Saturday 5 October, 2013

सामाजिक सत्तावाद के बरक्स समांतर सत्ता-संदर्भ...



आमतौर पर किसी अदालत के फैसले के खिलाफ कोई विपरीत राय नहीं जाहिर की जाती है और उसे एक सही फैसला माना जाता है। इसलिए झारखंड में सीबीआइ की अदालत से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद को चारा घोटाले के मामले में आए फैसले के खिलाफ भी कुछ नहीं कहा जाना चाहिए। बल्कि कानूनी कसौटी पर उसे एक सही फैसला मान लिया जाना चाहिए। लेकिन अगर किसी को लगता है कि चारा घोटाले में लालू प्रसाद को हुई सजा किसी कानूनी लड़ाई का नतीजा है तो इसका मतलब है कि वह जाने-अनजाने इस समूचे परिप्रेक्ष्य में सामाजिक राजनीति के आयामों की अनदेखी कर रहा है या फिर उस पर परदा डाले रखना चाहता है। यह एक राजनीतिक लड़ाई भी थी, जिसमें तंत्र के अपने खिलाफ होने की वजह से लालू प्रसाद को दूसरी बार जेल जाना पड़ा। मैं यहां घोटालों की परतों या उसकी कानूनी बारीकियों के बारे में बात नहीं करूंगा। इसके बावजूद 1990 के दशक में पटना टाइम्स ऑफ इंडिया के स्थानीय संपादक रहे उत्तम सेनगुप्त की यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि जिस चारा घोटाले में लालू प्रसाद को सजा हुई, उसमें मुकदमा दर्ज करने या फिर जांच के आदेश बतौर मुख्यमंत्री खुद लालू प्रसाद ने ही दिया था। झारखंड अदालत में सजा सुनाए जाने के बाद लालू प्रसाद ने लगभग रिरियाते हुए यही तथ्य जज साहब को सुनाते रहे। लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री और वित्तमंत्री के रूप में वे बिहार की राजधानी पटना से कई सौ किलोमीटर दूर चाइबासा के ट्रेजरी से अवैध तरीके से धन निकासी करने वालों की अनदेखी करने के दोषी ठहराए गए।

बहरहाल अदालती फैसले की तकनीकी व्याख्या के हिसाब से लालू प्रसाद पशुपालन घोटाले के मामले में दोषी हैं। लेकिन इस देश की सामाजिक राजनीति के इतिहास में उनके "गुनाह" कुछ दूसरी ही शक्ल में दर्ज किए जाएंगे। बिहार की राजनीतिक जमीन पहले भी बहुत उर्वर रही है, मगर 1990 में लालू प्रसाद के अचानक मुख्यमंत्री बनने के साथ ही जिस तरह की राजनीति ने उस जमीन पर अपने पांव रखे, उसके बाद उसे नजरअंदाज करना राज-समाज के किसी भी अध्येता के लिए मुमकिन नहीं था। यह एक चौंकाने वाला दौर था, जिसमें कोई व्यक्ति सरकार बनाने के बाद और उसका मुखिया होने के बावजूद सामाजिक सवालों पर मुखर होकर दखल दे रहा था। वरना कोई भी राजनीतिक दल विपक्ष या किसी भी खेमे की राजनीति करता हुआ सामाजिक जटिलताओं के मुद्दे से बचता है या भागता है। यह अब तक की राजनीतिक परंपराओं और उन सरकारी औपचारिकताओं के खिलाफ था, जिसमें सरकार घोषित तौर पर अपने सभी नागरिकों के लिए समानता का व्यवहार रखने का दावा करती है। हालांकि भारत की सामाजिक व्यवस्था में समानता की खोज अपने-आप में एक प्रहसन से कम नहीं है।

तो 1990 में केंद्र की वीपी सिंह सरकार की मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा से लेकर लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान देश के दूसरे इलाकों की तरह बिहार में भी जो आरक्षण विरोधी "आंदोलन" जैसी प्रतिक्रियाएं उभरीं, उसमें अपनी सरकार के बतौर मुखिया लालू प्रसाद सीधे-सीधे एक सामाजिक पक्ष में खड़े हो गए। इसके बाद आरक्षण विरोध के उस कथित आंदोलन के मसले पर सरकारी सख्ती और लालू प्रसाद के नाम से उड़ाए गए "भूरा बाल" जैसे जुमलों ने उन्हें एक साथ नायक और खलनायक, दोनों बना दिया। फिर समूचे देश की धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और संविधान को रौंदती हुई आडवाणी की रथयात्रा को जब लालू प्रसाद ने समस्तीपुर में तोड़ दिया और आडवाणी को मसानजोर के गेस्टहाउस में कैद कर दिया तो उसके बाद शायद यह साफ करने की जरूरत नहीं थी कि वे किसके लिए नायक बने और किसके लिए खलनायक बन गए।

इसी के बाद लालू की लड़ाई सामाजिक सत्ता-प्रतिष्ठानों से शुरू हो चुकी थी, जिसमें उनकी हार कई-कई वजहों से तय थी। एक राज्य के मुख्यमंत्री को किसी सरकारी रेडियो के बारे में अगर यह टिप्पणी करनी पड़ती है कि "ये सा... एआईआर वाले केवल झा-मिश्रा और पांडेय का समाचार देते हैं,' तो इसे कुछ लोग हताशा, पूर्वाग्रह या कुंठा का नतीजा मानेंगे। लेकिन पिछले दो-ढाई दशकों में तंत्र की राजनीति पर से जैसे-जैसे परदे उठ रहे हैं, उसमें यह समझना मुश्किल नहीं है कि लालू को वह टिप्पणी किन हालात में करनी पड़ी होगी।

बहरहाल, यही वह दौर था, जब लालू प्रसाद राज्य में सबसे गंदगीतरीन और अभावग्रस्त बस्तियों में खुद जाकर दलित परिवारों को साफ-सफाई से रहने के लिए "डांटते-फटकारते" और दलित बच्चों को अपने हाथ से साबुन लगा कर नहलाते हुए दिखने लगे थे। आसमान में हेलिकॉप्टर से गुजरते हुए किसी खेत में काम करती सिर्फ चार-पांच महिलाओं को देख कर हेलिकॉप्टर कहीं भी उतार देना या गांव के पिछड़े हुए समाज के गरीब बच्चों को हेलिकॉप्टर देखने के लिए नजदीक ले जाना शायद एक मुख्यमंत्री के सहज व्यवहार में नहीं गिना जा सकता। उनकी इस तरह की "हरकतों" के लिए उन्हें "जोकर" से लेकर "विदूषक" तक की उपाधि दी गई, लेकिन आज भी रुकुनपुरा जैसे कई इलाकों के उन दलित-वंचित परिवारों से जाकर लालू के उस "नाटक" के बारे में पूछना चाहिए, जिनके "गंदे-मैले-कुचैले" बच्चों को एक राज्य के मुख्यमंत्री ने साबुन लगाकर नहलाया था या किसी गरीब की झोंपड़ी के सामने रुक कर उससे पानी मांग कर पिया था। (कुछ ऐसा ही करते हुए आज देश के एक भावी प्रधानमंत्री तारीफ पाते हैं)।

खैर, यह सब करते हुए उस दौर के "नाटकबाज" लालू एक और काम करते थे। शायद उन्होंने खुद ही कवितानुमा कुछ लाइनें तैयार की थीं, जिसे वे कहीं भी भीड़ के सामने गाना शुरू कर देते थे। उनमें से कुछ जो मुझे याद हैं, वे ये हैं- "सुअर चराने वालों, भेड़ चराने वालों, गाय चराने वालों, भैंस चराने वालों, बकरी चलाने वालों, चारा लाने वालों, कूड़ा बीनने वालों, पढ़ना-लिखना सीखो, पढ़ना-लिखना सीखो... पोथी-पतरा फेंको, पढ़ना-लिखना सीखो...!" तभी लालू प्रसाद के दिमाग से "चरवाहा विद्यालय" भी निकला था, जो अपनी अवधारणा में महान था, कहीं-कहीं शुरू भी हुआ, लेकिन लालू प्रसाद अपने काल में भी उसकी कामयाबी सुनिश्चित नहीं कर सके। (पोथी-पतरा फेंको कितना "समाज विरोधी" और "व्यवस्था-विरोधी" शब्दावली है, यह किसके खिलाफ है, यह किस जड़ पर जानलेवा हमला करती है, इसकी प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, यह समझने के लिए थोड़ा अपनी जड़ों से ऊपर उठना पड़ेगा।)

लेकिन सरकार की किसी भी योजना को जमीन पर पर कौन उतारता है? पटवारी-बीडीओ-डीएम... तमाम आईएएस या प्रशासनिक अधिकारी... टीचर-डॉक्टर... दारोगा-इंस्पेक्टर-एसपी... तंत्र के इन पुर्जों की मर्जी के बिना कौन सरकार अपनी किसी योजना को वास्तव में जमीन पर उतार सकती है, अगर करना भी चाहे तो ! फिर भी, अंग्रेजों के राज से लेकर आजादी के बाद अब तक आम गरीब जनता के बीच कुछ समय तक अगर नौकरशाही का खौफ कम या खत्म हुआ था तो यह लालू प्रसाद के उसी बेलगाम बड़बोलेपन का नतीजा था। तंत्र में समाज के दलित-पिछड़े वर्गों के जो लोग अफसर के रूप में 'शंटिंग' में सेवा दे रहे थे, उन्हें फील्ड में भेजने की व्याख्या और विकास के दुश्मन के रूप में उनका मूल्यांकन अभी बाकी है। लेकिन वंचित जनता के हक में बेलगाम बड़बोलेपन से कोई उस जनता का दोस्त हो सकता है, लेकिन उसे कुछ दे नहीं सकता, क्योंकि उसी बड़बोलेपन से उसने उन समूहों को भी अपना दुश्मन बना लिया होता है, जिनका राज-समाज और तंत्र पर कब्जा होता है। और जब तंत्र दुश्मन हो तो किसी जनता को अपना बना कर भी कोई क्या कर लेगा? तंत्र पर कब्जे के बिना सत्ता पर कब्जा करना न सिर्फ बेमानी है, बल्कि कई बार आत्मघाती भी!


आगाज़ के बरक्स अंजाम के धुंधलके

लालू प्रसाद के पास चूंकि अपने बेलगाम बड़बोलेपन के अलावा सामाजिक चेतना को मथने की कोई ठोस सुचिंतित योजना या दृष्टि नहीं थी, इसलिए उनके लिए ज्यादा आसान यह था कि वे यथास्थितिवादी व्यवस्थावाद के एक पुर्जे बन कर पहले की सत्ताओं की तरह सब कुछ "सहज" रूप से चलने देते। सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक दंगों के मामले में सरकार में रहते हुए लालू प्रसाद ने जो उदाहरण पेश किया वह उन तमाम नरेंद्र मोदियों के लिए एक जवाब की तरह है कि अगर सरकार और शासन नहीं चाहे तो दंगे दो-तीन घंटे से ज्यादा नहीं चल सकते। इस मामले में उन्होंने सांप्रदायिकता की जमीन को खोखला करने के लिए जो सामाजिक मोर्चाबंदी की, उसने साबित किया कि सांप्रदायिक नफरत का इलाज इसी समाज के उपकरणों से किया जा सकता है। इच्छाशक्ति और काबिलियत रखने वाले और भी रास्ते खोज सकते हैं। खैर, सांप्रदायिक दंगों पर काबू पा लेने की काबिलियत को छोड़ दें तो पशुपालन घोटाला एक उदाहरण था, शायद शासन की बाकी प्रवृत्ति भी अपने "सामाजिक स्वभाव" में अपनी गति से चल ही रही थी। "अविकास" और उनके "विकास विरोधी" होने के तमाम आरोप इसके सबूत हैं। तो क्या लालू प्रसाद अपनी नाकामी पर परदा डालने के लिए सामाजिक स्तर पर "दखल" दे रहे थे? मुमकिन है कि ऐसा रहा हो। लेकिन जो समाज ऐतिहासिक रूप से एक ऐसे यथास्थितिवाद में जी रहा हो, जहां उसके अधिकार के कुछ टुकड़े उसे भीख या रहम की शक्ल में मिलते रहे, वहां चाहे अपनी नाकामी की भरपाई के लिए ही सही, लालू प्रसाद ने अगर चेतना के स्तर पर थोड़ा हिलाने-डुलाने की कवायद की, तो यह मेरी नजर में एक ज्यादा जरूरी पहल थी। नहीं तो यह वैसे लोगों का देश है ही, जहां कस्बे के किसी स्कूल-कॉलेज से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय ये जेएनयू में शिक्षित जनता जिस बर्बर सामंती जातीय-धार्मिक संस्कारों में जन्म लेती है, उसी में मर भी जाती है। अमेरिका और जापान बनती राजधानी दिल्ली में, आर्थिक राजधानी मायानगरी मुंबई में या सिलिकॉन वैली बंगलोर में भी। इससे कहीं किसी को शिकायत नहीं होती।

और इसीलिए बहुत अच्छी सड़कें, बहुत ऊंची इमारतें, बहुत सारे सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र), मॉलों और सोसाइटियों से चमकते शहरों की दुनिया तैयार करने वाले हरियाणा या गुजरात जैसे इलाके इस व्यवस्था को ज्यादा प्रिय हैं, भले ही वह दुनिया छीनी गई जमीन पर उगी हो और उसकी सिंचाई खून से की गई हो। दलितों या समाज के कमजोर तबकों पर जुल्म की व्यवस्था वाहक के बावजूद हरियाणा एक "विकसित' और "आदरणीय" राज्य है, हजारों मुसलमानों के कत्लेआम और एक बर्बर हिंदू व्यवस्था का सपना जमीन पर उतारने वाला नरेंद्र मोदी इस "देश" और दुनिया को सुहा रहा है। धर्म और समाज की व्यवस्था बनाए रखना किसी नेता को "प्रिय" और "प्यारा" बनाता है, इस व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की कोशिश उसे खलनायक बना देती है।

लेकिन इस व्यवस्था की बारीकियों को समझना इतना आसान नहीं है। लालू प्रसाद को जो "खलनायकी" का प्रमाण-पत्र मिला, उसमें उनकी "सामाजिक जुबानी बेलगामी" का कोई जिक्र नहीं है। वे "चारा घोटालेबाजों" के संरक्षक के तौर पर जेल गए। 2013 तक आते-आते इस जनतंत्र ने इतना मुमकिन कर ही दिया है कि कम से कम लालू प्रसाद की हैसियत वालों को कानूनी-प्रक्रिया के तहत जेल भेजा जाता है। वरना आज भी हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे कई इलाकों में जाति के बाहर शादी करने वालों को "सजा" के तौर पर सार्वजनिक रूप से मौत दी ही जाती है, या अंधे विश्वासों पर चोट करने वाले नरेंद्र दाभोलकर को मार ही डाला जाता है।

लालू प्रसाद के सत्ता के शुरुआती चार-पांच साल इसी 'सामाजिक उत्पात' के थे, जिसने चुपके-चुपके ही सही, चेतना के स्तर पर असर डाला था। और आज उसी को बहुत सारे लोग 'बेजुबानों' को जुबान मिलने के तौर पर दर्ज करते हैं। मगर उसके बाद के लालू वही नहीं थे। नब्बे के दशक से काफी पहले से चलता आ रहा पशुपालन घोटाले का 'पिशाच' 1993 में खड़ा हो चु्का था और उससे बचने की छटपटाहट ने लालू प्रसाद को वहां खड़ा कर दिया, जहां उन्हें अपने ही सामाजिक न्याय के नारे के साथ बेईमानी करने वाला कहा जा सकता है। 1995 से अगले दस साल और उनकी सत्ता रही, लेकिन हर रोज इस बात का इंतजाम करते हुए कि किसी तरह बच जाएं। मगर जिस व्यवस्था में धोखे से ही सही, उन्होंने अपने शुरुआती तीन-चार सालों में जो छेद कर डाला था, उसके लिए माफी नहीं होती। ऐसे उदाहरण खोजने पड़ेंगे जिसमें अनियमितता के आरोपी किसी मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करने के लिए बाकायदा सेना भेजने की कोशिश की गई हो या फिर खुलेआम अखबारों में पहले पन्ने पर मोटे अक्षरों में लीड छपा हो कि 'लालू नेपाल भागेंगे!'

लालू कहीं नहीं भागे। लेकिन उन्होंने उस व्यवस्था के सामने समर्पण कर दिया, जिसके बरक्स कभी वे खड़े हुए थे। पिछले एक-डेढ़ दशक का उनका इतिहास यथास्थितिवादी सामंती व्यवस्था के सामने उनके गिड़गिड़ाने का ब्योरा भर है कि मुझे बख्श दो! और इसी दौर में उनसे "हरियाणवी" या "गुजराती" विकास की मांग को वाजिब कहा जा सकता है। बिहार की दुर्दशा के लिए लालू-राबड़ी के पंद्रह सालों को जिम्मेदार बताने वालों की समस्या और तकलीफ समझी जा सकती है। लेकिन उनकी पार्टी के दूसरे और तीसरे कार्यकाल का हिसाब मांगना उतना गलत भी नहीं है। इसके बावजूद कि इस दौरान भी वे कई तरह के अदृश्य जंजीरों में जकड़े हुए थे और उससे छूट पाने की छटपटाहट में थे। इस पूरे दौर में वे सामाजिक रूप से सत्ताधारी जातियों को यह भरोसा दिलाने में लगे रहे कि अब मैं आपका ही खयाल रखूंगा, मंदिर-मंदिर भटकते हुए पूजा-पाठ कराते, मंदिरों के लिए चंदा देते लालू अपनी सामाजिक न्याय की मांग के बरक्स सिर के बल खड़ा होकर यही गुहार लगा रहे थे कि अब मैं आपका हूं, मुझे बख्श दो। लेकिन इस व्यवस्था में उन प्रतीकों को माफ नहीं किया जाता, जो मौजूदा सामाजिक सत्ता के ढांचे को चुनौती दे या समांतर सत्ता का वाहक बने। वे कोई रेडिकल कम्युनिस्ट या नास्तिक नहीं थे कि हम उनसे मंदिर, पूजा-पाठ जैसी चीजों से पूरी तरह मुक्त हो जाने की उम्मीद कर लें। लेकिन लालू इतने खोखले कैसे हो गए थे? उनका खुद पर से भरोसा इतना कैसे डिग गया था कि अपनी उस राजनीति को ही उन्होंने धोखा दे दिया, जिसकी वे उपज थे और जो उनकी असली ताकत थी?

आज देश और दुनिया यही जानती है कि लालू प्रसाद को पशुपालन घोटाले में सजा हुई है। लेकिन खुद लालू भी शायद समझते होंगे कि आज वे जिस अंजाम तक पहुंचे हैं, उसका आगाज़ और उसके बाद का रास्ता कहां-कहां से गुजरा है!
(विस्तार बाकी.)

2 comments:

dr.mahendrag said...

पर लालू शायद राजनीति में अनायास होने वाले परिवर्तनों की टोह नहीं पा सके थे उन्होंने इसे ढ़ोरों का ,चारागाहही समझ लिया,यहाँ बहुत घाघ थे जो कुछ समय तो इनके नट प्रदर्शन को देखते रहे,और जहाँ लालू भी मलाई खाने पहुंचे तब मामला खलाश हो चुका था. और लालू फंदे में फंस गए,लोग और भी हैं जिन्होंने चारा नहीं खाया, कोयला ढ़ो ले गए, और न जाने किस किस क्षेत्र में सेंध मार ली पर बाख गए.

Anonymous said...

Good article. But misplaced. Lalu became part and pacel of this corrupt system. Lalu fallen because of systems own contradiction. Dal
it politics is not dependeb on lalu. Think over it.