Tuesday 31 May, 2016

नस्ल और जाति के खिलाफ नफरत के 'मामूली' औजार


फौजी रहे और फिलहाल देश के विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह की नजर में सबसे त्रासद और कई बार देश के सामने असुविधाजनक हालत खड़ी करने वाली घटनाएं भी 'मामूली' होती हैं। इसलिए जब दिल्ली में अफ्रीकी नागरिकों पर हमले के मामले पर व्यापक पैमाने पर चिंता जताई जा रही है, तो उन्होंने अपने विचार प्रकट किए कि ये हमले 'मामूली झड़प' थे और इसे महज मीडिया 'बढ़ा-चढ़ा कर' पेश कर रहा है। वीके सिंह के ये खयाल तब भी सबसे सामने हैं जब उनके ही महकमे की कैबिनेट मंत्री सुषमा स्वराज ने इस मामले की त्वरित सुनवाई के आदेश दिए हैं। ये वही वीके सिंह हैं जिन्होंने फरीदाबाद में दलित बच्चों को जिंदा जला दिए जाने की घटना पर कहा था कि 'कोई कुत्ते को पत्थर मारें, तो भी क्या सरकार जिम्मेवार है'।

सवाल है कि किसी अफ्रीकी मूल के व्यक्ति की सरेआम हत्या कर दी जाती है या उन पर बिना वजह के जानलेवा हमले किए जाते हैं, तो ऐसी घटनाएं वीके सिंह की नजर में 'मामूली' क्यों होती हैं? कहीं दो बच्चों को जिंदा जला दिया जाता है और उस घटना पर प्रतिक्रिया जाहिर करने के लिए वीके सिंह को कुत्ते का ही उदाहरण क्यों मिलता है? सामाजिक दुराग्रहों और आपराधिक कुंठाओं के साथ-साथ सीधे-सीधे व्यवस्था की नाकामी से उपजी घटनाओं के मामले में सरकार उन्हें पूरी तरह मासूम क्यों लगती है? आखिर कानून-व्यवस्था से लेकर सामाजिक विकास की कसौटी पर सरकार की जिम्मेदारी उन्हें इतनी 'मामूली' क्यों लगती है? वे फौजी रहे हैं, लेकिन अब वे विदेश राज्यमंत्री हैं। तो क्या उन्हें अपने पद की गरिमा और दायित्व का भी अहसास नहीं है?

दरअसल, वीके सिंह जो भी कहते रहे हैं, वे भारतीय आम जनमानस में घुले आग्रहों-पूर्वाग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। क्या यह छिपा हुआ है कि सड़कों पर जैसे ही अफ्रीकी मूल अश्वेत चेहरे देखते ही भारत के परंपरागत पिछड़ी मानसिकता में जीने वाले लोगों के भीतर कौन-से खयाल उमड़ने लगते हैं? अश्वेत लोगों के खिलाफ सीधे-सीधे नफरत के भाव का सिरा कहां से शुरू होता है? आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि अश्वेत समुदाय के लोगों को देखते ही भारत के ज्यादातर लोगों के मन में शायद ही कोई सकारात्मक भाव उभरता है? अश्वेत या काले रंग के लोगों के प्रति ये दुराग्रह किस तरह की सोशल कंडीशनिंग का नतीजा हैं?

कई बार खुद जनप्रतिनिधि कहे जाने वाले लोगों का व्यवहार ऐसा होता है कि समाज को अपने आग्रहों के साथ और ज्यादा ठोस होने की खुराक मिलती है। दिल्ली में पहली बार जब आम आदमी पार्टी की सरकार बनी थी तब उसके एक मंत्री सोमनाथ भारती और उनके साथियों ने स्थानीय लोगों के साथ मिल कर अफ्रीकी मूल की चार महिलाओं के साथ जैसा अपमानजनक बर्ताव किया था, वह अश्वेत लोगों के प्रति सामाजिक दुराग्रहों का ऐसा ही उदाहरण था।

एक लोकतांत्रिक समाज में सरकारें तमाम ऐसे इंतजाम करती हैं जिनमें सभी नागरिकों के भीतर इंसान के प्रति बराबरी और संवेदनशीलता के भाव का विकास हो। लेकिन किन वजहों से एक मंत्री को अफ्रीकी मूल के लोगों पर किया गया 'नस्लीय हमला' कोई मामूली घटना लगती है? क्या यह सामाजिक सत्ताधारी तबकों के बीच नस्ल और जाति की सामाजिक हैसियत की वजह से अपमान और यातनाओं को एक सहज स्थिति मान लेने का प्रतिनिधि स्वर है?

यों, दुनिया भर में अश्वेत समुदायों के खिलाफ श्वेत माने जाने वाले समुदायों के बीच धारणाओं और व्यवहार का एक त्रासद इतिहास रहा है। लेकिन भारत में यह ज्यादा जटिल हो जाता है। यहां चूंकि पहले ही दलित-वंचित जातियों को उनकी सामाजिक अवस्थिति के अलावा शरीर के रंग से भी चिहि्नत किया जाता रहा है, उसमें जो लोग गौर-वर्ण नहीं हैं, उनके लिए सत्ताधारी तबकों के बीच सिर्फ हेय दृष्टि ही है। जातीय ऊंच-नीच की बुनियाद से तय होने वाले रंगों के प्रति यही आग्रह अश्वेत समुदाय तक पहुंचते-पहुंचते नस्लीय घृणा में तब्दील हो जाता है। समाज के स्तर पर इस भाव और सोच के बने रहने की अपनी वजहे हैं जहां पैदा होने के बाद से ही जाति और रंग को लेकर एक दुराग्रह का भाव पाला-पोसा जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि सरकार के स्तर पर भी फौरी प्रशासनिक कदमों के अलावा सामाजिक विकास के पैमाने पर कुछ भी ऐसा नहीं किया जाता है, जिससे साधारण लोगों के बीच इस तरह के भावों से दूरी बनाने की स्थिति बने, माइंडसेट के स्तर पर कोई बदलाव हो।

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