Saturday, 8 March 2008

पढ़ी-लिखी मैम और वे...


जब मेट्रो लिंक सर्विस में चलने वाली एक छोटी बस के ड्राइवर ने निराश होकर अपने कंडक्टर और हेल्पर को डांट पिलाई कि कहता हूं कि पढ़ी-लिखी मैमों को ना बिठाया कर; तो उसकी फिक्र वाजिब थी। पढ़ी-लिखी मैम को उस दिन बस कंडक्टर ने शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन कह कर बिठाया था और उस्मानपुर में ही गाड़ी खाली करने की हांक लगा दी थी। लेकिन सभी लोगों के उतर जाने के बावजूद उस पढ़ी-लिखी मैम ने साफ कर दिया कि तुम्हें शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन पहुंचाना होगा। नहीं तो नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहो। मैं पुलिस बुलाऊंगी, तुम्हारी परमिट कैंसिल करवाऊंगी। और वह बस शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन की ओर चल पड़ी थी। इसी परेशानी में ड्राइवर-कंडक्टर और दो बाकी हेल्पर इस पढ़ी-लिखी मैम को बस में चढ़ाने पर अफसोस जाहिर कर रहे थे।
पढ़ी-लिखी मैम हमारी दोस्त हैं। जब उन्होंने उस दिन मुझे यह वाकया सुनाया तो उन पर मुग्ध होते हुए मैंने भी उसी दिन अपने रास्ते का दूसरा वाकया सुनाना शुरू किया। सौरव विहार से ऑटोरिक्शा से मथुरा रोड जाने का किराया पांच रुपए हैं। बीच में मीठापुर पड़ता है, जहां के तीन रुपए लगते हैं। लेकिन ऑटो से मीठापुर उतरी उस औरत से ऑटो वाले ने जुबान के लिए अभ्यस्त हो चुकी एक गाली के साथ पांच रुपए मांगे। उस वक्त कोई जलजला नहीं आया था, जब फटेहाल-सी दिखती हुई पांच का सिक्का हाथ में लिए वह औरत ऑटो ड्राइवर की मुंह पर उंगली बताते और कुछ "मर्दाना" गालियां बरसाते हुए बोली कि चल दो रुपए लौटा, नहीं तो १०० नंबर को बुलाऊंगी और रोड में चलना बंद करवा दूंगी। ऑटो में बैठे एक मर्द के मुंह से जो निकलना था, वही निकला कि बड़ी कमीनी औरत है। कैसे इसके मुंह से गाली निकला। मैंने उसे सिर्फ इतना कहा कि कभी फुर्सत मिले तो सेचना कि ये ड्राइवर क्यों तुम्हें बेइमान नहीं लगा और वह औरत कमीनी लगी।
कुछ ही दिन पहले दिल्ली में ऑटो चलाने वाली पहली औरत ने उस बेलगाम वर्दीधारी के एक थप्पड़ की पूरी कीमत चुकाई। वह ट्रैफिक पुलिस वाला अपनी रगों में उतर चुके वर्दी के रंग की अकड़ में था। इतना तो तय है कि बेचारे का दिमाग नहीं चलता था। हां, हाथ चलाने में शायद महारत हासिल थी, सो बिना किसी पूछताछ के सीधे हाथ की ताकत आजमा ली। उसके बाद उस ऑटो ड्राइवर ने १०० नंबर बुलाया। चले हुए हाथ ने बात आगे बढ़ा दी और अब सस्पेंड होने के बाद उम्मीद है कि उस बेलगाम घोड़े के दिमाग ने शायद सरकना शुरू कर दिया होगा।
बहरहाल, हमारी उस दोस्त को "मर्दाना" गालियां लफ्ज का इस्तेमाल शायद अच्छा नहीं लगा था। हम सवाल उठा सकते हैं कि ऐसा "इंपॉवरमेंट" किस काम का जो आखिरी तौर पर व्यापक स्त्री समाज के खिलाफ जाता है। लेकिन क्या सिर्फ इस तर्क पर हमें उसके आक्रोश को खारिज कर देना चाहिए? गलत के खिलाफ तुरंत और कामयाब तरीके से खड़ा होने की उसकी ताकत क्या एक पढ़ी-लिखी मैम से कम हो जाती है- सिर्फ इसलिए कि उसने गालियों का इस्तेमाल किया? लेकिन जितना अभी तक समझ सका हूं, यही लगता है कि गालियां सवर्ण और मर्द मानस का हथियार हैं, जिसका वह अपने खिलाफ इस्तेमाल बर्दाश्त नहीं कर सकता।
हमारी वह दोस्त जिस सुचिंतित तरीके से इंपॉवरमेंट की प्रक्रिया से गुजरी होंगी, उसके बारे में सोच पाना भी उस औरत के लिए कहां संभव हुआ होगा? दिल्ली में ऑटो चलाने वाली उस पहली औरत ने भी शायद इस बारे में कुछ नहीं सोचा होगा। लेकिन तीनों ने विरोध किया, और तीनों कामयाब हुईं- रास्ते चाहे जो भी रहे हों। जो जिस आबो-हवा में रहेगा, उसके गंध और स्वाद का असर भी उस पर दिखाई देगा।
अभी तो हम उस ऑटो ड्राइवर को गाली देती हुई औरत का भी खै़रमकदम करेंगे, ऑटो चलाने वाली उस औरत का भी पीठ ठोंकेंगे, और अपनी उस दोस्त, यानी पढ़ी-लिखी मैम पर तो मुग्ध होंगे ही।

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