स्पष्टीकरणः "आप फिल्म को फिल्म की तरह देखतें हैं। आप समाज को भी फिल्म की तरह देखते हैं। ...मैं फिल्म को समाज की तरह देखता हूं। और समाज की राजनीति की तरह देखता हूं।"
"देल्ही बेली" बनाने के बाद अगर आमिर खान या "गैंग्स ऑफ... " बनाने के बाद अनुराग कश्यप के हाथ में "पान सिंह तोमर" गई होती तो यह फिल्म कैसी बनी होती? यह खयाल मुझे "पान सिंह तोमर" के आखिरी दृश्य में "पान सिंह तोमर" यानी इरफान की मौत के साथ ही आया।
तिग्मांशु धूलिया की दूसरी फिल्में कैसी हैं, इसके बारे में कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। उनकी "पान सिंह तोमर" के कला या सरोकारी पहलू पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन मेरे दिमाग में इस फिल्म के खत्म होती ही "देल्ही बेली" या आमिर खान या अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकारों का ही नाम क्यों आया? "देल्ही बेली" अगर किसी वजह से याद रह जाती है तो सिर्फ इसलिए कि "गरीबी" का पाखंड जीते तीनों एलीट हीरो एक दूसरे को मां-बहन की सबसे वीभत्स गालियां ऐसे सहज भाव बोलते हैं जैसे किसी को तोहफे में फूल दे रहे हों; "देल्ही बेली" का एक "हीरो" एक स्त्री की कीमत लगाता है और पूरी सहजता से उसकी छातियां दबा कर चला जाता है; एक हीरो अपनी "प्रेमिका" की जांघों के बीच मुंह लगाए हुए दूसरी "प्रेमिका" का फोन सुनता है और बीच में ही उठ कर उसकी "सेवा" में चला जाता है; एक हीरो बड़ी सहजता से यह डायलॉग चिल्लाता है कि "ये शादी इसलिए नहीं हो सकती, क्योंकि इसने मेरा चूसा है और मैने भी इसकी ली है..."। ("मैंने भी इसकी ली है... " की जगह वास्तव में क्या है, इसे समझना मुश्किल नहीं है; वही हीरो अपनी "प्रेमिका" को दर्जनों बार "चुड़ैल-चुड़ैल" कहता है; और एक (आधुनिक और "इम्पावर्ड") हीरोइन को महज यौन-ताजगी के लिए अपने "प्रेमी" के साथ फूहड़ हो जाने की हद तक "जहां-तहां" मुंह में मुंह लगा कर मग्न हो जाने में कोई परेशानी नहीं होती...।
इसके अलावा, "देल्ही बेली" की कहानी क्या है, और इसके उपर्युक्त दृश्यों की जरूरत क्या थी, उसका जवाब नहीं मिलता है। अब इसे अगर कुछ "महान" समीक्षक स्त्री के पक्ष में खड़ी फिल्म तक घोषित करते हैं तो उनकी कुंठाओं या नफे-नुकसान का सिरा भी समझा जा सकता है। (गैंग्स ऑफ... पर बहस चल रही है।)
बहरहाल, आमिर खान और अक्षत वर्मा या अनुराग कश्यप को "पान सिंह तोमर" बनाना होता तो यह फिल्म कैसी बनती?
गांव का पान सिंह तोमर, फौजी पान सिंह तोमर, फौजी अधिकारियों से सजा पाता और उनसे पूरे भोलेपन के साथ जवाब-तलब करता पान सिंह तोमर, अपने दबंग और सामंती ठसक वाले रिश्तेदारों के अत्याचार झेलता पान सिंह तोमर, बागी पान सिंह तोमर, अपने गिरोह के साथ बीहड़ में जीता-मरता या धनपतियों का अपहरण करता और उनसे फिरौती वसूलता पान सिंह तोमर... । यानी अक्षत वर्मा और आमिर खान या अनुराग कश्यप जैसों के हिसाब से देखें तो पूरी फिल्म में संवाद या डायलॉग के नाम पर अगर कुछ होता तो बस मां-बहन की गालियां होतीं। शुरू से लेकर आखिर तक इस फिल्म में जो सामंती सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश मौजूद है, अक्षत वर्मा, आमिर खान, सुधीर मिश्रा या अनुराग कश्यप जैसे तमाम "महान" फिल्मकार इस फिल्म को गालियों की "गंगा" में डुबा देते और यह फिल्म भी समाज और संस्कृति के यथार्थ निरूपण का तमगा हासिल कर लेती!
लेकिन वे कौन-सी वजहें होंगी कि तिग्मांशु धूलिया को पूरी फिल्म में न केवल गाली जरूरी नहीं लगी, बल्किल एक जगह तिग्मांशु गालियों के खिलाफ खड़े होते हैं, जब पूरी फिल्म में एकमात्र जगह गाली का जवाब पान सिंह तोमर से दिलवाते हैं कि "हमारे यहां गाली पर गोली चल जाती है...।"
यह मेरे लिए हैरान कर देने वाली हकीकत है कि "पान सिंह तोमर" के पूरे परिवेश में अगर गालियां भर दी जातीं, तब भी उसे एक पैमाने पर जरूरी (सही नहीं) ठहराया जा सकता था, लेकिन तिग्मांशु धूलिया को पूरी फिल्म में यह गैर जरूरी लगा और इसके बावजूद फिल्म का एक मिनट का भी कोई दृश्य अपने असर में कमजोर नहीं रहा और दर्शकों में गहरे पैठा रहा।
मैं नहीं जानता कि तिग्मांशु की बाकी फिल्मों की सामाजिकता कैसी है, या आगे की फिल्मों में कैसी होगी। लेकिन मुझे लगता है कि "पान सिंह तोमर" के जरिए उस फिल्मकार के बारे में बात होनी चाहिए कि अगर वह ईमानदार है, जवाबदेह है, उसे अपनी क्षमता पर भरोसा है, उसमें कहीं सरोकार बचा हुआ है, वह खालिस दुकानदार नहीं हो गया है या वह व्यवस्था का एक एजेंट नहीं है तो वह विषय भी ढूंढ़ लेगा, कलाकार भी खोज लेगा और "पान सिंह तोमर" जैसी फिल्म भी बना लेगा, जो न केवल कहानी और प्रस्तुति के स्तर पर एक स्थायी असर से लबरेज होगी, बल्कि कारोबार के स्तर पर भी निराश नहीं होने देगी। (इस फिल्म ने साबित किया है कि वे फिल्मकार झूठ बोलते हैं जो यह कहते हैं कि दर्शक जो पसंद करता है, हम वही दिखाते हैं।)
दरअसल, हाल की कुछ फिल्मों में "यथार्थ का स्पर्श" देने के नाम पर जिस तरह गालियों से लैस संवादों को सहज स्वीकार्य बनाने की कोशिश की जा रही है, वह "यथार्थ" के निरूपण के नाम पर एक साजिश से ज्यादा कुछ भी नहीं। समाज में जहां-तहां पसरी यौन-कुंठाओं का शोषण करके मकसद भले ज्यादा-से-ज्यादा कमाई करना हो, लेकिन इस रास्ते होता यह है कि एक सामंती, मर्दवादी, पितृसत्तात्मक और भारतीय सामाजिक संदर्भों में ब्राह्मणवादी सत्ता की कुर्सी के पाए और मजबूत होते हैं। स्त्रियों और शूद्र जातियों के खिलाफ जलील करने वाली भाषा या गालियों का सहज इस्तेमाल दरअसल इस सत्ता को बनाए रखने के अहम औजार हैं। गालियों को सहज सामाजिक अभिव्यक्ति मानने वाले या तो खुद एक साजिश के सूत्रधार होते हैं या फिर शायद अंदाजा भी नहीं लगा पाते कि ऐसी भाषा का सुनने या बोलने के स्तर पर इस्तेमाल करते हुए वे किस बारीक साजिश का एक हिस्सा हैं या फिर शिकार हैं।
सच तो यह है कि गालियों के जरिए एक ऐसा समाज मनोविज्ञान और ऐसी राजनीति का जाल बनाया गया है, जो आखिरकार जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर सत्ताधारी, शासक और शोषक वर्गों का हित इस रूप में साधता है कि इससे सामाजिक हैसियत का मनोविज्ञान ज्यों-का-त्यों बना रहता है। यानी इस रास्ते शासित वर्गों को अपमानित करके उसका मनोबल गिराए रखना और उस पर मानसिक नियंत्रण बनाए रखना शासन का सबसे ताकतवर औजार बना। इसमें एक तरफ स्त्री की देह को ही उसकी अस्मिता का पर्याय बना दिया गया तो दूसरी ओर समाज के कमजोर तबकों की सामाजिक हैसियत, यानी वर्णक्रम पर आधारित जाति-व्यवस्था में नीची कही जाने वाली जाति की पहचान। यहां स्त्री के यौन की उनकी इज्जत का दूसरा नाम और उसे अपने नियंत्रण में रखने के लिए उसके यौन के खिलाफ शारीरिक या शाब्दिक हमला-हिंसा सामाजिक सत्ताओं का मूल चरित्र इसलिए बना, क्योंकि इससे एक साथ शूद्र जातियों और स्त्रियों- दोनों पर मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और राजनीतिक नियंत्रण रखने में सबसे ज्यादा मदद मिली।
जाहिर है, ऐसे मनोवैज्ञानिक ढांचे-सांचे में जीते-मरते समाज की कुंठाओं का शोषण वैसी ही नई कुंठाओं के सार्वजनिक प्रदर्शन के जरिए करना सबसे आसान है। और आमिर खान या सुधीर मिश्रा जैसे तमाम फिल्मकारों का मकसद केवल इन कुंठाओं का शोषण करके कुबेर बनना भर नहीं है, बल्कि उस साजिश को कामयाब बनाना भी है, जिसमें यह सामंती, मर्दवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था कायम रहे।
भदेसपन और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा होने की दलील देकर जो लोग गालियों का बचाव करते हैं या उन्हें महिमामंडित करते हैं, वे भी दरअसल अनजाने में या फिर जान-बूझ कर इस साजिश का हिस्सा बनते हैं। दलील भले ही जनतांत्रिक होने और लोकभाषाओं के प्रति सहनशील होने की हो...।
7 comments:
ek prabhav purn aalekh jo har pathak ko sochne ke liye mazboor karde ki filmon ke gairzaruri foohadpan ko kitni asaani se pacha liya jata hai, jise vastab me aswikaar kiya jana chahiye.....
आपके आलेख से पूरी तरह सहमत होते हुए भी कुछ असहमतियाँ हैं. पहले तो बात ये कि मैं किसी भी तरह गालियों का समर्थन नहीं करती, लेकिन फिल्मों में इसके प्रयोग की बात दूसरी है. गाली का फिल्म में यदि उपयोग किया गया है, तो वह किस उद्देश्य से किया गया है, ये देखना ज़रूरी है. मुझे लगता है कि अगर उनका उपयोग सीमित मात्रा में और स्वाभाविक रूप से किया गया है, तब तो ठीक, लेकिन अगर उसे ग्लैमराईज किया जा रहा है, तो गलत है. पान सिंह तोमर फिल्म में जहाँ एक ओर नायक के द्वारा गाली देने पर आपत्ति की बात की गई है, वहीं एक सिख कोच के मुँह से गालियाँ दिलवाई भी गई हैं, जो कि स्वाभाविक है. क्योंकि गाली का विरोध दिखाने के लिए, उसे दिखाना भी ज़रूरी है.
हाँ, ये ज़रूर है कि ये फिल्म अपने आप में एक नजीर है, तमाम कारणों से, लेकिन जहाँ तक गालियों के प्रयोग पर गोलियाँ चलने की बात है, उसमें एक घमंड की बात है, ना कि दलित तबकों की ओर से ये बात कही गई है.
मैं आपको अपने अनुभव बताती हूँ कि हमारा गाँव ब्राह्मणों का है और वहाँ आपस में गाली-गलौज नहीं होती क्योंकि सभी एक ही गोत्र के हैं और सभी की माँ-बहनें एक-दूसरे की माँ-बहनें हैं. हमारे यहाँ भी गाली पर लाठियां चल जाती हैं, लेकिन दलितों को गाली देने की पूरी छूट है. यहाँ कुल मिलाकर मतलब ये कि हम साफ़-सुथरे रहें और दूसरों के घर में गंदगी करें.
मेरा तात्पर्य ये है कि गालियाँ निश्चित ही दलितों और स्त्रियों को हीन दिखाने की मानसिकता से दी जाती हैं, पर उनका विरोध जिस कारण से होता है, पान सिंह तोमर का विरोध भी उसी कारण से है. क्योंकि मत भूलिए कि नायक तोमर है और तोमर ठाकुर होते हैं, मतलब सवर्ण.
आराधना मुक्ति जी,
आपकी बातों से सहमति-असहमति का अपनी जगह है। सवाल है, कि क्या हम फिल्मों को केवल मनोरंजन के पैमाने से देखते हैं या फिर वह समाज पर अपना कोई असर भी छोड़ता है। एक ऐसे समाज में, जहां ज्यादातर लोग सिर्फ "क्या" देख कर अपना काम खत्म समझ लेते हैं (समूचे समाज में यही जमीन छोड़ी गई है कि लोग इससे ज्यादा के बारे में सोचे ही नहीं) और "क्यों" तक पहुंच भी नहीं पाते, वहां सत्ताधारी तबकों (जिसे भी अपनी बात सार्वजनिक करने का "हक" है) के मकसद को क्या हम टुकड़ों में बांट कर देखेंगे? फिल्में बना कर बाजार में परोसने का मकसद भले केवल पैसा कमाना हो, लेकिन यह एक ऐसे समाज के सामने परोसा जाता है जिसे इस हालत में छोड़ा ही नहीं गया है कि वह किसी चीज को विश्लेषणपरक दृष्टिकोण से देख सके। क्या हम उस दृश्य को "मकसद", "सीमित मात्रा", "स्वाभाविकता" "अनिवार्यता" के पैमाने से देख कर कभी सोचने की हालत में होते हैं, जिसमें एक "हीरो" किसी स्त्री की छातियां दबा कर चला जाता है और सिनेमा हॉल में बैठा हमारा आम दर्शक इस दृश्य पर जोर के ठहाके लगाता है? देल्ही बेली में वह जो डायलॉग है- "इसने मेरा...... ", इसके बाद सिनेमा हॉल में बैठे एक आम दर्शक की प्रतिक्रिया क्या होती है? दिखावे की गरीबी के पीछे एलीट जीवन जीते नायकों के मुंह से जब मां-बहन की सबसे वीभत्स गालियां पूरी सहजता से निकलती हैं तो क्या वह केवल दिल्ली के आम समाज का यथार्थ चित्रण भर होती हैं, या फिर वह उस "वचन-व्यवहार" को और ज्यादा ताकत देता है?
बहरहाल, सीमित मात्रा जैसी चीज कुछ होती नहीं है। खासकर गालियों के संदर्भ में हम सीमा तय नहीं कर सकते। सीमित मात्रा हमेशा दवा, यानी रोग को ठीक करने के लिहाज से उपयोगी होता है। जहर भी सीमित मात्रा में तभी उपयोगी होगा, जब वह जहर से मुक्ति का जरिया बने। सांप के काटे के इलाज में यह पद्धति बहुत कारगर है।
इस लिहाज से आपने सही उदाहरण दिया कि गाली का विरोध दिखाने के लिए गाली दिखाना जरूरी था, जैसा कि पान सिंह तोमर में दिखाया गया। यहां सीमित मात्रा का फार्मूला लागू है। लेकिन नायक के जवाब, यानी "गालियों पर हमारे यहां गोलियां चल जाती हैं" में आप जिस घमंड की खोज कर रही हैं, उसका कारण आपने सामाजिक खोजा है। मेरा खयाल है कि यह संवाद कोई सवर्ण कहे या दलित- समान महत्त्व रखता है। फिर भी अगर यहां "हमारे यहां" है तो यह किसी खास जाति-वर्ग का संवाद कैसे हो गया? गोलियां चलने की बात जरूर दलित तबकों से मेल नहीं खाती है, लेकिन अगर गालियां किन्हीं सामाजिक तबकों (स्त्रियों और निचली जातियों) का प्रतीक रूप में अपमान करती हैं, उनके खिलाफ एक सामाजिक मनोविज्ञान रचती हैं, तो गोली चलना विरोध करने का रूपक क्यों नहीं हो सकता?
आपने अपने गांव का जो उदाहरण सामने रखा है, वह गालियों के समाजशास्त्र का पुख्ता सबूत है और उसे खोलता भी है। स्त्रियां या कोई व्यक्ति अगर हमारे संबंध में हैं या अपने घर में हैं, तो उनके खिलाफ हम अपमान के एक शब्द भी नहीं सुन सकते। यही स्थिति सामाजिक हैसियत के बारे भी सच है। अपमान क्रम से नीचे की ओर उतरता है। नीचे वाले को अपने से ऊपर वाले को अपमानित करने का "हक" नहीं है, क्योंकि नीचे वाले के अपमानित होने की बुनियाद पर ही ऊपर वाले का सम्मान टिका है। एक गोत्र की होने के कारण सबकी मां-बहनें एक दूसरे की मां-बहनें हुईं, सिर्फ इसलिए आपस में गाली-गलौच नहीं होगी। लेकिन वहीं दलितों को गाली के लायक माना जाता है। (दलितों की सामाजिक हैसियत स्त्री से अलग नहीं है। इसके बाद यह सामाजिक वर्गों में विभक्त होता है।) इस बात के लिए इत्मिनान रहने की जरूरत है कि अगर कभी आपस में झगड़ा घृणा की हदों को पार करेगा तो वहां शाब्दिक हिंसा के लिए पुरुष समाज के पास पुरुषों के "व्यक्ति" को अपमानित करने के लिए कोई पुरुष गाली नहीं होगी। वहां नफरत उगलते हुए एक पुरुष दूसरे पुरुष से फूलों का आदान-प्रदान नहीं करेगा। वहां भी निशाना स्त्रियां ही बनेंगी, चाहे वे अपने ही गोत्र की ही क्यों न हों। इसके बाद भले ही गोली या लाठी चले। असल बात वही है, जो आपने कहा है। हम और हमारे घर साफ-सुथरे और पवित्र-शुद्ध रहें और दूसरों के घर में तमाम गंदगी फेंक दें। इसके पीछे सत्ता के मनोविज्ञान के अलावा दूसरा और क्या कारण हो सकता है?
आपने यह भी सही कहा है कि गालियां दलितों और स्त्रियों को हीन दिखाने (मैं इसे अपमानित करने और उनकी सामाजिक यथास्थिति बनाए रखने की साजिश कहूंगा) की मानसिकता से दी जाती हैं। लेकिन उनका विरोध जिस कारण से होता है, पान सिंह तोमर का विरोध भी उसी कारण से हैं। यानी कारण अगर दलितों और स्त्रियों को हीन दिखाना है और अगर उसका पान सिंह तोमर विरोध करता है, तो इसका तो स्वागत किया जाना चाहिए। इसमें सामंती सम्मान बचाने की ललक कहां से आ गई? शायद इस कारण से कि किसी वजह से आपने "तोमर" को ठाकुर, यानी सवर्ण के रूप में सामने रखा है। लेकिन मैं फिर कहूंगा कि यह विरोध कोई सवर्ण करे या दलित, उसका महत्त्व बराबर है... रत्ती भर भी कम नहीं। बल्कि हर संवेदनशील "व्यक्ति" को इसकी जिम्मेदारी उठाना चाहिए। यहां पान सिंह तोमर के उस संवाद का महत्त्व जाति और सामाजिक पृष्ठभूमि के लिहाज से व्यक्ति निरपेक्ष है। बल्कि इसका विस्तार निचली जातियों के खिलाफ अपमानजनक संबोधनों तक भी पहुंचना चाहिए। हालांकि मैं स्त्री और निचली कही जाने वाली जातियों के खिलाफ अपमान को अलग करके नहीं देखता हूं। इसके भीतर पितृसत्ता अपने खेल अलग से खेलती है।
अगर पान सिंह तोमर ठाकुर थे भी तो इसमें उलझने के बजाय उस संवाद के महत्त्व को देखा जाना चाहिए। यों टाइटिलों से जाति का पता लगना कई बार उलझनपूर्ण होता है। मसलन, "सिंह" उत्तर प्रदेश जैसे एक ही राज्य में ठाकुर भी लगाते हैं और कई दलित जातियां भी। बिहार में इसी "सिंह" टाइटिल से राजपूत भी जाने जाते हैं और कुर्मी भी इसे अब सामान्य तौर पर अपने नाम के पीछे प्रयोग करते हैं। इसे संक्रमणकाल के एक ऐसे विकास के रूप में देखा जाना चाहिए, जो व्यक्ति को अपने निम्न जातीय पहचानों के प्रतीकों से मुक्ति पाने के क्रम में "ऊपर" की ओर ले जाता है। कोई सवर्ण व्यक्ति अपने नाम के पीछे के टाइटिल के रूप में पिछड़ी या दलित जाति के टाइटिल को नहीं अपनाता, निचली कही जाने वाली जातियों में यह अक्सर देखने में आता है। यह अलग बात है कि चेतना के स्तर पर विकास के बिना टाइटिल से मुक्ति सामाजिक पहचान से मुक्ति दिलाने में कामयाब नहीं हो पाती।
आपकी ऊपर कही गई सारी बातों से सहमत हूँ. अगर कहीं विरोध है तो इस पर निर्भर नहीं करता कि वह सवर्ण के द्वारा किया गया है या दलित के द्वारा.
गालियों को "स्वाभाविक" और "सहजता" से लेने में हम जितनी तत्परता दिखाते हैं, उतनी ही संवेदनशीलता हम गालियों के "मनोविज्ञान" और उसके पीछे के "समाजशास्त्र" को समझने में क्यों नहीं दिखाते? यकीनन उस मनोवृत्ति को, जो मां, बहन और बेटियों को लक्षित गालियों से शर्मसार होने के बजाय सहज रहने की सीख दे, समझना बहुत मुश्किल तो नहीं, लेकिन अफसोसनाक जरूर है। यह वही मानसिकता है जो एक दलित युवक के हाथ सिर्फ इसलिए काट देता है कि उसने प्यास लगने पर एक सवर्ण के खेत में रखे घड़े से पानी पी लिया था। यह वही सोच है जो नारा तो "मेरी जाति हिंदुस्तानी" का लगाता है, लेकिन सचिन तेंदुलकर की प्रतिभा का श्रेय उसकी एक जाति विशेष में पैदा होने को देता है। गालियों पर सहज रहने की सलाह वही लोग देते हैं जो देश के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाले दलित छात्रों को लगातार परीक्षा में जानबूझ कर फेलकर उन्हें आत्महत्या पर मजबूर कर सिर्फ इसलिए कर देते हैं कि वंचित वर्ग के इन छात्रों ने उनके बेटे-बेटियों के "बराबर" आने की "हिमाकत" की। कुछ लोग "आधा गांव" और "काशी का अस्सी" जैसी गालियों से लबरेज रचनाओं का उदाहरण सामने रख कर गालियों के प्रति "कट्ट्रर" दृष्टिकोण नहीं अपनाने की सीख दे सकते हैं। लेकिन मेरा पुरजोर मानना है कि यदि किसी रचना में किसी विकृति का निरूपण महज एक "स्थिति" के रूप में है, त्रासदी के रूप में नहीं, तो वह रचना चाहे और कुछ हो या न हो, लेकिन एकांगी और व्यवस्थावादी जरूर है। यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे समाज में एकांगी नजरिए को ही "विश्वसनीय" नजरिए के रूप में पेश करने और लादने का चलन है।
रजनीश
आपने बढियां इशारा किया है... क्षमतावान निर्देशक को फूहड़ता की बैशाखी की जरूरत नहीं होती...
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