Wednesday, 6 February 2008

क्या किसी का जूता चोरी हो गया है...?

उस सुबह घर में वापस घुसने के बाद समझ नहीं आ रहा था कि खुद पर हंसें, कि रोएं, कि क्या करें। जिस शहर में हम रहते हैं, वहां सुबह की नींद आमतौर पर मुर्गे की बांग से नहीं, मोबाइल की घंटियों या मोटरगाड़ियों की पीं-पीं से खुलती है। लेकिन उस सुबह किसी की चीखों ने हमारी नींद में खलल डाला। पहले तल्ले पर अपने किराए के घर की बालकनी पर निकले तो देखा कि एक सात-आठ साल की बच्ची का लगातार चीखना भी उस सुबह का अंधेरा दूर नहीं कर पा रहा था। साठ-सत्तर लोगों की भीड़ के बीच में सात-आठ लोगों के थप्पड़ों से वह इधर-उधर गिर रही थी। जिसके भी पांव पकड़ कर वह बचाने की गुहार लगाती, उसी का थप्पड़ उसके गाल पर पड़ता। वे लोग आज ही अपने हाथ की ताकत आजमा लेना चाहते थे।

पहले सकपकाए, दूसरे पल 'चला मुरारी हीरो बनने' की तर्ज पर जैसे थे, वैसे ही नीचे भागे। बीच में जाकर बच्ची को छुड़ाते हुए जब जोर से चिल्लाए कि क्या कर रहे हैं आप लोग? तो जवाब में एक साथ शायद पचास आवाजें गूंजीं होंगी कि यह कूड़ा नहीं बीनती है, यह चोर है, इसने जूते चुराए हैं। उस बच्ची का बोरा खुला बिखरा पड़ा था, उसमें जूते नहीं मिले थे और इसीलिए वे सब वीर-बहादुर उसे पीटते हुए जूते का पता पूछ रहे थे।
हमने बहस शुरू कर दी कि अगर यह बच्ची चोर है तो पुलिस बुलाइए! ऐसे तो लगता है कि आपलोग मार डालेंगे इसे। हमारे अचानक हमले और पुलिस के जिक्र से वह भीड़ सकते में थी और हमसे बहस करने लगी। इसी बीच मौका हाथ लगा और वह बच्ची निकल भागी। शायद हम चाहते भी यही थे।
अब भीड़ की नजर में हम चोरों को बचाने वाले, चोरों को शह देने वाले और उनके चुराए सामान खरीद कर अपना गुजारा करने वालों में से एक थे।
हमियाते हुए आप-आप का अंदाज बिखेर कर अपना बिहारीपना हम पहले ही जाहिर कर चुके थे। सो, जुबानचढ़ी गालियां और बिहारी-बिहारी का तमगा बरसाते हुए आठ-दस बलिष्ठ बहादुरों ने हमारा गिरेबान पकड़ा और उस 'चोर' बच्ची को भगाने की जिम्मेदारी तय करते हुए हम पर हाथ आजमाने की मुद्रा बनाने लगे।
अचानक हमारे मुंह से निकल गया कि अखबार में काम करता हूं, सब के सब मुश्किल में पड़ जाओगे।
अखबार का आदमी और दिल्ली का टोन। असर अचानक हुआ। दो मिनट के भीतर समझने और समझाने का दौर शुरू हुआ कि आप नहीं जानते कि ये लोग कूड़ा बीनने के बहाने सामान चुराते हैं। पिटाई से राहत के साथ दिमाग ने काम करना शुरू किया और किसी तरह पिंड छुड़ा कर हम घर में भाग कर वापस आ गए थे।
इसके पखवाड़े भर पहले किसी और की जेब कट रही थी, हमारी नजर पड़ गई, हमने बता दिया कि भाई, ये लड़का तुम्हारी जेब से कुछ निकाल रहा था, और जेबकतरा अपने छह-सात साथियों के साथ हम पर पिल पड़ा था। वहां भी बातों की कलाकारी ही काम आई और किसी तरह मार खाने से बच सके थे। यानी आदत अब तक नहीं छूटी थी।
...सोचते हैं कि राजापाकर में, मोतिहारी में, भागलपुर में या आदि-आदि जगहों पर हमारे जैसे बातों के कलाकार क्यों नहीं होते। फिर सोचते हैं कि हम तो यहां दिल्ली में बैठे हैं, वहां क्यों होंगे।
फिर सिहर जाते हैं कि अगर हमने अखबार का आदमी होने का हथियार नहीं भांजा होता तो क्या हम भी उस दिन राजापाकर में मार दिए गए 'चोरों' की तरह किसी 'चोर' में शुमार हो जाते! मुंबई में पंद्रह मिनट तक सत्तर-अस्सी वीर-बांकुरों की भीड़ दो लड़कियों के कपड़े तार-तार करती रही और भले ही अलग-अलग कोणों से एक अखबार का आदमी तस्वीरों उतारता रहा, लेकिन पुलिस को खबर तो की। वरना गुवाहाटी में उस आदिवासी लड़की को सिर्फ पांच लोग नंगा करके दौड़ा रहे थे और पचास लोग तस्वीरें उतारते रहे। पटियाला में मुनादी करके आग में जलते हुए व्यापारी की मौत का तमाशा भी हमें मीडिया के आदमियों ने ही दिखाया था।
सुनते थे कि दिल्ली जैसे शहरों में संवेदनाएं सूख चुकी हैं। लेकिन राजापाकर में, या भागलपुर में, या खैरलांजी में, या गोहाना में, या सुहानी शाम के लिए मशहूर जुहू के समंदरी किनारे पर ही कहां बची हैं? मगर वह कैसे सूखती होंगी? वे कौन-सी वजहें होती होंगी? चाक-चौबंद सोसाइटियों के मजबूत और बुलंद दरवाजों पर तैनात सुरक्षा गार्डों के बीच तीन-चार कमरों की बंद दुनिया! या जाति की जड़ों में पलता जहर! या फिर उस बच्ची की चीखें सुनते ही खुले दरवाजे से सीधे निकल कर उसे छुड़ाने की 'बिना सोची-समझी कोशिश!'



दिल्ली आने के बाद खगोलविद प्रो यश पाल एक बार मिले थे तो उन्होंने कहा था कि चारों तरफ से बंद और जगह-जगह सुरक्षा गार्ड तैनात होने के बावजूद इन सोसाइटियों की हर महीने होने वाली मीटिंगों में सुरक्षा के मसले की ही सबसे ज्यादा फिक्र होती है।
हमारे मोहल्ले में भी एक पहरेदार रात भर सीटियां बजाता हुआ बिजली के खंभों में डंडा पीटता रहता है। लोगों के घरों के दरवाजों में कुत्तों के घुसने के लिए भी कोई फांट नहीं होती। फिर भी कूड़ा बीनने वाली कोई सात-आठ साल की बच्ची जूता चुरा लेती है!




7 comments:

PD said...

बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया आपके पोस्ट ने..

गुस्ताखी माफ said...

अरविंद भाई, इसे पढ़कर तो कोई कमेन्ट करने की हालत में भी न रहे!

अविनाश वाचस्पति said...

यह सच्चाई है
कड़वी है या
मीठी
कौन बताये
तीखी ही
नज़र आये

दिलीप मंडल said...

अरविंद जी, आपकी कलम जादू चलाती है। शानदार। आपका लेखन हमारी पसंद में शामिल हो गया।

शेष said...

हौसला अफजाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया दिलीप जी...

bhuvnesh sharma said...

वाकई संवेदनशून्‍यता का यह दौर बेहद भयावह है.

आपके ब्‍लाग पर पहली बार आया. अच्‍छा लगा पढ़कर.

ganand said...

bhai kalam chalane se hin kewal kaam nahi chalega par is se ek kadam aage ja kar ytharth ke dharatak par hame muhim suru karni hogi.....