Thursday, 6 September 2018

एससी-एसटी कानून और आरक्षण के विरोध का असली खेल..!



एससी-एसटी कानून पर सवर्णों का 'मोदी-विरोध' एक पाखंड से ज्यादा की औकात नहीं रखता और यह आरएसएस-भाजपा की ओर खेला गया एक धूर्त खेल है!

बिसात ये है..!

'दो अप्रैल' (2018) को और उसके बाद यह साफ हो गया कि बचा-खुचा दलित-आदिवासी वोट तो गया ही, अब पिछड़ी जातियों का भी एक बड़ा हिस्सा दलित-आदिवासियों के साथ गोलबंद हो गया। फिलहाल दलित-आदिवासी पूरी तरह मोदी और भाजपा के खिलाफ मूड में हैं और भाजपा के लिए यह एक बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई वोट के लिहाज से भी। लेकिन इससे ज्यादा यह हुआ कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और उसके समर्थकों की यह छवि स्थापित हुई और फैली कि वे दलितों-आदिवासियों के खिलाफ नफरत से भरे हुए हैं और आज भी उन्हें गुलाम बनाए रखने की जमीन बना रहे हैं। खासतौर पर एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह राय और ज्यादा मजबूत हुई कि भाजपा ने दलितों-आदिवासियों को फिर से सामाजिक गुलामी में जीने के रास्ते तैयार कर दिए हैं।

आज दलित आंदोलन जहां तक पहुंच गया है, उसे यह तथ्य समझने में दिक्कत या देरी नहीं हुई कि इस कानून को कमजोर किए जाने का जमीनी असर क्या होने वाला है! यह साफ-साफ दिखा भी, जब फैसले के कुछ महीने के दौरान ही अलग-अलग राज्यों में दलितों के खिलाफ सामाजिक बर्ताव और भाषा तक में भयावह क्रूरता आई। पहले भी जहां एससी-एसटी कानून के तहत एफआइआर दर्ज कराना और इस कानून के सहारे फैसले के अंजाम तक पहुंचना बेहद मुश्किल था, वहां इस कानून में सुप्रीम कोर्ट में लगाए गए फच्चर के बाद यह कानून दलितों-आदिवासियों के हक में लगभग बेअसर हो गया था।

यह प्रथम दृष्टया मराठों के आंदोलन की एक सबसे मुख्य मांग की जीत दिखी, लेकिन सच यह है कि इस देश में ऊंची कही जाने वाली तमाम जातियों का दिमाग आज भी सड़ांध से बजबजा रहा है और उसे हर वक्त अपनी इस हिंसक कुंठा को जाहिर करने के लिए अपने सामने किसी कमजोर सामाजिक हैसियत वाले इंसान की जरूरत महसूस होती है, ताकि वह उस पर भाषाई या शारीरिक हिंसा कर सके। और ऐसा करने के बाद कानूनन पूरी तरह सुरक्षित रह सके। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ऊंची कही जाने वाली जातियों को यही सुविधा मुहैया कराई थी।

शायद मोदी सरकार को यह अंदाजा था कि चूंकि इस कानून को व्यवहार में मार डालने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है, इसलिए दलित-आदिवासी तबके इसे अदालत के फैसले के रूप में चुपचाप स्वीकार कर लेंगे और इसकी गाज भाजपा के सिर पर नहीं गिरेगी। लेकिन यह भाजपा का वहम साबित हुआ। दलित आंदोलन आज जहां तक का सफर तय कर चुका है, उसे यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि राजपूतों, ब्राह्मणों, मराठों और दूसरी दबंग जातियों की ओर से इस कानून को खत्म करने की मांग के पीछे कौन है और इस तरह कौन उसके अस्तित्व को फिर से गुलामी की आग में झोंक देना चाहता है! दिखने में बिखरा हुआ लगता दलित आंदोलन आज अपनी जमीन पुख्ता कर चुका है और यही वजह है कि दो अप्रैल को बिना मीडिया के सहारे अपने स्तर पर आयोजित भारत बंद को एक ऐसी कामयाबी मिली, जिसे सामाजिक आंदोलन के इतिहास में शानदार तरीके से दर्ज किया जाएगा।

उस बंद और दलित-आदिवासी आंदोलन का मुख्य स्वर आज आरएसएस-भाजपा और मोदी विरोध है और इसने ठोस जमीन पकड़ ली है। देश की राजनीति में दलित-आदिवासी समूह की संगठित अभिव्यक्ति इस बार ही हो रही है और अच्छा है कि ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा इस संघर्ष में दलितों-आदिवासियों के साथ खड़ा दिख रहा है। यानी दलित-आदिवासी और ओबीसी के साथ मुसलिम आबादी के वोट को मिला दिया जाए तो 'हवा में उड़ गए जय श्रीराम' टाइप कुछ हो जएगा! यानी इतने बड़े समूह का वोट जब खिसक रहा हो, तो ईवीएम या चंद गिनती के लोगों के 'अपने समाज' यानी सवर्णों के भरोसे रह कर किस तरह की जीत हासिल होगी!

तो दिखाने के लिए सवर्णों की कीमत पर एससी-एसटी कानून में संशोधन को मंजूरी दी गई। इसके अलावा, बार-बार भाजपा सरकार की ओर से यह रट्टा मारा गया कि आरक्षण की व्यवस्था खत्म नहीं होगी... एससी-एसटी को प्रोमोशन में आरक्षण दिया जाएगा..! इसका खूब प्रचार किया गया कि मोदी सरकार एससी-एसटी के हक में काम कर रही है। जब इस धूर्तता को भी दलितों-आदिवासियों ने समझ लिया और खुद को भाजपा के हक में खड़े करवाने की हर कोशिश को नाकाम कर दिया, तब यह निश्चित हो गया कि दलित-आदिवासी और पिछडी जातियों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पास भी नहीं फटकेगा।

तो अगली बार गद्दी के लिए मोदी या भाजपा के पास तुरुप का पत्ता यह था कि मोदी सरकार दलितों की हितैषी है और अपने इस 'सरोकार' की खातिर वह सवर्णों को नाराज तक कर सकती है। तो इस बिसात के एजेंडे के मुताबिक सवर्णों की नाराजगी भारत बंद के नाम पर सड़क पर दिखाने की कोशिश हुई। इस फर्जी नाराजगी को मीडिया यानी लाउडस्पीकरों और मुखपत्रों के जरिए ज्यादा से ज्यादा प्रचार कराना तय किया गया कि सवर्ण एससी-एसटी कानून की वजह से मोदी सरकार से नाराज हैं। इससे एससी-एसटी के बीच यह संदेश पहुंचाने की कोशिश होगी कि एससी-एसटी कानून को मजबूत करके मोदी-सरकार दलितों का खयाल रख रही है, इसलिए सवर्ण नाराज हैं। यानी कि दलितों-आदिवासियों के बीच यह प्रतिक्रया उभारने की कोशिश हो रही है कि सवर्ण अगर एससी-एसटी कानून में संशोधन करने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं तो दलित-आदिवासी इसी मसले के बहाने से मोदी का समर्थन करेंगे।

लेकिन अफसोस... भाजपा और मोदी के लिए अफसोस यह है कि दलित-आदिवासी उनकी इस चाल को भी समझ गए हैं और अब कोई गुंजाइश नहीं बनी कि दलित-आदिवासी मोदी के पीछे भागें। दलित-आदिवासी यह समझ रहे हैं कि सवर्णों की ओर से जो फर्जी मोदी-विरोध सामने आ रहा है, वह उसी एजेंडे का हिस्सा है। वे जानते हैं कि सवर्णों के वोट फिलहाल उनकी सामाजिक सत्ता की फिर से वापसी की ग्रंथि से संचालित हो रहे हैं और वोटिंग के समय यह मोदी और भाजपा को ही पड़ना है। कहने का मतलब यह है कि सवर्ण वोट आमतौर पर हर हाल में भाजपा को ही पड़ना है।

तो एससी-एसटी कानून पर भारत-बंद करके सवर्णों के गिरोह किसे झांसा दे रहे हैं! अब उन्हें याद रखना चाहिए कि दलितों और आदिवासियों के बीच भाजपा और मोदी को लेकर एक ठोस राय बन चुकी है और उसके लिए समझना मुश्किल नहीं है कि सवर्णों की ओर से एससी-एसटी कानून और आरक्षण का विरोध करवाना भाजपा की चाल है। सवर्ण सिर्फ इतने भर के लिए भाजपा का साथ दे रहे हैं कि इन सब हड़बोंग के सहारे उनकी सामाजिक सत्ता यानी जातिगत हैसियत और व्यवहार में सामंती बर्बरता को संरक्षण मिलेगा... दलितों-आदिवासियों पर जुल्म करने, उन्हें जातिबोधक गालियां देने की छूट मिलेगी..! लेकिन उन्हें अब भी समझ नहीं आ रहा है कि दलित आंदोलन ने जो समझ और जमीन बनाई है, वह आने वाले समय में ब्राह्मणवाद की व्यवस्था के सामने कितनी बड़ी चुनौती रखने जा रही है।

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