Monday 8 October, 2007

यह विश्वसनीयता और दोहरेपन का दोहरा सवाल है



एक पुरानी कहावत है कि दूसरों के घरों की ओर उंगलियां उठाने से पहले अपने घर का दरवाजा साफ कर लेना चाहिए। हिंदुस्तान से जुड़ी पत्रकार मृणाल वल्लरी की तरह बहुतों को यह शिकायत होगी कि एक बड़े बदलाव का वाहक बन सकने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने भीतर इतनी संवेदना क्यों नहीं पैदा कर पाता कि किसी भी छोटी-बड़ी खबर को ब्रेकिंग बना कर पेश करने की तरह कभी अपने आईने में देखने की ईमानदार कोशिश करे।

बहुत दिन नहीं बीते हैं जब नोएडा से चलने वाले एक प्रसिद्ध और राष्ट्रीय कहे जाने वाले टीवी चैनल की एक एंकर ने खुदकुशी कर ली। उसकी नौकरी छूट गई थी और वह लगातार तनाव से गुजर रही थी। इसके कुछ ही दिन बाद देश की राजधानी से ही चलने वाले एक और चैनल की एक और एंकर ने खुदकुशी कर ली। मरने से पहले उसने अपने नोट में खुद को लगातार प्रताड़ित किए जाने की बात लिखी थी। और यह भी कि कैसे उसका बॉस उसके काम को नजरअंदाज कर अपनी बेटी को तरजीह दे रहा था।
वक्त-बेवक्त पति-पत्नी के झगड़ों को भी लाइव दिखाने और किसी भी छोटी-बड़ी घटना पर एसएमएस मंगाने में आगे रहने वाले सभी चैनलों ने इन दोनों एंकरों की खुदकुशी पर किसी की बाइट लेना तो दूर, इसकी खबर तक चलाना जरूरी नहीं समझा।
लेकिन इसी दौरान एक टीवी चैनल ने मॉडल बनी भिखारन शीर्षक से एक ब्रेकिंग स्टोरी दिखाई। यह एक ऐसे मॉडल की कहानी थी, जो मिस यूनिवर्स सुष्मिता सेन के साथ काम कर चुकी है। चैनल के कैमरामैनों को देखते ही उस अर्द्धविक्षिप्त मॉडल ने जिस तरह से मॉडलिंग की विभिन्न मुद्राएं बनानी शुरू कर दी, उससे उसकी प्रतिभा का अंदाजा लगाया जा सकता था। फलक से फुटपाथ पर पहुंची वह मॉडल इस हालत में भी फर्राटेदार अंग्रेजी में फैशन और ग्लैमर के बारे में बता रही थी। उसके आत्मविश्वास को देख कर कोई भी आश्चर्य कर सकता था, तो दिल्ली के प्रतिष्ठित लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएट उस लड़की की हालत देख कर कोई भी तरस खा सकता था। इस ब्रेकिंग स्टोरी की मार्फत चैनल ने इस मॉडल की तकलीफ बयान करने में कोई कमी नहीं छोड़ी।
तस्वीर बिल्कुल साफ है। किसी मरी हुई खबर को भी ब्रेकिंग बना कर टीआरपी बटोरने वाले चैनलों के लिए दोनों एंकरों की खुदकुशी की खबर शायद ज्यादा मसालेदार साबित होती। लेकिन फिर उस तिलिस्म की परतें भी उघड़ जातीं, जिसकी चकाचौंध में सब कुछ सुहाना और महान दिखता है।
दरअसल, खुद को सबसे तेज या अव्वल साबित करने की कोशिश में पत्रकारिता का ढोंग रचते ज्यादातर चैनलों के लिए लगातार धमाकेदार ब्रेकिंग न्यूज की शरण लेना मजबूरी बनती जा रही है। भले ही इस प्रवृत्ति से उनकी प्रतिबद्धता और ईमानदारी पर गहरे सवाल उठने लगें। उमा खुराना पर किए गए तथाकथित स्टिंग ऑपरेशन के पर्दाफाश के बाद जो तस्वीर उभरी है, उससे पार पाना चैनलों के क्या इतना सहज होगा?
दूसरा सच यह भी है कि कम से कम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ग्लैमर और प्रतिभा के इस घालमेल के इस दौर ने एक टीवी एंकर और रैंप की मॉडल में कोई खास फर्क नहीं रहने दिया है। पच्चीस साल की होते-होते किसी मॉडल के कैरियर पर खतरा मंडराने लगता है। उसके शरीर पर बढ़ती चर्बी, चेहरे पर आती मेच्योरिटी, और उसके बाद आने वाली पतली-छरहरी लड़ी उसके कैरियर के लिए खतरे की घंटी होती है। यही हालत टीवी एंकर की भी है। भले आप उमा भारती को उत्तर प्रदेश की सांसद बता दें या फिर टोनी ब्लेयर को अमेरिका का राष्ट्रपति- आपका चेहरा सुदर्शन है तो सब कुछ आराम से खप जाएगा। कौन जानता है कि कास्टिंग काउच का सिरा बॉलीवुड से चल कर कहां-कहां पहुंचता है। आज का हिडेन कैमरा दीवारों के पार की तस्वीरें आसानी से उतार लेता है, लेकिन चैनलों की चहारदीवारी के भीतर जाने किस धुंध का शिकार हो जाता है। शायद ऐसी ही कुछ वजहों से कहा जाने लगा है कि समाज, राजनीति या दुनिया के अंधेरे कोनों का पर्दाफाश करने चैनलों के अंदर की दुनिया भी उतनी ही लिजलिजी है।
जैसे-जैसे चैनलों ने गांव-गांव तक अपने पांव पसारे हैं- सुष्मिता सेन या मलईका अरोड़ा या टीवी पर दिखने वाले खूबसूरत चेहरे लड़कियों के आदर्श बने। खासतौर पर शहरी समाज में मेकओवर जैसे शब्दों को पहचान मिली और ग्लैमर की अंधी दौड़ ने कम से कम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को टीआरपी का खेल बना दिया। अगर कोई लड़की टीवी में एंकरिंग करती है तो देश-दुनिया की खबरों से ज्यादा फिक्र उसे एक मॉडल की तरह अपने शारीरिक समीकरण की होती है। अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा वह खुद को मेनटेन रखने पर खर्च करती है, ताकि ज्यादा से ज्यादा दिनों तक उसकी मांग बनी रहे।
एक आधुनिक होती लड़की ने चाहा था कि उसे सामाजिक बेड़ियों और वर्जनाओं से मुक्ति मिलेगी, लेकिन उसे मुक्ति मिली उसके कपड़ों से।
हमारे यहां पुरुषों पर फिटनेस का दबाव आज भी ज्यादा नहीं है। जबकि महिलाओं पर काम और ग्लैमर की दोहरी मार पड़ रही है। मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि आज के दौर में यहां नौकरीशुदा औरतों पर दबाव बहुत ज्यादा है और शरीर को सुंदर या आकर्षक बनाए रखने की चाह उसे भीतर से घुन की तरह खाए जा रही है। दो साल पहले दिल्ली के एक बंद कमरे से राखी नाम की एक मॉडल की लाश मिली थी। बाद में पता चला कि उसकी मौत भूख से हुई थी। और कि ग्लैमर और रोटी के विकल्प में से उसने ग्लैमर को चुना था।
तो क्या उसी तरह के दबावों के पैदा हुआ अवसाद अब महिला टीवी एंकरों के बीच भी पसरने लगा है? सवाल यह भी है कि चैनलों के लिए उन दो एंकरों की खुदकुशी की खबर क्या इसलिए गैरजरूरी रही कि इससे उनकी टीआरपी में कोई इजाफा नहीं होता? बात शायद इसके उलट साबित होती, अगर उन एंकरों की खुदकुशियों की भी ब्रेकिंग न्यूज बनाया जाता। लेकिन अगर यह होता तो शायद शीशे के इन घरों के भीतर टंगे पर्दों का फाश भी हो जाता।

7 comments:

Anonymous said...

मीडिया इंडस्‍ट्री आज एक धंधा है। इस पर इतना भावुक होकर न सोचें।

Kumar Mukul said...

बहुत मौजू सवाल समय पर उठाया है मृणाल ने
शीशे के घरों में आने जाने वाले ही उसकी हकीकत बयां कर सकते हैं और ऐसा करते ही जन्‍नत की हकीकत जाहिर हो जाती है
मृणाल को लगातार लिखना चाहिए
एसी विश्‍लेषणात्‍मक रपटों की जरूरत है इस समय।

Anonymous said...

Really nice. Carry on.

Unknown said...

सही है. यह विडंबना ही है कि जो लोग दूसरे लोगों पर उंगलियां उठाते हैं वे खुद गंदगी में इतने डूबे रहते हैं. यही कारण है कि अब इलेक्ट्रोनिक मीडिया को सिफॆ एक धंधा समझा जाने लगा है. जैसा कि अविनाश जी कहा है. लेकिन मीडिया से अपेक्षा करना स्वाभाविक है अविनाश जी. धंधा मान लेने से काम नहीं चलेगा। ऐसे तो हमें समूची व्यवस्था से ही तौबा करना होगा. किसी से भी शिकायत का अधिकार हम खो देंगे. फिर घोटाला करने वालों के बारे में भी तो कहा जाएगा कि उनसे भावुक होकर कोई अपेक्षा नहीं करें. मृणाल ने इस लेख के माध्यम से केवल इलेक्ट्रोनिक मीडिया के दोहरेपन की बात नहीं की है। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि आज की महिलाएं कैसे अपने व्यक्तित्व को सिफॆ बाहरी रूप से ठीक-ठाक रखने के लिए मजबूर हो रही हैं. जबकि उनका अंदर से मजबूत होना ज्यादा जरूरी है. लेकिन क्या यह माना जाए कि यह भी इसी बात का असर है कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया एक धंधा बन कर रह गया है. अगर यह भी धंधा ही बन कर रह गया है तो किससे अपेक्षा की जाएगी? क्या अविनाश जी इस बारे में हमें बताने की कोशिश करेंगे.

रमेश चंद्रा,
दिल्ली विश्वविद्यालय

Anonymous said...

mrinalji
yah bahut hi aasan hai ki aap gambhir sawal uthate hai aur koi jhat se kah deta hai yah to aisa hi hai iss par kya baat karni. bhavukta to darasal insan hone ki pahli aur akhiri shart hai avinash baboo.media ko jab industy kah raha hain to munafaa uski pahli aur akhiri shart tay roop se hogi.poonjivaadi system mein rach vas gaye log bhavuk kaisai ho sakte hain? samay ki aahat suno baboo avinash.samay ke saath kadamtaal karna chod do bhai.

Anonymous said...

shabash mrinal!!samaj ka iina hone ka dava karne wale media jagat ko kisi ne iina dikhaya to sahi.isi tarah jhakjhorte rahiye media aur samaj ko
anari

Anonymous said...

मृणाल जी,
पत्रकारिता के लिए भावुकता पहली शर्त है इसमें कोई संदेह नही, और आपकी पत्रकारिता जीवित है ये साफ़ परिलक्षित हो रहा है, मगर बाजारवाद ने जिस तरह से हमारे लोकतंत्र के चौथे पाये को लील लिया है सोचनीय है और चिंतनीय भी, मगर चिंतन करने वाले तो पूंजीवादियों के नौकर हैं, सो चिंतन करेगा कौन?
वाजिब प्रश्न है.