सवाल है कि संस्कारों से निकलने का यह प्रोसेस कब तक चलता रहता है? जब एक आदमी सार्वजनिक मंचों पर जाकर स्त्रियों या दलितों के बारे में ‘प्रगतिशील’ खयालों की मुनादी कर रहा होता है, उस वक्त वह क्या होता है? तमाम पढ़ाई-लिखाई और बुद्धिजीवियों की पांत बैठ कर अपनी छाती फुलाता आदमी उस वक्त क्या होता है जब किसी को ‘बहन…’ जैसी गाली देता है? सूरज (प्रकाश) बड़त्या (अब फिर सूरज बड़त्या) से शादी करने के पहले अर्चना झा उसके लिए क्या थी? क्या तब भी वह इसी तरह अर्चना झा या किसी और को कोई बात बिना कोई गाली दिए नहीं कह पाता था? अगर हां, तब अर्चना झा सूरज (प्रकाश) बड़त्या के चाहे कितने ही गुणों पर रीझ गई होगी, केवल इस कारण ही उसे खारिज़ क्यों नहीं कर सकी? और अगर नहीं, तो बुद्धिजीवी होने का तमगा लटका चुका सूरज (प्रकाश) बड़त्या क्या अपने पौरुष के जड़-मूल के साथ पूरी तरह सुरक्षित साजिशन ‘प्रगतिशील’ था?
साजिशन इसलिए कह रहा हूं कि ऐसा क्या हुआ कि शादी के बाद सूरज (प्रकाश) बड़त्या नाम का वह ‘प्रगतिशील बुद्धिजीवी’ अपने सारे खोल उतार कर व्यवहार में पति, पुरुष और आखिरकार सामंती ढांचे के एक सक्षम प्रतिनिधि के तौर पर अर्चना के सामने खड़ा हो गया? ‘प्रगतिशीलता’ का पाखंड ओढ़े हुए सूरज (प्रकाश) बड़त्या क्या मनोविज्ञान के उसी दर्जे पर ठस्स, जड़, ठहरा हुआ था जहां प्रेम के नाम पर एक स्त्री को अपने बाईं ओर खड़ा पाकर ही एक पुरुष अपनी मर्दानगी को कामयाब मानता है? तब फिर कैसी पढ़ाई-लिखाई, कैसी क्रांतिकारिता, सभ्य और विकसित या कम से कम विकासशील बुद्धि वाला होने का कैसा दावा !
इन सबके बावजूद सूरज (प्रकाश) बड़त्या नाम का वह आदमी एक छद्म रचने में तो कलाकार था ही। वरना अर्चना इतना बड़ा धोखा तो नहीं ही खा सकती थी कि उसका असली चेहरा खुलने की कीमत अपनी जान देकर चुकाती। अपनी डायरी में उसने जो बातें दर्ज कीं, उससे इतना तो समझा जा ही सकता है कि वह इस सामाजिक व्यवस्था को तो समझ रही थी, उसने उस व्यवस्था को खारिज़ भी किया, लेकिन सामाजिक मनोविज्ञान को वह अभी समझने की कोशिश में थी।
एक बुद्धिजीवी कहे जाने वाले व्यक्ति की जुबान से जब किसी के लिए “बहन…” जैसी गाली आम तौर पर बरसती है तब क्या एक पल के भी लिए उसे लगता है कि उस व्यक्ति की अस्मिता के खिलाफ वह किस तरह का अपराध कर रहा है और इस रास्ते का आम होना किस जलील सामाजिक व्यवस्था की बुनियाद है?
अर्चना ने बुद्धिजीवियों पर रहम करते हुए ये शब्द लिखे होंगे या फिर उसने संस्कारों के मनोविज्ञान के सवालों को टालने या उससे बचने की कोशिश की होगी कि “बहन…” जैसी गाली आम है एक पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी व्यक्ति के लिए, जो अपने संस्कारों से निकलने के “प्रोसेस” में है। वरना ‘पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी’ शब्द समूह में अपनी गिनती कराने को उतावले किसी व्यक्ति को पहले अपने ‘संस्कारों’ से निकलने के ‘प्रोसेस’ को पूरा कर लेना चाहिए, फिर अपने ‘पढ़े-लिखे’ होने का दावा करना चाहिए। कोई भी रचना पहले एक प्रक्रिया से गुजर कर अपना आकार ग्रहण करेगी, या फिर रचना या सिद्धांत अचानक आसमान से टपकते हैं और फिर उसके तहत प्रक्रिया की शुरुआत होगी? कम से कम रचनाकार के स्तर पर…?
इस ‘प्रोसेस’ को पूरा कर निकले बिना क्या कोई भी रचना ईमानदार हो सकती है? ऐसा क्यों है कि एक बेहद ताकतवर स्त्रीवादी या दलित कविता, कहानी या विचार दर्ज कर देने वाला व्यक्ति अपने व्यवहार में घनघोर जातिवादी और स्त्री-विरोधी बना रहता है?
लेकिन इस सामाजिक त्रासदी का क्या करेंगे आप कि अगर किसी सूरज (प्रकाश) बड़त्या ने किसी समूह में बैठ कर या मंच पर हाथ लहरा कर दो-चार ‘प्रगतिशील’ जुमले उछाल दिए, कुछ कविताएं या कहानियों की उपलब्धियां अपने नाम करा लीं तो मान लिया गया कि इस व्यक्ति के सभी कुकर्म इसलिए नज़रअंदाज़ किए जाने चाहिए क्योंकि यह कवि है, कहानीकार है, रचनाकार है, तो सभी सजाओं के पार है।
अपने नाम से छपी किसी किताब का विमोचन करते हुए कुछ बड़े साहित्यकारों के साथ मुस्कुराते सूरज (प्रकाश) बड़त्या को देख कर वहां मौजूद लोगों में से क्या किसी को अर्चना की याद आयी होगी?
यह यहां-वहां मौजूद तमाम लोगों की त्रासदी है कि अगर अर्चना की याद आई भी होगी तो उस पर सूरज (प्रकाश) बड़त्या की वह किताब भारी पड़ी होगी। यही है हमारा ‘पढ़ा-लिखा’ और ‘बुद्धिजीवी’ समाज, जो किसी व्यक्ति के तमाम धतकर्मों को सिर्फ इसलिए नज़रअंदाज़ कर देता है क्योंकि वह कविता, कहानी या उपन्यास लिखता है, ‘प्रगतिशील’ बातें करता है। एक ऐसा ढांचा बना दिया गया है कि अगर ‘प्रगतिशील’ विचारों से लैस कोई एक किताब अपने नाम हो जाए तो हम अपने निजी जीवन में चाहे कितना भी निर्लज्ज और आपराधिक नाच कर सकते हैं, हमें बचाने के लिए हमारा ‘पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी समाज’ तैयार बैठा है।
इस ‘पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी समाज’ में बैठे सूरज (प्रकाश) बड़त्या जैसे तमाम लोग ऐसे ही बचाए जाते हैं, पाले-पोसे जाते हैं। लेखन और जीवन-व्यवहार में भयानक स्तर पर पाखंड जीने वाले ऐसे लोगों के लिए यही ‘पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी’ में गिनती होना हर बार संजीवनी साबित होता है। जरा कल्पना कीजिएगा कि जब किसी स्लम या गंदी कही जाने वाली बस्ती में कोई व्यक्ति अपनी पत्नी-बेटी को मां-बहन की वीभत्सतम गालियां देता हुआ पीटता रहता है या बीवी-बच्चों के सामने खुदकुशी कर लेने की स्थितियां पैदा करता है तो आपको कैसा लगता है? उस व्यक्ति के प्रति कैसे विचार आते हैं और क्या उसका व्यवहार आपको अपराध लगता है? अगर हां, तो उसे किस तरह की सजा दिए जाने का आपका मन करता है? क्या कभी आपको यह भी लगता है कि आप उसके साथ खड़े होकर सम्मानित महसूस करेंगे?
लेकिन ‘पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों’ की दुनिया में यह ‘विशेष छूट’ तभी लागू हो जाती है जब से उनकी गिनती ‘पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी’ के रूप में होने लगती है। सवाल है कि दो व्यक्ति के समान कुकर्मों की स्थिति में एक व्यक्ति को सिर्फ इसलिए छोड़ दिए जाने लायक क्यों मान लिया जाए कि वह एक तथाकथित लेखक-बुद्धिजीवी है? बल्कि उसे तो उस व्यक्ति से ज्यादा बड़ा अपराधी और ज्यादा सजा के लायक माना जाना चाहिए जो कई वजहों से अपने व्यवहारों का कारण समझने में सक्षम नहीं है और निकृष्ट व्यवहारों को जीना उसकी त्रासदी है।
मुश्किल यह है कि अर्चना जैसी लड़कियां अपनी अस्मिता और स्त्री के अस्तित्व के प्रति सजग रहते हुए भी सूरज (प्रकाश) बड़त्या जैसे अपराधियों से हार जाती हैं। सामना करने के बजाय अपने जीवन को खत्म कर लेने का फैसला भी क्या एक प्रोसेस के अधूरे रह जाने की कहानी नहीं है? प्रेम ने इतनी ताकत दे दी कि आपने जाति जैसी घिनौनी व्यवस्था पर कायम इस समाज को खारिज़ करके अपने जीवन की दिशा चुनी, लेकिन उसी हिम्मत से सूरज (प्रकाश) बड़त्या जैसे पाखंडियों का पाखंड सामने आने पर उसे क्यों नहीं लतिया सकती हैं? एक भावुक व्यक्ति ही विद्रोह कर सकता है, लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर भावुक होना अपने प्रेम के प्रति भावुक होने से कैसे कम जरूरी है?
सूरज (प्रकाश) बड़त्या जैसे लोग इस बात के अपराधी हैं कि अपने अस्तित्व से प्यार करने वाली जिन स्त्रियों के लिए इस सामाजिक व्यवस्था के मुकाबले अपनी अस्मिता और अपना चुनाव ज्यादा अहम है, सूरज (प्रकाश) बड़त्या ने उनमें से बहुतों के सामने एक बार ठिठक जाने का मौका मुहैया कराया है। सूरज (प्रकाश) बड़त्या जैसे बुद्धिजीवी कहे जाने वालों को सामाजिक रूप से पीड़ित होने का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि कोई अगर बुद्धि और मनोबल के स्तर पर सबल है और लड़ सकता है तो उसे बराबर करके देखा जाना चाहिए।
…और हमारा ‘पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी समाज’ सूरज (प्रकाश) बड़त्या जैसे तमाम वैसे लोगों को स्वीकार करने और सम्मानित करने का अपराधी है जो ‘बुद्धिजीवी’ होने का तमगा अपने गले में लटकाये लिखते और भाषण झाड़ते वक्त तो अपनी ‘महानता’ की दुकानदारी कर रहे होते हैं, लेकिन व्यवहार में जीते हुए एक अविकसित दिमाग वाला बर्बर सामंत हो जाते हैं।
(६ सितंबर, २०१० को मोहल्लालाइव पर)
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