कर अनुराग कश्यप "गुलाल" और "पांच" होते हुए "गैंग्स ऑफ वासेपुर" का नकली यथार्थ रचने तक आते हैं, जहां हिंसा के वीभत्सतम शक्ल समाज के एकमात्र यथार्थ हैं। इसमें प्रेम एक खेल भर है, जिसे हिंसा के सामने हार जाना है, खुदकुशी कर लेना है। दूसरी ओर अनुराग बसु हैं जो "गैंग्स्टर" से "बर्फी" तक में हजारों सालों से क्रमशः सभ्य होते समाज के मूल-तत्त्व प्रेम और संवेदना को ही स्वीकार करते हैं, उसे थोड़ा और निखारते हैं। लेकिन इस बीच वे सामाजिक हिंसा के उस पहलू से बड़े करीने से तंज की तरह आपको रूबरू कराते हैं जो आपके आसपास हर पल घटित हो रही होती है। मुमकिन है, हम खुद उस हिंसा के शिकार हों या फिर खुद ही हिंसा करने वाले।<br />
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खासतौर पर "बर्फी" में नायिका की मां के महज अपनी सुविधाजनक जिंदगी के लिए प्रेमी को छोड़ देने से लेकर एक अल्पविकसित बच्ची के बाप के अपने घर के तमाम नौकरों को लात मार कर नौकरी से निकाल देना या धन के लोभ में अपनी उस बच्ची की हत्या तक की योजना पर अमल करना स्वार्थ से उपजी हिंसा की वे शक्लें हैं जो हम सबके लिए सिनेमा के परदे पर घटने वाली कहानी नहीं है। यह आम सामाजिक जिंदगी में घुली वे तल्ख हकीकतें हैं जिनसे हमारा समाज अक्सर दो-चार होता है। बहरहाल... <br />
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<span style="color: red;"><b><span style="background-color: #f6b26b;">हिंसा का रूमान...</span></b></span><br />
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"गैग्स ऑफ वासेपुर- II" के रिलीज होने के पहले अनुराग कश्यप ने एक टीवी चैनल पर जो कहा था उसका आशय लगभग यही था कि वे हिंसा को लेकर एक रूमान में चले जाते हैं। यह भी अखबारों में छपा कि "गैंग्स ऑफ वासेपुर" में उन्होंने जानबूझ कर इतनी वीभत्स हिंसा का सहारा लिया। इसके पहले की उनकी फिल्म "पांच" पर भी हिंसा को लेकर सवाल उठ चुके हैं। इंसानी समाज के लाखों सालों और इस "सनातनी" समाज के तीन-चार या पांच हजार साल के विकास के इतिहास में किसी भी व्यक्ति के जीवन में वे कौन-से दौर हो सकते हैं या कैसी बुनियाद हो सकती है कि वह "हिंसा" को लेकर इस हद तक रूमानी हो जाता है? जज्बात और दिमाग की कसौटी पर इंसान ने अब तक खुद को जितना सभ्य बनाया है, उसमें नफरत का एकमात्र सकारात्मक इस्तेमाल "हिंसा" से नफरत करना हो सकता है। लेकिन इसी नफरत के दूसरे चेहरे के मूल से हिंसा जन्म लेती है।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiL2sgoozaM-tVA6rzPqQAhfKfxJu7u__7WUd2r0laLyWldKAR9FB7PO1TamPCaIhGWjxeow3bHMjNzb6res7XIlH7uCoaC3ULGn4QflZBSMAzfC5yWa_KsilSTlGgJr2k51P9XsbzrmZU/s1600/violence-2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="160" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiL2sgoozaM-tVA6rzPqQAhfKfxJu7u__7WUd2r0laLyWldKAR9FB7PO1TamPCaIhGWjxeow3bHMjNzb6res7XIlH7uCoaC3ULGn4QflZBSMAzfC5yWa_KsilSTlGgJr2k51P9XsbzrmZU/s320/violence-2.jpg" width="320" /></a></div>
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तो जाहिर है, अगर कोई व्यक्ति हिंसा से प्रेम करेगा तो स्वाभाविक रूप से यह हिंसा उसके भीतर के नफरत के दूसरे प्रकार से पैदा हुई होगी। सवाल है कि अनुराग कश्यप के भीतर किस बात पर और किसके खिलाफ इतनी नफरत भरी हुई है कि वे हिंसा को लेकर रूमान में चले जाते हैं!<br />
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किसी व्यक्ति के हिंसा का प्रेमी होने की दो वजहें हो सकती हैं। एक, हिंसा उसके पारिवारिक-सामाजिक परिवेश का हिस्सा हो और वहीं से वह उसके स्वभाव में घुली हो। हिंसा के इस पैमाने से भी दो सिरे फूटते हैं। पहला, सामाजिक सत्ताधारियों का अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए हिंसा का एक औजार के रूप में इस्तेमाल और दूसरा, लगातार हिंसक दमन और शोषण के चक्र में पिसते हुए उसका अभ्यस्त हो जाना।<br />
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अगर कोई सामाजिक सत्ताधारियों के वर्ग से आता है तो उसके हिंसा प्रेमी होने की दूसरी वजह यह हो सकती है कि पारिवारिक-सामाजिक तौर पर व्यक्ति का जो मनोविज्ञान तैयार होता है, उसकी शासित और शोषित वर्गों के खिलाफ अभिव्यक्ति हुई तो ठीक, वरना वह दूसरे रास्ते तलाशने लगता है। अब एक आधुनिक समाज में चूंकि मध्ययुगीन सामंती तौर-तरीकों से हिंसा को अभिव्यक्त कर पाना मुश्किल होता गया है, इसलिए ऐसा व्यक्ति किसी न किसी रास्ते और रूप में अपनी एक सत्ता खड़ा करता है; और उसे वैध और स्वीकार्य बनाता है। इसके बाद शुरू होता है हरेक कुंठाओं की अभिव्यक्ति और फिर इसके जरिए अपनी "सत्ता" को मजबूत करने के खेल। और स्वाभाविक रूप से इसका शिकार शासित वर्ग ही होगा, बस शक्ल थोड़ी दूसरी होगी।<br />
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इस तरह हिंसा से प्रेम करने वाला सत्तावादी आखिरकार यथास्थितिवाद का संरक्षक और वाहक बनता है।<br />
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<span style="color: #741b47;"><i>(स्पष्टीकरणः हिंसा के प्रति यह भाव और विचार इन पंक्तियों के लेखक का शुचितावाद है।)</i></span><br />
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यानी अनुराग कश्यप का हिंसा के प्रति रूमान एक सामंती ढांचे की रचना करता है, या फिर उसी से संचालित होता है। यहां संदर्भ चूंकि "गैंग्स ऑफ वासेपुर" है, इसलिए इस अभिव्यक्ति को इसी के जरिए समझना होगा और इसी का सिरा पकड़ कर चेतना में पैठी ग्रंथियों तक जाना होगा।<br />
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<b><span style="color: red;"><span style="background-color: #f6b26b;">स्त्री के खिलाफ व्यवस्थागत हिंसा की शक्लें...</span></span></b><br />
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एक शुद्ध सामंती समाज में हिंसा की जितनी शक्लें हो सकती हैं, "गैंग्स ऑफ वासेपुर" के दोनों हिस्सों में सबका खुला इस्तेमाल किया गया। दिक्कत यह है कि इस प्रवृत्ति की पड़ताल करने के बजाय उसे इस रूप में प्रदर्शित किया गया जो इन्हीं ग्रंथियों की बुनियाद पर मरते-जीते समाज की कुंठाओं को तुष्ट और मजबूत करने का जरिया बना। यह फिल्म इस बात का कोई सबूत नहीं देती कि फिल्मकार की ठीक यही मंशा नहीं रही होगी। एक दृश्य में जो पत्नी वेश्यालय गए अपने पति को डंडे से फटकारते और वीभत्स गालियां बकते हुए खदेड़ती है, वही अगले किसी दृश्य में यह कहते हुए पति को जम कर खाना खिलाती है कि "बाहर जाकर नाम खराब मत करना...।" कल्पना कीजिए कि यह दृश्य कितना यथार्थ हो सकता है। लेकिन इसके जरिए फिल्मकार ने सिनेमा के इस दृश्य को देख कर सीटियां बजाते दर्शकों की किस मर्द कुंठा को तुष्ट किया और कैसे उनके दिमाग में इसके अपने लिए सच होने की कामना की रचना की? जब यथार्थ के प्रयोग के नाम पर झूठ ही परोसना था तो क्या पति-पत्नी की जगह की अदला-बदली की जा सकती थी?<br />
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लेकिन अगर इसे अनुरागी यथार्थ मान भी लिया जाए कि पत्नी पति को "बाहर नाम करने" के लिए मर्दाना ताकत से लैस करती है, तो सवाल है कि स्त्री के खिलाफ व्यवस्थागत हिंसा किन-किन शक्लों में काम करती रहती है और उसे बनाए रखने के लिए कौन-कौन से कारक जिम्मेदार होते हैं? अगर इस देश की तिरपन फीसद से ज्यादा महिलाएं कहती हैं कि उनका पति उन्हें पीटता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं, तो इसके पीछे कौन-सा माइंडसेट काम कर रहा होता है? दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन या रजौरी गार्डन जैसे पॉश इलाकों से कई मामले कुछ काउंसिलरों के पास गए। मर्द अपनी बीवी को कहता है कि मैंने तुम्हें इतना बड़ा शानदार घर दिया है; बीएमडब्ल्यू कार दी है; यहां के सबसे महंगे मार्केट में जाने के लिए पैसे की कोई कमी होने दी मैंने; तेरा बेटा इस शहर के सबसे महंगे स्कूल में जाता है न; फिर तुझे यह पूछने का हक किसने दिया कि मैं किस औरत के पास जाता हूं और क्या करता हूं? शायद इसी से मिलता-जुलता डायलॉग एक फिल्म "ब्रेकिंग न्यूज" में भी था।<br />
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"गैंग्स ऑफ वासेपुर" के एक दृश्य में पति के वेश्या के पास जाने पर डंडा फटकारने और गालियां देने के बरक्स दूसरे दृश्य में उसके बाहर जाकर "नाम खराब करने" के डर से उसे "मर्दाना" ताकत से लैस करने के विरोधाभास को छोड़ भी दिया जाए और अगर पत्नी को पति का वेश्या के पास जाना आपत्तिजनक नहीं लगता है, तो अपने अस्तित्व के खिलाफ इस हिंसा को गलत नहीं मानने वाली स्त्री का यह माइंडसेट कहां से संचालित होता है? और इस दृश्य के सामूहिक-सार्वजनिक प्रदर्शन के असर के तौर पर दर्शक सीटियां और तालियां बजाते हैं तो इस दर्शक-वर्ग के अंतस में पैठी पुरुष ग्रंथि को जस्टीफाइ करने में इस दृश्य की क्या भूमिका है? ...और इस रास्ते व्यवस्थागत हिंसा के इस शक्ल को खाद-पानी मुहैया करने में ऐसे दृश्यों की क्या भूमिका है?<br />
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खैर, इस फिल्म और फिल्मकार का मकसद केवल स्त्री के अस्तित्व को खारिज करना भर नहीं है। "वीर भोग्या वसुंधरा" की "सैद्धांतिकी" के तहत उसे इस खारिज करने को विस्तार देकर महज एक शरीर और पुरुष के चरम-सुख के इंतजाम भर की हैसियत में समेट कर रख देना भी है। और हमारी भारतीय संस्कृति के वीर पुरुष अपने तमाम सुखों के भोग के क्रम में किस हद तक अराजक और असभ्य-अविकसित रहे हैं, यह ज्यादातर स्त्री अपने अनुभव से बता सकती है। और जब किसी मर्द के इसी बर्ताव की मनचाही अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है तो फिर मन के किसी कोने में वह कुंठा बन कर बैठ जाती है। फिर जैसे ही संसाधनों का मालिकाना और बेलगाम अभिव्यक्ति की सत्ता अपने हाथ में आती है, वह कुंठा एक निर्लज्ज नाच नाचती है।<br />
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<b><span style="color: red;"><span style="background-color: #f9cb9c;">बेतुकेपन का बेजोड़ वितंडा...</span></span></b><br />
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"गैंग्स ऑफ वासेपुर" के पहली किस्त में जहां गोलियों से छलनी सरदार खान के झूमने के नेपथ्य में बजता "जीय हो बिहार के लाला..." फिल्म की राजनीति का आईना है, वहीं दूसरी किस्त में फैजल खान के हाथों रामाधीर सिंह के मारे जाने का दृश्य कुंठाओं का वीभत्स, बर्बर और बेलज्ज प्रदर्शन है। और कुंठाएं कैसे बेतुकेपन का वितंडा रचती हैं, यह भी इससे साफ होता है।<br />
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जिस दृश्य में फैजल खान हिंसा के तमाम पहलुओं पर "विचार" करते हुए "अफसोस से भर कर" जार-जार आंसू बहा रहा होता है, उसके कुछ ही मिनट बात वह एक अस्पताल में रामाधीर सिंह को घेर लेता है। एक-दो गोली से मर जाने के बावजूद फैजल खान दर्जनों एके- 47 राइफलों की हजारों गोलियां रामाधीर सिंह पर बरसाता है। इस फिल्म के फिल्मकार का कोई दीवाना गंजेड़ी फैजल खान की इस "बहादुरी" पर झूम उठता है तो भी इसे उसकी "दीवानगी" का नतीजा मान लिया जा सकता है। लेकिन यह फैसला इसके बाद के दृश्य पर होना है।<br />
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पश्चिमी शैली से शौचालय के कमोड पर हजारों गोलियों से छलनी रामाधीर सिंह की छाती में हुए छेद में फैजल खान अपने हाथ के एके- 47 की नली का अगला सिरा घुसेड़ता है और उसके बाद जो करता है, वह सिर्फ और सिर्फ इसी बात का सबूत है कि चरम यौन-हिंसक कुंठाओं की बर्बर अभिव्यक्ति के जरिए भी दरअसल वही राजनीति साधी गई है, जिसका मकसद समूची मुसलिम जमात के खिलाफ एक खास धारणा और खयाल को "आम" हिंदू मानस में "इंजेक्ट" करना है।<br />
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यहां कोई चाहे तो फिल्मकार को यह सोच कर बख्श दे सकता है कि जिसके पास संसाधन और सत्ता है और वह जैसे चाहे खुद को अभिव्यक्त कर सकता है। लेकिन गुंजाइश इसकी भी बनती है कि आप फिल्मकार के दिमाग की दाद दें कि बेहद "सस्ते" और "चलताऊ" दृश्यों के जरिए उसने कितने बारीक खेल किए हैं! निश्चित रूप से यह काम कोई साधारण दिमाग का शख्स तो नहीं ही कर सकता। लेकिन उसकी परतें उधेड़ पाना भी उतना ही जटिल है।<br />
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<span style="background-color: #f9cb9c;"><span style="color: red;"><b>मन की हजार परतों के पार की कुंठा...</b></span></span><br />
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इस दृश्य की राजनीति के बरक्स अगर इसका सिरा ढूंढ़ें तो वह उस सामंती मानसिक ढांचे में मिलता है, जो न सिर्फ हिंसा को लेकर रूमान में चला जाता है, बल्कि स्त्री और उसका शरीर भी इस हिंसक रूमान का एक अच्छा शिकार ही हैं। यानी, जो व्यक्ति सेक्स के दौरान अपनी स्त्री साथी को सिर्फ चरम-सुख मुहैया कराने वाली एक खिलौना समझेगा और उसी हिसाब से हिंसक व्यवहार भी करेगा, उसी के अवचेतन से ऐसे दृश्य निकलेंगे। बदला लेने का आक्रोश ऐसी हरकत का महज एक परदा भर हैं। और यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि हमारे सामाजिक ढांचे में बदला लेने को बलात्कार के सबसे अहम कारणों के तौर पर दर्ज किया गया है। यानी किसी पुरुष से बदला लेना है तो उसके परिवार की किसी स्त्री के साथ बलात्कार। एकबारगी आपके सामने इस व्यवस्था में स्त्री की स्थिति और स्त्री इस स्थिति में बनाए रखने वाले औजारों के पुर्जे खुल जाते हैं। तो क्या फैजल खान का रामाधीर सिंह पर हजारों गोलियां बरसा कर उसके सीने में बने छेद में बंदूक की नली घुसेड़ कर आगे-पीछे करना और बैकग्राउंड में "कह के लेंगे..." की गूंज इन्हीं मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों का समुच्चय है?<br />
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इस दृश्य के रचेता चाहे जो हों, इतना तय है कि इस सामंती व्यवस्था के बुनकरों ने ऐसी ही बारीक बुनाई करके सत्ता और शासित का मनोविज्ञान तैयार किया होगा। किसी मर्द को जलील करना हो तो उसके परिवार की स्त्रियों की देह को लक्ष्य करके गालियां दो, यानी मौखिक बलात्कार करो; स्त्री को जलील करना है तो इसी की शारीरिक अभिव्यक्ति और यहां तक कि मर्द से भी बदला लेना है तो उसके शरीर में भी "स्त्री" ढूंढ़ लो। इतना महीन व्यवस्थावादी दृश्य का जोड़ा खोजना मुश्किल होगा।<br />
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<b><span style="background-color: #f9cb9c;"><span style="color: red;">परदे के पीछेः खेल चालू आहे...</span></span></b><br />
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बहरहाल, "गैंग्स ऑफ वासेपुर" पर लिखे के पहले हिस्से के आखिर में एक तुक्का था कि <span style="color: red;"><b>बॉलीवुड</b></span> में आरएसएस ने ढाई हजार करोड़ रुपए का परोक्ष निवेश किया है। इस तुक्के से कुछ अनुराग भक्त इतने डर गए कि इसे यानी "बॉलीवुड" को उन्होंने "गैंग्स ऑफ वासेपुर" समझ लिया और मुझे निशाना बना कर एक तरह का अभियान चल पड़ा था। मुझे इतना महत्त्व देने की क्या जरूरत थी! फिल्मों में अंडरवर्ल्ड के पैसे के बारे में भी तो ऐसी ही बातें कही-सुनी जाती रही हैं। कही-सुनी जाने वाली सभी बातें सही ही हों, यह जरूरी तो नहीं। यह जितना आरएसएस के लिए सच है, उतना ही अंडरवर्ल्ड के लिए भी। लेकिन अब इसका क्या करेंगे कि अखबारों ने बताना शुरू कर दिया है कि <a href="http://navbharattimes.indiatimes.com/moviearticleshow/16125266.cms" target="_blank">"कहीं मोदीवुड न बन जाए बॉलीवुड...।"</a> एक भाड़े का ब्रांड एंबेसडर तो पहले ही मोदी के नमक के साथ-साथ उसका तलुवा चाटने में लगा है, अब अजय देवगन, अक्षय कुमार, सन्नी दयोल जैसे कई महानायकों को भी मोदी अपना (जहर वाला) दूध पिला रहा है। संजय दत्त... आदि सब मोदी का चरण-रज धोकर पीने को तैयार हैं तो क्या यह सिर्फ इसलिए हो रहा है कि मोदी सबको प्रशासनिक सुरक्षा मुहैया करा सकते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे ये तमाम "महानायक" खालिस दुकानदार हैं, इनके हंसने और रोने की कीमत होती है और इन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पैसे और सुविधाओं के बदले नरेंद्र मोदी को इनसे क्या चाहिए! जैसे एक जहर के विक्रेता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसकी दुकान से खरीदे गए जहर से कौन मरा! और मोदी केवल दुकानदार नहीं हैं, यह एक ऐसे (सांप्रदायिक) राजनीतिक व्यक्ति का भी नाम भी हैं, जो जानता है कि इन खूब बिकने वाले चेहरों का क्या इस्तेमाल किया जा सकता है। तथाकथित विकास की चमक से "थरथराते" गुजरात में लगभग मुफ्तिया, यानी बिना लागत के "इंटरटेनमेंट" दुकानदारी चलाने के एवज में नरेंद्र मोदी क्या इन भाड़े के परदेबाजों को यों ही इतनी रियायत देने जा रहे हैं? अगर कोई ऐसा सोच रहा है तो उसकी मासूमियत पर तरस खाइए!<br />
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नरेंद्र मोदी को बहुत अच्छे से मालूम है कि आईने में उनका चेहरा कैसे कभी नीरो तो कभी हिटलर जैसा दिखता है। इस चेहरे पर एक परदा वे ही डाल सकते हैं जो खुद अपने तमाम धतकर्मों के बावजूद परदे के जरिए जनमानस के "हीरो" बने हुए हैं। और एक "नायक-छवि" जब किसी वास्तविक खलनायक को भी अपने पहलू में खड़ा कर लेता है तो हमारी "दिल-दरिया" जनता उसे बड़ी आसानी से पहले सह-नायक और फिर नायक के रूप में कबूल कर लेती है।<br />
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तो नरेंद्र मोदी इसी फिराक में हैं कि परदे के नायकों पर मेहरबानी बरसाने के नाते जनता उन्हें नायकों का नायक घोषित कर दे। (और कुछ भाड़े के "नायक" इसके लिए जीभ चटकारते हुए खुद ही रिरियाने में लगे हैं)। यों यह प्रक्रिया काफी पहले शुरू हो चुकी है। अपनी दुकानदारी के जरिए "व्यवस्था" कायम रखने के लिए तमाम मानवीय तकाजों को ताक रखने वाला "इंडिया-इंक" अपने सहधर्मी नरेंद्र मोदी को अपना पसंदीदातम प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुका है; और एक फर्जी इंटरनेशनल पत्रिका "टाइम" ने भी अपने कवर पर मोदी का फोटू छाप कर यह बता दिया है कि प्रोपेगेंडा-वार के मोर्चे कहां-कहां खुलते हैं। पिछले एक-डेढ़ साल से देख लीजिए कि आक्रामक हिंदुत्व ने कहां-कहां अपना मोर्चा खोल दिया है। असम से पसरी साजिश को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। एक ऐसी हवा बहाई जा रही है जिसका सिरा एक खास ध्रुव से जुड़ता है और वहीं आकर खत्म होता है।<br />
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<span style="background-color: #f9cb9c;"><span style="color: red;"><b>किसका खून असरदार...</b></span></span><br />
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बहरहाल, "गैंग्स ऑफ वासेपुर- II" का इन आरोपों से कोई लेना-देना नहीं है। बस फिल्म को फिल्म की तरह मासूमियत से देखिए। इसका अंतिम दृश्य है- रामाधीर सिंह को मारने के बाद पुलिस फैजल खान और डेफनिट को जीप में ले जा रही है। एक चाय की दुकान पर गाड़ी रुकती है। पुलिस की मिलीभगत से डेफनिट फैजल खान को गोली मार देता है। एक खास भाव के साथ डेफनिट आगे बढ़ रहा है कि सामने उसकी मां "दुर्गा" अपनी भव्य छवि, विजयी भाव और गजब का संतोष चेहरे पर लिए उभरती है। ... और फिल्म खत्म...!<br />
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अगर आपने फिल्म देखी होगी तो याद करिएगा कि एक दृश्य में रामाधीर सिंह "दुर्गा" को क्यों कहता है कि "डेफनिट में तुम्हारा खून कम है।" यानी सरदार खान का खून ज्यादा है और यानी एक हिंदू का खून कम है औऱ एक मुसलमान का खून ज्यादा है। ...और "दुर्गा" के सामने यह चुनौती थी कि वह साबित करे कि उसके बेटे के शरीर में उसका खून ज्यादा है। "दुर्गा" ने साबित किया कि डेफनिट उसका बेटा ज्यादा है!<br />
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<i><span style="background-color: #f9cb9c;"><b><span style="color: red;">(क्षेपकः यथार्थ इतना मजेदार होता है...</span></b></span></i><br />
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<i>इसके अलावा, "आम" लोगों को पहली बार लगा होगा कि यथार्थ इतना "मजेदार" होता है। एक यथार्थवादी फिल्म का यथार्थ देखिए और उसके दृश्यों को याद कर-कर के मजा लीजिए। गर्दन काटने पर खून के छर्रे के यथार्थ दृश्य के साथ-साथ फैजल खान और उसकी पत्नी की शादी के बाद उनके घर में तूफानी ढकर-ढकर भी शायद यथार्थ ही होगा। और इस फिल्म का सबसे बड़ा यथार्थ तो वे दृश्य हैं जिसमें सरदार खान के मारे जाने के बाद उसके घर के दरवाजे पर उसकी लाश रखी है और बगल में आर्केस्ट्रा के साथ झमकउआ गायक "याद तेरी आएगी... " गा रहा है, और फिर सरदार खान के बेटे दानिश के मारे जाने के बाद भी वही दृश्य है। बस गाना बदल गया है- "तेरी मेहरबानियां...तेरी कदरदानियां...।"</i><br />
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<i>अभी तक मैं मतिमंद पटना से लेकर दिल्ली तक में मुस्लिम समाज को जितना जान सका, उसमें मुझे कभी यह पता नहीं चल सका कि किसी जवान-जहान की मौत या हत्या पर कहां ऐसी रिवायत है कि लाश सामने रखी हो और शोक जताने के लिए ऑर्केस्ट्रा पार्टी को बुलाया गया हो। जाने किस शरीयत या मजहबी नियम-कायदों में दर्ज है यह और कहां इस पर अमल होता ! हिंदुओं में भी किसी बहुत बुजुर्ग के मरने पर ही ढोल-पिपही पर केवल यही बजते सुन सका- "रघुपति राघव राजा राम...।" बहरहाल, यथार्थ के पिक्चराइजेशन से मिलने वाला मजा "यथार्थ" से हजार गुना ज्यादा मजेदार होता है...!)</i><br />
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बहरहाल, इस सबमें "गैंग्स ऑफ वासेपुर" के फिल्मकार की क्या गलती है। उसने तो वही कहा, जो उसे कहना था! अब अगर किसी फिल्मकार की फिल्म को उसकी तरह नहीं समझा जाए तो इसमें गलती किसकी है?<br />
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हजारों सालों के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद इस "सनातनी-व्यवस्था" ने अगर खुद बचाए और बनाए रखा है तो इसलिए कि वह एक साथ सैंकड़ों मोर्चों पर राजनीति करती है। बॉलीवुड एक मामूली-सा औजार है।</div>
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