स्पष्टीकरणः "आप फिल्म को फिल्म की तरह देखते हैं। आप समाज को भी फिल्म की तरह देखते हैं। ...मैं फिल्म को समाज की तरह देखता हूं... और समाज को राजनीति की तरह देखता हूं।"
"सच्ची" कहानी का वासेपुर...
क्या आरएसएस ने नरेंद्र मोदी ब्रांड हिंदुत्व को जमीन पर उतारने के लिए फिल्मी दुनिया में किसी नए मोर्चे पर कुछ लोगों को बहाल किया है? मेरी दरख्वास्त है कि इस तुक्के को महज अतिशयोक्ति मान कर खारिज़ कर दिया जाए। लेकिन "गैंग्स ऑफ वासेपुर" फिल्म के पहले हिस्से ने जो तल्ख सवाल छोड़े हैं, उसका जवाब यह नहीं हो सकता है कि अनुराग कश्यप ने महज एक "सच्ची" घटना को फिल्माया है, और कि फिल्में समाज का आईना होती हैं और सिर्फ मनोरंजन होती हैं। विरोधाभासों के सम्मिश्रण की अपनी राजनीति होती है।
अगर सिर्फ एक सच्ची कहानी को फिल्माया है, या यह समाज का आईना है या सिनेमा सिर्फ मनोरंजन होता है तो इस सच्ची कहानी का संयोग ऐसा क्यों है कि यह मुसलमानों के खिलाफ पिछले डेढ़-दो दशक से सुनियोजित तरीके से फैलाए जा रहे जहर को और बारीक असर देता है, सामाजिक ढांचे के हिसाब में दबंग जातियों के तमाम अपराधों और कुकर्मों को ग्लैमराइज करता है, निचली जातियों के खिलाफ नफरत के मनोविज्ञान को और पुख्ता करता है और स्त्री को उसकी देह की हैसियत में समेट कर कदम-कदम पर जलील करता है। इनमें से कौन-सा पहलू ऐसा है जो आरएसएस के एजेंडे को खाद-पानी मुहैया नहीं करता है। कुछ लोग यह सफाई पेश करने में लगे हैं कि इस फिल्म की कहानी का लेखक एक मुसलमान ही है। कई जगहों पर उसका नाम जीशान कुरैशी छपा है। यह ध्यान रखना चाहिए कि उसका नाम "सैयद जीशान कादरी" है।
मैंने पहले घोषणा की है कि मैं फिल्म को समाज की तरह देखता हूं और समाज को राजनीति की तरह देखता हूं। तो "गैंग्स ऑफ वासेपुर" का समाज क्या है और इसके जरिए अनुराग कश्यप ने कौन-सी राजनीति करने या उसे मजबूत करने की कोशिश की है? यह बात करने की जरूरत शायद नहीं होती, अगर अनुराग कश्यप ने यह मुनादी न की होती कि यह फिल्म वासेपुर की सच्ची घटनाओं पर आधारित है।
चिदंबरम का आजमगढ़ बनाम अनुराग कश्यप का वासेपुर...
वासेपुर की वह "सच्ची" तस्वीर अनुराग कश्यप की निगाह में कैसी है इसका अंदाजा बीबीसी पर छपी उस खबर के हिस्से से लगाया जा सकता है जिसमें पटना में उनके किसी साक्षात्कार का हवाला है। उसमें उनका कहना है कि "वासेपुर के लोग अपराधी हैं, गैरकानूनी कामों में लिप्त रहते हैं और फुट-सोल्जर्स हैं।" अगर यह सच है तो यह है (अनुराग) कश्यप ब्रांड "सच्ची" घटनाओं के गहनतम "रिसर्च" का नतीजा... और निष्कर्ष। अब वासेपुर के तमाम लोग चाहे अनुराग कश्यप को झूठा कहते रहें, रिरियाते हुए आपको हाथ पकड़ कर अपने मुहल्लों में ले जाकर घुमाएं, दिखाएं कि देखो, हम अपराधी नहीं हैं। मेहरबानी करके यह भी देखो कि यहां वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, आइएएस-आइपीएस, कारोबारी और बुद्धिजीवी भी हैं। फहीम खान और शबीर खान के परिवार की आपसी रंजिश और वर्चस्व की लड़ाई, जिसका कोयले से कोई नाता नहीं था , वासेपुर का चेहरा न कभी थे, न हैं। लेकिन तथ्यों के तमाम साक्षात दस्तावेज "गैंग्स ऑफ वासेपुर" के फिल्मकार के रिसर्च की अदालत में बेमानी साबित होने हैं, जैसे चिदंबरम की अदालत में आजमगढ़ के मायने आतंक का गढ़ है, वैसे ही अनुराग की अदालत की अदालत में वासेपुर के मायने गुंडों की बस्ती। आजमगढ़ सिर्फ मुसलमानों की वजह से आतंक का गढ़ और वासेपुर की लगभग पनचानबे फीसदी आबादी की पहचान मुसलमान होना! फर्क क्या है?
हो सकता है यह सब कुछ महज संयोग हो! लेकिन कोई बताए तो सही कि इस फिल्म के बारे में अनुराग के दावे और फिर वासेपुर के लोगों के बारे में अनुराग कश्यप के "महानतम" खयालों के बाद वासेपुर की कौन-सी तस्वीर उभरती है?
एक जेनरल नॉलेज का बेहद साधारण सवाल- वासेपुर को किसलिए जाना जाता है? अब एक सामान्य जवाब इसके सिवाय क्या हो सकता है कि "वासेपुर के लोग अपराधी हैं, गैरकानूनी कामों में लिप्त रहते हैं और फुट-सोल्जर्स हैं?" अनुराग कश्यप के रिसर्च में वासेपुर को उसकी ऐतिहासिकता के साथ खोज लिया गया है, इसलिए वासेपुर में रहने वाले या वहां से उपजे वैज्ञा्निक, डॉक्टर, इंजीनियर, आइएएस-आइपीएस या बुद्धिजीवी- सब दरअसल किसी दुश्मन मुस्लिम देश से सर्टिफिकेट लेकर आ गए यहां और यहीं रह कर भारत से भितरघात करने में लगे हैं!
"सैयद" का "कुरैशी" कमाल...
बहरहाल, वासेपुर को जानने और वहां रहने वाले के हिसाब से दूसरे शहरों की तरह वहां भी कुछ परिवारों के बीच आपसी रंजिश और वर्चस्व की लड़ाई थी; फहीम खान और शबीर खान गुट मुख्य थे। सवाल है कि एक हकीकत का दावा करने वाली फिल्म में इन दोनों मुख्य "खान" में से एक मुख्य एहसान या सुल्तान कुरैशी को कैसे ढूंढ़ लिया गया? बल्कि यहां यह पूछा जाना चाहिए कि "क्यों" ढूंढ़ लिया गया। (यह फिल्म-लेखक "सैयद" जीशान कादरी का कमाल है या फिर खुद अनुराग कश्यप का!)
यही "क्यों" दरअसल फिल्मकार के एक अगले खेल को खोलता है। बल्कि शुरू से आखिर तक समूची फिल्म में "खान" और "कुरैशी" का जो समग्र चरित्र-चित्रण है, वह आम दर्शकों की कंडिशनिंग करने में भले कारगर साबित हो, लेकिन इसकी राजनीति समझने के लिए बहुत मेहनत करने की जरूरत नहीं है। मुसलमानों में खान, यानी पठान सवर्ण माने जाते हैं और कुरैशी पसमांदा।
तो वासेपुर की इस "सच्ची" कहानी में शबीर खान और फहीम खान में से एक पक्ष का "कुरैशी" हो जाना क्या अनायास है? नब्बे के दशक के राजनीतिक हालात पर थोडी-सी भी गहरी नजर रखने वाले इंसान को इसके निहितार्थ समझने में दिक्कत नहीं आएगी। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद जिस तरह आडवाणी की रथयात्रा से लेकर सत्ता के तमाम तंत्र सामाजिक छवियों, प्रतीकों और मनोविज्ञान के "गड़ब़ड़ाए" हुए पुर्जों को "दुरुस्त" करने के लिए सक्रिय हो गए थे, वह अलग-अलग रूप में आज भी जारी है। अनुराग कश्यप की वासेपुर की कहानी दरअसल उसी की एक कड़ी है।
पूजिय विप्र शील-गुन हीना...
वैसे भी यह गुंडों-चोरों और कुकर्मियों को आदर्श नायक के रूप में परोसने का दौर है। वे जमाने गए जब सिनेमा के परदे का गब्बर सिंह बिना गाली के खौफ और नफरत का पर्याय बन गया था। कितनी ऐसी फिल्मों के नाम गिनाए जा चुके हैं, जिसका यथार्थ कहीं कमजोर नहीं पड़ा। हाल ही में पानसिंह तोमर ने गाली प्रेमी सामंतों को एक करारा झापड़-सा रसीद किया।
बहुत ज्यादा साफ करने की जरूरत नहीं है। एक तरफ सरदार खान का पिता, सरदार खान और उसके पक्ष से जुड़े सभी के सभी उस इलाके के सिरमौर गुंडे और अपराधी होने के बावजूद दर्शकों की नजर में नायक, सहानुभूति के लायक आदि "सकारात्मक" भाव लूट ले जाते हैं और दूसरी ओर एहसान कुरैशी या सुल्तान कुरैशी हैं, जिनमें कोई भैंस या गाय काटने में माहिर है, अपने "मालिक" को धोखा देता है, उन्हें खरीदा जा सकता है, बल्कि यों कहें कि वे आसानी से बिक जाते हैं; इतने नफरत से भरे हैं कि सरदार खान के बेटे की गुजारिश के बाद शादी के जरिए हुई सुलह को धोखा देकर खत्म कर देते हैं, अपने बूचड़खाने में इंसानी लाश के टुकड़े-टुकड़े कर खपा देते हैं और वासेपुर के "नायक" को आखिर में गोलियों से छलनी कर देते हैं। यानी अपनी हर कवायद से वह अपने खिलाफ घृणा पैदा करता है। यानी हीरो "खान" और विलेन "कुरैशी!" और होना भी क्या था!
यही है अनुराग कश्यप के "खान" और "कुरैशी" का चरित्र-चित्रण। जबकि पहले यह बात आ चुकी है कि वासेपुर के दोनों मुख्य अपराधी गिरोहों के मुखिया "खान" थे। लेकिन अनुराग कश्यप जब कहते हैं कि यह वासेपुर की सच्ची कहानी है तो क्या उसका सच यही है? अव्वल तो हमलावर हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दौर में पनचानबे फीसद मुस्लिंम आबादी वाले इलाके को अपराधी और फुट-सोल्जर्स कहना। दूसरे, पठानों और कुरैशियों के चरित्र-चित्रण में हर कदम पर पठानों को महिमामंडित करना और उन्हीं कसौटियों पर कुरैशियों के खिलाफ घृणा पैदा करना...। क्या ये अनायास हुआ है? अगर अनायास हुआ है तो यह इसलिए ज्यादा खतरनाक है क्योंकि "व्यवस्था" अपनी रक्षा के हथियार खुद तैयार करती चलती है और यही अगर सायास है तो यह दूसरी शक्ल में आरएसएस के एजेंडे पर अमल करना है; यानी मुस्लिम समाज के प्रति नफरत को बढ़ावा देना है; उसमें भी ऊंची कही जाने वाली जाति के तौर पर "खानों" को हीरो के रूप में और "कुरैशियों" को खून में डूबे रहने वाले, विलेन, धोखेबाज के तौर पर पेश किया जाना है। यानी कि कोई गुंडा और कुकर्मी अगर ऊंची जाति का तो वह "प्रेरक" और सहानुभूति का पात्र है, लेकिन अगर नीची कही जाने वाली जाति का है तो घृणास्पद है। "पूजिए विप्र शील-गुन हीना..."
किस लोकेशन से बात कर रहे हैं अनुराग कश्यप? क्या वे अपनी इस फिल्म की तल्ख हकीकत से मुंह चुराएंगे या फिर इनकार करेंगे?
बात अभी बाकी है!
जीय हो बिहार के लाला, यानी बरमेसर मुखिया अमर रहें...
इस फिल्म को देखने वाले सभी दर्शकों को कुछ याद रहे, न रहे, आखिरी दृश्य जरूर याद रहेगा।
सरदार खान और उसका बेटा इतना उदार हो गया है कि उसने सुल्तान कुरैशी की बहन से शादी करके "सदियों" पुरानी दुश्मनी खत्म करने की "पहल" की। लेकिन धोखेबाज, कट्टर, संकीर्ण, बर्बर, पिछड़ा और हिंदू (रामाधीर सिंह) के हाथों बिकाऊ सुल्तान कुरैशी अपने लोगों के साथ मिल कर धोखे से सरदार खान को गोलियों से भून देता है। इसके बाद का नाटक फिल्मकार की असली मंशा को खोल देता है- पता नहीं, जाने या अनजाने! गोलियों से छलनी, खून से लथपथ सरदार खान जिंदा है, कार से निकल कर हाथ में पिस्तौल लिए झूम रहा है और गाना बज रहा है (नारा लग रहा है)- "जीय हो बिहार के लाला... जीय तू हजार साला...!"
बस महज संयोग है कि इस "अमरगान" के सिनेमाघरों में बजने के आसपास ही यह दृश्य वास्तव में घटित हुआ। सैकड़ों दलितों का कातिल रणवीर सेना के सरगना ब्रह्मेश्वर सिंह को उसके प्रतिद्वंद्वी गिरोह ने धोखा देकर गोलियों से भून दिया। उसके बाद आरा से लेकर पटना का तांडव... नारे... "मुखिया जी अमर रहें...", "बरमेसर मुखिया जिंदाबाद...", " जब तक सूरज चांद रहेगा, मुखिया जी तेरा नाम रहेगा...!" यानी कुल मिला कर "जीय हो बिहार के लाला...!"
"गैंग्स ऑफ वासेपुर" के रचेता, सिरजनहार, उनके झंडाबरदार.... क्या सुन रहे हैं वे नारे... यानी "जीय हो बिहार के लाला...?" बिहार के किसी "लाल" का जिंदाबाद होना है तो वह सरदार खान होगा... रणवीर ब्रह्मेश्वर सिंह होगा...!
बहरहाल, ब्रह्मेश्वर सिंह के गिरोह ने हमेशा "सबकी कह के ली।" इसलिए उनका झंडा लहराने वाले इससे अलग क्या करेंगे! जब भी किसी दलित बस्ती पर हमला किया, नक्सलियों की तरह केवल "मर्दों" को नहीं, बल्कि औरतों को सबसे पहले काट-काट कर मारा, क्योंकि वे बाद में नक्सली पैदा करेंगी। जिस तरह इन रणवीरों को तीन महीने की बच्ची हवा में उछाल कर काटने में मजा आता है, मां-बहन की गालियां दरअसल उस तलवार से भी गहरा और स्थायी असर पैदा करती हैं। (फिलहाल यहां से जल्दी भागता हूं, लेकिन इस पर जल्दी ही।) गालियां एक औरत को उसकी "हैसियत" में कैद रखने का हथियार हैं, गालियां एक "नीच" जात के आदमी को यह याद दिलाती हैं कि उसकी सामाजिक औकात क्या है।
यों, मां-बहन-बेटी की वीभत्स गालियों के जरिए मौखिक बलात्कार करने वालों और उनके झंडाबरदार, वकील इन गालियों को भी शायद उसी तरह सांस्कृतिक विरासत और आभूषण की तरह सजा कर रखना चाहेंगे- "चूहड़े कहीं के...", "भंगी की औलाद...", "भंगी कहीं के...", "चोरी-चमारी", "डोम के जना..." आदि-आदि...! असली साजिश यही है।
सच्ची कहानी का वासेपुर... झूठी कहानी पानसिंह तोमर...
लेकिन "वासेपुर..." का फिल्मकार कहता है कि "जैसा मैंने देखा है, वो मेरी फिल्म में है... " और कि "जो (गालियों को) नहीं पचा सकते, वे कल के दर्शक थे।" उनके वकील इसे यथार्थ का निरूपण कहते हैं। मजेदार है। फिल्म का एक पात्र ही सूत्रधार है। लेकिन सबसे मजेदार यही है। याद नहीं आता कि पात्र के रूप में उसने फिल्म में कहां गाली बकी, लेकिन सूत्रधार साहब फिल्म और फिल्मकार की मंशा के हिसाब से दर्शकों को "अफसोस" के तौर पर "हरामी" और "साला" का हाजमोला तोहफे में देते हैं। इसके अलावा, गालियां इस फिल्म का गहना हैं, भले ही निहायत गैरजरूरी और थोपी हुई लगती हैं। लेकिन अगर यही यथार्थ की कसौटी है, तो पानसिंह तोमर एक झूठी और महा-बेकार फिल्म है।
अंदाजा लगाइए कि धोखे से सिनेमा हॉल में बैठी "वासेपुर..." देख रही महिला को कैसा लगता होगा जब हर एक गाली पर सिनेमा हॉल में मर्द ठहाके अट्टहास बन कर गूंज रहे थे। ऐसा लगता है कि "गैंग्स ऑफ वासेपुर" का फिल्मकार बेहद गहरे तक "माइसोजिनिस्ट" यानी स्त्री-विरोधी है और उसकी यह कुंठा फिल्म में कूट-कूट कर भरी गई है। (अभी इस नजरिए से इसकी व्याख्या होनी बाकी है।)
...और गुलाब थियेटर में गैंग्स ऑफ वासेपुर...
बहरहाल, इन सब पर परेशान होना वाजिब नहीं है! आप बिहार के सालाना सोनपुर मेले में जाइए। वहां आपको अरबी नस्ल के बेहतरीन घोड़े और भव्य हाथियों के अलावा सभी नस्ल के कुत्ते बिकते हुए मिल जाएंगे। खरीदने न सही तो देखने के लिए सही! लेकिन उस मेले में अगर आप धोखा खाना नहीं चाहते तो कोई आपको धोखा नहीं देता। वह गुलाब थियेटर भी नहीं, जो केवल अपने तंबूनुमा हॉल के बाहर नहीं, बल्कि पटना और मुजफ्फरपुर या बक्सर तक के पेशाबघरों की दीवारों पर चिपकाए पोस्टरों में भी साफ तौर पर बताता और दिखाता है कि आप वहां पचास या सौ रुपए की टिकट लेकर एक-दो या चार बेबस औरतों को लगभग नंगा किए जाते देख कर मजा लेने जाते हैं।
"गैंग्स ऑफ वासेपुर" के फिल्मकार ने भी इस मामले में कोई बेईमानी नहीं की। उसने अपनी फिल्म के प्रचार में ही देश के बौद्धिक मठों से लेकर शहरों-कस्बों की सड़कों के किनारे के पेशाबखानों की दीवारों तक पर बोल और लिख कर आपको कहा कि "कह के लेंगे (मादर... की) ...!" अपने पोस्टरों पर लगभग नंगी की गई औरत की तस्वीर छापने वाले गुलाब थियेटरों की तरह "गैंग्स ऑफ वासेपुर" के फिल्मकार ने भी कोई धोखा कहां किया किसी दर्शक के साथ... समाज के साथ...!!!
बल्कि उसने तो जिस समाज की बड़े सलीके से सिंचाई की है, उसके लिए तो परलोक से बाबा गोलवलकर भी उसका शुक्रिया अदा कर रहे होंगे, इस अहसास के साथ कि कुछ लोग देर से दुनिया में क्यों आते हैं!
बहरहाल, मुझे याद है कि तकरीबन दो साल पहले दिल्ली के एकाध लोगों ने सिनेमा के समाज पर अनुराग कश्यप से एकाध सवाल पूछ लिया था। उन्होंने तब भी लिख के यही कहते हुए ललकारा था कि "जिसकी ... में दम है, वो बना के दिखाए।" तब शायद सवालों की चोट सही जगह पर लगी थी। लेकिन वे जानते थे कि किसकी .... में कितना दम है। इसलिए उन्होंने अपने "दम" की चुनौती पोस्टरों पर परोसी, और परदे पर खिलाई कि "कह के लेंगे...।"
वे मेहरबानी जताते हैं कि उन्होंने बिहार का विषय उठाया है। वीभत्स हिंसा, सेक्स, गालियां, सामंती कुंठाओं के विस्फोट के लिए उन्होंने वासेपुर के साथ जो फर्जीवाड़ा किया, उस सब के लिए उन्होंने नब्बे के दशक के मध्य बिहार को क्यों नहीं चुना?
बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे आदि-आदि कत्लेआम (फिल्मकार के लिए हिंसा), बलात्कार (फिल्मकार के लिए सेक्स), जातिगत और सामंती जुल्म (फिल्मकार के लिए गालियों और गुलामी की जंजीरों के मनोहारी प्रयोग) के शानदार मौके के कितने किस्से चाहिए उन्हें! लेकिन तब फिर गोलवलकर बाबा की आत्मा कैसे प्रसन्न होगी?
(क्षेपक- एकः कान फिल्म फेस्टिवल के तमगे को लेकर श्रद्धा पैदा ऐसे किया जाता है- कान में साल भर फिल्म फेस्टिवल चलता रहता है। बल्कि यों कहें कि कान की अर्थव्यवस्था ही फिल्म फेस्टिवल से चलती है। फिल्म फेस्टिवल्स की शृंखला में वहां पोर्न फिल्मों का भी एक फेस्टिवल होता है। आप अपनी फिल्म बनाइए। वहां जाकर किसी सत्र में अपनी फिल्म के लिए किसी सिनेमा हॉल का स्लॉट खरीदिए। मिले हुए वक्त या स्लॉट पर अपनी फिल्म चला दीजिए। आपकी फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल का तमगा मिल गया, जिसे आप अपनी फिल्म के शुरू में गर्व से झलका सकते हैं। ...और जरा सोचिए कि अगर "द गैंग्स ऑफ न्यूयॉर्क" माफ कीजिए... जैसी "महान" फिल्म को सुबह छह बजे का स्लॉट मिले तो...!!!)
(क्षेपक- दोः इन पंक्तियों के नास्तिक लेखक की सदिच्छा है कि भगवान करे कि कही-सुनी जा रही यह बात झूठी साबित हो कि आरएसएस ने बॉलीवुड में ढाई हजार करोड़ रुपए का परोक्ष निवेश किया है। एजेंडा क्या है और पोलटिक्स क्या है साहब...)
(गैंग्स ऑफ) वासेपुर की सच्ची कहानी की शायद यही हकीकत है...!!!
11 comments:
bahut sahi..
badhiya vishleshan!
आपको ये भी बता दूँ की सैय्यद बामन है और मुसलमानों में ब्राह्मणवाद के जनक भी! इनसे बड़ा चमचा कोई नहीं हुआ आजतक.......और सय्यद मुसलमानों की सबसे दोगली जाति है सो कश्यप और सय्यद मिल गए तो हुआ चोर चोर मौसेरा भाई ... कश्यप को माल मिला और सय्यद को नाम.........दो कुत्तों पर मुसलमानों की मुर्गी हलाल
मुझे तो इस फिल्म की समीक्षा करते समय आप कुंठित लुंठित नजर आ रहे है.
सामाजिक ढांचे के हिसाब में दबंग जातियों के तमाम अपराधों और कुकर्मों को ग्लैमराइज करता है, निचली जातियों के खिलाफ नफरत के मनोविज्ञान को और पुख्ता करता है और स्त्री को उसकी देह की हैसियत में समेट कर कदम-कदम पर जलील करता है। इनमें से कौन-सा पहलू ऐसा है जो आरएसएस के एजेंडे को खाद-पानी मुहैया नहीं करता है।
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आपके उप्रोक्त विचार शायद आपकी विक्रत मानसिकता की उपज है..........पिचले ३५ वर्शो मे मुज्हे कही भी ऐस नहि लगा......यदि सन्घ को समज्हना है तो उसके पास जाकर समज्हो तब शायद आप्को वास्तविकता समज्ह आये. भारत की हर मुस्लिम समस्या के लिये सन्घ को दोशि थहरायेन्गे तो यह उचित नहि होगा
अरविन्द जी, आप की तरह मेरी भी सदिच्छा है कि आरएसएस द्वारा बॉलीवुड में ढाई हजार करोड़ रुपए के परोक्ष निवेश की बात भगवान की कृपा से झूठी साबित हो . बाकी उम्मीद है कि हमारे वे बुद्धिजीवी , जो आरएसएस को बढ़िया से समझते रहे हैं , इस मसले पर द्वंदवाद का सिद्धांत जरुर लगायेंगे और मामले की तह तक पहुचेंगे.
अननोन जी,
दरअसल, जिस तरह लंबे समय से अब तक चल रही यह अफवाह कभी साबित नहीं हो पाई कि बॉलीवुड में बड़े पैमाने पर अंडरवर्ल्ड का पैसा लगा हुआ है, उसी तरह आरएसएस का पैसा बॉलीवुड में लगने की बात भी अफवाह ही होगी, और मैंने यहां इसी रूप में इसका जिक्र किया है। इससे ज्यादा इस बात का कोई महत्त्व नहीं।
बाकी मसला यह है कि इस फिल्म को मैंने जिस नजर से देखने की कोशिश की है, उसका उल्लेख सबसे शुरू में कर दिया है। बात तो उसी पर होनी चाहिए। किसका पैसा कहां लगा है, यह बात साबित नहीं होगी। ठीक उसी तरह जैसे कुछ समय पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीस से ज्यादा ब्लॉगरों और बेवसाइट संचालकों की मीटिंग बुलाई थी और उन ब्लॉगों या बेवसाइटों पर प्रकाशित लेखों या विचारों के बारे में यह साबित करना मुमकिन नहीं होगा कि किसके शब्द कहां से निकल रहे हैं...।
http://bolhalla.blogspot.in/2012/08/blog-post_7.html?utm_source=BP_recent
एक हिंदी लेखक का कहना है कि ब्राह्मणवाद अपने लाभ के लिए फंतासी गढ़ता है और इसी फंतासी को कहानी बना कर वह समाज में परोसता है। गैंग्स आफ वासेपुर में अनुराग ने इसी किस्म की कुछ फंतासी गढ़ने की कोशिश की है।
गैंग्स आफ वासेपुर का अर्थशास्त्र को समझने के लिए यह समझना जरूरी है कि भारतीय पूंजीवाद और भारतीय सामंतवाद का रिश्ता क्या है। क्योंकि यहां पश्चिमी देशों की तरह सामंतवाद को हराकर पूंजीवाद का स्थापना नहीं हुई है।
सच कहा आपने. गंग्स ऑफ़ वासेपुर सचमुच मर्दों की सामंती कुंठा की एक जीती जागती मिसाल है..हालांकि मैंने ये फिल्म देखी नहीं. बल्कि कहिये देख ही नहीं पाई. फिल्म को कुछ frame के बाद बर्दाश्त ही नहीं पाई. लेकिन आपके विश्लेषण से पूरी तरह से सहमत हूँ. वैसे mai अनुराग कश्यप की कोई बड़ी प्रशंसक नहीं हूँ. शायद कम fashionable हूँ. बस एक ही बात कहना चाहती हूँ की अगर अनुराग का मिन्द्सेट समझना हो तो उनकी एकदम पहली फिल्म देखिये - अ ट्रेन तो महाकाली..उसके बाद आप उनकी दूसरी फिल्म देखने की हिम्मत नहीं कर payeng
हां आपकी ये बात भी काफी सटीक लगी- फिल्म को समाज की तरह देखते है और समाज को राजनीति की तरह.
कृति
सच कहा आपने. गंग्स ऑफ़ वासेपुर सचमुच मर्दों की सामंती कुंठा की एक जीती जागती मिसाल है..हालांकि मैंने ये फिल्म देखी नहीं. बल्कि कहिये देख ही नहीं पाई. फिल्म को कुछ frame के बाद बर्दाश्त ही नहीं पाई. लेकिन आपके विश्लेषण से पूरी तरह से सहमत हूँ. वैसे मै अनुराग कश्यप की कोई बड़ी प्रशंसक नहीं हूँ. शायद कम fashionable हूँ. बस एक ही बात कहना चाहती हूँ की अगर अनुराग का माइंडसेट समझना हो तो उनकी एकदम पहली फिल्म देखिये - अ ट्रेन to महाकाली..उसके बाद आप उनकी दूसरी फिल्म देखने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे
हां आपकी ये बात भी काफी सटीक लगी- फिल्म को समाज की तरह देखते है और समाज को राजनीति की तरह.
कृति
बहुत अच्छा आलेख जो ऐसी फिल्मों के वास्तविक प्रयोजन की व्याख्या करता है.
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