Friday, 23 December 2011

उन्माद के उत्सव में गुम सवाल





इस विश्वकप के शुरू होने के ठीक पहले राष्ट्रीय अखबार ‘हिंदुस्तान’ के पटना संस्करण ने विश्वकप को समर्पित आठ पन्ने का एक विशेष परिशिष्ट निकाला, जिसके पहले पन्ने पर बड़े अक्षरों में मुख्य शीर्षक था- ‘वनडे मातरम्...।’ इसी तरह ‘आईपीएल-4’ के प्रचार के लिए एक विज्ञापन में जुमला उछाला गया- ‘पूरा भारत बंद रहेगा...’

आम जन में किसी नारे के प्रति व्याप्त धारणाओं के शोषण का क्या इससे भी बेहतर उदाहरण मिल सकता है? ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रवादी समूह बतौर हथियार लोगों को देश के नाम पर भावुक बनाने के लिए करते हैं। ‘भारत बंद रहेगा’ का आह्वान अब तक राजनीतिक आंदोलनों और सत्ता का विरोध जताने के लिए दिया जाता रहा है। लेकिन ‘वंदे मातरम्’ अब ‘वनडे मातरम’ के रूप में क्रिकेट के दीवानों जुमला बनेगा और ‘पूरा भारत बंद रहेगा’ का आह्वान अब आईपीएल प्रतियोगिताओं जैसी अय्याशियों पर मुग्ध होने के लिए किया जाएगा। न इस पर राष्ट्रवादियों को कोई आपत्ति है, न देश में क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलनों का आह्वान करने वालों को।

जागने की कोशिश में लगे लोगों के सामने नींद को इसी तरह एक सुहानी खुराक के रूप में परोसा जाता है।

कोई भी राजसत्ता यह बहुत अच्छी तरह जानती है कि उसकी राहों के सबसे बड़े रोड़े उसके शासन क्षेत्र की युवा शक्ति है। इसलिए वह उसकी लगाम थामने की हर कवायद करती है। यहां तानाशाही की चर्चा बेमानी होगी- दमन के तमाम रास्तों को जायज ठहराने के लिए लोकतंत्र को बचाने का तर्क दिया जाता है। और चूंकि किसी भी देश-काल में सत्ता के सामने सबसे बड़ी चुनौती युवा है, इसलिए दमन से लेकर दिशाहीन कर देने की सभी साजिशों का निशाना और शिकार वही होता है।

भारतीय राजनीति के पिछले लगभग दो दशक इस बात के गवाह रहे हैं कि समाज के इस सबसे ऊर्जावान वर्ग की क्षमता को कैसे कुंद किया जाता है, उसे दिशाहीन कर दिया जाता है या उसका इस्तेमाल रचना के बजाय विध्वंस के लिए किया जा सकता है। समाज के सारे सरोकारों से काट कर बाजार का खिलाड़ी बना देने या आधुनिकता के खोल के नीचे तमाम संकीर्णताओं को उनके रगों में घोल देने के लिए हमारी सामाजिक-राजनीतिक सत्ता-व्यवस्था ने कौन-कौन-से जतन किए हैं और उसमें उसे कितनी कामयाबी मिली है, यह कोई छिपी बात नहीं है। यहां युवाओं के सामने जो सपने परोसे जा रहे हैं वे दरअसल आत्मकेंद्रित जीवन के फार्मूलों की बुनियाद पर खड़े हैं। वहां खुद से बाहर की दुनिया बस इतनी है कि अपने वर्गीय ढांचे और दायरे में मौज-मस्ती के सिवा कुछ भी सोचना वक्त बर्बाद करने जैसा लगता है। सुख-सुविधाओं के तमाम आधुनिकतम संसाधनों और आधुनिक कहे जाने के सभी हथकंडों के सहारे जीते इन युवाओं के राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों पर जो खयाल सुनने को मिलते हैं, वह एक जागरूक, सभ्य और प्रगतिशील समाज के लिए किसी शर्म से कम नहीं है।

पप्पू बनोगे क्या...

सबको याद होगा कि 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान मीडिया में चुनाव आयोग की ओर से उछाला गया एक जुमला- ‘पप्पू बनोगे क्या...’ काफी चर्चित रहा था। उस ‘पप्पू’ का अर्थ क्या है और राजनीति या वोट देने में अरुचि दिखाने वाले युवाओं को ‘पप्पू’ बना देने की स्थितियां किसने रची है?

जिन लोगों ने गांवों और चुनावों के दौरान वहां की आबो-हवा को देखा होगा, वे बहुत बेहतर जानते होंगे कि चुनावों में कोई दिलचस्पी नहीं लेने वाले ये ‘पप्पू...’ दरअसल शहरों और महानगरों के पॉश इलाकों में ही पाए जाते हैं। गांवों के ‘बेकार’ युवाओं को उनके हालात पोलिंग बूथों तक खींच ले जाते हैं, आग्रह चाहे जो हों। हालांकि अब भी यह एक तल्ख हकीकत है कि एक बड़े वर्ग को पोलिंग बूथों तक पहुंचने की इजाजत नहीं है, उन्हें रोकने वाले चाहे जो हों। बीबीसी हिंदी या रेडियो पर आने वाले समाचारों के अलावा आसपास के दो-चार किलोमीटर के दायरे में किसी तरह पहुंच कर घूमने वाले अखबारों की खबरों से अपनी राजनीति करने वालों के लिए टीवी के रूप में मीडिया एक ऐसा औजार था जो आग्रहों को खुरच सकता था, परतें उघाड़ कर नई चमड़ी की जमीन तैयार कर सकता था।

लेकिन यह इस मीडिया के अध्ययनकर्ता बेहतर बताएंगे कि दो दशक के भीतर-भीतर कैसे इसने किसी को नींद से जगाने के बजाए एक ऐसे नशे में डुबा देने के बेहतरीन औजार का शक्ल अख्तियार कर लिया है, जिसमें किसी समस्या पर सोचना-समझना वक्त जाया करना माना जाता है। अब देखना है तो शर्मिंदा कर देने वाली या भीतर तक हिला देने वाली खबरों को बतौर सनसनी स्तब्ध होकर देखिए, किसी धारावाहिक में पांच मिनट की कहानी को पांच दिन में पसार दिए जाने की कलाकारी को मुग्ध भाव से देखते रहिए और ‘बिग बॉस’ टाइप बेहूदा और फर्जी रियलिटी शो देखते हुए उसके हर ‘बीप-बीप’ पर अपनी यौन कुंठाओं और लिप्साओं की तुष्टि का सुख लीजिए और इंतजार कीजिए कि अब किस महिला-पात्र को बाथरूम में नहाते या ‘वेसलिन’ लगाते हुए दिखाया जाएगा।

जादुई सुर का सहारा...

पारिवारिक और निहायत निजी दुनिया तो तय हो गई। लेकिन इसके बाद भी तो वक्त बच जाता है! संभव है कि खाली वक्त में दिमाग कुछ दूसरे ही तरीके से काम करना शुरू कर दे और विचारों के अपहरण के इस साजिश का पर्दाफाश हो जाए। इसलिए जो कुछ जज़्ब हुआ है, उसे खाली करने का भी इंतजाम होना चाहिए। क्रिकेट को एक ऐसे ही उन्माद के उत्सव के रूप में पेश किया गया है, जिसकी मार्फत अपने विचारों के अपहरण में व्यक्ति उन चूहों की तरह खुद शामिल होता है जो जादुई सुर में बैगपाइपर बजाने वाले एक अजीब-सी वेशभूषा वाले आदमी के पीछे चल पड़े थे। फर्क यह है कि अजीब-सा वह आदमी बदला लेने के लिए भी उसी तरह के दूसरे जादुई सुर का सहारा लेता है और उस शहर के सभी बच्चों को अपने पीछे खींच ले जाता है और यहां सवाल बदले का नहीं है। यहां सुबह की उम्मीद में जागने के लिए कुनमुनाते समाज के सामने फिर से गहरा अंधेरा पसार देने की साजिश है।




कुछ समय पहले एक सर्वेक्षण में यह बताया गया था कि अब क्रिकेट विश्वकप शुरू होने के बाद एक बार फिर कैसे और कितने लोग मैच देखने के लिए टीवी में घुस जाएंगे या मैदान का रुख करेंगे और इससे कितने काम के घंटे बर्बाद होंगे और अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान होगा। लेकिन इस तरह के सर्वेक्षण करने वालों को इस मायने में पिछड़ा कहा जाएगा कि ये लोग अब भी क्रिकेट के कारण होने वाली आर्थिक क्षति की बात करते हैं। अगर अर्थव्यवस्था के पैमाने पर ही बात करना है तो सिर्फ इस पहलू पर गौर कर लिया जाए कि क्रिकेट आज कितना खेल रह गया है और कितना बाजार, तो उसके नुकसानों के आकलन के परिप्रेक्ष्य बदल जाएंगे। यह कहने के लिए शायद अब कोई तर्क देने की जरूरत नहीं रह गई है कि क्रिकेट अब मैदान में नहीं, टीवी के पर्दों पर खेला जाता है और इस देश में क्रिकेट अब कोई खेल नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से एक बिजनेस है। एक आकलन के मुताबिक भारत में विज्ञापन का सालाना बाजार तीस हजार करोड़ रुपए का है। इसमें टीवी विज्ञापनों का व्यवसाय बारह सौ करोड़ रुपए है, जिसमें सिर्फ इस विश्वकप और उसके तुरंत बाद होने वाले आईपीएल- 4 में दो हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। दुनिया भर में क्रिकेट में जितनी कमाई होती है, उसका सत्तर फीसदी अकेले भारत से जाता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत में टीवी मीडिया के लिए क्रिकेट आज सबसे प्यारा खेल क्यों हो गया है। टीवी पर क्रिकेट का जितना कोई मैच चल रहा होता है, उससे ज्यादा विज्ञापन छाया रहता है। खिलाड़ियों के बैट, विकेट, जूते, ड्रेस हो या पूरी बाउंड्री लाइन से लेकर मैदान के अंदर-बाहर लगे होर्डिंग्स- सब के सब प्रायोजित होते हैं। इस विश्वकप के मैचों के दौरान दस सेकेंड के एक विज्ञापन के प्रसारण की कीमत साढ़े तीन लाख रुपए है। आईपीएल- 4 में इसी अवधि, यानी दस सेकेंड के विज्ञापन की दर पांच लाख रुपए है। एक आकलन के मुताबिक इस विश्वकप के खत्म होने के बाद लगभग हर भारतीय खिलाड़ी के हाथ में कम से कम पांच करोड़ रुपए होंगे। भेड़ या बकरियों की तरह खिलाड़ियों को खरीदने से लेकर हर मैच में हर चौके या छक्के तक के प्रायोजित होने के बावजूद अगर क्रिकेट को किसी खेल के रूप में देखा जा रहा है तो यह इसी देश में मुमकिन है।

पेप्सी कोला बेचो, भारत रत्न पाओ...

इसके अलावा, जो कंपनियां अरबों रुपए खर्च करके प्रसारण का अधिकार खरीदती हैं, वे जनता की सेवा या क्रिकेट का कल्याण करने के लिए ऐसा नहीं करती हैं। जाहिर है, अरबों रुपए खर्च करने का जोखिम उससे कई गुना मुनाफा कूटने की मकसद से ही होता है। लेकिन सब कामधाम छोड़ कर टीवी में आंखें गड़ाए सचिन तेंदुलकर जैसे अपने सभी महान खिलाड़ियों को बल्ला भांजने से ज्यादा पेप्सी या कोकाकाला बेचते हुए देखने वाला एक आम दर्शक कहां इस हिसाब में जाता है! अगर किन्ही हालात में इस तरह के हिसाब लगाने भी लगे, तो इसके पीछे उसके दिमाग को कुंद करने की साजिशों तक पहुंचना क्या इतना आसान है, जो एक महान खेल क्रिकेट और राष्ट्रवाद के उन्माद के छौंक से ढका रहता है।




अगर किसी को लगता है कि ये तमाम इंतजाम क्रिकेट के किसी मैदान में आए दर्शकों को लुभाने के लिए है, तो वह भरम में है। आज का क्रिकेट दरअसल पूरी तरह टीवी दर्शकों पर निर्भर हो चुका है और उन्हीं के लिए खेला जाता है। स्टेडियम में मौजूद दर्शक भी सिर्फ एक ऐसे टीवी शो के दर्शक की भूमिका में होते हैं, जो घरों या दुकानों में टीवी के सामने बैठे लोगों की उत्तेजना को बनाए रखने के काम आता है।

कभी कलात्मकता और बारीक प्रयोगों के लिए मशहूर इस खेल खिलाड़ी कब ‘ग्लैडिएटर’ बन कर ‘जान दे दो या ले लो’ की शैली में सिर्फ बल्ला भांजने को मजबूर हो गए, खिलाड़ियों की करोड़ों-अरबों के लहराते नोटों से होती नीलामी और खरीद-बिक्री के बीच क्या किसी को पता भी चला? यहां आकर तो लगता है कि बाजार के इन महीन खिलाड़ियों को इस बात की गहरी परख है कि भारतीय जनमानस युद्ध के खयालों को लेकर कितना रूमानी रहा है और इसी रूमानीपन का ज्यादा से ज्यादा शोषण करने के लिए उन्होंने क्रिकेट को ग्लैडिएटरों का खेल बना दिया। टेस्ट मैच से एकदिनी, इसके बाद रात-दिनी और अब बीसम-बीसम। उत्तेजना को बनाए रखने के लिए और उसमें इजाफा करने के लिए समय की अवधि को छोटा करना अनिवार्य है। इस खेलने वाले बहादुर और इसे देखने बहादुर! और बहादुरी का ठेका चूंकि मर्दानगी या मर्द की छवि के बंधा है, इसलिए मर्दानगी के भाव की तुष्टि के इंतजाम के लिए चीयर लीडर्स...! हर चौके या छक्के पर अधनंगी चीयर लीडरों के ठुमके जितने अश्लील नहीं लगते, उससे ज्यादा अश्लील वह क्रिकेट लगने लगता है जिसमें ग्लैमर भरने के लिए कुछ स्त्रियों के शरीर की नुमाइश लगाई जाती है।


उत्तेजना और रफ्तार का जलजला...

इसी तरह इस पर सोचना भी किसी को जरूरी नहीं लगता है कि कभी सिर्फ अंग्रेज भद्रजनों तक सीमित रहने वाला यह खेल पिछली सदी के आखिरी दो दशकों में कई उदाहरणों से इस उम्मीद को पुख्ता करने लगा था कि अब इसमें गरीब मुल्कों के मेहनती और पेशेवर खिलाड़ी भी अपनी जगह बना सकेंगे, वही क्रिकेट अब कैसे इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के साथ-साथ लगभग पूरी तरह पूंजीपतियों का तमाशा बन चुका है जो खासतौर पर टीवी मीडिया के जरिए देश-दुनिया के सामने परोसा जा रहा है। उत्तेजना और रफ्तार में वैसे लोगों का खारिज़ होना तय है जो इसके लिए सामाजिक तौर पर ‘तैयार’ नहीं हैं।

तो ‘बिग बॉस’ जैसे फर्जी रियलिटी शो और लगभग बेवकूफ बनाए रखने के मकसद से पेश किए जा रहे धारावाहिकों के अलावा क्रिकेट के उन्माद में लोगों को फंसाए रखना- यही इस क्रांतिकारी मीडिया की रोजाना की व्यस्तताएं हैं, जिसके शुरुआती दौर में धोखे में कुछ लोगों ने मान लिया था कि शायद यह समाज का चेहरा बदल दे। लेकिन हम एक ऐसे समाज के हिस्से हैं, जिसकी जादुई सत्ता हर नए समाज का सिंहासन हासिल करने के लिए सबसे उपयुक्त पात्र के रूप में अवतार ले लेती है। बल्कि यों कहें कि इसे किसी भी जलजले का अंदाजा लगाना खूब आता है और यह खुद से ऊबे हुए समाज के बरक्स तुरंत ऐसा समाज गढ़ लेता है, जहां उसके सिंहासन की जगह पहले तैयार की जाती है।

एक विरोधहीन समाज तैयार करना यों भी किसी सत्ता का मुख्य मकसद होता है। इसलिए वह सबसे पहले किसी भी समाज में विरोध की रीढ़ को कमजोर करता है। यानी उसकी समूची युवा पीढ़ी को एक लुभावने ‘इंद्रजाल’ में ऐसे उलझा देता है कि किसी भी व्यापक संदर्भों वाले मसले पर विचार करने को वह बेकार में सिर खपाना मानता है और टीवी कार्यक्रमों और विज्ञापनों में पेश दुनिया के ख्वाब उसके अपने होते हैं। और यह शायद दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस तरह के जीवन-लक्ष्यों के साथ जीने वाले किसी भी शख्स के लिए आगे निकलना महत्त्वपूर्ण होता है, चाहे उसके लिए खुद का या सामने पड़ने वाली किसी भी बाधा का दमन क्यों न करना पड़े।

आगे... और आगे... तेज... और तेज...

आगे निकलना यों एक सकारात्मक विचार होना चाहिए। लेकिन क्या यह विचार इसी रूप में देखे-समझे जा सकने लायक स्थितियों में रह गया है? नवउदारवादी पूंजीवाद के इस विकट दौर में शायद सबसे ज्यादा संकट शब्दों की परिभाषाओं के सामने ही खड़ा हुआ है। जड़ताओं को पीछे छोड़ आगे निकलने का मतलब यह है कि आपने बाजार में आने वाली किस नई कार को अगले हफ्ते खरीदने का मन बना लिया है। सबसे महंगे इलाके के सबसे महंगे फ्लैट में सबसे आधुनिक सुख-सुविधाओं का भोग करते हुए अगर जाति पर गर्व करता या अपने विवाह के लिए दहेज की रकम तय करने में मुख्य भूमिका निभाता कोई युवा मिल जाए, तो आश्चर्य नहीं करने की जरूरत है। देश की संस्कृति या शिक्षा व्यवस्था ने उसे दिया क्या है कि वह ब्राह्मण, ठाकुर, यादव किसी दलित-आदिवासी चेतना से मुक्ति पा सके या डॉक्टरी-इंजीनियरी या आईएएस-आईपीएस का तमगा लटकाने के बावजूद शादी के नाम पर अपनी कीमत लगाने से पहले शर्म से मर जाए…!

आधुनिकता का लबादा ओढ़े वे युवा किस जमीन पर खड़े होते हैं, जिनके लिए पहले वर्ग, फिर अपनी जाति प्यारी हो जाती है? स्त्री या दलित जिनके लिए महज मनोरंजक प्रश्न हैं। वे कौन-से कारण हो सकते हैं कि किसी शैक्षिक संस्थान में दलितों या कमजोर तबके के छात्रों के लिए घोर अपमानजनक और पीड़ादायक स्थितियों की ‘रचना’ की जाती है और पीड़ितों की चीख के साथ उनके संगी-साथी तक खड़ा नहीं हो पाते? अगर कभी इक्के-दुक्के विद्रोह का झंडा उठा भी लें तो सत्ता उन्हें किसी भी कीमत पर खरीद लेना चाहती है। अगर यह नहीं हो सका तो अनुशासन के नाम पर दमन का हथियार उसके पास है। यानी या तो अपने ‘विकास’ की अंधी दौड़ में शामिल हो जाएं और अपने आसपास देखना बंद कर दें, या फिर उस सत्ता की चुनौती स्वीकार करने के लिए तैयार रहें जिसके पास आपको खत्म कर देने के तमाम रास्ते और ‘हरबे-हथियार’ मौजूद हैं।

बदलाव का सुनहरा इंद्रजाल...

दरअसल, हम जिस सत्ता की बात करते हैं, वह चाहती ही यही है कि बदलाव का विचार महज अपनी और केवल आर्थिक उन्नति के दायरे में कैद रहे। इससे समाज के ढांचे को भी ज्यों का त्यों बनाए रखने में मदद मिलती है। इसलिए वह पहले अपनी सारी कारगुजारियों के स्वीकार के लिए समाज के सामने उसके कल्याण का तर्क पेश करती है। फिर अपनी बर्बरताओं को भी सभ्य समाज के लिए अनिवार्य घोषित कर देती है। यह पूरा का पूरा मनोविज्ञान का खेल होता है, जिसमें मुख्य निशाना समाज का युवा वर्ग ही होता है। ‘चेंज’ या बदलाव का अर्थ कभी समाज को बदल डालने में लगाया जाता रहा होगा। आज के युवाओं के लिए उस अर्थ में यह एक रूमानी खयाल से ज्यादा कुछ नहीं है। अब ‘चेंज’ का मतलब बाजार की मांग के अनुकूल आचरण करना और उसके रंग में रंग जाना है। अगर इसमें पिछड़े तो चेतना के स्तर पर पिछड़े होने का लांछन ढोने के लिए तैयार रहना होगा। ऐसे ही लोगों का ही समाज तैयार करने की कोशिश की जा रही है जिनकी दुनिया टीवी या मीडिया के जरिए परोसे जा रहे फर्जीवाड़े तक ही सिमटी रहे। आपसी बातचीत के लिए कोई ‘बिग बॉस’ टाइप बेहूदा टीवी सीरियल है, या फिर क्रिकेट। बहुत धीरे-धीरे और चुपके से विचारों की रचना-प्रक्रिया पूरी तरह बाजार के हवाले की जा रही है। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि समाज के वंचित वर्गों के लिए स्थितियों में सौ साल पहले के मुकाबले कोई बड़ा और बुनियादी बदलाव आया है। लेकिन राजनीति का खेल खेलने वालों ने ‘विकास’ और बदलाव का ऐसा इंद्रजाल रचा है कि एक जड़ व्यवस्था के मुकाबले एक जटिल व्यवस्था की साजिशें हमें दिखाई नहीं देतीं। जातीय सड़ांधों और वर्गीय पूर्वाग्रहों से लैस इस आधुनिकता की परतें इतनी मोटी और परिष्कृत हैं कि यहां से अतीत तो स्वर्ण युग लगता ही है, भविष्य भी केवल सुनहरा दिखता है। बस वर्तमान शून्य और अस्मिताविहीन है...!

(कथादेश के मीडिया विशेषांक में)

2 comments:

चंदन कुमार मिश्र said...

गम्भीर और सचेत। फेसबुक पर बाँट रहा हूँ।

Ek ziddi dhun said...

यही है कि युवा न तो यह सब देखने-महसूस करने के लिए तैयार है और न सुनने के लिए। बाज़ार की ताकतें कामयाब हो रही हैं। अपने ही दुखों से गाफिल कर दी गई दुनिया।