Wednesday, 26 January 2011

पंधेर और पुलिस में क्या फर्क है…

कुछ समय पहले मेरे भांजे विनेश ने फोन पर पूछा कि कोई आदमी खो जाए तो अखबार में कैसे छपवाते हैं। मैंने कहा कि कोई रिपोर्टर जान-पहचान का है तो ठीक वरना विज्ञापन के रूप में छपवा दो। उसके गांव का एक व्यक्ति सूरत कमाने गया था। वहां से बिहार के मुजफ्फरपुर के लिए कल रेल पकड़ेगा, यहां तक की खबर उसने फोन पर बतायी थी। लेकिन जब पंद्रह दिन बाद तक घर नहीं पहुंचा तो घर वाले उसके गुम होने की खबर अखबार में देना चाहते थे। फिर वे सूरत की ओर उसे खोजने चल पड़े। पता लगाते-लगाते जब गुजरात के किसी स्टेशन पर पहुंचे तो पता चला कि वह तो पंद्रह दिन पहले ही एक ट्रेन से कट गया था और कोई खोज-खबर लेने वाला नहीं था, इसलिए पुलिस ने उसका ‘दाह-संस्कार’ कर दिया।

मंगलवार, 30 मार्च 2010 के ‘द हिंदू’ अखबार में एक खबर जयपुर से छपी है। श्रीगंगानगर में रहने वाले राजकुमार सोनी के उन्नीस साल के बेटे राहुल की पिछले साल मई में किसी ने हत्या कर दी। पुलिस ने किसी जगह से उसकी लाश ढ़ूंढ़ निकाली। लाश बरामदगी के तुरंत बाद पोस्टमार्टम भी करा दी। लेकिन उसके बाद उसके परिजनों को सूचना देना या खोजना पुलिस ने जरूरी नहीं समझा और पोस्टमार्टम के दस मिनट के भीतर शहर के तांतिया मेडिकल कॉलेज को मोटा पैसा लेकर बेच दिया। जबकि नियमों के मुताबिक ऑटोप्सी के बाद अड़तालीस घंटे तक किसी भी लाश को अस्पताल से बाहर नहीं ले जाया जा सकता।

अपने बेटे की लाश नहीं मिल पाने के बाद राजकुमार सोनी ने सूचना के अधिकार कानून के तहत जो जानकारी मांगी थी, उसमें केवल उनके बेटे के बारे में यह त्रासद तथ्य सामने नहीं आया, बल्कि यह भी कि जिंदा लोगों की खाल उधेड़ कर घूस लेने वाली पुलिस किस तरह लावारिस लाशों को भी अपनी कमाई का जरिया बनाती है। राजकुमार सोनी को कोतवाली पुलिस ने पहले बताया कि उनके बेटे राहुल का ‘दाह संस्कार’ कर दिया गया है। लेकिन दाह संस्कार की जगह पूछने पर बताया गया कि लाश को मेडिकल कॉलेज में ‘संरक्षण’ के लिए भेज दिया गया है।

राजकुमार सोनी ने सूचना के अधिकार कानून के तहत पूरे जिले के पुलिस थानों से लावारिस लाशों का ब्योरा मांगा था। लेकिन महज तीन थानों से ही पिछले पांच साल में तेईस ऐसी लाशों को पुलिस ने बहुत ऊंची कीमत पर गैरकानूनी तरीके से निजी मेडिकल कॉलेजों को बेच दिया।

लगभग दो महीने पहले बिहार में भी इसी तरह की एक खबर किसी तरह सामने आ सकी थी जिसमें एक थाने के अहाते में कोलतार के बड़े खाली डिब्बे में चार लाशें छिपा कर रखी गयी थीं। छानबीन में पता लगा कि ये चार लाशें उन लोगों के हैं, जिन्हें पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में मार डाला था और इन लाशों को निजी मेडिकल कॉलेजों को बेचा जाना था, ताकि वहां छात्रों की ‘पढ़ाई’ और ‘परीक्षण के प्रशिक्षण’ में कोई बाधा नहीं आये। ‘लावारिस’ लाशों को बेचे जाने की घटनाएं काफी पहले से जारी हैं।

अब अंदाजा लगा सकते हैं कि गांव-देहातों से रोजगार की तलाश में परदेस गये लोगों में से ‘गुम’ हो गये लोगों का क्या होता होगा? निठारी में ‘गुम’ बच्चों का क्या हुआ? और दिल्ली जैसे शहरों में ‘गुम’ होने वालों में ज्यादातर का पता भी नहीं चल पाने के पीछे क्या राज है…?

बच्चों की हत्या कर उनके अंगों की तस्करी करने वाले मोहिंदर सिंह पंधेर में और उन पुलिस वालों में क्या फर्क है, जो अपना पेट ऊंचा करने के लिए ‘लावारिस’ लाशों को भी नहीं बख्शते…?
( अप्रैल, २०१० को मोहल्लालाइव पर)

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