धर्म की हिंसा
दुनिया के प्रायः सभी बड़े धर्मों के इतिहास से पता चलता है कि ये युद्ध, हिंसा और अत्याचारों के बीच से पैदा हुए। और लंबे समय तक खून-खराबे के बीच से ही इनका विकास हुआ। चिंताजनक यह है कि सभ्यता का दावा करने वाले समाजों में आज भी हिंसा का एक प्रधान औजार है धर्म। अभी सेतुसमुद्रम परियोजना के संदर्भ में राम का मुद्दा फिर गरम है। यह प्रस्तावित है कि पौराणिक कथा या पुराकथा को इतिहास के रूप में देखा जाए। इसके संदेह नहीं कि हर जाति के कुछ मिथकीय लोक विश्वास होते हैं, जिनका तार्किक आधार नहीं होता और इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए, अगर वे किसी सार्वभौम जीवन सत्य की ओर संकेत करते दिखाई दें। राम, कृष्ण और शिव हिंदुओं के प्राचीन लोकविश्वास हैं, जिनकी रचना हजारों साल में हुई है। इन लोकविश्वासों के भीतर से करोड़ों लोग अपने जीवन के दुख-सुख, हंसी-खुशी, पर्व-उत्सव और रीति-नीति व्यक्त करते आए हैं। वे अपने भौतिक कष्टों के क्षणों में कहीं आश्रय न पाकर इन्हीं लोकविश्वासों की छाया में जाते हैं। यह समझ में आ सकता है कि तार्किक आधार न होने के बावजूद ये कितनी निष्कलंक जगहें हैं। फिर भी आज से नहीं, हजारों साल से इन लोकविश्वासों को पहले धर्म ने अपनी रणभूमि में बदल दिया। अब ये राजनीति और बाजार के खेल के मैदान हैं। यह कितनी आसानी से समझाने की कोशिश होती है कि सेतुसमुद्रम योजना के तहत जल के अंदर समाए जिस सेतु को तोड़ा जा रहा है, वह भगवान राम ने बनाया था। एक प्राकृतिक घटना को पुरातात्त्विक साक्ष्य बताया जा रहा है, जबकि हिंदुत्ववादियों के शासन में ही इसकी योजना नए सिरे से बनी थी।
यह लोकविश्वासों की डकैती है
दुनिया के प्रायः सभी बड़े धर्मों के इतिहास से पता चलता है कि ये युद्ध, हिंसा और अत्याचारों के बीच से पैदा हुए। और लंबे समय तक खून-खराबे के बीच से ही इनका विकास हुआ। चिंताजनक यह है कि सभ्यता का दावा करने वाले समाजों में आज भी हिंसा का एक प्रधान औजार है धर्म। अभी सेतुसमुद्रम परियोजना के संदर्भ में राम का मुद्दा फिर गरम है। यह प्रस्तावित है कि पौराणिक कथा या पुराकथा को इतिहास के रूप में देखा जाए। इसके संदेह नहीं कि हर जाति के कुछ मिथकीय लोक विश्वास होते हैं, जिनका तार्किक आधार नहीं होता और इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए, अगर वे किसी सार्वभौम जीवन सत्य की ओर संकेत करते दिखाई दें। राम, कृष्ण और शिव हिंदुओं के प्राचीन लोकविश्वास हैं, जिनकी रचना हजारों साल में हुई है। इन लोकविश्वासों के भीतर से करोड़ों लोग अपने जीवन के दुख-सुख, हंसी-खुशी, पर्व-उत्सव और रीति-नीति व्यक्त करते आए हैं। वे अपने भौतिक कष्टों के क्षणों में कहीं आश्रय न पाकर इन्हीं लोकविश्वासों की छाया में जाते हैं। यह समझ में आ सकता है कि तार्किक आधार न होने के बावजूद ये कितनी निष्कलंक जगहें हैं। फिर भी आज से नहीं, हजारों साल से इन लोकविश्वासों को पहले धर्म ने अपनी रणभूमि में बदल दिया। अब ये राजनीति और बाजार के खेल के मैदान हैं। यह कितनी आसानी से समझाने की कोशिश होती है कि सेतुसमुद्रम योजना के तहत जल के अंदर समाए जिस सेतु को तोड़ा जा रहा है, वह भगवान राम ने बनाया था। एक प्राकृतिक घटना को पुरातात्त्विक साक्ष्य बताया जा रहा है, जबकि हिंदुत्ववादियों के शासन में ही इसकी योजना नए सिरे से बनी थी।
यह लोकविश्वासों की डकैती है
यह एक लोकविश्वास है कि हनुमान और नल-नील के नेतृत्व में बंदरों ने सेतु बनाया। इसमें एक गिलहरी का भी योगदान था। यह भी एक लोकविश्वास है कि हनुमान ने पूंछ में लगी आग से सोने की लंका जला दी, पर खुद उनकी पूंछ तक नहीं जली। भारत के लोग जो भी सोचें, श्रीलंका के लोग कभी मानने के लिए तैयार नहीं होंगे कि मिथकीय रावण की लंका यही है। वहां के लोकविश्वास दूसरे हैं, वह दूसरा देश है। इसी तरह, इतिहास ने कभी नूह की नौका के पुरातात्त्विक साक्ष्य ढूंढ़ने का दावा किया था। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में पहले विज्ञान खोजा जाता था। पर अब इतिहास ढूंढ़ा जाता है। धार्मिक मिथकों, पुराकथाओं या पुराणों का इतिहासीकरण दरअसल, एक राजनीतिक परिघटना है। इसका लक्ष्य लोकविश्वासों की राजनीतिक घेरेबंदी है। धर्मध्वजधारियों ने लोकविश्वासों का अपने वर्ण और वर्ग हित में इस्तेमाल किया। बाजारपतियों ने इनको एक आंतरिक भावना से उत्पाद बना दिया, आस्था का बाजारीकरण किया। राजनीतिज्ञों ने इन्हें सत्ता के लिए रणभूमि में बदल दिया। अब अयोध्या की जगह रामसेतु का मुद्दा है- फोकस अब उत्तर से हट कर दक्षिण के प्रसंग की ओर मुड़ गया है। अब भेद, घृणा और रक्त की लहलहाती खेती पीछे छोड़ती हुई एक नई रथयात्रा शुरू होगी। दरअसल, इसी तरह धर्म, बाजार और सुविधावादी राजनीति साधारण लोक को ठगते आए हैं। यह लोकविश्वासों की डकैती है। लोक अपने विश्वासों की व्याख्या खुद नहीं करेगा तो जाहिर है धर्मध्वजधारी, बाजारपति और सुविधावादी राजनीति अपनी-अपनी व्याख्याएं देंगे। ये लोक से उसके विश्वास छीन लेंगे और उसे सांस्कृतिक खोखलेपन में धकेल देंगे।
फिर निकलेंगे असंख्य विषैले सर्प
फिर निकलेंगे असंख्य विषैले सर्प
किसी भी धार्मिक महाकाव्य में "अच्छाई" और "बुराई" के बीच जो लड़ाई है, वही सच है। बाकी चीजें काव्यात्मक कल्पनाएं हैं या धर्मध्वजधारियों की कूटनीतिक सेंधें। क्या कोई मानेगा कि वाल्मीकि रामायण में बुद्ध को चोर कहा गया है? कहां रामायण, कहां बुद्ध। जाबालि को नास्तिक कह कर लोकायत परंपरा की आलोचना की गई है। संभवतः बौद्ध धर्म के ही असर से रामायण में एक जगह राम से सीता राम से हिंसा के विरोध में कहती हैं, आप बिना वैर के ही दंडकारण्य के राक्षसों का वध करना चाहते हैं। यह विचार त्याग दें, क्योंकि बिना अपराध के किसी को मारने को लोग अच्छा नहीं कहेंगे। राम ने जवाब दिया, राक्षसों के अत्याचार से तपस्यारत मुनि बहुत दुखी हैं। मैं तुम्हारा और लक्ष्मण का परित्याग कर सकता हूं, पर ब्राह्मणों को " नरभक्षियों" से रक्षा के लिए दिया गया वचन तोड़ नहीं सकता (अरण्यकांड, नौंवां और दसवां सर्ग) । रामायण में राम ने तलवार से शंबूक का सिर काटा है, जबकि राम के लोक बिंब में धनुष-बाण है, तलवार नहीं। जाहिर है कि बुद्ध को चोर कहने से लेकर शंबूक के वध तक के प्रसंग को भी अगर इतिहास मान लिया जाए तो राम को भगवान कहना कठिन होगा। इतना ही नहीं, इतिहास की पिटारी के सैकड़ों नए विषैले सर्प निकलेंगे। हम किसे ऐतिहासिक तथ्य मानें- वाल्मीकि रामायण में शंबूक वध दिखाया गया उसे, या तुलसी के रामचरितमानस में नहीं दिखाया गया उसे? अगर रामायण को इतिहास मान कर पढ़ा जाएगा, इसमें मिथक ही मिथक मिलेगा, मिथक मान कर पढ़ा जाएगा तो इतिहास ही इतिहास मिलेगा। अतीत का सामाजिक इतिहास।
"उद्धारार्थ हत्या"
दरअसल, रामकथा को लेकर प्राचीन काल से ही पॉलीमिक्स होता आया है। राम को लेकर राजनीति नई घटना नहीं है। राम को सामाजिक भेदभाव वाली सामाजिक-राजनीतिक अवधारणा की कठपुतली बनाने के प्रयास आगे भी चलेंगे। रामचरितमानस से लगभग दो सौ वर्ष पहले रचे गए अध्यात्म रामायण में राम कहते हैं कि स्त्री-पुरुष का भेद या वर्ण भेद या आश्रय मेरे भजन में बाधक नहीं बन सकते। भक्ति हो ते कोई भी मेरा भजन कर सकता है। यहां तक भक्ति आंदोलन का असर स्पष्ट दिखाई देता है क्योंकि इस ग्रंथ में शंबूक वध अनुपस्थित नहीं है। रामायण से भिन्नता यह है कि रामायण में शंबूक राम के हाथों वध के बाद भी स्वर्ग नहीं जा पाता, बल्कि उसके स्वर्ग न जा पाने से प्रसन्न देवता राम पर फूलों की वर्षा करते हैं। अध्यात्म रामायण में शंबूक स्वर्ग चला जाता है। अध्यात्म रामायण का रचनाकार जो भी रहा हो, उसने वाल्मीकि रामायण जरूर पढ़ी होगी। अगर वह सब इतिहास था तो उसने तथ्य क्यों बदले?रामायण में शंबूक के प्रति की गई क्रूरता शूद्र विरोधी तदयुगीन ब्राह्मणों की क्रूरता है, जबकि अध्यात्म रामायण लिखने वाले ब्राह्मण ने सोचा होगा कि वध ठीक है, पर चलो इसको कम से कम स्वर्ग भेज दो- "उद्धारार्थ हत्या।"
आधुनिक रथयात्री
रामकथा में हजारों साल से इतने प्रसंग आते-जाते रहे हैं कि आम हिंदू जनता के मन में जो मुख्य कथा है, वह दरअसल इसके केवल कुछ जीवन-उदबोधक प्रसंगों में उसका विश्वास है- उसमें कुछ भी तथ्य नहीं है। भारत के लोगों ने राम कथा को इतिहास के रूप में न कभी देखा और न देखी की जरूरत महसूस की। अगल-अगल कवियों ने राम कथा को अलग-अलग सृजनात्मक दृष्टि से देखा- वाल्मीकि से निराला तक। अगर राम कथा को इतिहास माना जाता, उसकी कथा में कहीं उलटफेर नहीं होता। भवभूति के उत्तररामचरित में सीता से राम के प्रेम और स्त्री के सामाजिक अधिकार की स्वीकृति के अनेक दृश्य हैं। तुलसी ने कई फेरबदल किए। ये सब समय-समय पर अपनी परंपराओं को जांचने और जरूरत पड़ने पर उन्हें बदल देने के जातीय साहस के चिन्ह हैं। एक ये आधुनिक रथयात्री हैं, जो बदलना बिल्कुल नहीं चाहते।
3 comments:
अच्छी दलीलें हैं.
आप जिसको धर्म(अर्थात् कर्तव्य) कह के संबोधित कर रहे हैं, उसे मैं पंथ या रूढ़ि कहूँगा।
bahut hi badhiya lekh hai bhai.arvind isi tarah blog chaliye to maaja aa jaaye.
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