चेतन भगत के नाम खुला पत्र...
प्यारे चेतन भगत जी,
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के हिसाब से उसके एक दिन पहले महिलाओं के नाम लिखे गए आपके खुले चिट्ठीनुमा उपदेश "महिलाओं को बड़े सपने देखना चाहिए" पढ़ने का मौका मिला। मैं आपके इस उपदेश-खंड के लिए उपमा तलाश रहा था कि मुझे वह पुरानी उक्ति याद आई कि "नया में आके साधु बने तो पानी को बोले जल...!" आप सोच रहे होंगे कि ये मैंने कौन-सा तुक्का कहां से जोड़ा! दरअसल, उपमाओं की सुविधा यह होती है कि आप अपनी सुविधा से किसी विचार या स्थिति की व्याख्या को सहज बनाने के लिए इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। इस लिहाज से देखें तो अपने उपदेश-अध्याय में आपने महिलाओं को जो कई सलाह पेश किए, उस क्रम में न सिर्फ आपके व्यक्तित्व का "पुरुष" सिर कर चढ़ बोलता दिखा, बल्कि चुपके-से आपने अपने प्रवचन में ऐसे खेल किए जो प्रथम दृष्ट्या प्रगतिशीलता का स्वागत लगता है, मगर वास्तव में मुक्ति और अपनी अस्मिता के लिए जद्दोजहद करती स्त्री को "डिग्रेड" करता है, उसे खारिज करता है और उसकी खिल्ली उड़ाता है।
लेकिन इसमें नया क्या है! कुछ समय पहले आपकी एक किताब "रिवोल्यूशन- 2020" का विज्ञापन प्रसारित हुआ था। यहां आपको नहीं, जरा अपनी भुलक्कड़ जनता को याद दिलाना चाहिए। एक लड़का बेडरूम में बिस्तर पर लेटा आपकी किताब पढ़ रहा है। कमरे में एक युवती आती है, अदाएं बिखेरती हैं, एक-एक कर अपने सारे कपड़े उतार देती है, लड़के को "आमंत्रित" करती है। लेकिन यह सब देखता हुआ लड़का किताब में "मगन" है और उस युवती की उपेक्षा करता है। युवती हार कर लड़के के बगल में लेट जाती है और वह भी किताब के पन्नों को देखने लगती है। अपनी किताब के प्रचार के लिए स्त्री के "व्यक्ति" पक्ष को इतना डि-ग्रेड करना, अपमानित करना शायद आपसे ही संभव था भगत जी! जबकि आपको पता होगा कि आपकी किताबों का सबसे बड़ा पाठक वर्ग युवा महिलाएं ही हैं और शायद इसीलिए आप संदर्भ दूसरा देते हैं, मगर घोषणा करते हैं "अधिकांश भारतीय महिलाएं भावनात्मक रूप से मूर्ख होती है।" मेरा मानना है कि मूर्खता की आपकी परिभाषा पर जिस दिन उनका ध्यान जाएगा तो वे सबसे पहले आपकी किताबों को ही कूड़े में डालेंगी।
आपकी किताब में क्या है, था, इस पर सिर खपाना अपनी ही बेवकूफी का विज्ञापन होगा। लेकिन एक बचकाना-सा सवाल आपसे है भगत महोदय कि क्या आप अपनी "किताब" के विज्ञापन में लड़के और लड़की की जगह अदला-बदली नहीं कर सकते थे? मुझे लगता है कि नहीं कर सकते थे। मैने कई "माइसोजिनिस्टों" को अपनी स्वीकार्यता के प्रसार के लिए "प्रोग्रेसिव" चोला ओढ़े देखा है। लेकिन आखिरकार मामला नजरिये या "माइंडसेट" का होता है, जिससे वह व्यक्ति संचालित होता है। बस उसकी चाल पर थोड़ी-सी नजर रखी जाए और किसी वक्त एक पेड़ की आड़ में होकर धीरे-से "हुआं" कर दिया जाए! वह खुद-ब-खुद "हुआं-हुआं..." गाना शुरू कर देगा।
बहरहाल, आपकी इस चिट्ठी को पढ़ने के बाद साफ हो जाता है कि आपने इसे लिखने के पहले खूब तैयारी की, एक-एक बिंदु पर खूब सोचा और फिर अपनी "तलवार" के साथ-साथ एक बहुत मजबूत-सी ढाल का भी प्रदर्शन किया जो आखिरकार एक लिजलिजा परदा भर साबित हुआ।
यह आपके लिए शायद नई बात होगी कि सामाजिक इतिहास में प्राकृतिक बाध्यताओं का फायदा उठा कर पुरुष ने स्त्री पर कब्जा जमाया तो उसे एक विधान का शक्ल देना भी उसे जरूरी लगा होगा। सो, वेदों-शास्त्रों को खींचते हुए उसने (मनु)- स्मृति तक सफर तय किया। आपकी "प्रगतिशील" बातें उन्हीं "स्मृतियों" का आधुनिक रूपांतर लगती हैं। इस आधुनिक कहे जाने वाले वक्त में अपने "प्राचीन स्वरूप में स्मृतियां" जिंदा रह भी कैसे सकती थीं! उस प्राचीनता में आधुनिकता की छौंक जरूरी थी। सो, यह आपके चेहरे के जरिए भी संभव हुआ।
दरअसल, सामाजिक सत्ताओं की शक्ल में कायम कोई भी व्यवस्था इसी तरह चेहरे बदल कर व्यवस्था विरोधी तत्त्वों के बीच घुसती है और फिर उसकी कमजोरियों का फायदा उठा कर उसे अपने कब्जे में ले लेती है। इसी सूत्र को आजमाते हुए आपने भी ऐसी ही घुसपैठ की कोशिश की है। आप जानते हैं कि आपको इसका मौका कैसे और क्यों मिला। यह सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी अपने सहज ज्ञान से आकलन कर सकता है कि किसी भी रास्ते महंत बन जाया जाए, उसके बाद प्रवचन सामाजिक विशेषाधिकार हो जाते हैं। तो अपने महंत बनने का रास्ता भी आप अच्छी तरह जानते होंगे!
वैसे आप तो यह भी जानते ही होंगे कि "मैज़ोकिज्म" के अभ्यस्त बना दिए गए हमारे समाज में जो लोग इसका शिकार होते हैं, उनसे सबसे पहले उनका अस्तित्व ही छिन जाता है। त्रासदी यह कि इसका उसे पता भी नहीं चल पाता। तमाम धर्माधिकारियों की सत्ता इसी सूत्र की वजह से खड़ी होती है, पलती और मोटाती है।
कुछ "लोकप्रिय" किताबों के "लोकप्रिय" होने और फिर आपके "मशहूर" होने के बाद कुछ अखबारों ने आपका नाम अधिक बिक्री योग्य समझा और आपके कॉलम भी "लोकप्रिय" होने लगे। फिर जब आपने गुजरात जनसंहार के नायक की आरती गाना और उसके साथ फोटू खिंचवाना शुरू किया तो सामाजिक सत्ता-केंद्रों को आपको महंत के तौर पर कबूल करने में कोई उज्र नहीं हुआ।
एक स्वघोषित महंत पहले जबर्दस्ती प्रवचन देता है, फिर मजबूरी की स्वीकृति के बाद उससे प्रवचन मांगे जाने लगते हैं। भगत जी! मुमकिन है कि आप इस प्रक्रिया को समझते नहीं हों, लेकिन चूंकि इससे गुजर रहे हैं, इसलिए थोड़े रोमांचित जरूर होते रहे होंगे।
बहरहाल, आप थोड़े दया के पात्र इसलिए भी हैं कि महिलाओं के लिए अपने उपदेश जारी करते हुए आप लगभग शुरू में यह बताते हैं कि आप सौ फीसद और चौबीस कैरेट मर्द हैं और घोषणा करते हैं "जोखिम उठाना (हम) मर्दों के लिए कोई नई बात नहीं है।" आपकी इस बात पर मेरे कान में दो-तीन बातें गूंजने लगीं- "जबर्दस्ती महंत बनना "मर्दों" के लिए कोई नई बात नहीं है...!", " हर मामले में अपनी नाक घुसेड़ना "मर्दों" के लिए कोई नई बात नहीं है...!", "अपनी रीढ़ को किसी के हाथों गिरवी रख देना "मर्दों" के लिए कोई नई बात नहीं है...!"
खैर, आपने महिलाओं के लिए जो पांच सलाह जारी किए, वे इस प्रकार शुरू होती हैं- "महिलाओं को दूसरी महिलाओं के बारे में राय बनाने की उत्कट इच्छा होती है; स्कर्ट पहनी किसी लड़की को देख कर महिलाओं के दिमाग में उनके चरित्र को लेकर शंकाएं पैदा होने लगती हैं, जबकि वे खुद भी हर पैमाने पर परफेक्ट नहीं हैं; वे दूसरी महिलाओं को खुल कर सांस लेने का मौका नहीं देतीं।"
तो भगत जी, अव्वल तो किसी भी मूर्ख को आपकी इन बातों पर मुग्ध होना चाहिए। लेकिन आप जब इस तरह स्थापनाएं प्राकृतिक सत्य की तरह "उदघाटित" कर रहे हैं तो क्या आपने कभी ये सोचने की जहमत उठाई कि अगर ऐसा है तो इसकी जड़ों में क्या वजहें हो सकती हैं? चलिए, आपने जो कहा, मैं उसे थोड़ा स्पष्ट करता हूं। हिंदू समाज में दहेज के लिए जिन महिलाओं को मार डाला जाता है, उसमें आमतौर पर सबसे बड़ी भूमिका सास और ननद की होती है। तो आपके फार्मूले के हिसाब से ये हुआ कि महिलाएं ही महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। लेकिन चूंकि आप महंत जी हैं, इसलिए आप स्त्री के उद्धार को लेकर फतवा जारी कर सकते हैं और किसी स्त्री के "परफेक्टनेस" के पैमानों की घोषणा कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में आपसे यह समझने की उम्मीद करना बेवकूफी होगी कि दहेज के लिए बहू को प्रताड़ित करने या मार डालने में सहयोग करती हुई वह सास या ननद दरअसल उन पितृसत्तात्मक मूल्यों को ही जी रही होती हैं जो पैदा होने के बाद उनके दिमाग में ठूंसी जाती रही हैं, उसी के तहत उसकी कंडीशनिंग होती है। यह भी शायद आपके लिए नई बात होगी कि पितृसत्ता एक संस्कृति है, जिसमें पलने-बढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति उन्हीं मूल्यों को जीएगा, उसी माइंडसेट से संचालित होगा- वह पुरुष हो या स्त्री।
और इसीलिए पितृसत्ता सवालों की दुश्मन है। स्त्री के दिमाग में अपनी त्रासदी को लेकर प्रश्न पैदा हो, इससे पहले ही वह उसे दफन करने का हर इंतजाम करती है। बल्कि त्रासदियों का महिमामंडन और इन पर गर्व करने की साजिशों का सफल खेल अगर देखना हो तो खासतौर पर भारतीय हिंदू पितृसत्ता का अध्ययन करना चाहिए। इतनी सहज और साधारण बात अगर आपकी समझ में नहीं आई तो यह स्वाभाविक ही है और आपसे इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मनोविज्ञान को समझ पाने की उम्मीद करना आपके साथ थोड़ी ज्यादती होगी!
आपकी इसी बेवकूफी से आपकी दूसरी सलाह पैदा होती है कि स्त्रियां पुरुषों के अहं को तुष्ट करने के लिए तत्काल तैयार हो जाती हैं; पुरुषों के चुटकुलों पर हंसती हैं; ऑफिस में मर्दों के मुकाबले कम महत्त्वपूर्ण काम करने के लिए तैयार हो जाती हैं; और सामूहिक रूप से समानता की मांग का कोई मतलब नहीं है, अगर कोई स्त्री व्यक्तिगत स्तर पर पुरुषों को खुश करने के लिए खुद को कमतर और नासमझ दिखाने को तैयार रहती हैं। इसी में आपका तीसरा उपदेश भी जुड़ा हुआ है कि महिलाएं संपत्ति के अपने वैधानिक अधिकार को अपने भाई-बेटे या पति के लिए "छोड़ देती हैं।" इसकी वजह आपकी निगाह में यह है कि "अधिकांश भारतीय महिलाएं भावनात्मक रूप से मूर्ख होती हैं।"
दिलचस्प है! जिस व्यक्ति को इस समाज की सत्ता-संरचना, इसकी बुनियाद पर तैयार होने वाले सामाजिक मनोविज्ञान और व्यक्ति की चेतना के लिए जिम्मेदार सामाजिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी नहीं लगता, लेकिन वह यह फतवा जारी करने में आगे रहना चाहता है कि कोई व्यक्ति या समूह मूर्ख है। तो उसकी दयनीयता की वजह समझी जा सकती है।
भगत जी, किसी भी समाज से लेकर किसी दफ्तर में "पावर" और "पोजीशन" के संबंध और कार्य-व्यवहार पर उसके असर के बारे में आपने कभी सोचा है? अजी छोड़िए! ये भी क्या सवाल कर लिया आपसे! अगर आपने सोचा ही होता तो क्या बात थी! बहरहाल, भगत साहब, "पद" और "हैसियत" एक ऐसी "ताकत" है, जिसके बूते किसी भी मातहत या सहयोगी को मानसिक दबाव की स्थिति में लाया जा सकता है। खासतौर पर आपकी महान भारतीय परंपरा में केवल दफ्तरों में नहीं, बल्कि समाज में हर कदम पर "पद" और "हैसियत" आमतौर पर खुद से एक क्रम "नीचे" वाले को निगल कर ही अपनी सत्ता बचाए रखता है। वहां स्त्री हो या पुरुष, हर जतन से उसे तुष्ट करने की स्वाभाविक कोशिश करेंगे, ताकि खुद को ज्यादा से ज्यादा वक्त तक बचाए रख सकें।
जहां तक पुरुषों के मुकाबले कम महत्त्वपूर्ण काम करने के लिए तैयार हो जाने का सवाल है, तो प्यारे भगत जी, जरा पता कीजिएगा कि किसी भी ऑफिस में सक्षम होने के बावजूद किसी स्त्री को कम महत्त्व के काम ही क्यों सौंपे जाते हैं; कई जगहों पर बराबर महत्त्व और मेहनत के काम के एवज स्त्री को कम मेहनताना क्यों दिया जाता है। अगर किसी स्त्री को महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जाती है तो वे कहां कमतर साबित होती हैं और तब उसके पुरुष मातहत या सहयोगियों का रवैया कैसा रहता है? पुरुषों के "शाही अहं" से क्या आप इतने अनभिज्ञ हैं, प्यारे भगत जी! ऐसा लगता तो नहीं है!
आपकी इस बात में किसी मजेदार लतीफे-सा असर है कि सामूहिक रूप से समानता की मांग बेमानी है, अगर कोई स्त्री व्यक्तिगत स्तर पर पुरुषों को खुश रखने के लिए खुद को कमतर आंकती है। आपको यह सोचना जरूरी क्यों लगे कि निजी स्तर पर खुद को किसी के सामने कमतर आंकना एक व्यक्ति की मजबूरी भी हो सकती है। लेकिन अगर वही व्यक्ति सामूहिक रूप से समानता की मांग करता है तो इसका मतलब यह है कि चेतना के स्तर पर वह अपनी स्थिति को लेकर एक पायदान ऊपर चढ़ चुका है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। निजी स्तर पर विरोध की सीमाओं के कारण ही कोई व्यक्ति सामूहिक स्तर पर उठाई जाने वाली आवाज में शामिल होता है। सामूहिक रूप से समानता की मांग के असर में अगर एक समानता आधारित व्यवस्था की बुनियाद पड़ती है तो व्यक्ति का व्यवहार खुद-ब-खुद उससे निर्धारित होगा, बदलेगा। यह द्विपक्षीय भी हो सकता है। इसलिए सामूहिक और वैयक्तिक व्यवहार को एक तराजू पर हर बार नहीं तोला जा सकता। लेकिन आप चूंकि महंत जी हैं, इसलिए आपको किसी भी मसले के "क्यों" पर सोचना जरूरी नहीं लगता और सीधे तौर पर संपत्ति छोड़ने वाली महिलाओं आप भावनात्मक तौर पर मूर्ख घोषित कर दे सकते हैं। बजाय इसके कि भाई-बेटे, पति या "इमोशनल ब्लैकमेलिंग" पर आधारित पितृसत्तात्मक मनोविज्ञान पर भी जरा विचार कर लें।
बहरहाल, जब आप अपनी चौथी सलाह में कहते हैं कि हमारी सामाजिक संरचना ही शायद ऐसी है कि महिलाओं को पुरुषों की तरह महत्त्वाकांक्षी बनने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता, तो एकबारगी ऐसा लगता है कि आप अगर कोशिश करें तो सोच सकते हैं। मगर अपने अगले और आखिरी उपदेश में जब आप महिलाओं को अपनी अहमियत पहचानने के लिए शिव खेड़ा और स्वेट मार्टन टाइप फार्मूले बताते हैं, तो पेट पकड़ कर हंसने का मन करता है। फिर जब आप अपने श्रीमुख से घोषित "भावनात्मक रूप से मूर्ख महिलाओं" के लिए अपने उपदेशों से उपजने वाले संकट का अंदाजा लगा कर अपनी बातों का मतलब और उसके पीछे की भावना को समझने की गुहार लगाते हैं तब जाकर पता लगता है कि मूर्खता दरअसल होती क्या चीज है!
और भगत जी, आखिर में मैं आपको एक उपदेश देना चाहूंगा। आज की जिस स्त्री को आपने संबोधित किया है, वे दरअसल उतनी मूर्ख नहीं रह गई हैं कि आपकी बेसिरपैराना महंतई प्रवचनों के हिसाब से अपनी जिंदगी का फलसफा गढ़ें। वे अपने बूते एक नई जमीन, नई दुनिया रच रही हैं। आप जैसे पितृसत्ता के चौबीस कैरेट मर्द एजेंट के लिए कोई संकट खड़ा करने में वे अपनी ऊर्जा बर्बाद नहीं करेंगी, जिसकी आशंका आपने जताई है। जाहिर है, आने वाले वक्त की स्त्री जो दुनिया गढ़ने वाली है, उसमें अपने बचाव के लिए आप चाहें तो अपने मित्र नरेंद्र मोदी से किसी "मेन्स डे" की व्यवस्था की गुहार लगा सकते हैं, जिसके न होने का डर आपने जाहिर किया है!
शुक्रिया...
5 comments:
बहुत बढिया लिखा है और यह जरुरी भी था लिखना।
aap dwara diye gaye link k thru Chetan G ka article bhi padha aur us par aapki bebaak tippani aur raay bhi padhi. Laga ki Chetan G ko karara jawab humari or se de diya gaya hai, basharte ye un tak pahunch sake. Mahilaon ko lekar tathakathit buddhijiviyon ke bheetar baithi pitrsattatmak soch isi tarah kabhi kabhi jahir ho jati hai, chahe vo use kitne hi labadon me lapet kar parosen, par unke bhitar lipti sachchhayi aise hi koi na koi pakad hi leta hai...fauri taur par Chetan ki baaten shayad sabhi ko thik lagen kyounki unhone jagah jagah maafi mangte hue dil ki bhadaas nikali hai, magar use goodh arthon ko samajhen to pata chalta hai ki pragatisheelta ke sath sath humare(mahilaon k) raste aur bhi mushkil hote jaa rahe hain, jahan Chetan jaise pragatisheel logon ki bhi kami nahi hai.
ऐसे पूंजीवादी कलमघसीट लेखको का अस्तित्व असली जनवादी क्रांति से ठीक पहले बहुत परवान चढ़ता है .
और ये इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जरूरी भी है , मानव समाज को सही से समझने की बजाय सामन्ती पूंजीवादी संस्कारों के तहत औरतो की व्याख्यया करने के लिए चेतन भगत जैसे चलताऊ लेखको की एडवरटाइसिंग खुद इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह को दबाने की एक और चाल होती है .
बहुत बढ़िया पोल खोली है आपने इसकी ! ........जारी रहे ..
Vishvnath
इत्तेफाक से मैंने भी चेतन भगत के उस आर्टिकल में झाँका था...लेकिन चेतन भगत के नाम से ही पढने का मन नहीं हुआ..आपको लड़कियों- औरतों के ऐसे 'बाप' कदम कदम पे मिल जायेंगे...वैसे मोदी जैसे ही चेतन भगत की 'लोकप्रियता' भी 'स्वतःसिद्ध' है..हमारा कारपोरेट मीडिया इन दोनों को हाथो हाथ लेता है..आपने काफी सारगर्भित तरीके से चेतन की चुटकी ली है...अपना ये लेख दैनिक भास्कर को भी भेजें तो अच्छा रहेगा..चेतन भगत तक पहुच जाये तो और अच्छा ..ब्लॉग जल्दी जल्दी अपडेट किया करिए..
कृति
www.kritisansar.noblogs.org
v .nice article ...don't waste your energy for chetan he is v ordinary writer only low i.q ppl read him.
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