“आप कुछ भी छापते रहिए, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।” – कपिल सिब्बल।
“बाजार की नकारने की प्रवृत्ति गलत है। समस्या यह है कि आज भी लोग 1947 या फिर 1977 की मानसिकता में जी रहे हैं। 1977 में क्या पत्रकार नेताओं की गोद में बैठ कर रिपोर्टिंग नहीं कर रहे थे? …आज गिरीलाल जैन जैसे पत्रकारों की जरूरत नहीं है। …जवाहरलाल नेहरू तब थे, आज उनकी जरूरत नहीं है।” – आशुतोष।
“आज हमारी हालत यह हो गई है कि कोई कपिल सिब्बल आता है और हमारे मुंह पर तमाचा मारते हुए ये कह कर निकल जाता है कि आप कुछ भी छापते रहिए, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम शर्मिंदा होने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते…। हम इस लायक भी नहीं हैं कि उन्हें जवाब दे पाते।” – कुर्बान अली।
कायदे से कहें तो बात यहीं खत्म हो जाना चाहिए। एक तथाकथित नेता समूची पत्रकारिता जगत को उसकी औकात बता रहा है, दूसरा तथाकथित पत्रकार पत्रकारिता के इस औकात में आ जाने के कारण बता रहा है। और तीसरी टिप्पणी करने वाले कुर्बान अली ऊपर के दोनों पक्षों की संबद्धता से उपजी नियति पर दुखी हैं।
सवाल है कि अगर आशुतोष के ‘विचारों’ को निष्कर्ष मान लिया जाए तो कपिल सिब्बल ने क्या गलत कहा। बहुत दिन नहीं बीते हैं जब आशुतोष के इसी तरह के विचार एक अखबार में छपी रिपोर्ट में पढ़ा था कि यह कहने का फैशन-सा चल पड़ा है कि खबरिया चैनल सिर्फ टीआरपी और मुनाफे के खेल में मशगूल हैं, और कि ये बताइये कि कौन-सा ऐसा उद्योग है जो मुनाफे का खेल नहीं खेल रहा है।
चलिए। चूंकि दूसरे उद्योग मुनाफे का खेल खेल रहे हैं तो आपको मुनाफे का यह खेल खेलने का हक है। यह ‘खेल’ आप खबरों के साथ बिना ‘खिलवाड़’ किए नहीं ‘खेल’ सकते। तो जब आप खबरों के साथ ‘खिलवाड़’ करेंगे और उसके बाद आपकी खबर, कोई खबर नहीं रह कर एक ‘खेल’ भर होगी, तो कोई कपिल सिब्बल क्यों नहीं कहेगा कि आप कुछ भी छापते रहिए, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता?
तिस पर तुर्रा यह कि खबरों के साथ ‘खिलवाड़’ करते हुए आपको ‘तमगा’ इस तरह के खेल में एक माहिर ‘खिलाड़ी’ का नहीं, पत्रकार का चाहिए। क्यों भाई? क्या इसलिए कि इस तरह के ‘खेल’ में एक माहिर ‘खिलाड़ी’ का तमगा आपको एक दुकानदार की औकात के बराबर खड़ा कर देता है और एक पत्रकार बने रह कर आप ‘क्रांतिकारी’ भी बने रह सकते हैं? बाजार की तुरही बजाते हुए आप बदलते समय के साथ पत्रकारिता को भी बदलने का उपदेश देते हैं। बिल्कुल ठीक। लेकिन आपकी बदली पत्रकारिता अगर ‘मर्दखोर परियां,’ ‘पारग्रही प्राणी,’ या फिर ‘स्वर्ग की सीढ़ियां’ खोज के लाती हैं तो बताइए कि आपका प्यारा बाजार क्या-क्या बदल रहा है?
अच्छा, तो अब समझ में आया कि आपको आज जवाहरलाल नेहरू की जरूरत क्यों नहीं है। क्योंकि नेहरू के ‘हिसाब-किताब’ का ‘विज्ञान’ का सिरा थाम के कोई भी इंसान आपकी बुद्धि पर सवाल उठा सकता है कि बताओ कि तुम्हारी मर्दखोर परियों, एलिंयस, स्वर्ग की सीढ़ियों की सच्चाई क्या है, इसलिए आपको नेहरू से डर लगता है। आप चाहते हैं कि लोगों के दिमाग में सवाल पैदा नहीं हों, इसलिए हर वह मसाला परोसेंगे जो लोगों के दिमाग को सवालों से दूर करता है। यानी बाजारू ‘प्रगतिशीलता’ के साथ यथास्थितिवाद बहाल रहे! जय हो…!
आपकी बात मानते हैं कि मीडिया या चैनल चलाना बहुत खर्चीला काम है। क्या इससे आगे हमें यह सुनने को मिलेगा कि चूंकि यह बहुत खर्चीला काम है, इसलिए हमें खबरों के साथ खिलवाड़ करना पड़ता है, ताकि टीआरपी ऊंची जाए और आमदनी हो। नहीं तो समाज को हम इस तरह की खबरें दे सकने की स्थिति में नहीं होंगे।
भाई साहब! मुश्किल तो अब यह आ चुकी है कि अब काम केवल खबरों के साथ खिलवाड़ करने से नहीं चल रहा है। अब तो आपको अपने स्टूडियो को रैंप की शक्ल देनी पड़ेगी और अब उस रैंप पर कैटवॉक करती / करते एंकरों का चेहरा शून्यभाव का दर्पण नहीं होगा। अब हमें खबरों का आस्वादन भी उसी रूप में होगा। कोई बात नहीं, पत्रकारों की ‘प्रबंधकीय’ क्षमता तो उनकी योग्यता का मानक हो ही चुकी है, अब मॉडलिंग को भी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में विधिवत शामिल हो जाना चाहिए। मैनेजमेंट इन जर्नलिज्म तो चल ही पड़ा है, मॉडलिंग इन जर्नलिज्म- आदि-आदि। इससे बाजार थोड़ा और ‘जिंदा’ हो जाएगा।
दरअसल, जो लोग आज बाजार के अस्तित्व के स्वीकार के तर्क पर पत्रकारिता को भी बाजार का हथियार बना चुके हैं, कायदे से उन्हें ठग घोषित कर देना चाहिए। क्योंकि ठगों को यह छूट होती है कि वह कोई भी वेश धारण कर, कोई भी चाल चल कर अपना हितसाधन करे। अगर कोई घोषित ठग ऐसा करता है, तो उस पर मातम मनाने की जरूरत नहीं है। यह बेवजह नहीं है कि लाखों-करोड़ों रूपए घूस देकर निर्माण कार्यों का ठेका हासिल करने वाली स्वतंत्र निजी कंपनियों की आज की सबसे पहली पसंद कोई चैनल खोलना हो चुकी है। एक नेता के बारे में सुना है, जिसने चुनावों में हारने के बाद पहले दो फुलफ्लेज अखबार खरीद लिए, फिर एक कैसीनो खरीदा। क्या इस उदाहरण का कोई अर्थ हो सकता है? मीडिया की ताकत का अंदाजा लगा कर पत्रकारिता को अपना हथियार बनाने वाले ऐसे गिरोह बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि पत्रकारिता कैसे उनके चेहरे को धवल रख सकती है और इसका इस्तेमाल कैसे अपने मूल व्यवसाय को ‘सुरक्षा’ प्रदान करने में किया जा सकता है। उनके लिए जैसा काम किसी बिल्डिंग को बनाने में सीमेंट-गिट्टी आदि में मिलावट या घपला करना, शराब में जहर मिलाना, वैसे ही खबरों में मिलावट या घपला करना।
लेकिन यहां तक पहुंच चुके लोगों को यह हक कहां रह जाता है कि वे किसी भी तरह की गड़बड़ी की खबर लें। हां, अगर ‘तू मेरी खबर ले, मैं तेरी खबर लूं’ का फार्मूला लागू हो तो अलग बात है। लेकिन यहां तर्क यह है कि चूंकि किसी हाई प्रोफाइल बलात्कार की खबर ज्यादा बिक सकती है, इसलिए बलात्कार परोसा जाएगा। कीड़े-मकोड़े की जिंदगी जीने वाले मजदूरों-किसानों का सवाल बिकने के बजाय टीवी-अखबार का भट्ठा बैठा देगा, कमाई के रास्ते बंद कर देगा, इसलिए उसे दिखाने-छापने की जरूरत नहीं।
इसलिए नीलाभ मिश्र अगर कह रहे हैं कि अगर आप तेल बेच रहे हैं तो तेल ही बेचिए। उसमें आप चर्बी की मिलावट करेंगे तो अपराध होगा और उसकी सजा होगी, तो वे उन सभी लोगों की उम्मीद को आवाज दे रहे हैं जो खबरों के उपभोक्ता हैं। एक चपरासी से लेकर किसी अफसर या किसी नेता का घूस लेना, दंगा कराना या हत्या-बलात्कार जैसे कोई भी दूसरे अपराध हमारे भीतर गुस्सा भर देते हैं तो पत्रकार का चोला ओढ़े लोगों की बेईमानी हमारे लिए गुस्से का कारण क्यों नहीं हों?
पत्रकारिता में बाजार के सच को स्थापित करने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि इस तरह वे इस बात को स्थापना दे रहे हैं कि बाजार ने हमें खरीद लिया है। और इस तरह की किसी भी स्थापना के साथ महाभारत की द्रौपदी का वह सवाल बार-बार उठ खड़ा होता है कि बिके हुए लोगों को यह हक कतई नहीं है वे किसी दूसरे का सौदा तय करें। यों, यह हक किसी को नहीं है।
आशुतोष जी जैसे लोगों को बेशक जवाहरलाल नेहरू की जरूरत नहीं है। कारण समझा जा सकता है। लेकिन बहुत सारे लोग (आशुतोष जी के लिए यह अफसोस की बात है) ऐसे हैं कि सबसे ताजा पीढ़ी के बहुत सारे लोगों को आज ही आशुतोष की जरूरत नहीं महसूस होती है।
मौजूदा पत्रकारिता पर शोक मनाने के इसी दौर में वैसी पौध भी पल-बढ़ और पसर रही है जिसे चांदी की थाली में खाने का शौक नहीं है। उसे इस दुनिया का सबसे महंगा राजमहल जैसा घर, चार मोटरगाड़ियां, कम से कम एक हवाई जहाज और पांच लाख रुपए महीने की आमदनी की जरूरत नहीं है, जिसके लिए स्विट्जरलैंड के बैंकों की शरण लेनी पड़ती है। इस पौध को पता है कि इतना सब कुछ हासिल करने के लिए सबसे पहले अपनी रीढ़ को बाजार के शहंशाहों के पास गिरवी रखना पड़ता है।
(18 जुलाई, 2009 को मोहल्लालाइव पर)
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