Wednesday, 13 May 2009

नफरत की बुनियाद पर उन्माद की राजनीति...


वरुण गांधी के बयानों ने जो तूफान पैदा किया है, वह भारतीय राजनीति के लिए क्या सचमुच इतना विस्मयकारी है? क्या ऐसा पहली बार हुआ है, जब भाजपाई हिंदुत्व की रगों में दौड़ती नफरत की बुनियाद पर हिंदू राष्ट्र का हवामहल खड़ा करने का ख्वाब परोसा गया है? और शायद इसे भी एक शुद्ध भाजपाई अभ्यास के तौर पर मान लिया जाना चाहिए कि तीर जब अपना काम कर जाए, तो दिखावे का अफसोस जाहिर कर देने, उससे खुद के अलग रहने या फिर बिना किसी शर्म के पलटी मार देने में कोई हर्ज नहीं है। तो मीडिया में हूबहू बयान आने के बाद वरुण गांधी ने भी कह दिया कि उनके भाषणों के टेप के साथ छेड़छाड़ की गई है; वे राजनीतिक साजिश के शिकार हुए हैं; और कि उन्होंंने वैसा कुछ भी नहीं कहा है जिसके लिए उनकी गर्दन पकड़ने की कोशिश हो रही है।


भाजपा में, लेकिन लोकतंत्र में यकीन रखने वाले वैसे बहुत सारे लोगों को थोड़ी देर के लिए इस बात से राहत मिली होगी कि पार्टी ने वरुण गांधी के बयानों की जिम्मेदारी नहीं ली और कहा कि उनके बयानों से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन भोलेपन और मासूमियत की चाशनी में लिपटा भाजपा का यह ‘सच’ सिर्फ दो दिनों के भीतर सामने आ गया। चुनाव आयोग की नजर में दोषी होने और उसकी एक मरियल-सी फरियाद के बावजूद भाजपा ने ज्यादा हमलावर तरीके से वरुण गांधी का पक्ष लिया। दरअसल, न तो वरुण गांधी इतने मासूम हैं और न भाजपा इतनी भोली कि इस तरह की ‘बाजियों’ के नफा-नुकसान का अंदाजा इन्हें न हो। इसलिए बयानों के असर को और ज्यादा तीखा बनाने के लिए ‘शहीदाना’ अंदाज में वरुण गांधी के आत्मसमर्पण और गिरफ्तारी के नाटक का एक और दृश्य भी पूरा कर लिया गया।

नब्बे के दशक की शुरुआत में ही मंडल आयोग की सिफारिशों पर अमल के साथ पैदा हुए सामाजिक न्याय के नारे की भ्रूण हत्या के इरादे से निकली ‘रथयात्रा’ आखिरकार बाबरी मस्जिद विध्वंस की मंजिल तक पहुंची। और इस मंजिल तक पहुंचने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने जो राह तैयार की, वरुण गांधी जैसे लोग तो उस पर अपने तरीके से चलने वाले महज कुछ मुसाफिर हैं। दरअसल, तब से लेकर भाजपा ने लगातार भारतीय राजनीति में एक ऐसी जमीन तैयार की है, जिसमें ‘हीरो’ बनने के लिए सिर्फ एक तयशुदा फार्मूले पर अमल की जरूरत होती है। और नरेंद्र मोदी हों या प्रवीण तोगड़िया, या फिर योगी आदित्यनाथ, प्रमोद मुतालिक या वरुण गांधी, इन सबके लिए यह ज्यादा आसान रास्ता है कि संघर्ष का लंबा रास्ता अख्तियार करने के बजाय यही फार्मूला अपनाया जाए। आग लगाने वाले दो-चार बयान, उत्पात और मीडिया में कवरेज का इंतजाम- जिसके लिए किसी खास तैयारी की जरूरत नहीं पड़ती। हाल में उगे प्रमोद मुतालिक को मंगलोर में पब पर हुए हमले से पहले कितने लोग जानते थे? या फिर कितने लोगों को यह पता था कि वरुण गांधी मेनका गांधी का बेटा होने के अलावा भाजपा की सक्रिय राजनीति भी कर रहे हैं? लेकिन पीलीभीत के अपने चंद बयानों से उन्होंने अपनी ही पार्टी में जगह बनाने के लिए दशकों से संघर्ष कर रहे तमाम नेताओं को पीछे छोड़ दिया।

मगर भाजपा का दुख यह है कि भारतीय भूभाग के पिछले पांच-सात सौ सालों के इतिहास ने यहां ऐसा सामाजिक-राजनीतिक ढांचा खड़ा कर दिया है, जिसका बहुमत इस तरह के उन्माद को ‘इलाज’ के लायक ही मानता है। यह अकारण नहीं है कि पिछले लगभग दो दशक में हिंदुत्व में उफान पैदा करने वाली तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी वह केवल अपने बूते देश की सत्ता पर काबिज होने में नाकाम है। अगर ‘गुजरात प्रयोग’ जैसे छिटपुट उदाहरण दिए जाते हैं तो यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसे आजादी के बाद देश के सत्ता संचालकों की नाकामी कहें या यथास्थितिवाद को बनाए रखने की महीन राजनीति कि सत्ता के ‘लोकतांत्रिक’ ढांचे के बावजूद हर मोर्चे पर लोकतंत्र को कुंठित करने की कोशिश हो रही है। यही वजह है कि न तो सत्ता अपने मूल स्वरूप में व्यवहार के स्तर पर लोकतांत्रिक हो सकी और न इसके सामाजिक नतीजे हासिल किए जा सके।

सवाल है कि इन स्थितियों का ज्यों का त्यों बने रहना आखिरकार किसके हित में था या है। समाज को जड़ताओं और विद्रूपों से मुक्त करने के लिए जमीनी स्तर पर कुछ करने की बात तो दूर, क्या कारण है कि पिछले साठ साल की ‘अपनी सत्ता’ के बावजूद हम यह संदेश तक प्रेषित करने में विफल रहे हैं कि हमारा मकसद एक प्रगतिशील मूल्यों के साथ जीने वाले समाज की रचना है? यह कैसे संभव हो सका कि भारत में विकास के पर्याय के रूप में स्थापित होने के बाद कर्नाटक आज कुछ गिरोहों का अभयारण्य बनता जा रहा है? वहां से वे सारे उदाहरण सामने आ रहे हैं जो अफगानिस्तान या पाकिस्तान में तालिबान के प्रभाव वाले इलाकों का चेहरा बन चुके हैं।


मंगलोर के एक पब में घुस कर युवतियों को मारना-पीटना इस दक्षिणी राज्य की अकेली घटना नहीं थी। इससे पहले गिरजाघरों पर लगातार हमले हो रहे थे, मगर किसी को उसका नोटिस लेना जरूरी नहीं लगा। जबकि याद किया जा सकता है कि 1998 में गुजरात के डांग जिले में कैसे सुनियोजित तरीके से लगातार गिरजाघरों पर हमले किए गए थे। उसके बाद चार साल में जो जमीन तैयार हुई, उस पर गुजरात जनसंहार एक इतिहास बन कर खड़ा है। तो कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ और उडुपी में जो कुछ चल रहा है, क्या वह गुजरात-2002 जैसे प्रयोग की पूर्वपीठिका है? गुजरात में बाबू बजरंगी जैसे लोगों ने जो किया, बजरंग दल और प्रमोद मुतालिक की श्रीराम सेना कर्नाटक में वही कर रही है। उनके लोग कॉलेजों में जाते हैं, दूसरे धर्म के छात्रों से जान-पहचान रखने वालों को मारते-पीटते हैं, अपहरण करते हैं और मुसलिम छात्राओं को बुर्का पहनने के कारण जलील करते हैं। उनका ‘हिंदू समाजोत्सव’ दूसरे धर्म वालों में आतंक पैदा करने का जरिया हो चुका है और इसे कर्नाटक सरकार का घोषित संरक्षण मिला हुआ है। यह ‘लोकतांत्रिक सिद्धांतों’ के तहत चुनी गई सरकार का संरक्षण है। यह ‘बहुमत’ के शासन के सिद्धांत का ‘व्यवहार’ है।

सिर्फ कुछ महीनों के भीतर यह आश्चर्य अब अभ्यास में तब्दील हो चुका है कि दक्षिण कन्नड़ या उडुपी में अगर आपका कोई दोस्त मुसलमान या ईसाई है तो आपको डरना चाहिए या फिर उसे त्याग देना चाहिए। लेकिन क्या-क्या त्यागेंगे आप? पहले मुसलमान या ईसाई, फिर दलित, उसके बाद पिछड़े वर्ग का कोई दोस्त! धार्मिक और सामाजिक वर्णक्रम के विभाजन पर आधारित हिंदुत्व के रास्ते की मंजिल क्या कोई और है? और आखिरी तौर पर इसी क पैरोकार होने का बार-बार सबूत देने वाला आरएसएस और उससे गर्भनाल से जुड़ी भाजपा को रास्ता भी वही चाहिए जो उसे इस मंजिल तक पहंचाए। उसे बहुत अच्छे से मालूम है कि ब्राह्मणवादी हिंदुत्व ने इस समाज के असंख्य, लेकिन हर खंड को उसकी जड़ताओं से इस कदर बांध रखा है, जहां यह सोचने की गुंजाइश नहीं है कि वरुण गांधी या प्रमोद मुतालिक ने क्या और क्यों कहा? जहां यह गुंजाइश बची होती है, वहां से यह सवाल उठता है कि चुनावों के ठीक पहले इस तरह की घिनौनी भाषा का इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति या तो जाहिल है या शातिर। मगर जाहिल की जिद और शातिराना जिद में बड़ा फर्क होता है। और इस नाते वरुण गांधी जाहिल नहीं हैं।
दरअसल, इस्लामी चेहरा लिए तालिबान से ऊपरी तौर पर नफरत करने वाली भाजपा, विहिप, बजरंग दल या श्रीराम सेना जैसी संघी जमातें उसी आबोहवा के निर्माण में लगी हैं, जो तालिबान का मकसद है। फर्क सिर्फ काले और भगवे चोले का है। शरीअत पर अमल से लेकर महिलाओं के पर्दे के भीतर रहने, लड़कियों के स्कूल जाने पर पाबंदी, आॅनर किलिंग यानी ‘सम्मान’ बचाने के लिए हत्या या मजहबी पोंगापंथ जैसी तमाम बातों में से एक भी बात ऐसी नहीं है, जो हिंदुत्व के ठेकेदारों को तालिबान से अलग करती हो।

यह दुनिया के लिए एक बेहतरीन लतीफा हो सकता है कि जिस तरह टीवी, मोबाइल, मोटरगाड़ियों, एके-47 या टैंकों-मोर्टारों या दूसरे अत्याधुनिक हथियारों जैसे विज्ञान के रहम की बदौलत तालिबान सभ्यता की इच्छा रखने वाले एक समाज को जंगली कबीले में तब्दील करने की कोशिश में है, ठीक उसी तरह ‘वाइब्रेंट गुजरात’ दरअसल हिंदुत्व के खौफ से थर्रा रहा है और हमारे ‘सिलिकॉन वैली’ वाले राज्य में अब भगवा का भय पसरता जा रहा है। तो क्या हमारा आगे बढ़ना अब पूरा हो चुका है और क्या हम लौट रहे हैं?

भारतीय राजनीति की शतरंजी बिसात पर संघ के मुकाबले का माहिर खिलाड़ी-समूह कोई नहीं है। वह अपनी हर चाल के बरक्स सामने वाले को भी वही चाल चलने को मजबूर करता है जिसकी बाजी संघी झोले में जाए। यह महज संयोग नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष और तमाम वैज्ञानिक प्रगतिशील मूल्यों के प्रवक्ता जवाहरलाल नेहरू के ही परिवार का एक सदस्य आज अचानक प्रतिगामी धारा का प्रतीक बन गया और हर बार की तरह उनकी कांग्रेस पार्टी लाचार मुंह बाए खड़ी है। क्या यह सचमुच की लाचारी है? क्या वास्तव में हमारे देश का कानून और संविधान इस हद तक मजबूर है कि प्रमोद मुतालिक या वरुण गांधी जैसे लोग वह करने का हक पा चुके हैं जो वे कर रहे हैं? फिर अकेले सिमी जैसे संगठनों को ही हम क्यों खत्म होते देखना चाहते हैं?

यह अनायास नहीं है कि मुंबई में देश पर अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले के बावजूद ‘इस्लामी आतंकवाद’ का सुर कुछ शांत-सा लगा। दरअसल, ईसाइयों और उनके गिरजाघरों पर हिंदुत्व के झंडाबरदारों के हमले से लेकर राज ठाकरे के आतंक तक पर जो बहस जोर पकड़ती जा रही थी, उसमें इस्लामी आतंकवाद के अमेरिकी राग पर टिके रहना संभव नहीं रह गया था। रही-सही कसर महाराष्ट्र एटीएस ने आतंकवाद के हिंदुत्ववादी चेहरे का पर्दाफाश करके पूरी कर दी। अब चूंकि असुरक्षा और भय के ध्रुवीकरण की गुंजाइश कम हुई, तो इसके बरक्स गुजरात में आजमाया हुआ नफरत का नुस्खा एक आसान औजार के रूप में सामने है। यह कौन जानता है कि वरुण गांधी ने मुसलमानों और सिखों के खिलाफ जवानी के जोश में आकर जहर उगला या फिर यह सब कुछ ठंडे दिमाग से सोच-समझ कर सामूहिक रूप से लिया गया फैसला था।

सत्ता पर कब्जा करने से पहले उसके तंत्र पर कब्जा करना जरूरी होता है। हिंदुत्व की सामाजिक सत्ता पर तो पहले ही संघी व्यवस्था काबिज है। तंत्र में भी इसका चेहरा बार-बार दिखता है। लेकिन राजनीतिक सत्ता पूरी तरह संघ के कब्जे में आना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि उसके सूत्रों को कांग्रेस भी अच्छी तरह समझती है और कई-कई ‘उदार’ चेहरों के साथ अक्सर उस पर अमल भी करती दिखती है। और दूसरे, कि उन सूत्रों की बारीकियों की परतें उघाड़ने वाले लोग भी रह-रह कर उठ खड़े होते हैं। कन्नड़ के विख्यात लेखक यूआर अनंतमूर्ति ‘मोदी-सावरकर-गोड्से’ की त्रिमूर्ति को संघ परिवार का मॉडल मानते हैं। यानी मोदी जैसा प्रशासक, सावरकर का दर्शन और गोड्से को पीड़ित मानने का फार्मूला, यानी एक आम हिंदू मानस की ‘आकांक्षाओं’ का मॉडल। नरेंद्र मोदी के बाद पहली बार भाजपा या संघ परिवार को अपने मॉडल के लायक कोई ‘हीरो’ मिला है। यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी, प्रमोद मुतालिक, योगी आदित्यनाथ या वरुण गांधी जैसों के उगले जहर की जमीन पर जो देश या समाज खड़ा होगा, उसका बोझ संभाल पाना शायद खुद भाजपा के लिए भी मुश्किल होगा।

(जनसत्ता में प्रकाशित)

3 comments:

Anshu Mali Rastogi said...

बेहद वैचारिक और गंभीर लेख है। शेषजी शुभकामनाएं।

Anonymous said...

साधुवाद....
देर से ही सही....

Arshia Ali said...

आपका ब्लॉग गम्भीर विमर्श को प्रेरित कर रहा है। आज संयोगवश ही यहां पहुंची।
वैसे इसी चार्वाक पर ही आज एक पोस्ट हमारे ब्लॉग साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन पर भी प्रकाशित हुई है। समय मिले, तो जरूर देखें।
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