अनुराग कश्यप और अनुराग बसु के जातिबोधक पुछल्ले को छोड़ कर कई चीजें संयोग से समान हैं। दोनों के नाम एक ही हैं, दोनों ही बॉलीवुड में पुरबिए हैं और दोनों ने लगभग एक साथ फिल्में बनानी शुरू कीं। बतौर सह-स्क्रिप्ट लेखक "सत्या" के यथार्थ का सिरा थाम कर अनुराग कश्यप "गुलाल" और "पांच" होते हुए "गैंग्स ऑफ वासेपुर" का नकली यथार्थ रचने तक आते हैं, जहां हिंसा के वीभत्सतम शक्ल समाज के एकमात्र यथार्थ हैं। इसमें प्रेम एक खेल भर है, जिसे हिंसा के सामने हार जाना है, खुदकुशी कर लेना है। दूसरी ओर अनुराग बसु हैं जो "गैंग्स्टर" से "बर्फी" तक में हजारों सालों से क्रमशः सभ्य होते समाज के मूल-तत्त्व प्रेम और संवेदना को ही स्वीकार करते हैं, उसे थोड़ा और निखारते हैं। लेकिन इस बीच वे सामाजिक हिंसा के उस पहलू से बड़े करीने से तंज की तरह आपको रूबरू कराते हैं जो आपके आसपास हर पल घटित हो रही होती है। मुमकिन है, हम खुद उस हिंसा के शिकार हों या फिर खुद ही हिंसा करने वाले।
खासतौर पर "बर्फी" में नायिका की मां के महज अपनी सुविधाजनक जिंदगी के लिए प्रेमी को छोड़ देने से लेकर एक अल्पविकसित बच्ची के बाप के अपने घर के तमाम नौकरों को लात मार कर नौकरी से निकाल देना या धन के लोभ में अपनी उस बच्ची की हत्या तक की योजना पर अमल करना स्वार्थ से उपजी हिंसा की वे शक्लें हैं जो हम सबके लिए सिनेमा के परदे पर घटने वाली कहानी नहीं है। यह आम सामाजिक जिंदगी में घुली वे तल्ख हकीकतें हैं जिनसे हमारा समाज अक्सर दो-चार होता है। बहरहाल...
हिंसा का रूमान...
"गैग्स ऑफ वासेपुर- II" के रिलीज होने के पहले अनुराग कश्यप ने एक टीवी चैनल पर जो कहा था उसका आशय लगभग यही था कि वे हिंसा को लेकर एक रूमान में चले जाते हैं। यह भी अखबारों में छपा कि "गैंग्स ऑफ वासेपुर" में उन्होंने जानबूझ कर इतनी वीभत्स हिंसा का सहारा लिया। इसके पहले की उनकी फिल्म "पांच" पर भी हिंसा को लेकर सवाल उठ चुके हैं। इंसानी समाज के लाखों सालों और इस "सनातनी" समाज के तीन-चार या पांच हजार साल के विकास के इतिहास में किसी भी व्यक्ति के जीवन में वे कौन-से दौर हो सकते हैं या कैसी बुनियाद हो सकती है कि वह "हिंसा" को लेकर इस हद तक रूमानी हो जाता है? जज्बात और दिमाग की कसौटी पर इंसान ने अब तक खुद को जितना सभ्य बनाया है, उसमें नफरत का एकमात्र सकारात्मक इस्तेमाल "हिंसा" से नफरत करना हो सकता है। लेकिन इसी नफरत के दूसरे चेहरे के मूल से हिंसा जन्म लेती है।
तो जाहिर है, अगर कोई व्यक्ति हिंसा से प्रेम करेगा तो स्वाभाविक रूप से यह हिंसा उसके भीतर के नफरत के दूसरे प्रकार से पैदा हुई होगी। सवाल है कि अनुराग कश्यप के भीतर किस बात पर और किसके खिलाफ इतनी नफरत भरी हुई है कि वे हिंसा को लेकर रूमान में चले जाते हैं!
किसी व्यक्ति के हिंसा का प्रेमी होने की दो वजहें हो सकती हैं। एक, हिंसा उसके पारिवारिक-सामाजिक परिवेश का हिस्सा हो और वहीं से वह उसके स्वभाव में घुली हो। हिंसा के इस पैमाने से भी दो सिरे फूटते हैं। पहला, सामाजिक सत्ताधारियों का अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए हिंसा का एक औजार के रूप में इस्तेमाल और दूसरा, लगातार हिंसक दमन और शोषण के चक्र में पिसते हुए उसका अभ्यस्त हो जाना।
अगर कोई सामाजिक सत्ताधारियों के वर्ग से आता है तो उसके हिंसा प्रेमी होने की दूसरी वजह यह हो सकती है कि पारिवारिक-सामाजिक तौर पर व्यक्ति का जो मनोविज्ञान तैयार होता है, उसकी शासित और शोषित वर्गों के खिलाफ अभिव्यक्ति हुई तो ठीक, वरना वह दूसरे रास्ते तलाशने लगता है। अब एक आधुनिक समाज में चूंकि मध्ययुगीन सामंती तौर-तरीकों से हिंसा को अभिव्यक्त कर पाना मुश्किल होता गया है, इसलिए ऐसा व्यक्ति किसी न किसी रास्ते और रूप में अपनी एक सत्ता खड़ा करता है; और उसे वैध और स्वीकार्य बनाता है। इसके बाद शुरू होता है हरेक कुंठाओं की अभिव्यक्ति और फिर इसके जरिए अपनी "सत्ता" को मजबूत करने के खेल। और स्वाभाविक रूप से इसका शिकार शासित वर्ग ही होगा, बस शक्ल थोड़ी दूसरी होगी।
इस तरह हिंसा से प्रेम करने वाला सत्तावादी आखिरकार यथास्थितिवाद का संरक्षक और वाहक बनता है।
(स्पष्टीकरणः हिंसा के प्रति यह भाव और विचार इन पंक्तियों के लेखक का शुचितावाद है।)
यानी अनुराग कश्यप का हिंसा के प्रति रूमान एक सामंती ढांचे की रचना करता है, या फिर उसी से संचालित होता है। यहां संदर्भ चूंकि "गैंग्स ऑफ वासेपुर" है, इसलिए इस अभिव्यक्ति को इसी के जरिए समझना होगा और इसी का सिरा पकड़ कर चेतना में पैठी ग्रंथियों तक जाना होगा।
स्त्री के खिलाफ व्यवस्थागत हिंसा की शक्लें...
एक शुद्ध सामंती समाज में हिंसा की जितनी शक्लें हो सकती हैं, "गैंग्स ऑफ वासेपुर" के दोनों हिस्सों में सबका खुला इस्तेमाल किया गया। दिक्कत यह है कि इस प्रवृत्ति की पड़ताल करने के बजाय उसे इस रूप में प्रदर्शित किया गया जो इन्हीं ग्रंथियों की बुनियाद पर मरते-जीते समाज की कुंठाओं को तुष्ट और मजबूत करने का जरिया बना। यह फिल्म इस बात का कोई सबूत नहीं देती कि फिल्मकार की ठीक यही मंशा नहीं रही होगी। एक दृश्य में जो पत्नी वेश्यालय गए अपने पति को डंडे से फटकारते और वीभत्स गालियां बकते हुए खदेड़ती है, वही अगले किसी दृश्य में यह कहते हुए पति को जम कर खाना खिलाती है कि "बाहर जाकर नाम खराब मत करना...।" कल्पना कीजिए कि यह दृश्य कितना यथार्थ हो सकता है। लेकिन इसके जरिए फिल्मकार ने सिनेमा के इस दृश्य को देख कर सीटियां बजाते दर्शकों की किस मर्द कुंठा को तुष्ट किया और कैसे उनके दिमाग में इसके अपने लिए सच होने की कामना की रचना की? जब यथार्थ के प्रयोग के नाम पर झूठ ही परोसना था तो क्या पति-पत्नी की जगह की अदला-बदली की जा सकती थी?
लेकिन अगर इसे अनुरागी यथार्थ मान भी लिया जाए कि पत्नी पति को "बाहर नाम करने" के लिए मर्दाना ताकत से लैस करती है, तो सवाल है कि स्त्री के खिलाफ व्यवस्थागत हिंसा किन-किन शक्लों में काम करती रहती है और उसे बनाए रखने के लिए कौन-कौन से कारक जिम्मेदार होते हैं? अगर इस देश की तिरपन फीसद से ज्यादा महिलाएं कहती हैं कि उनका पति उन्हें पीटता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं, तो इसके पीछे कौन-सा माइंडसेट काम कर रहा होता है? दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन या रजौरी गार्डन जैसे पॉश इलाकों से कई मामले कुछ काउंसिलरों के पास गए। मर्द अपनी बीवी को कहता है कि मैंने तुम्हें इतना बड़ा शानदार घर दिया है; बीएमडब्ल्यू कार दी है; यहां के सबसे महंगे मार्केट में जाने के लिए पैसे की कोई कमी होने दी मैंने; तेरा बेटा इस शहर के सबसे महंगे स्कूल में जाता है न; फिर तुझे यह पूछने का हक किसने दिया कि मैं किस औरत के पास जाता हूं और क्या करता हूं? शायद इसी से मिलता-जुलता डायलॉग एक फिल्म "ब्रेकिंग न्यूज" में भी था।
"गैंग्स ऑफ वासेपुर" के एक दृश्य में पति के वेश्या के पास जाने पर डंडा फटकारने और गालियां देने के बरक्स दूसरे दृश्य में उसके बाहर जाकर "नाम खराब करने" के डर से उसे "मर्दाना" ताकत से लैस करने के विरोधाभास को छोड़ भी दिया जाए और अगर पत्नी को पति का वेश्या के पास जाना आपत्तिजनक नहीं लगता है, तो अपने अस्तित्व के खिलाफ इस हिंसा को गलत नहीं मानने वाली स्त्री का यह माइंडसेट कहां से संचालित होता है? और इस दृश्य के सामूहिक-सार्वजनिक प्रदर्शन के असर के तौर पर दर्शक सीटियां और तालियां बजाते हैं तो इस दर्शक-वर्ग के अंतस में पैठी पुरुष ग्रंथि को जस्टीफाइ करने में इस दृश्य की क्या भूमिका है? ...और इस रास्ते व्यवस्थागत हिंसा के इस शक्ल को खाद-पानी मुहैया करने में ऐसे दृश्यों की क्या भूमिका है?
खैर, इस फिल्म और फिल्मकार का मकसद केवल स्त्री के अस्तित्व को खारिज करना भर नहीं है। "वीर भोग्या वसुंधरा" की "सैद्धांतिकी" के तहत उसे इस खारिज करने को विस्तार देकर महज एक शरीर और पुरुष के चरम-सुख के इंतजाम भर की हैसियत में समेट कर रख देना भी है। और हमारी भारतीय संस्कृति के वीर पुरुष अपने तमाम सुखों के भोग के क्रम में किस हद तक अराजक और असभ्य-अविकसित रहे हैं, यह ज्यादातर स्त्री अपने अनुभव से बता सकती है। और जब किसी मर्द के इसी बर्ताव की मनचाही अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है तो फिर मन के किसी कोने में वह कुंठा बन कर बैठ जाती है। फिर जैसे ही संसाधनों का मालिकाना और बेलगाम अभिव्यक्ति की सत्ता अपने हाथ में आती है, वह कुंठा एक निर्लज्ज नाच नाचती है।
बेतुकेपन का बेजोड़ वितंडा...
"गैंग्स ऑफ वासेपुर" के पहली किस्त में जहां गोलियों से छलनी सरदार खान के झूमने के नेपथ्य में बजता "जीय हो बिहार के लाला..." फिल्म की राजनीति का आईना है, वहीं दूसरी किस्त में फैजल खान के हाथों रामाधीर सिंह के मारे जाने का दृश्य कुंठाओं का वीभत्स, बर्बर और बेलज्ज प्रदर्शन है। और कुंठाएं कैसे बेतुकेपन का वितंडा रचती हैं, यह भी इससे साफ होता है।
जिस दृश्य में फैजल खान हिंसा के तमाम पहलुओं पर "विचार" करते हुए "अफसोस से भर कर" जार-जार आंसू बहा रहा होता है, उसके कुछ ही मिनट बात वह एक अस्पताल में रामाधीर सिंह को घेर लेता है। एक-दो गोली से मर जाने के बावजूद फैजल खान दर्जनों एके- 47 राइफलों की हजारों गोलियां रामाधीर सिंह पर बरसाता है। इस फिल्म के फिल्मकार का कोई दीवाना गंजेड़ी फैजल खान की इस "बहादुरी" पर झूम उठता है तो भी इसे उसकी "दीवानगी" का नतीजा मान लिया जा सकता है। लेकिन यह फैसला इसके बाद के दृश्य पर होना है।
पश्चिमी शैली से शौचालय के कमोड पर हजारों गोलियों से छलनी रामाधीर सिंह की छाती में हुए छेद में फैजल खान अपने हाथ के एके- 47 की नली का अगला सिरा घुसेड़ता है और उसके बाद जो करता है, वह सिर्फ और सिर्फ इसी बात का सबूत है कि चरम यौन-हिंसक कुंठाओं की बर्बर अभिव्यक्ति के जरिए भी दरअसल वही राजनीति साधी गई है, जिसका मकसद समूची मुसलिम जमात के खिलाफ एक खास धारणा और खयाल को "आम" हिंदू मानस में "इंजेक्ट" करना है।
यहां कोई चाहे तो फिल्मकार को यह सोच कर बख्श दे सकता है कि जिसके पास संसाधन और सत्ता है और वह जैसे चाहे खुद को अभिव्यक्त कर सकता है। लेकिन गुंजाइश इसकी भी बनती है कि आप फिल्मकार के दिमाग की दाद दें कि बेहद "सस्ते" और "चलताऊ" दृश्यों के जरिए उसने कितने बारीक खेल किए हैं! निश्चित रूप से यह काम कोई साधारण दिमाग का शख्स तो नहीं ही कर सकता। लेकिन उसकी परतें उधेड़ पाना भी उतना ही जटिल है।
मन की हजार परतों के पार की कुंठा...
इस दृश्य की राजनीति के बरक्स अगर इसका सिरा ढूंढ़ें तो वह उस सामंती मानसिक ढांचे में मिलता है, जो न सिर्फ हिंसा को लेकर रूमान में चला जाता है, बल्कि स्त्री और उसका शरीर भी इस हिंसक रूमान का एक अच्छा शिकार ही हैं। यानी, जो व्यक्ति सेक्स के दौरान अपनी स्त्री साथी को सिर्फ चरम-सुख मुहैया कराने वाली एक खिलौना समझेगा और उसी हिसाब से हिंसक व्यवहार भी करेगा, उसी के अवचेतन से ऐसे दृश्य निकलेंगे। बदला लेने का आक्रोश ऐसी हरकत का महज एक परदा भर हैं। और यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि हमारे सामाजिक ढांचे में बदला लेने को बलात्कार के सबसे अहम कारणों के तौर पर दर्ज किया गया है। यानी किसी पुरुष से बदला लेना है तो उसके परिवार की किसी स्त्री के साथ बलात्कार। एकबारगी आपके सामने इस व्यवस्था में स्त्री की स्थिति और स्त्री इस स्थिति में बनाए रखने वाले औजारों के पुर्जे खुल जाते हैं। तो क्या फैजल खान का रामाधीर सिंह पर हजारों गोलियां बरसा कर उसके सीने में बने छेद में बंदूक की नली घुसेड़ कर आगे-पीछे करना और बैकग्राउंड में "कह के लेंगे..." की गूंज इन्हीं मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों का समुच्चय है?
इस दृश्य के रचेता चाहे जो हों, इतना तय है कि इस सामंती व्यवस्था के बुनकरों ने ऐसी ही बारीक बुनाई करके सत्ता और शासित का मनोविज्ञान तैयार किया होगा। किसी मर्द को जलील करना हो तो उसके परिवार की स्त्रियों की देह को लक्ष्य करके गालियां दो, यानी मौखिक बलात्कार करो; स्त्री को जलील करना है तो इसी की शारीरिक अभिव्यक्ति और यहां तक कि मर्द से भी बदला लेना है तो उसके शरीर में भी "स्त्री" ढूंढ़ लो। इतना महीन व्यवस्थावादी दृश्य का जोड़ा खोजना मुश्किल होगा।
परदे के पीछेः खेल चालू आहे...
बहरहाल, "गैंग्स ऑफ वासेपुर" पर लिखे के पहले हिस्से के आखिर में एक तुक्का था कि बॉलीवुड में आरएसएस ने ढाई हजार करोड़ रुपए का परोक्ष निवेश किया है। इस तुक्के से कुछ अनुराग भक्त इतने डर गए कि इसे यानी "बॉलीवुड" को उन्होंने "गैंग्स ऑफ वासेपुर" समझ लिया और मुझे निशाना बना कर एक तरह का अभियान चल पड़ा था। मुझे इतना महत्त्व देने की क्या जरूरत थी! फिल्मों में अंडरवर्ल्ड के पैसे के बारे में भी तो ऐसी ही बातें कही-सुनी जाती रही हैं। कही-सुनी जाने वाली सभी बातें सही ही हों, यह जरूरी तो नहीं। यह जितना आरएसएस के लिए सच है, उतना ही अंडरवर्ल्ड के लिए भी। लेकिन अब इसका क्या करेंगे कि अखबारों ने बताना शुरू कर दिया है कि "कहीं मोदीवुड न बन जाए बॉलीवुड...।" एक भाड़े का ब्रांड एंबेसडर तो पहले ही मोदी के नमक के साथ-साथ उसका तलुवा चाटने में लगा है, अब अजय देवगन, अक्षय कुमार, सन्नी दयोल जैसे कई महानायकों को भी मोदी अपना (जहर वाला) दूध पिला रहा है। संजय दत्त... आदि सब मोदी का चरण-रज धोकर पीने को तैयार हैं तो क्या यह सिर्फ इसलिए हो रहा है कि मोदी सबको प्रशासनिक सुरक्षा मुहैया करा सकते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे ये तमाम "महानायक" खालिस दुकानदार हैं, इनके हंसने और रोने की कीमत होती है और इन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पैसे और सुविधाओं के बदले नरेंद्र मोदी को इनसे क्या चाहिए! जैसे एक जहर के विक्रेता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसकी दुकान से खरीदे गए जहर से कौन मरा! और मोदी केवल दुकानदार नहीं हैं, यह एक ऐसे (सांप्रदायिक) राजनीतिक व्यक्ति का भी नाम भी हैं, जो जानता है कि इन खूब बिकने वाले चेहरों का क्या इस्तेमाल किया जा सकता है। तथाकथित विकास की चमक से "थरथराते" गुजरात में लगभग मुफ्तिया, यानी बिना लागत के "इंटरटेनमेंट" दुकानदारी चलाने के एवज में नरेंद्र मोदी क्या इन भाड़े के परदेबाजों को यों ही इतनी रियायत देने जा रहे हैं? अगर कोई ऐसा सोच रहा है तो उसकी मासूमियत पर तरस खाइए!
नरेंद्र मोदी को बहुत अच्छे से मालूम है कि आईने में उनका चेहरा कैसे कभी नीरो तो कभी हिटलर जैसा दिखता है। इस चेहरे पर एक परदा वे ही डाल सकते हैं जो खुद अपने तमाम धतकर्मों के बावजूद परदे के जरिए जनमानस के "हीरो" बने हुए हैं। और एक "नायक-छवि" जब किसी वास्तविक खलनायक को भी अपने पहलू में खड़ा कर लेता है तो हमारी "दिल-दरिया" जनता उसे बड़ी आसानी से पहले सह-नायक और फिर नायक के रूप में कबूल कर लेती है।
तो नरेंद्र मोदी इसी फिराक में हैं कि परदे के नायकों पर मेहरबानी बरसाने के नाते जनता उन्हें नायकों का नायक घोषित कर दे। (और कुछ भाड़े के "नायक" इसके लिए जीभ चटकारते हुए खुद ही रिरियाने में लगे हैं)। यों यह प्रक्रिया काफी पहले शुरू हो चुकी है। अपनी दुकानदारी के जरिए "व्यवस्था" कायम रखने के लिए तमाम मानवीय तकाजों को ताक रखने वाला "इंडिया-इंक" अपने सहधर्मी नरेंद्र मोदी को अपना पसंदीदातम प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुका है; और एक फर्जी इंटरनेशनल पत्रिका "टाइम" ने भी अपने कवर पर मोदी का फोटू छाप कर यह बता दिया है कि प्रोपेगेंडा-वार के मोर्चे कहां-कहां खुलते हैं। पिछले एक-डेढ़ साल से देख लीजिए कि आक्रामक हिंदुत्व ने कहां-कहां अपना मोर्चा खोल दिया है। असम से पसरी साजिश को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। एक ऐसी हवा बहाई जा रही है जिसका सिरा एक खास ध्रुव से जुड़ता है और वहीं आकर खत्म होता है।
किसका खून असरदार...
बहरहाल, "गैंग्स ऑफ वासेपुर- II" का इन आरोपों से कोई लेना-देना नहीं है। बस फिल्म को फिल्म की तरह मासूमियत से देखिए। इसका अंतिम दृश्य है- रामाधीर सिंह को मारने के बाद पुलिस फैजल खान और डेफनिट को जीप में ले जा रही है। एक चाय की दुकान पर गाड़ी रुकती है। पुलिस की मिलीभगत से डेफनिट फैजल खान को गोली मार देता है। एक खास भाव के साथ डेफनिट आगे बढ़ रहा है कि सामने उसकी मां "दुर्गा" अपनी भव्य छवि, विजयी भाव और गजब का संतोष चेहरे पर लिए उभरती है। ... और फिल्म खत्म...!
अगर आपने फिल्म देखी होगी तो याद करिएगा कि एक दृश्य में रामाधीर सिंह "दुर्गा" को क्यों कहता है कि "डेफनिट में तुम्हारा खून कम है।" यानी सरदार खान का खून ज्यादा है और यानी एक हिंदू का खून कम है औऱ एक मुसलमान का खून ज्यादा है। ...और "दुर्गा" के सामने यह चुनौती थी कि वह साबित करे कि उसके बेटे के शरीर में उसका खून ज्यादा है। "दुर्गा" ने साबित किया कि डेफनिट उसका बेटा ज्यादा है!
(क्षेपकः यथार्थ इतना मजेदार होता है...
इसके अलावा, "आम" लोगों को पहली बार लगा होगा कि यथार्थ इतना "मजेदार" होता है। एक यथार्थवादी फिल्म का यथार्थ देखिए और उसके दृश्यों को याद कर-कर के मजा लीजिए। गर्दन काटने पर खून के छर्रे के यथार्थ दृश्य के साथ-साथ फैजल खान और उसकी पत्नी की शादी के बाद उनके घर में तूफानी ढकर-ढकर भी शायद यथार्थ ही होगा। और इस फिल्म का सबसे बड़ा यथार्थ तो वे दृश्य हैं जिसमें सरदार खान के मारे जाने के बाद उसके घर के दरवाजे पर उसकी लाश रखी है और बगल में आर्केस्ट्रा के साथ झमकउआ गायक "याद तेरी आएगी... " गा रहा है, और फिर सरदार खान के बेटे दानिश के मारे जाने के बाद भी वही दृश्य है। बस गाना बदल गया है- "तेरी मेहरबानियां...तेरी कदरदानियां...।"
अभी तक मैं मतिमंद पटना से लेकर दिल्ली तक में मुस्लिम समाज को जितना जान सका, उसमें मुझे कभी यह पता नहीं चल सका कि किसी जवान-जहान की मौत या हत्या पर कहां ऐसी रिवायत है कि लाश सामने रखी हो और शोक जताने के लिए ऑर्केस्ट्रा पार्टी को बुलाया गया हो। जाने किस शरीयत या मजहबी नियम-कायदों में दर्ज है यह और कहां इस पर अमल होता ! हिंदुओं में भी किसी बहुत बुजुर्ग के मरने पर ही ढोल-पिपही पर केवल यही बजते सुन सका- "रघुपति राघव राजा राम...।" बहरहाल, यथार्थ के पिक्चराइजेशन से मिलने वाला मजा "यथार्थ" से हजार गुना ज्यादा मजेदार होता है...!)
बहरहाल, इस सबमें "गैंग्स ऑफ वासेपुर" के फिल्मकार की क्या गलती है। उसने तो वही कहा, जो उसे कहना था! अब अगर किसी फिल्मकार की फिल्म को उसकी तरह नहीं समझा जाए तो इसमें गलती किसकी है?
हजारों सालों के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद इस "सनातनी-व्यवस्था" ने अगर खुद बचाए और बनाए रखा है तो इसलिए कि वह एक साथ सैंकड़ों मोर्चों पर राजनीति करती है। बॉलीवुड एक मामूली-सा औजार है।
8 comments:
मैं मानती थी कि गैंग्स ऑफ वासेपुर एक thoughtless और ideology less फिल्म है. हाँ, स्त्रियों का चित्रण मुझे भी कुछ खास अच्छा नहीं लगा फिल्म में, तो सोचा कि ऐसा इसलिए कि वास्तविक समाज में भी वैसा ही होता है. मुझे लगा था कि अनुराग कश्यप के पास इतना दिमाग ही नहीं है, पर कभी-कभी जो चीज़ें ऊपर से सीधी-सपाट दिखती हैं, उतनी होती नहीं. आपने फिल्म को देखने का एक नया एंगल दे दिया है. लेख के कुछ हिस्से सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या फिल्म वाकई किसी विचारधारा से प्रेरित नहीं थी.
" बदला लेने का आक्रोश ऐसी हरकत का महज एक परदा भर हैं। और यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि हमारे सामाजिक ढांचे में बदला लेने को बलात्कार के सबसे अहम कारणों के तौर पर दर्ज किया गया है। यानी किसी पुरुष से बदला लेना है तो उसके परिवार की किसी स्त्री के साथ बलात्कार। एकबारगी आपके सामने इस व्यवस्था में स्त्री की स्थिति और स्त्री इस स्थिति में बनाए रखने वाले औजारों के पुर्जे खुल जाते हैं। तो क्या फैजल खान का रामाधीर सिंह पर हजारों गोलियां बरसा कर उसके सीने में बने छेद में बंदूक की नली घुसेड़ कर आगे-पीछे करना और बैकग्राउंड में "कह के लेंगे..." की गूंज इन्हीं मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों का समुच्चय है?
इस दृश्य के रचेता चाहे जो हों, इतना तय है कि इस सामंती व्यवस्था के बुनकरों ने ऐसी ही बारीक बुनाई करके सत्ता और शासित का मनोविज्ञान तैयार किया होगा। किसी मर्द को जलील करना हो तो उसके परिवार की स्त्रियों की देह को लक्ष्य करके गालियां दो, यानी मौखिक बलात्कार करो; स्त्री को जलील करना है तो इसी की शारीरिक अभिव्यक्ति और यहां तक कि मर्द से भी बदला लेना है तो उसके शरीर में भी "स्त्री" ढूंढ़ लो। इतना महीन व्यवस्थावादी दृश्य का जोड़ा खोजना मुश्किल होगा"
अति यथार्थवादी फिल्म की अतियथार्थवादी समीक्षा भी
A surreal review of a surrealistic film!
सालों से फिल्मों में देखते चले आ रहे हैं...
इतना महिमा मण्डन क्रूरता का हुआ है की जिससे
महिमा मण्डन क्रूर व्यक्ति का ही होता है...
सत्य को कमजोर किया जाता है...और सत्य के
आचरण करनेवालों को भयभीत किया जाता है...
समाज में क्रूर व्यक्ति, कुछ जाती या समुदाय में,
मान-अकराम पाता है और सत्य का पक्षधर दब्बू
बताया जाता है...
इस भय का लाभ कुछ राजनीतिज्ञ भी उठा थे हैं
की उनके खिलाफ आवाज़ उठाना मतलब के
अनचाही तकलीफ़ में पड़ना...जैसी कि फिल्मों में दिखाई जाती है...
अपने अत्याचारों से, क्रूरता से सारी फिल्म में अंत तक मौज़-अय्याशी करना और सारे सुखों को पाकर अंत में जेल जाना या गोली खाना...इतना सरलीकरण लिए होता है विलनगिरि का,
खलनायक का अंत ..पर उससे पहले वह कितनी बर्बादी कर जाता हैं...उसका कि कोई लेखा-जोखा नहीं ...
जैसे गुट्खा-तम्बाकू-सिगरेट या कृत्रिम यौन-व्यवहार पर सेंसर या बेंड (banned) है, वैसे ही सरकार को अब फिल्मों में स्त्री के वैसा इस्तेमाल पर भी बेंड (banned) लगाना चाहिए...महिला संगठनों को इस बारे में सोचने का समय
बीत चुक है...कि अब तक क्यों सोचा नहीं गया... कि चुप है...
एक बार पढ़ा और फ़िर दो बार और (समझने के लिये) ...
आपकी बातों में तार्किक शक्ति है
इसे यहाँ https://www.facebook.com/tiwari.bharat/posts/10151286438924714 शेयर किया है
...
आभार रु ब रु कराने के लिये
बहुत सारगर्भित लेख है..न सिर्फ फिल्म की इतनी सटीक समीक्षा है बल्कि बिटवीन दा लाइंस बहुत साड़ी बाते है..हमारे समाज में जो गलाज़त है वो इन्ही कूड़ा दिमाग लोगो की वजह से बची हुई है..और इन सभी लोगो के लिए यही फायदेमंद है..मैंने पहले भी लिखा था की अनुराग कश्यप की पहली फिल्म देखने के बाद मई उसकी कोई फिल्म देखने की हिम्मत नहीं जूता पाती..खैर, इतनी अच्छी समीक्षा के लिए ....क्या कहूं ....धन्यवाद??
बहुत गहन समीक्षा करी है आपने।।।
मुझे आश्चर्य होता है की NDTV के रविश जी ने इसी फिल्म के कसीदे काढने में कोई कसर नहीं छोड़ी।।।आप उनका ब्लॉग "कस्बा" पढ़ सकते है
उन्होने इसे सिर्फ एक फिल्म से बढ़कर कुछ भी समझाने की कोशिश नहीं की,,,,,और अपने क्षेत्रवाद के प्रेम में उलझे रहे ....वो भी बिहार से ही है ..
बहार हाल जो जबरदस्त पोस्ट मार्टम आपने किया है वो दिव्य है।।
मैं भी कभी कभी लिखता हूँ।।।।कभी टाइम मिले तो ,,,,,आपकी आलोचना का इन्तेजार रहेगा
http://vishvnathdobhal.blogspot.in/2012/11/blog-post.html
अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर पर ज अपने समीक्षा की हैं, वह प्रशंसनीय हैं। अनुराग कश्यप को आज हिंदी फिल्मों का बेहतरीन (?) निर्देशक माना जाता हैं। उनके कुछ चमचे, चाटुकारों की जमात हैं जो उनके पक्ष में सत्य असत्य का ताना बाना बुनते रहते हैं। उनकी तुलना हॉलीवुड के फिल्म निर्देशक जैसे की मार्टिन स्कोर्सेज़ी और क्वेंटिन तैरंतिनो जैसे से की जाती हैं। यह बात अलग हैं स्वयं क्वेंटिन तरंतिनो खुद ही चुके हुए, अति लघु-प्रतिभा के निर्देशक हैं। अनुराग कश्यप और उनके जैसे फिल्मकारों के लिए तो बस बे-वजह हिंसा, गाली-गलौज से भरी फिल्में ही सामाजिक सत्यता को दिखाती हैं क्या यही यथार्थ हैं? यानी की फिल्म बनाना और वह अच्छी हैं इस मापदंड पर देखा जाता हैं की उसमे कितनी हिंसा, कितना गाली-गलौज हैं वरना फिल्म वास्तविकता पर खरी नहीं उतरती और जो फिल्म वास्तविकता पर नहीं उतरती वह फिल्म देखने, विचार करने लायक हैं ही नहीं। इससे प्रश्न यह उठता हैं की क्या फिल्मों का मतलब केवल वास्तविकता ही दिखाना रह गया हैं? क्या फिल्में गालियों और हिंसा का महिमामंडन कर उन्हें समाज में स्वीकृत बनाना चाह रही हैं? क्या फिल्मों में कला, कविता और सभ्य संवादों का कोई स्थान नहीं रह गया हैं? क्या संवादों में गालियों का मिश्रण लेखक के मानसिक दिवालियेपन को छुपाने की एक कमज़ोर चेष्टा हैं?
सच तो यह हैं की गालियाँ देना सभ्यता नहीं बल्कि बर्बरता और हमारी असभ्य होने का प्रमाण हैं। एक सभ्य, सुशिक्षित समाज में गालियों का कोई स्थान नहीं होता, क्योंकि गालियाँ मौखिक हिंसा का प्रतिरूप हैं। लेकिन आज समाज में, मीडिया में, खासकर पूंजीपति समाज में, की गालियों को सामाजिक स्वीकृति दी जाये, जिससे अनेक तरह के फायदे पूंजीवादी समाज देखता हैं। अनुराग कश्यप और अनुराग बासु इस पूंजीवादी, सामंतशाही समाज की देन हैं। यह लोग विभित्स हिंसा और गालियों के द्वारा अपने निम्नश्रेणी की प्रतिभा को उभारने की कोशिश करते हैं। अनुराग कश्यप जैसे निम्न श्रेणी और निम्न प्रतिभा के निर्देशकों को पूंजीवादी मीडिया बढ़ावा देता मिलता हैं, इनके साक्षात्कार होते हैं और इनको सर्वोच्च फिल्मकार घोषित किया जाता हैं। आम जन मानस में यह बात जाती हैं की फिल्म वही अच्छी हैं जिसमे गालियाँ हो, हिंसा हो, जिसमे स्त्रीयों की भूमिका केवल नायाक के लिए अपनी काम वासना मिटाने के लिए हो। आज ज़रुरत हैं की हम समझे के अच्छा सिनेमा क्या हैं और किस तरह से फिल्मों में कला और संवाद को यथार्थवादी फूहड़ता से बच्जय जा सके।
लब यू
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