Wednesday 2 June, 2010

हिंसा का दुश्चक्र और सत्ता का “नवउदारवादी” खेल



जनतांत्रिक सिद्धांतों की बुनियाद पर खड़ी कोई सत्ता अगर अपने तंत्र में जन की वाजिब भागीदारी तय नहीं कर पाती तो उससे उपजी विडंबनाओं का चुनौती के रूप में तब्दील हो जाना स्वाभाविक है। विचित्र यह है कि संघर्ष के ‘लोकप्रिय’ तरीकों का हश्र जानने के बावजूद सत्ता और उसके सामने चुनौती पेश करने वाले पक्ष, दोनों ही समस्या को समाधान की दिशा देने के बजाय फिल्मी अंदाज में जनता का दिल जीतने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। कुछ समय पहले तक ‘आतंकवाद’ से लड़ती भारतीय राजसत्ता के सामने अब एकमात्र चुनौती ‘माओवाद’ बन चुका है और हिंसा का मसला अब सुविधा के अनुकूल समर्थन और विरोध का सवाल बन रहा है।

मौजूदा संदर्भों में प्रत्यक्ष या परोक्ष कम से कम तीन बिंदु ऐसे हैं जो भारत में इस नवउदारवादी पूंजीवाद के दौर में सत्ता के खेल और चरित्र को समझने में मदद करते हैं। पहला, भारतीय राजसत्ता लगभग ‘सभ्य’ दिखने की कोशिश करती हुई यह कह रही है कि माओवादी हिंसा का रास्ता छोड़ें, तभी उनसे बातचीत होगी। दूसरा, मणिपुर में आर्म्स एक्ट को खत्म करने की मांग के साथ इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल दसवें साल में प्रवेश कर चुकी है। और तीसरा, न्याय की मांग का समर्थन करने वाले, माओवादियों को एक पक्ष मानने और उनके साथ राजनीतिक और विचारधारात्मक स्तर पर निपटने की बात करने वाले तमाम लोग या पक्ष सरकार की निगाह में संदिग्ध हैं।

गौर से इन तीन स्थितियों का ही विश्लेषण करने पर कई परतें खुल कर सामने आ जाती हैं कि भारतीय राजसत्ता और उसके संचालक वर्ग का मकसद क्या है और उसे पूरा करने के लिए वे किस हद तक जा सकते हैं। बातचीत के लिए एक शर्त के तौर पर माओवादियों से हिंसा का रास्ता छोड़ने की मांग करने वाली हमारी ‘सभ्य’ सरकार को इरोम शर्मिला की मांग माने जाने लायक नहीं लगतीं तो इसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं? यहां मनोरमा बलात्कार कांड और उसके बाद किसी भी सभ्यता को शर्मिंदा कर देने वाले उस सबसे त्रासद आर्तनाद को याद किया जा सकता है, जिसमें महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर सत्ता-व्यवस्था को ललकारा था। लेकिन जब उसका कोई असर सत्ता पर नहीं हुआ, तो इरोम की भूख हड़ताल क्या असर डालेगा!

इरोम शर्मिला ने अपनी मांगों के पक्ष में आंदोलन का जो रास्ता अख्तियार किया है, क्या उससे भी चरम अहिंसक रास्ता कोई और हो सकता है? लेकिन हिंसा को सारी समस्याओं का हल और एकमात्र वैकल्पिक रास्ता मानने वाले माओवादियों के साथ-साथ अगर इरोम शर्मिला का रास्ता भी अपने दसवें साल के सफर के बावजूद सरकार के कानों पर कोई असर नहीं डाल पाता, तो अब इस पर न केवल सोचने, बल्कि पूछने की जरूरत है कि आखिर आपकी मंशा क्या है।

ऐसा लगता है कि न्याय की परिभाषा तय करने का अधिकार शायद इन तीनों प्रत्यक्ष पक्षों- यानी सरकार, इरोम शर्मिला और माओवादियों के हाथ से निकल चुका है। घोषित तौर पर लोकतंत्र को अपने शासन का आधार मानने वाली सरकार के एजेंडे में ‘लोक’ की जगह अब क्या है, या उसके लिए ‘लोक’ अब कौन हो गया है, यह धीरे-धीरे साफ होने लगा है। दरअसल, शासन की निगाह में कॉरपोरेटों ने अब ‘लोक’ का रूप ग्रहण कर लिया है और विकास के तर्क पर उनका हित ‘न्याय’ की एकमात्र कसौटी है। ‘विकास आया-विकास आया’ का शोर किस तरह वीभत्सतम हकीकतों को दफन करने का हथियार बन चुका है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण उस समय देखने में आया जब पूरी बेहयाई के साथ ‘इंडिया-इंक’ यानी भारतीय उद्योगपतियों का एक समूह नरेंद्र मोदी को देश का भावी प्रधानमंत्री घोषित कर रहा था! हमारे इंडिया-इंक के लिए गुजरात दंगों में मारे गए लोगों की यही कीमत है।

इसलिए नवउदारवादी पूंजीवाद के वाहकों से यह उम्मीद लगाना ही शायद बेमानी है कि वे न्याय की किसी उस अवधारणा के जमीन पर उतरने में मददगार होंगे जिससे सत्ता में उनका हिस्सा थोड़ा कम होता हो या उस वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित होती हो जिस पर शासन ही उनकी सत्ता का आधार है। लेकिन विडंबना यह है कि जनतांत्रिक सिद्धांतों के साथ संसदीय राजनीति करने का दावा करने वाले दल भी सत्ता पाने की हड़बड़ी में अक्सर अराजक तत्त्वों का सहारा लेने की हद तक जाते दिखते हैं। पश्चिम बंगाल का उदाहरण इस संदर्भ को समझने के लिए काफी है कि किस तरह माओवादी उग्रवादियों के साथ अनैतिक गठबंधन करके एक खास राजनीतिक दल ने अपनी मौकापरस्ती और सत्ता के लिए तो किसी भी हद तक जाने का सबूत दिया ही, माओवादी उग्रवादियों को भी एक आसानी से इस्तेमाल हो जाने वाले औजार के रूप में पहचान दे दी।

मगर क्या यह हड़बड़ी केवल मुख्यधारा के कुछ राजनीतिक दलों की सीमा है? वे कौन-सी वजहें रही होंगी जिसने भाकपा (माओवादी) के सामने भरोसे का संकट खड़ा किया होगा? हाल ही में पुलिस के हाथों पकड़े गए माओवादी विचारक कोबाद गांधी ने कहा कि लगातार अत्यधिक हिंसा ने हमारे सबसे मजबूत गढ़ आंध्र प्रदेश में हमारी जमीन कमजोर कर दी। कोबाद गांधी की इस स्वीकारोक्ति में संघर्ष के लिए सिर्फ हिंसा का रास्ता और उसकी परिणति को लेकर क्या कोई संदेश निहित है? सवाल है कि सेना तक को ललकारने वाले माओवादी कम से कम अपने प्रभाव वाले इलाकों में अपनी ताकत का इस्तेमाल उन सरकारी बाबुओं और अफसरों को मजबूर कर विकास सुनिश्चित कराने में क्यों नहीं करते, जो बिना घूस लिए मृत्यु प्रमाण पत्र तक नहीं बनाते हैं?

यहां एक ओर वह पक्ष है जो शायद जानबूझ कर इस हकीकत से मुंह चुरा रहा है कि राजसत्ता के पास ‘लोकतंत्र’ की दुहाई है, कानून-व्यवस्था का तर्क है और कोबरा से लेकर सेना तक एक ऐसी सुरक्षा पंक्ति है, जिसका सिरा शायद दुनिया की ‘सबसे बड़ी ताकत’ से जुड़ता है। और दूसरी ओर विकास का ठेका उठाने वाली वे सरकारें हैं, जिन्हें कारणों पर गौर करने या अवधारणाओं में फर्क करने की जरूरत महसूस नहीं होती। उसकी निगाह में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर, मुंबई या पेशावर के चिथड़े उड़ा देने वाले लोगों के बरक्स सत्ता के अत्याचारों के नतीजे में माओवादियों की शरण में गए दलित-आदिवासी बराबर के आतंकवादी हैं!

कमजोर तो यों भी महज मोहरे होते हैं। उन्हें यह समझाना आसान होता है कि इंदिरा आवास और सौ दिन का रोजगार काफी है भारत देश का नागरिक होने पर गर्व करने के लिए। उन्हें राजसत्ता की ‘विकास नीति’ के खिलाफ लोकतांत्रिक संघर्ष के लिए लामबंद करने के बजाए जंगल से लकड़ी काट कर बाजार में बेच कर गुजारा करने, स्कूल का मुंह नहीं देखने, घास-फूस के घर में रहने, बीमार पड़ने पर ओझाओं की शरण लेने और ‘डायनों’ को खोज कर मैला पिलाने, उन पर जुल्म ढाने या मार डालने जैसी परंपराओं को संस्कृति रक्षा के नाम पर बचाए रखने के लिए ‘आंदोलित’ करना भी आसान है। उन्हें यह समझाना भी आसान है कि तीर-धनुष काफी हैं एके-47 से लेकर तोपों-टैंकों तक से मुकाबले के लिए!

भाकपा (माओवादी) या उसके सहयोगी संगठनों का सबसे आखिरी चक्र एक ऐसे सुगठित तंत्र के भीतर रहता है कि वह ‘अपने लिए’ बिना कोई नुकसान उठाए राज्य से ‘टक्कर’ लेगा और नायक भी बना रहेगा। दूसरी ओर, राज्य है, जो ‘वैध’ तरीके से खुल्लमखुल्ला या फिर ‘रणनीतिक’ तौर पर हर जरूरी कदम उठाते हुए गुरिल्ला लड़ाकुओं का सामना करेगा। बीच में है ‘नागरिक’, जिसके पास न तो छापामार युद्ध की ट्रेनिंग है कि वह राज्य पर हमले के तुरंत बाद जंगलों में गुम हो जाए, और न राज्य का सामना करने की ताकत। मगर माओवादियों से लेकर उसकी सुरक्षा पंक्ति के रूप में काम करने वाले तमाम पक्षों के लिए भी वह एक सुविधाजनक मोहरा है और राज्य की बंदूकों के निशाने भी उसी पर टिके हैं।

इस ‘नागरिक’ की त्रासदी को सतह पर दिखते सवालों से समझना इसलिए मुश्किल है, क्योंकि यह सही है कि भूख, अपमान, अन्याय, उपेक्षाओं से त्रस्त और न्यूनतम मानव अधिकारों से वंचित किसी व्यक्ति के पास आखिर रास्ता क्या बचता है। लेकिन ‘मुक्ति’ के नाम पर चलाए जाने वाले अभियान के नाम पर जन अदालतों में किसी न किसी रूप में अपने ही वर्ग के ‘दुश्मनों’ का सफाया करना एक निर्मम सत्ता-व्यवस्था के बरक्स कौन-सा और कैसा विकल्प पेश करता है? राज्य तो एक तरह से ऐसी ‘उकसाने’ वाली घटनाओं के इंतजार में ही खड़ा होता है, ताकि कानून-व्यवस्था से लेकर सलवा-जुडूम तक के तर्क पेश कर दमन को सही ठहरा सके।

माओवादी और राज्य, दोनों ही क्या इस बात का हिसाब कभी लगाएंगे कि इस ‘संघर्ष’ में जिन लोगों की बलि चढ़ाई गई, वे कौन थे? समाज के सबसे कमजोर तबके के रूप में आदिवासी या दलित क्या सिर्फ इस्तेमाल होने या बलि का बकरा बनने के लिए पैदा होते हैं? कभी-कभार कुछ निचले दर्जे के पुलिस वालों की हत्या कर या किसी को अपनी पार्टी छोड़ने की सार्वजनिक घोषणा नहीं करने पर गला रेत कर मार डालने को ‘क्रांति’ घोषित करने वाले माओवादी क्या इस बात से अनजान होते हैं कि उनकी इस तरह की हर ‘बहादुरी’ के बाद राज्य और कितना बर्बर हो जाता है? और कि राज्य के अत्याचारों का शिकार उनके छापामार दस्ते के प्रशिक्षित गुरिल्ला नहीं होते, बल्कि वे निरीह आदिवासी या दलित होते हैं जिन्होंने खुद को बचाने का कोई ‘कारगर तरीका’ अब तक नहीं सीखा है। यानी व्यवस्था या सपना चाहे कोई भी हो, उसकी कीमत समाज के सबसे कमजोर तबकों को ही चुकाना है।

एक तरफ अन्याय और दमन की राजनीति और दूसरी तरफ इसके विरोध में मकसद को बेमानी बना देने वाली हिंसा की जटिल स्थितियों के बावजूद जनतंत्र के तकाजों का सवाल उठाने वालों को भी अगर भारतीय राजसत्ता संदेह के कठघरे में खड़ा करना चाहती है तो इसका मतलब समझने में बहुत मुश्किल नहीं होनी चाहिए। दरअसल, राजनीतिक और विचारधारात्मक लड़ाई की वकालत करने वाले पक्ष माओवादियों को किसी न किसी स्तर पर एक पक्ष के रूप में स्वीकार कर रहे हैं और इस तरह की स्वीकृति आखिरकार नवउदारवादी पूंजीवाद के पैरोकारों, कॉरपोरेटों और उनकी उंगलियों पर नाच रहे लोगों को एक असहज स्थिति में ला खड़ा करेगा।

और भारतीय राजसत्ता फिलहाल जिनके हाथों का खिलौना बनी हुई है, वे देश भर में एक ‘सुविधाजनक’ और ‘सुरक्षित’ हालात चाहते हैं। एक ऐसा सत्ता-तंत्र, जो मौजूदा सामाजिक सत्ता-व्यवस्था का आधुनिक और उदार दिखने वाला चोला हो। आज कॉरपोरेटों की सरकार ‘विकास’ की जिस अवधारणा पर काम कर रही है उसके लिए मुफ्त की आबो-हवा, सस्ती जमीन और सस्ते संसाधन चाहिए। और वे सस्ते मजदूर चाहिए, जिनके लिए श्रम की न्यूनतम मानवीय परिस्थितियां मुहैया कराना जरूरी नहीं होता, किसी भी तरह के श्रम कानूनों के पालन की जरूरत नहीं होती और न वाजिब मजदूरी जैसे कोई सवाल मायने रखते हैं। इसलिए माओवाद के बहाने हिंसा के तर्क को हावी करने और उन तमाम लोगों और पक्षों को संदेह के घेरे में लपेटने की कोशिश हो रही है जो कॉरपोरटों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पूंजीवादी विकास के बरक्स हक या अधिकार जैसी कोई बाधा सामने रख दे। (यह आलेख जनसत्ता की प्रॉपर्टी है)
(8 दिसंबर 2009 को जनसत्ता में)

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