Wednesday 2 June, 2010

तसलीमा बरक्स हुसैन- अपने-अपने नायक...

‘अब ब्लाउज खोल कर फेंक दो, छाती पर हाथ फेरो, फटाफट साड़ी उतारो और टांगें फैला कर सो जाओ। धत्तेरे की, मेरे सामने शर्म कैसी!’


“पोर्नोग्राफी पर रोक कैसे लगे? समाज का सही चित्र न दिखाने की मंशा से ही तो वह सब दिखाया जाता है। अगर लोगों के मन-मस्तिष्क के भीतर किसी कोने में विकृति भरी हुई है तो आज नहीं तो कल भद्र कहे जाने वाले चेहरों पर से मुखौटा हटेगा ही। मेरा मानना है कि विकृति चिरस्थायी चीज नहीं है। स्वस्थ, सुंदर, समान अधिकार वाला समाज बनाने के लिए चल रही कोशिशों में स्त्री और पुरुष दोनों को मिल कर यह विकृति समाप्त करने की चेष्टा करनी ही होगी। इसे बुरी बात मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। यह गंदगी पूरी दुनिया को अपने आगोश में लेती चली जाएगी। कानून बना कर और मानवाधिकारों के मामले में लोगों को शिक्षित करके ही इस विषमता और विकृति को रोकने में मदद मिल सकती है।”


ये दोनों अंश तसलीमा नसरीन के एक लेख के अंश हैं। सुविधा के लिए इस लिंक पर जाया जा सकता है – http://mohallalive.com


- शब्दों के जरिए रचा गया चित्र,

- और विश्लेषण के बाद समाधान के लिए बताया गया रास्ता…।


एक लेख के चंद अंशों से किसी को आंकना ठीक नहीं। लेकिन यह उनके एक ताजा लेख के अंश हैं और उम्मीद यही होती है कि कोई व्यक्ति अपने काम के क्षेत्र और विषय के प्रति समय के साथ और ज्यादा परिपक्व होता है।


अब हुसैन की रेंज और तसलीमा के विस्तार की तुलना कीजिए। दो व्यक्ति को एक कसौटी पर कसने के लिए दो मापदंड नहीं हो सकते। तसलीमा और हुसैन, दोनों अपने-अपने देश के बहुसंख्यक कठमुल्लावाद के शिकार हैं। दोनों को ही अपने-अपने देशों से इसलिए भागना पड़ा है क्योंकि उन्होंने एक जड़ व्यवस्था के सामने साहस के साथ अपना प्रतिरोध दर्ज किया। लेकिन तसलीमा अपने इसी प्रतिरोध के कारण मुसलमान से ऊपर उठ कर इंसानियत की पक्षधर हो जाती हैं और हुसैन की पहचान एक मुसलमान के दायरे में सिमट जाती है। क्यों…?


अपने देश लौटने की अपेक्षा हम जितनी “उदारता” के साथ हुसैन से करते हैं, क्या ऐसी ही सदिच्छा हम तसलीमा से कर सकते हैं। उनके बांग्लादेश लौटने का रास्ता क्या इतना आसान रह गया है? बांग्लादेश की सरकार ने तसलीमा को बाहर किया, इसलिए कि वहां के कठमुल्लों की यह इच्छा थी। हुसैन को इस देश से इसलिए बाहर जाना पड़ा, क्योंकि यही यहां के कठमुल्लों की इच्छा है।


दोनों के अपने वतन लौटने पर कौन-सी स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है? तसलीमा बांग्लादेश सरकार और वहां के कठमुल्लों – दोनों के निशाने पर हैं। और हुसैन! देश लौटने के साथ ही यहां के कठमुल्लों की तलवारें और सरकार की हथकड़ियां – दोनों ही हुसैन के स्वागत के लिए तैयार खड़ी हैं। क्या अंतर है?


(यों, यहां भी एक अजीब समानता है कि तसलीमा अब शायद बांग्लादेश नहीं जाना चाहतीं और हुसैन अब भारत नहीं आना चाहते। एक अंतर यह है कि तसलीमा आज बांग्लादेश के बजाय भारत-प्रेम को जाहिर करने से कभी नहीं चूकतीं और कथित रूप से कतर की नागरिकता ग्रहण कर लेने के बावजूद हुसैन यही कहते हैं कि मैं आज भी भारत से प्रेम करता हूं, लेकिन भारत के लोगों ने मुझे खारिज़ कर दिया…)


फिर यह भी क्या सच नहीं है कि जिन कारणों से हुसैन की “सरस्वती” या “भारतमाता” जैसी कृतियां एक हिंदू मन को तकलीफ पहुंचाती हैं, लगभग उन्हीं कारणों से तसलीमा की रचनाएं एक मुसलिम मन को तकलीफ पहुंचाती हैं? एक कलाकार या रचनाकार को जैसे ही हम (या वह खुद भी) एक दायरे या एक मुसलमान-हिंदू के रूप में देखते हैं, यह समस्या आ खड़ी होती है।


तसलीमा ने जिस साहस के साथ इस्‍लामी कठमुल्लावाद का प्रतिरोध किया, उसे स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं। लेकिन उसी कसौटी पर हमें “सरस्वती”, “भारतमाता” या दूसरी कृतियों को देखना पड़ेगा कि वे एक व्यवस्था को आईना दिखाती हैं। न कि किसी मुसलमान मन को तुष्ट करती हैं या हिंदू मन को आहत करती हैं। अगर ऐसा नहीं है तो हैदराबाद के पंडित बद्री विशाल पित्ती की प्रेरणा से “रामायण” और “महाभारत” बनाने वाले हुसैन को हम किस रूप में देखेंगे? वहां तो हम हुसैन की व्याख्या एक कलाकार और इंसान के रूप में करने लगते हैं!


और यह भी एक अजीब तर्क है कि हुसैन ने अल्लाह या पैगंबर के चित्रों की रचना क्यों नहीं की? जिस तरह हम यह तय नहीं कर सकते कि तसलीमा क्या लिखें, उसी तरह हम हुसैन से यह उम्मीद क्यों करें वे अपनी कूचियां हमारी कामनाओं को तुष्ट करने के लिए चलाएं। और वह भी तब, जबकि हुसैन के उलट तसलीमा ने अपनी नास्तिकता को घोषित तौर पर स्वीकार करते हुए अपने काम सामने रखे। इसके बरक्स दुनिया में जितने लोग आस्तिक हैं, क्या उन सभी का संहार कर देना चाहिए? (पढ़ने वालों को यह ध्यान रखने के लिए कहना चाहूंगा कि मैं खुद घोषित तौर पर नास्तिक हूं और कई लोगों की भयप्रद आशंकाओं के बावजूद इस रास्ते से अपनी वापसी संभव नहीं मानता।)


अगर दलित वर्गों को अपनी सामाजिक स्थितियों के वास्तविक शास्त्र का पता लग जाए, तो वे मंदिर प्रवेश के लिए संघर्ष करने के बजाय धर्म और ईश्वर द्रोह की घोषणा करके गर्व करेंगे। हां, उन तथाकथित प्रगतिशील और क्रांतिकारी लेखकों के बारे में बात करने की जरूरत भी नहीं महसूस करता जिनके लिए “भगवान की मर्जी ही सब कुछ है।” (भगवान की मर्जी केवल सामाजिक सत्ता को बनाये रखने में सार्थक होती है।)


जहां तक हुसैन की कलाकृतियों के बाजार-शास्त्र का सवाल है, तो इस कसौटी पर भी दोनों में बहुत ज्यादा फासला नहीं है। दोनों ही अपनी-अपनी रचनाओं के लिए बाजार का निर्माण करते वक्त मूल रूप से एक ही फार्मूले का इस्तेमाल करते हैं। हां, तसलीमा के मुकाबले वहां हुसैन ज्यादा क्लासिक हो जाते हैं। (यहां हम हुसैन और तसलीमा के “उपभोक्ताओं” के बीच वर्ग विभाजन कर सकते हैं)। और अपने तमाम साहस और व्यवस्था के प्रतिरोध के बावजूद चूंकि तसलीमा भारत के बहुसंख्यक कठमुल्लावाद के लिए एक हथियार के तौर पर भी काम करती हैं, इसलिए उनकी “औसत” और एक स्तर पर असरहीन रचना भी महत्त्वपूर्ण के रूप में पोषित होती है। वरना क्या कारण है कि एक स्त्री का दुख सामने रखते हुए वे जितना बहादुर होती हैं, उन दुखों से लड़ने का रास्ता बताते हुए वे उतनी ही कमजोर और कहीं-कहीं उसी पुरुष-सत्ता का औजार हो जाती हैं, जिसके बरअक्स एक विकल्प के रूप में खड़ा होना पहली जरूरत है। यह तो नहीं हो सकता कि अपनी चुनौतियों से मुकाबले के लिए एक सामाजिक-लैंगिक सत्ता के रूप में पुरुषवाद जिन धतकर्मों को अपना हथियार बनाता है, वही फार्मूला स्त्री समाज के दुखों से निपटने के लिए अपनाया जाए। यह एक पुरुषवाद के बरअक्स उसी पैमाने पर खड़ा होने वाला दूसरा पुरुषवाद होगा और अपनी प्रकृति में आखिरी तौर पर उसी तरह नतीजे देने वाला साबित होगा।


मुश्किल यह है कि तसलीमा हमें अपनी बाकी कृतियों के मुकाबले सिर्फ “लज्जा” के लिए बहादुर लगती हैं। और “लज्जा” को सामने रख कर हुसैन से उनकी तुलना करेंगे तो एक तरह से कठमुल्लावाद के खिलाफ उनके साहस को बहुत छोटा करने की यह एक भद्दी कोशिश होगी। “लज्जा” बहुत सारे उन लोगों के लिए एक हथियार है, जो खुद स्त्रियों और समाज के वंचित तबकों के लिए आज तक अपराधी वर्ग के रूप में काम कर रहे हैं। बलात्कार, दहेज-हत्या से लेकर सती तक की परंपराएं या हर स्तर पर अपनी अस्मिता की हत्या के दौर से गुजरती स्त्री का दुख जिनके लिए “महान” परंपराएं हैं और कुछ “निर्वस्त्र” चित्र उनके लिए दुख के अंतिम विषय हैं। हर रोज दुनिया की सबसे वीभत्सतम जलालतें झेलते समाज के वंचित तबके जिनके लिए धर्म के गौरव हैं और “भारतमाता” का चित्र उनके लिए शर्म पैदा करता है।


हुसैन के देश छोड़ देने से पैदा हुई परेशानी से पहले हम शायद कभी परेशान नहीं होते जब सरकार के चालीस से साठ लाख रुपये डकार कर तैयार होने वाले हमारे डॉक्टर तुरंत आका अमेरिका का रुख कर लेते हैं। इस संदर्भ में दिलीप मंडल की इस टिप्पणी को सामने रखना जरूरी है –


भारत सरकार के पैसे से एम्स में पढ़कर डॉक्टर बने लगभग आधे प्रतिभाशाली, मेरिट से लबालब भरे छात्र विदेश चले गये। एम्स के पूर्व छात्रों की डायरेक्टरी आप भी देख सकते हैं कि वे किस देश की सेवा का मेवा खा रहे हैं। किसी को एतराज हुआ क्या? उनकी देशभक्ति क्यों असंदिग्ध है। वे तो आदरणीय पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजिन है। अब तो उन्हें वोट देने के अधिकार की भी बात हो रही है। जबकि उन्होंने देश का पैसा और देश के संसाधन का दोहन किया और जो हुनर सीखा, उसका फायदा देश को रत्ती भर भी नहीं मिला। हुसैन ने कम से कम भारत का पैसा तो नहीं लूटा।


हुसैन निशाने पर इसलिए तो नहीं हैं कि उनका नाम हुसैन है और जिस देश ने उन्हें नागरिकता दी है, उसका नाम कतर है। अपने निजी स्वार्थ और फायदे के लिए विदेश भागो और यहां सीखा हुआ वहां लुटा दो, तो सम्माननीय पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजिन और जान पर खतरे की वजह से या मुकदमे झेलने में नाकामी की वजह से विदेश भागो तो देश का द्रोही। आपको ऐसा नहीं लगता कि देशभक्ति और नैतिकता की परिभाषाएं सुविधा के हिसाब से बदली दी जाती हैं।


तो हुसैन या तसलीमा को उनकी मुस्लिम पहचान के रूप में नहीं, एक व्यवस्था-द्रोही प्रतीकों के रूप में देखा जाना चाहिए। दोनों ही बर्बर व्यवस्थाओं के प्रतिरोध के प्रतीक हैं। हुसैन से तसलीमा की तुलना इसीलिए होगी, तसलीमा चाहें या नहीं चाहें। वे अच्छी तरह से जानती हैं कि अगर उन्होंने स्वेच्छा से बांग्लादेश नहीं छोड़ा है, तो हुसैन ने भी कोई शौक से भारत से बाहर जाने का फैसला नहीं किया था। तसलीमा कठमुल्लापन के खिलाफ एक बहादुर प्रतिरोध और स्त्री अधिकारों की आवाज हैं, और इस रूप में उनका महत्त्व बना हुआ है।


और…


बिहार से होली की छुट्टी में चार दिनों के लिए दिल्ली आये एक दोस्त ने एक घटना का ब्योरा दिया, जो इस प्रकार है – बिहार के सिवान जिले में एक जगह एक दबंग सवर्ण जाति के बारात में नाच-गाने का कार्यक्रम चल रहा था। वहां पड़ी खाली कुर्सियों पर सबसे पीछे की कुर्सी पर एक छोटा बच्चा बैठ कर नाच-गाना देखने लगा। घर वाले एक व्यक्ति ने बच्चे से नाम पूछा। उसके नाम से पता चला कि वह एक दलित जाति का बच्चा था। पूछने वाले व्यक्ति ने सीधे रिवॉल्वर निकाला और उसके सीने में दाग दिया। कुर्सी पर बैठने के एवज उस दलित जाति के बच्चे अपनी जान गंवानी पड़ी।


इस तरह की स्थितियों पर शर्मिंदा होने के बजाय अगर हम हुसैन के कुछ चित्रों से दुखी और प्रताड़ित महसूस करते हैं, तो शायद हम इसी लायक हैं।

(3 मार्च, 2010 को मोहल्लालाइव पर)

4 comments:

Unknown said...

मैं आपकी बातों से सहमत हूँ.

Arvind Mishra said...

लेख बहुत अच्छा है मगर लम्बा हो गया है ----ब्लॉग के लिहाज से दो पार्ट्स में होना था ...

अर्चना said...

yah nirnay kaise le liya gaya ki apne desh men shiksha leakar widesh bhag gaye daktaron ko deshdrohi nahin mana jata hai, pata nahi, lekin is lekh se aisa lag raha hai jaise iska uddyeshy sawarn or hindu dharm ko gariyana matra hai.

Mahi S said...

sir haal hi mein aapko blog padhna shuru kiya hai, bahut accha aur prabhavi likhte hain aap, is post se shuru kiya hai aur ab dheere dheere dusare posts b padh rhi hun.....