कई लोगों को लगता है कि लालगढ़ में छत्रधर महतो को गिरफ्तार करने के लिए पश्चिम बंगाल की पुलिस ने जो तरीका आजमाया, वह समूची पत्रकार बिरादरी के साथ छल है और भविष्य में पत्रकारों का जीना तक मुहाल हो जाएगा। लेकिन इस संदर्भ में “मोहल्ला लाइव” का मानना है कि पश्चिम बंगाल की पुलिस ने अगर छत्रधर महतो को गिरफ्तार करने के लिए पत्रकार बनने का नाटक किया, तो यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। यह रुख कुछ लोगों को “मोहल्ला लाइव” के पुलिस के एक पक्षकार के रूप में खड़े होने जैसा दिखता है। मोटे तौर पर देखा जाए तो इस मामले में एकमात्र सवाल जो उठ सकता है, वह यह है कि राज्य ने छत्रधर महतो को गिरफ्तार करने के लिए “अनैतिक” रास्तों का सहारा लिया।
जो “राज्य” (यहां राज्य को स्टेट यानी सत्ता के संदर्भ में देखें) लालगढ़ सहित देश के उन तमाम इलाकों में, जहां के “निचले दर्जे” के कहे जाने वाले अपने नागरिकों के जीने के लिए न्यूनतम बुनियादी जरूरतें मुहैया कराना अपना “नैतिक” कर्तव्य नहीं समझता है, उससे हम यह उम्मीद करते हैं कि वह किसी छत्रधर महतो को गिरफ्तार करने के लिए कोई “नैतिक” तरीका अख्तियार करे।
चलिए, छत्रधर महतो की गिरफ्तारी के तरीके में “नैतिकता” का सवाल हल हो गया।
एक सवाल बड़ा उलझा हुआ है कि राज्य के भीतर राज्य (स्टेट विदिन स्टेट) की स्वतंत्रता के लिए आदर्श स्थितियां कौन-सी होनी चाहिए। एक तरफ केंद्र सरकार नक्सली संगठनों और उससे जुड़े लोगों को आतंकवादी संगठन घोषित कर उन पर पाबंदी की बात करती है और दूसरी ओर पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी से लेकर सभी वामपंथी संगठन राजनीतिक स्तर पर लड़ाई लड़ने की बात करते हैं। छत्रधर महतो को छोड़ कर जितने भी लोगों को लालगढ़ ऑपरेशन के दौरान गिरफ्तार किया गया है, उन पर आतंकवादी निरोधक कानून नहीं लागू किया गया। किसी छोटी घटना को भी सामने लाने वाले और समूचे “लिबरेटेड जोन” में सर्वव्यापी पहुंच रखने वाले मीडिया को इस बार कोई “उस तरह की घटना” हाथ नहीं लगी, जिससे नंदीग्राम की दुहाई देने का मौका मिलता।
पत्रकारिता के आम नियम-कायदों-नैतिकताओं के बरक्स खोजी पत्रकारिता के एक हिस्से के रूप में स्टिंग ऑपरेशनों से लेकर पत्रकारीय नैतिकताओं की खरीद-बिक्री से आप सुधी पाठक और विश्लेषणकर्ता तो पहले से परिचत हैं ही। उस पर क्या बात करना!
और इन बातों पर भी क्या चिंतित होना कि जब पुलिस वाले साधारण नागरिकों की वेश-भूषा में कोई “ऑपरेशन” करती है और उससे उपजे शक का शिकार साधारण नागरिक होते हैं। “कैट्ल क्लास” के मुकाबले कीड़े-मकोड़े की क्लास वाले उन नागरिकों की औकात हम पत्रकारों के सामने क्या है? हमारी चिंता पत्रकारों के सामने खड़े हो रहे खतरों को लेकर होनी चाहिए, जीने के लिए जद्दोजहद कर रहे “नागरिक” के लिए नहीं…!
अब इस सवाल पर बात करें कि भयानक अभावों के बीच जीता “नागरिक” किसी छत्रधर महतो की छत्रछाया में जाने के अलावा क्या करे। क्या वह अनंत काल तक उन स्थितियों का इंतजार करे कि राज्य उनकी न्यूनतम बुनियादी जरूरतें पूरी करने उसके दरवाजे चल कर आएगा? दूसरे, कि अगर कोई छत्रधर महतो इस “नागरिक” के अभावों का शोषण करते हुए उन्हें ऐसे हालात में झोंक देता है जिसमें उसके लिए दो पाटों में पिसने के अलावा कोई चारा न बचे, तो वह क्या करे?
छत्रधर महतो और उसके कुछ खास साथियों या उसके पोषक संगठनों के पास एक ऐसा सुगठित तंत्र है कि वह “अपने लिए” बिना कोई नुकसान उठाये राज्य से “टक्कर” लेगा, और नायक भी बना रहेगा। दूसरी ओर, राज्य है, जो “वैध” तरीके से खुल्लमखुल्ला या फिर “रणनीतिक” तौर पर हर जरूरी कदम उठाते हुए छत्रधर महतो का सामना करेगा। बीच में है “नागरिक”, जिसके पास न तो गुरिल्ला छाप युद्ध की ट्रेनिंग है कि वह राज्य पर हमले के तुरंत बाद जंगलों में गुम हो जाए, और न राज्य का सामना करने की ताकत।
मगर छत्रधर महतो या उसके संरक्षकों के निशाने पर भी वही है और राज्य की बंदूकों के निशाने भी उसी पर टिके होते हैं। किसी मुख्यमंत्री पर जानलेवा हमले की प्रतिक्रिया एक “राज्य” की ओर से क्या होनी चाहिए थी? खासतौर पर एक ऐसे देश में, जहां की पुलिस के लिए न्यूनतम मानव अधिकारों के बारे में सोचना भी अपने “अधिकारों” में कटौती लगती है? पुलिस ने “हमलावरों” के पकड़ने के क्रम में जिस जमीन को तैयार किया, छत्रधर महतो जैसों को उसी जमीन की तलाश होती है।
यह सवाल छोड़ दिया जाए कि छत्रधर महतो का इतिहास क्या रहा है, तृणमूल और ममता बनर्जी के लिए छत्रधर महतो क्या रहे हैं और अब भाकपा (माओवादी) से उनके क्या रिश्ते रहे हैं, क्योंकि इससे फिर “क्रांतिकारी” बातें करने में बाधा खड़ी होगी। खासतौर पर हमारे उन “शुभचिंतकों” के लिए जो दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों में नवउदारवादी पूंजीवाद की सभी वेरायटी की मलाई चाभते हैं, और जंगल में दोतरफा निशाने पर खड़े लोगों के हकों के लिए हाय-हाय करते हैं। उनके लिए सत्तर-पचहत्तर लोगों का मार डाला जाना इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि जिनकी हत्या की गयी उन्हें माकपा के समर्थक होने के नाम पर मारा गया है।
स्कूल में पढ़ा कर अपनी जिंदगी गुजराने वाले पचास साल के रतन महतो ने “कुछ लोगों” के कहने पर माकपा से नाता तोड़ने का वादा तो कर दिया था, लेकिन इसकी घोषणा करने वाले पोस्टर उस इलाके की दीवारों पर नहीं चिपकाए थे। इस “अपराध” के एवज पहले उसे घुटने पर खड़ा किया गया और फिर गला रेत कर मार डाला गया।
यह एक उदाहरण है, क्रांति को अमली जामा पहनाने के तरीके का।
एक तरफ भूख, अपमान, उपेक्षाओं से त्रस्त और न्यूनतम मानव अधिकारों से वंचित और मजबूर नक्सली समूहों की शरण में गए लोगों के खात्मे के लिए सलवा-जुडूम के साथ बर्बरता की तमाम हदों को पार करता “राज्य” खड़ा है। दूसरी तरफ, पंद्रह सौ रुपए महीने की आमदनी वाली किसी आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से पांच सौ, स्कूल टीचर से पांच हजार या स्थानीय हाट में रस्सी बेच कर गुजारा करने वालों से बंधी हुई रकम वसूलने वाले वे लोग हैं, जो “जन अदालतें” लगाते हैं और सिर्फ इसलिए गला रेत कर मार डालते हैं, क्योंकि उनके कहे के हिसाब से किसी ने किसी पार्टी को छोड़ने की सार्वजनिक घोषणा नहीं की होती है।
वहम में रहने और नक्सलवाड़ी से तुलना करके नक्सलवाद का अपमान करने से बचने की जरूरत है। ऐसे लोग अब पहले की तरह इकहरी लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। इन्होंने अपने आगे कई-कई सुरक्षा पंक्तियां खड़ी कर ली है। (समझौता बहुत आसान होता है)। पुलिस संत्रास का विरोध करने के नाम पर निरीह नागरिकों को राज्य के अत्याचारों में झोंक देने वाले छत्रधर महतो तो उनमें से महज एक पंक्ति है। उससे आगे महाश्वेता देवी एंड कंपनी और उससे भी आगे तृणमूल कांग्रेस के रूप में अगली पंक्तियां खड़ी हैं, जो या तो उनका इस्तेमाल करती हैं या दोतरफा पाट में पिस रहे लोगों की पीठ पर अपना सिक्का रगड़ कर चमकाती हैं।
कुछ समय पहले ही उसी इलाके के भाकपा (माओवादी) के नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने यह घोषणा कर मामला काफी साफ कर दिया था कि तृणमूल कांग्रेस ने नंदीग्राम की लड़ाई में नक्सलियों को हथियारों की सप्लाई की थी।
एक और तुर्रा यह कि भाकपा (माओवादी) को अपनी रीढ़ बना कर खड़े पुलिस अत्याचार विरोधी संत्रास समिति के नेता छत्रधर महतो ने भी ‘जनता की आखिरी लड़ाई’ को भारतीय राज्य के सुरक्षा बलों से हारते देखा तो अपने मातृ संगठन तृणमूल कांग्रेस की ओर से ही उम्मीद लगाई।
लेकिन अफसोस…!
ममता बनर्जी को भाकपा (माओवादी) या छत्रधर महतो से जितना लेना था, ले चुकी थीं। और अब उन लोगों को कुछ वापस लौटाने या उनसे कुछ लेने का नतीजा अपने शरीर पर एक बहुत ‘सादी साड़ी और पैरों में मात्र हवाई चप्पल’ पहन कर राजनीति करने वाली ममता दीदी के लिए बहुत भारी पड़ सकती थी। इसलिए उन्होंने न केवल माओवादी उग्रवादियों के साथ अपने किसी गठजोड़ से साफ इनकार किया, बल्कि तृणमूल कांग्रेस के गर्भनाल से जुड़े पुलिस अत्याचार विरोधी संत्रास समिति और छत्रधर महतो को भी पूरी तरह खारिज किया। ध्यान रहे कि यही छत्रधर महतो इसी लोकसभा चुनावों के पहले 4 फरवरी 09 को लालगढ़ में एक सभा में ममता बनर्जी साथ मंच पर था।
भारत के नक्सली समूह आज भी इतने अविश्वसनीय नहीं हुए हैं कि उनकी बातों पर यकीन नहीं किया जाए। नंदीग्राम में जब ‘भूमि बचाओ आंदोलन’ चल रहा था, बंगाल की सत्ताधारी वाममोर्चे ने आरोप लगाया था कि वह आंदोलन दरअसल तृणमूल कांग्रेस के साथ माओवादी उग्रवादियों और बाहरी ताकतों के गठजोड़ का नतीजा था। लोकसभा चुनावों में वाममोर्चे की हार के बाद तृणमूल कांग्रेस और भाकपा (माओवादी) के कार्यकर्ताओं की रगों में जो जोश बहने लगा, उसने वाममोर्चे के उस आरोप को बिन मांगे पुष्टि दे दी।
‘नंदीग्राम कब्जे’ के दौरान वहां के आमलोगों पर माकपाई अत्याचार के खिलाफ खड़े बहुत सारे बुद्धिमान लोग वही सब कुछ खेजुरी और लालगढ़ में होने पर चुप रहे।
और अब जबकि अपनी काहिली और अदूरदर्शिता की वजह से पश्चिम बंगाल की वाममोर्चे की सरकार नंदीग्राम में सरकारी सहयोग से मारकाट का कलंक अपने माथे पर ढो रही है, उस तथाकथित ‘आंदोलन’ के साथ-साथ ‘सिंगूर आंदोलन’ की परतें भी उतर गई हैं। पश्चिम बंगाल की सरकार आज भी 14 मार्च की पुलिस फायरिंग की अपराधी है। लेकिन उस हालात को पैदा करने के लिए तृणमूल ने क्या-क्या और किस तरह के ‘खेल’ किए होंगे, अब उसका अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल है? केमिकल हब के लिए जमीन अधिग्रहण के सच पर जब बात होने लगेगी तो मामला उस सिरे तक चला जाएगा कि क्या वहां का विरोध आंदोलन सचमुच जमीन अधिग्रहण के मसले पर था। लेकिन यहां अपना मकसद यह नहीं है कि पश्चिम बंगाल की सरकार को 14 मार्च के नंदीग्राम कांड से बरी किया जाए। हां, उस कांड की जमीन अब अगर अनायास सामने दिखने लगी है, तो इसमें ममता को नहीं चाहने वालों का कसूर नहीं है।
इन तथाकथित आंदोलनों की जमीन पर दौड़ लगाती हुई ममता बनर्जी देश की मंत्री बन चुकी हैं, और इसके साथ ही उनके लिए ‘वे लोग’ अब अप्रासंगिक हो चुके हैं जिन्होंने उनके यहां तक के सफर के लिए राहों के कंटीले झाड़-झंखाड़ साफ किए।
उन्हें त्याग की एक महान मूरत के रूप में स्थापित करने के लिए ‘हजार चौरासीवें की मां’ महाश्वेता देवी ने लगभग ढाई महीने के भीतर दो बार एक प्रसिद्ध अखबार में यह लिख कर बताया कि कैसे ममता इसलिए महान हैं क्योंकि वे सादी साड़ी पहनती हैं और उनके पैरों में महज हवाई चप्पल होता है।
अब पता नहीं कि उनके पाठक भोले हैं या उन्हें वे उन्हें जानबूझ कर भोला बनाना चाहती हैं। यह मानना जरा मुश्किल है कि महाश्वेता देवी किशनजी के उस बयान से अनजान होंगी जिसमें उन्होंने कहा है कि तृणमूल ने नंदीग्राम में भाकपा (माओवादी) के कार्यकर्ताओं को हथियारों की सप्लाई की।
सादी साड़ी, पैरों में हवाई चप्पल और हथियारों की सप्लाई…!!!
इसके अलावा महाश्वेता देवी पश्चिम बंगाल से संबंधित हर लेख में तापसी मलिक का जिक्र करना नहीं भूलतीं। तापसी मलिक के साथ जो हुआ, उससे कोई भी शख्स विचलित हुए बिना नहीं रह सकता- अगर वह कहीं से भी जिंदा और ईमानदार है तो। लेकिन सुनीता मंडल का त्रासदी महाश्वेता देवी के लिए नजरअंदाज करने लायक होती है तो इसके क्या अर्थ हो सकते हैं। सुनीता मंडल के साथ भी तो वही हुआ था, जो तापसी मलिक के साथ हुआ था। तापसी पर अत्याचार ढाने वालों से घृणा की जानी चाहिए। लेकिन सुनीता मंडल के साथ भी वही सब करने वालों का झंडा थामना और उनकी वकालत करना किस ‘निष्ठा’ का नतीजा है?
यों, भारत के लिए यह अजूबी बात नहीं है कि संसदीय राजनीति करने वाले अक्सर अराजक तत्त्वों का सहारा लेते रहे हैं। बंगाल इसका अपवाद नहीं है। बत्तीस साल के शासन की विफलता को सामने लाने के लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के पास मुख्यधारा का कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था। यह सवाल तो फिलहाल बहुत मायने नहीं रखता कि क्या वे अपनी क्षमता जानती हैं? लेकिन इतना तय है कि पिछले डेढ़-दो दशकों की राज नीति ने उन्हें अवसर और साधनों यानी समूहों का इस्तेमाल करना सिखा दिया है। नंदीग्राम और सिंगूर से लेकर लोकसभा चुनावों और लालगढ़ में यह साफ-साफ दिखा।
लेकिन कई बार आपका अवसरवाद इतना अधकचरा होता है कि आप उसका फायदा लंबे समय तक नहीं उठा पाते। माओवादी उग्रवादियों के साथ अनैतिक गठबधन करके ममता ने खुद अपने लिए तो विश्वसनीयता का संकट खड़ा किया ही, माओवादी उग्रवादियों को भी एक आसानी से इस्तेमाल हो जाने वाले औजार के रूप में पहचान दे दी।
उनका झंडा उठाए बहुत सारे बुद्धिजीवियों के साथ महाश्वेता देवी देश को यह जानकारी देती हैं कि पिछले तीन दशकों में राज्य में पचास हजार से औद्योगिक इकाइयां बंद हो गईं। क्या एक यही मुद्दा काफी नहीं था किसी भी सरकार को विफल साबित करने का? इसके अलावा बहुत सारी तल्ख सामाजिक सच्चाइयां सतह पर आने को बेताब थीं। लेकिन ममता बनर्जी की हड़बड़ी और उनके लिए वंदना करने वालों ने समय रहते अपनी सच्चाई जाहिर कर दी कि उनका मकसद केवल सत्ता की मलाई का स्वाद लेना है।
मजे की बात यह है कि लालगढ़ और खासतौर पर पश्चिम बंगाल अभी तमाम तरह की नैतिकताओं को कसौटी पर कसने के दौर से गुजर रहा है। देश भर में कितने सेज कहां खड़े किए गए, देश के “क्रांतिकारी समूहों” को इससे कोई मतलब नहीं है। पश्चिम बंगाल में यह “पाप” नहीं होना चाहिए। नेनो अगर सिंगूर में बन कर बंबई या दिल्ली की सड़कों पर दौड़ती, कांटे की तरह चुभती। अब गुजरात से बनी नेनो दौड़ेगी सड़कों पर और ठंडक पहुंचेगी नयनों को…। राज्य में पिछले तीस साल के वाम शासन में हजारों उद्योग बंद हो गए तो तीस साल का यह अभ्यास जारी रहना चाहिए। अगर राज्य कोई नया प्रयोग करने की कोशिश करे, तो उसे “जन-अदालत” में खड़ा करना चाहिए!
पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगूर से शुरू हुआ यही “जन अदालत” लालगढ़ में भी लगाने की कोशिश चल रही है। लोकसभा चुनाव के नतीजों का कि तृणमूल सहित तमाम विपक्ष वाम के नाश के एक अमूर्त सुख-सागर में गोते रहा है, और वाम के सामने एकमात्र चुनौती अपनी साख बचाने की बनी हुई है। नंदीग्राम कांड और लालगढ़ ऑपरेशन में फर्क साफ दिख जाएगा, अगर देखना चाहें।
(2 अक्टूबर 2009 को मोहल्लालाइव पर)
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