Saturday 24 April, 2010

बंगाल में मौकापरस्ती का खेल बनी हुई है बुद्धिजीविता

पक्षधरता क्या इतनी निकृष्ट हो सकती है…?

कोलकाता में शोमा दास को रेप करा देने की धमकी पर बहस के दौरान कुछ लोगों का मानना था कि यह घटना एक गढ़ी हुई कहानी हो सकती है। कोई भी किसी महिला को इस तरह की धमकी नहीं दे सकता। युवा पत्रकार शोमा दास एक बजे रात को वहां अकेले क्या कर रही थी। शोमा दास पत्रकारिता की नयी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रही हैं (यह वाक्य एक खास लहजे में कही गयी)। शोमा दास चूंकि सीपीएम संचालित चैनल चौबीस घंटा में काम करती है इसलिए उससे सहानुभूति रखना गैरजरूरी है, वगैरह-वगैरह। ध्यान रखिए कि इस तरह की सारी बातें एक साथ की गईं। यह भी कहा गया कि इस घटना को सामने रखने के पीछे पुण्य प्रसून वाजपेयी का निजी आग्रह है। एकाध सीधे कोलकाता से लिखने वाले की बात को अंतिम सत्य की तरह पेश किया गया।

हालांकि पुण्य प्रसून वाजपेयी के साथ या उनसे पहले ही ‘द हूट’ पर अजिता मेनन ने साफ लिखा कि बंगाल फिलहाल किस तरह के त्रासद ध्रुवीकरण से गुजर रहा है कि अगर एक पत्रकार को किसी खेमे की पहचान मिली हुई है, तो उसे किसी खास मौके की रिपोर्टिंग करने से रोका जा सकता है, अपमानित किया जा सकता है, सबसे गलीज़ धमकी दी जा सकती है, हत्या की कोशिश या साजिश के मुकदमे में फंसा दिया जा सकता है। अजिता मेनन ने शोमा दास के साथ हुए बर्ताव के बहाने घटना का ब्योरा ज्यादा विस्तार और वस्तुपरक तरीके से दिया है, जिसे पढ़ने के बाद किसी को भी विचलित होना चाहिए।

हो सकता है कि इसमें पहले की कुछ इस तरह की घटनाएं उभर कर सामने आएंगी, लेकिन बंगाल में खासतौर पर लोकसभा चुनावों के बाद जिस राजनीति ने जोर पकड़ा है, उसका असर साफ तौर पर सामान्य जन जीवन के साथ-साथ पत्रकारिता पर भी देखा जा सकता है। अपना और अपने ‘दुश्मन’ का पक्ष निर्धारित करने के बाद किसी नागरिक के साथ-साथ किसी पत्रकार के साथ भी अपना व्यवहार तय करना दरअसल बंगाल का नया फैशन बन रहा है।

शोमा दास को बलात्कार करा देने की धमकी के तथ्यगत रूप से भी सामने आ जाने के बावजूद अगर कुछ लोगों को इस पर विश्वास करने में परेशानी हो रही है, तो इसके कारण समझे जा सकते हैं। (किसी घटना का एक ही तरह का ब्योरा सभी स्रोतों से मिल रहा हो तो संदेह करने वालों को खुद पर संदेह करना चाहिए)। आज भी संघी जमात के पास गुजरात दंगों को सही ठहराने के तर्क मौजूद हैं और आपातकाल को सही ठहराने वाले लोग भी बहुत मिल जाएंगे। मामला यह लगता है कि सिर्फ वाम दलों का विरोध करने के नाम पर जिन लोगों ने ममता बनर्जी का पक्ष चुना है, उसे सही ठहराना भी उनका धर्म बन गया है। बुद्धिजीविता मौकापरस्ती का खेल बनी हुई है, जिसमें यह देखना जरूरी नहीं समझा जा रहा है कि उनका पक्ष भी उसी प्रवृत्ति का शिकार है, जिस प्रवृत्ति के विरोध में वे खड़े हुए थे। लेकिन अपने पक्ष की वही बीमारी उन्हें सही ठहराने लायक लगती है। क्या यह अभियान बुद्धदेव भट्टाचार्य को नरेंद्र मोदी के बराबर खड़ा करके नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता का रास्ता साफ करने की कोशिश भी है?

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009 के ‘द हिंदू’ अखबार (ये खबरें दूसरी जगहों पर भी थी) में बंगाल से आकार-प्रकार में दो बड़ी खबरें छपी थीं कि कुछ तृणमूल सांसद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की गिरफ्तारी की मांग करते हुए उनके दफ्तर के बाहर धरने पर बैठ गए। दूसरी खबर में ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की गिरफ्तारी की मांग करते हुए बता रही थीं कि उन्हें शर्म आती है कि उन्होंने बंगाल में जन्म लिया। बहरहाल, आखिरी पन्नों की ओर बढ़ने पर एक छोटी खबर दिखाई पड़ी कि सीपीएम ने केंद्रीय चुनाव आयुक्त को एक पत्र लिखा है। उसमें तृणमूल सांसदों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए यह शिकायत की गई है कि पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में केंद्र सरकार में राज्यमंत्री मुकुल राय सहित तृणमूल कांग्रेस के सांसद शुभेंदु अधिकारी ने एक जनसभा में खुलेआम यह आह्वान किया कि सीपीआईएम के कुछ खास नेताओं का सिर काट कर सार्वजनिक जगहों पर प्रदर्शन के लिए रखा जाए। यही नहीं, दोनों तृणमूल सांसदों ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की कि सीपीआईएम के नेताओं और उनके लोगों के परिवारों की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाए और उनके घरों को जला दिया जाए।

शोमा दास को बलात्कार करा देने की धमकी की घटना कुछ लोगों को सिर्फ इसलिए संदेहास्पद लगती है क्योंकि वह जिस चैनल में नौकरी करती है, उस पर सीपीआईएम का होने का आरोप है। तृणमूल सांसदों के किसी सार्वजनिक सभा में किए गए ‘आह्वान’ को भी महज झूठा आरोप करार दिया जाएगा क्योंकि यह शिकायत सीपीएम ने की है। लेकिन लोकसभा चुनावों के बाद बंगाल में लगातार जो रहा है, उसकी खबरें इस तरह के संदेहों और आरोपों को मुंह चिढ़ा रही हैं।

और इस परिदृश्य में शोमा दास के साथ घटी घटना और हुगली का “आह्वान” कोई आश्चर्य नहीं पैदा करता। बल्कि एक ऐसी नई बनती हुई संस्कृति का संकेत देता है, जिसके सिर्फ एक कदम आगे की तस्वीर वीभत्सतम साबित होने वाली है।
(23 अक्टूबर, 2009 को मोहल्लालाइव पर)

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