क्या कौंधा कि उम्मीदों-सी नज़र हुई है,
ठहरे हुए समंदर में इक लहर हुई है।
बहुत दिनों तक मौसम ये मायूस रहा,
आंखें आज बहारों की मुंतज़र हुई हैं।
कांटों के ऊपर से कितने दिन गुजरे,
कितनी मुश्किल से मंजिल ये डगर हुई है।
आफ़ताब बन गए आज ये चांद-सितारे,
बहुत दिनों के बाद शाम ये सहर हुई है।
फिर से आए शाम, तो आए क्या ग़म है,
यों ही अब तक कहां हमारी सहर हुई है।
2 comments:
क्या बात है, बहुत खूब!!
वाह बहुत अच्छी नज्म है
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