Saturday, 24 April 2010

सलवा जुडूम जिंदाबाद! बाल्को (कांड) जिंदाबाद!

उन्हें बहुत पीड़ा हो रही है कि एक अदने-से पुलिस अफसर को छुड़ाने के लिए बड़ी मुश्किल से हाथ आये तेईस ‘आतंकवादियों’ को क्यों छोड़ दिया गया? हां, कुछ फैशनपरस्त लोगों की निगाह में अभावों में जीते-मरते और सड़कें खोद कर यह मान लेने के लिए शिक्षित या बाध्य किये गये लोग ‘आतंकवादी’ हैं कि अब पुलिस इस तोड़ या खोद दी गयी सड़क को नहीं पार कर सकती। खैर, पुलिस तो हर हाल में सड़क पार करती है और वही करती है, जो उसे करना है। एक और खैर इसलिए कि हमारी सरकार से पहले सरकार चलाने वाले बहुत सारे लोगों ने मान लिया था कि माओवादी इस देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं। हालांकि जब सरकार चलाने वालों ने मान लिया था तो सरकार का यह मानना तो लाजिमी है।

वे इस बात से बहुत परेशान और दरअसल बेचैन हो गये हैं कि अगवा किये गये एक दो कौड़ी के अफसर के लिए ‘आतंकवादी’ बन गये दो कौड़ी के करीब-करीब दो दर्जन लोगों को क्यों छोड़ दिया गया (क्या वे भयोन्माद में चले गये हैं, या यह नफरत और हिकारत का उन्माद है?)। हालांकि उनका यह विलाप सही भी है कि यों भी इन लोगों का जीना क्या जीना! मर जाएं तो ज्यादा बेहतर! जीना तो सिर्फ उनका ज़रूरी होता है, जिनकी जान की कोई ऊंची कीमत होती है। यह कीमत पैदाइशी हो सकती है, विरासती हो सकती है और नफासती भी हो सकती है।

अगवा करके कंधार ले जाये गये लोग इसी कैटेगरी के थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री के घरों की खिड़कियां तोड़ देने की घटना याद है किसी को? तब मसूद अजहर या उसके साथियों से देश के सामने खड़ा ‘ख़तरा मिट चुका था’ और अगवा कर कंधार ले जाये गये लोगों का बचना ‘देशहित में ज़रूरी था।’ उनके लिए मसूद अजहर को अगर छोड़ा गया, तो इस मानव समाज पर कितना बड़ा एहसान किया गया! वहां मसूद अजहर और उसके साथी तो कीमती थे ही, उन लोगों की जान ज़्यादा कीमती थी, जिन्हें बचा लिया गया।


उस वक्त सरकार ने इस दुनिया पर कितनी मेहरबानी की थी, यह दो कौड़ी के किसी शख्स को छुड़ाने के लिए दो कौड़ी के तेईस लोगों को छोड़ देने वाले लोग क्या समझेंगे। क्या फर्क पड़ता? अतींद्रनाथ दत्त हवा में उड़ान भरने वाला कोई आईएएस रैंक का या शीर्ष पुलिस अधिकारी तो था नहीं कि राज्य की ताक़त में कोई कमी आ जाती! (झारखंड में इंदीवर नाम के पुलिस वाले की गर्दन रेत दी गयी तो किसको क्या फर्क पड़ा। वह तो ‘शहादत’ थी। शहीद वे नहीं होते जिनकी जान की कीमत ऊंची होती है)। और न इन तेईस लोगों को फांसी पर लटका देने से दुनिया में कोई भूचाल आ जाता। (यों भी, सुना है कि फांसी में लगभग सौ प्रतिशत आरक्षण है।)

इससे क्या होता है कि इनमें ज्यादातर को महज सड़क खोदने, तोड़ने या रास्ता बाधित करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, इन पर मामूली धाराएं लगी थीं, और कि इन्हें जमानत पर छोड़ा गया। इस पर भी गौर करने की क्या ज़रूरत है कि ‘युद्ध’ के दौरान अपने जिन छापामार या गुरिल्ला लड़ाकुओं के ढाल के तौर पर वे इस्तेमाल होते रहते हैं, उनके पास अचानक ‘गायब’ हो जाने की ट्रेनिंग होती है, और ये तो पहले ही दुनिया की तमाम तकलीफें झेलने के लिए पैदा हुए होते हैं। सामाजिक सत्ता की बर्बरताओं और अत्याचारों से लेकर राजनीतिक सत्ता तक के जुल्मों को झेलने को अभिशप्त…! और उसके बाद इस्तेमाल होने की नियति…! अपने ‘उद्धारकों’ की ढाल बने अगर पुलिस की गोलियों से बच गये, तो अदालतों में सजाए-मौत का इंतज़ाम किया जाए इनके लिए…! तब जाकर छाती ठंडी होगी हमारी…!

पश्‍िचम बंगाल सरकार ने तो पहले ही ‘अपराध’ किया था कि इन ‘आतंकवादियों’ पर पोटा (माफ कीजिएगा, यूपीए अभी ज़ुबान पर चढ़ा नहीं और और यूएपीए बोलते हुए ज़ुबान फिसल जाती है) नहीं लगाया था। टाडा से लेकर पोटा और यूपीए (फिर यूएपीए को यूपीए कह गया) – सब का गोदना (गोदना समझने में दिक्कत होगी, टैटू याद रहेगा) कपार पर गुदवा देना चाहिए था। आखिर छत्तीसगढ़ की सलवा जुडूमी सरकार ‘आतंकवादियों’ के सफाये का गौरव हासिल करने की ओर बढ़ ही रही है। शायद इस उपलब्धि के लिए इस सलवा जुडूमी सरकार को हमारे देश की यूएपीए सरकार (फिर कन्फ्यूजन!) राष्ट्रीय सुरक्षा के सर्वोच्च पुरस्कार से भी नवाजे।

बहरहाल, माओवादियों को आतंकवादी मानने से इनकार करने वाले और उनके साथ राजनीतिक तरीके से निपटने की वकालत करने वाले लोग तो अपराधी होंगे ही! ये इसलिए ज़्यादा बड़े अपराधी होंगे क्योंकि दो कौड़ी के ‘आतंकवादियों’ को इन लोगों ने उनके बराबर करके तोल दिया, जिनके बिना यह देश और संसार ज़‍िंदा नहीं रह सकता था।

माओवादियों को आतंकवादी मानने से इनकार करने वाले और उनके साथ आदर्शों की लड़ाई लड़ने या उनसे राजनीतिक स्तर पर निपटने वालों को अपराधी साबित किया जाना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जंगल और जंगल की संपत्ति पर कब्जा करने के लिए छत्तीसगढ़ की सलवा जुडूमी सरकार की स्वीकार्यता के लिए अनुकूल हालात पैदा किये जा सकें। बुद्धदेव भट्टाचार्य की तुलना बार-बार नरेंद्र मोदी से किया जाना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता के लिए आदर्श हालात पैदा किये जा सकें।

किसी के लिए यह देखना ज़रूरी नहीं होना चाहिए कि पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ या आंध्र प्रदेश में इस लड़ाई की प्रकृति में क्या फर्क है। एक तरफ एक मामूली अफसर के लिए बहुत मामूली लोगों को छोड़ने की ‘मूर्खताएं’ और दूसरी ओर, मामूली लोगों के खिलाफ मामूली लोगों की फौज खड़ी कर दी जाती है। आंध्र प्रदेश में बाकी सभी तरह की हवाओं पर ‘लोकतंत्र’ की हवा आच्छादित हो चुकी है।

शांत रहिए। देखते नहीं कि नागरिक अपनी ‘सुरक्षा’ खुद कर रहे हैं! पद- विशेष सुरक्षा अधिकारी…। तनख्वाह – बारह सौ रुपये प्रति माह…। कंधे पर शायद एक बंदूक…। दो कौड़ी के सारे लोगों को एक दूसरे के खिलाफ युद्ध में लगा दो। जो मरेंगे, सो मरेंगे। जो बचेंगे, वे? बहुत सारी कंपनियां आएंगी, बारह सौ रुपये महीना पगार देने वाली..।

सलवा जुडूम जिंदाबाद…!!! वेदांता टू बाल्को (कांड) जिंदाबाद…!!!

जहां चार दर्जन मामूली लोगों की मौत की जवाबदेही किसी पर न आये, इसके इंतज़ाम किये जाते हैं, वहां एक मामूली शख्स की वापसी के लिए दो दर्जन मामूली लोगों को छोड़ देंगे आप! पॉलिटिकली और आइडियोलॉजिकली परास्त करने की बात करेंगे आप! उनकी चेतावनी पर गौर कीजिए। वे बहुत गुस्से में हैं और चाहते हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार को इस ‘अपराध’ की सज़ा मिलनी चाहिए। अगर लड़ सकते हैं तो लड़िए, नहीं तो डरिए… क्या कहा…? फिर राजनीतिक और आइडियॉलॉजिकली…? चुप रहिए… आपकी ज़ुबान से मामूली लोगों की आवाज़ फूटने का भरम होता है…

श्श्श्श्श्… श्श्श्श्श्… श्श्श्श्श्… शांति… बनाए रखिए…!

…सुना है शीर्षासन से शरीर का कायाकल्प हो जाता है! इसलिए बुद्धि के जीवी ममता की छांव में योगा कर रहे हैं…!

(28 अक्टूबर 2009 मोहल्लालाइव पर)

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