Wednesday 19 October, 2011

तर्क के खिलाफ आस्था का हथियार...



दिल्ली
विश्वविद्यालय में राम कथा
पर आधारित "तीन सौ रामायण- पांच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार" नामक किताब को लेकर फिर से गर्मी छाई हुई है। इस संदर्भ में तीन साल पहले भी हंगामा हुआ था। तब मैंने "जनसत्ता" में यह लेख लिखा था। शायद एक बार फिर यह प्रासंगिक हो...




कहते हैं किसी एक झूठ को बार-बार रटने से या तो वह सच के वहम में तब्दील हो जाता है, या फिर प्रहसन बन जाता है। तो राम भरोसे राजनीति की नाव पर सवार हिंदू कट्टरपंथी समूहों की पीड़ा समझना बहुत मुश्किल नहीं है। बाबरी मस्जिद के बाद राम मंदिर का मुद्दा लगभग पिट चुका है, सो कुछ महीने पहले अचानक ही रामसेतु की राह दिखाई पड़ गई थी। मगर पहले-सी उत्तेजना पैदा कर सकने में कामयाबी नहीं मिली। अब दिल्ली विश्वविद्यालय की एक किताब में फिर से "मुश्किल" में पड़े राम को खोज निकाला गया है और उनके "उद्धार" का अभियान शुरू हो गया है।

पिछले दो साल से यह किताब दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक इतिहास के ऑनर्स पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही है। इसमें "प्राचीन भारत में संस्कृति" के तहत "तीन सौ रामायण- पांच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार" शीर्षक से एक अध्याय शामिल है, जिसके लेखर एके रामानुजन हैं। रामानुजन दक्षिण भारत के प्रसिद्ध लोककथाओं के विद्वान, भाषाविद, कवि और अनुवादक थे। उन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया के अध्ययन कार्यक्रम तैयार करने में काफी अहम अहम भूमिका निभाई। इस लेख में उन्होंने राम के बारे में दुनिया भर में प्रचलित अलग-अलग कहानियों का जिक्र किया है। राम को भारतीय धर्मग्रंथों में एक सबसे ज्यादा लोकप्रिय देवता के रूप में माना जाता रहा है। लेकिन समय के साथ विभिन्न मतों में रामकथा की अलग-अलग तरीके से व्याख्या भी की गई। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विषय से स्नातक ऑनर्स के पाठ्यक्रम में शामिल इस पाठ का मकसद सिर्फ इतना है कि छात्रों को आम हिंदू समाज में पाई जाने वाली पारंपरिक अवधारणा से इतर तमिल, बौद्ध, जैन या कुछ दूसरे मतों में प्रचलित कहानियों के अध्ययन और उनके विश्लेषण का मौका मिले। फिर पाठ्यक्रम में इसे पूरी तरह वैकल्पिक रखा गया है और इसे पढ़ना या नहीं पढ़ना अपनी मर्जी पर निर्भर है। इसे ही सही मान लेने का आग्रह कहीं नहीं है।

लेकिन इस मसले पर दिल्ली विश्वविद्यालय में जो हुआ, उससे यह लगता है कि अब शैक्षणिक संस्थानों को भी "हिंदुत्व की प्रयोगशाला" बनाने की मुहिम शुरू हो चुकी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के गर्भनाल से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कथित नेताओं ने इस बात का भी लिहाज करना जरूरी नहीं समझा कि वे विश्वविद्यालय परिसर में हैं। लेकिन जब पहले से यह तय हो कि बात करना उतना जरूरी नहीं, जितना उत्पात मचाना, तो उचित-अनुचित जैसे सवाल गैरजरूरी मान लिए जाते हैं। किताब में रामकथा पर आधारित उस अध्याय का विरोध करने के लिए इतिहास विभाग में तोड़फोड़, शिक्षकों को अपमानित करने और उनके साथ मारपीट का दृश्य किसी दंगे के पूर्वाभ्यास से कम नहीं था। ध्यान रहे कि इस मसले पर भाजपा के एक पूर्व सांसद रामविलास वेदांती तालिबानी अंदाज बिखेरते हुए पाठ्यक्रम में रामानुजन का पाठ शामिल करने के लिए जिम्मेदार कुलपति का सिर काट कर लाने वाले को ईनाम देने की घोषणा पहले ही कर चुके हैं। सवाल है कि क्या इसी तरह की "सहिष्णुता" के दम पर हिंदुत्व की गौरवगाथा लिखने की तैयारी की जा रही है?

भाजपा के इस छात्र संगठन के नेताओं ने इतिहास विभागाध्यक्ष एजेडएच जाफरी के साथ जिस तरह का बर्ताव किया और मारपीट की, वह इस तरह की कोई पहली घटना नहीं थी। इससे पहले उज्जैन में प्रोफेसर सब्बरवाल की हत्या, पुणे के भंडारकर शोध संस्थान में उत्पात और बड़ौदा विश्वविद्यालरय में वहां के संकाय प्रमुख और छात्रों के साथ मारपीट जैसी "बहादुरी" इसके और इस जैसे कुछ दूसरे संगठनों के चरित्र की मुख्य विशेषता बन चुकी है। उलटबांसी यह कि भारतीय संस्कृति और महान गुरु-शिष्य परंपरा की दुहाई देने के काम में इन्हें कभी थकते नहीं देखा गया।


विडंबना यह है कि एक उदार और लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा होने के बावजूद इस तरह के संगठन से जुड़े लोग अपनी आस्थाओं की अभिव्यक्ति के लिए कोई भी रास्ता अख्तियार करने को तैयार रहते हैं। लेकिन खुद से सहमति नहीं रखने वालों की अभिव्यक्ति इन्हें परेशान करती है। इस बात पर तो तरस ही खाई जा सकती है कि कोई यह मान ले कि दुनिया उसकी इच्छाओं या आस्थाओं का खयाल रखे, भले ही वह प्रताड़ित करने की हद तक दूसरों की इच्छाओं का अतिक्रमण करे। अभिव्यक्ति की आजादी का यह हनन किसी फिल्म के प्रदर्शन का विरोध करने से लेकर किसी किताब पर पाबंदी लगाने की मांग के लिए भी हिंसा को एकमात्र रास्ता मानने के रूप में सामने आ रहा है। मुश्किल यह है कि सरकारों को इस बात से कोई लेना-देना नहीं रह गया है कि विचार-विश्लेषण की प्रक्रिया को और मजबूत करने या वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार के मसले पर दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ प्रतिक्रियावादी ताकतों का मुकाबला किया जाए। उलटे वे "हिंसा की आशंका" को आधार बना कर किसी फिल्म या किताब पर पाबंदी लगाने में देर नहीं लगातीं। दरअसल, इसके पीछे हिंसा की "आशंका" से ज्यादा फिक्र अपनी राजनीति की होती है।

जहां तक अलग-अलग रूप में प्रचलित रामकथा की जानकारी देने वाले पाठ पर पाबंदी की मांग का सवाल है तो उनका क्या जाए जो "रामचरितमानस" में शूद्रों और स्त्रियों को अधिकतम अपमानित किए जाने का आरोप लगाते हैं? यहां हमारी आस्था का वर्गीकरण क्यों हो जाता है? आस्था का झंडा लेकर देश को "आंदोलित" करने का बीड़ा उठाए लोगों को क्या कभी दलित उत्पीड़न के किसी मामले पर चिंतित होते देखा गया है? ऐसा इसलिए नहीं होगा क्योंकि इससे यथास्थिति भंग होगी और सामाजिक सत्ता का मौजूदा ढांचा बिखरेगा। और चूंकि आस्था इस ढांचे की सुरक्षा में सबसे कारगर हथियार साबित होती है, और इसका इस्तेमाल भी बेहद आसान है, इसलिए सबसे पहले इसी पर चोट पहुंचाए जाने का हौवा खड़ा किया जाता है। फिर इसके लिए किए जाने वाले हिंसक प्रदर्शन एक प्रत्यक्ष दबाव का काम करते हैं।


दरअसल, कट्टरता की बुनियाद पर खड़े किसी समूह के लिए लगातार किसी भावनात्मक मुद्दे की बैसाखी का सहारा एक मजबूरी होती है। आम हिंदू मानस में राम का देव-रूप गहरे तक पैठा है और हिंदुत्व के कथित पैरोकारों के लिए राम एक सहज और सुलभ मुद्दा हैं, इसलिए राम नाम के संकट का हौवा खड़ा कर उसे उकसाना भी उतना ही आसान है। इसकी संवेदनशीलता का अंदाजा इन हिंदूवादी समूहों को बखूबी है और यही वजह है कि राम नाम को बार-बार राजनीति के बाजार में खड़ा किया जाता है। वरना क्या कारण है कि सालों से विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की एख वैकल्पिक सामग्री अचानक इनके लिए इतनी अहम हो जाती है?

जो भी हो, अब एक औसत हिंदू भी राम के मुद्दे पर भाजपा-विहिप या दूसरे हिंदूवादी दलों का पाखंड समझ चुका है। राम मंदिर की गर्मी उतर जाना इसका सबूत तो है ही, सेतुसमुद्रम परियोजना में जिस तरह रामसेतु का सवाल घुसा कर लोगों में उन्माद पैदा करने की कोशिश नाकाम रही, उससे यही साबित होता है कि लोग अब इसे महज एक राजनीतिक चाल से ज्यादा अहमियत देने को तैयार नहीं हैं।

इसके बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय में उत्पात मचाने और दंगे जैसा माहौल पैदा करने के पीछे क्या वजह हो सकती है? दरअसल, तोड़फोड़, हमला या निराधार बातों पर ऊधम मचा कर समय-समय पर अपने वजूद का एहसास कराते रहना कट्टर या सांप्रदायिक संगठनों की मजबूरी होती है। मिसाल के तौर पर विहिप, शिवसेना और अब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जैसे संगठन गाहे-बगाहे बिना बात के उत्पात मचाते रहते हैं, जिसका मकसद अपने अस्तित्व का एहसास कराते रहना भर है। आम जन के हितों के मुद्दे उनके लिए बेमानी होते हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के ऊधम को इसकी ताजा कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। यों भी, महाराष्ट्र में शिवाजी पर एक किताब के विरोध के सिलसिले में शिवसेना ने जो किया और उसमें उसे आखिरकार कामयाबी मिली, विद्यार्थी परिषद शायद उसी को नजीर मान कर चल रही है। इससे पहले भाजपा शिवाजी पर "आपत्तिजनक" टिप्पणियों को आधार बना कर जवाहरलाल नेहरू की किताब "डिस्कवरी ऑफ इंडिया" पर भी प्रतिबंध लगाने की मांग कर चुकी है। यह किताब हिंदी में भी उपलब्ध है और भारत के इतिहास के बारे में इसे एक प्रामाणिक और संदर्भ ग्रंथ के रूप में जाना जाता रहा है।

आमतौर पर ऐसे संगठन किसी विषय पर बहस के लिए तैयार नहीं होते। तथ्यों और तर्कों के साथ बात करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है और इसमें इनकी सीमा किसी से छिपी नहीं है। इसलिए ये बार-बार भावनाओं और आस्था के आहत होने का सवाल उठाते हैं जो इनके लिए महज अपनी राजनीतिक दुकानदारी चमकाने का जरिया भर होते हैं। यहीं ये इस बात का खयाल रखना जरूरी नहीं समझते कि जो इनसे सहमत नहीं हैं, उनकी भावनाओं का क्या जाए। इस तरह के सवाल उठने पर ये जो रवैया अख्तियार कर लेते हैं और ऐसे मसलों पर इन संगठनों का जो चरित्र रहा है, उसे देते हुए इनसे किसी मसले पर बहस की उम्मीद बेमानी ही है।

इतिहास पर आस्था को तरजीह देना इस लिहाज से इनके हित में है कि इतिहास की परतें खुलने पर बहुत सारी आस्थाएं एक झटके में खंडित हो जा सकती हैं। और भावनात्मक मुद्दे जिनके टिके रहने का एकमात्र सहारा हैं, वे इस पर विचार करना क्यों जरूरी समझेंगे? इनके लिए इतिहास इसलिए भी एक अप्रिय विषय है क्योंकि हिंदुत्व की जिस सहिष्णुता का ढिंढोरा पीटा जाता है, इतिहास के पन्ने उसकी कलई खोलने लगते हैं। सेतुसमुद्रम परियोजना में अड़ंगा डालने के लिए जिस प्राकृतिक संरचना को वे समुद्र पार करने के लिए राम द्वारा बनवाया गया सेतु और इतिहास की एक सच्चाई सिद्ध करने पर तुले थे, उसके साथ-साथ रामायण के सारे विवरण को सच मानने का आग्रह इन्हें असहज कर देता है। इसी तरह महज जन्म के आधार पर नब्बे फीसद लोगों का किसी न किसी बहाने रोज-रोज जलील होना किस बारीक तरीके से नियति बना दी गई और उस यातना पर गर्व करने की घुट्टी पिला दी गई, अब उसकी व्याख्याएं सामने आने लगी हैं। यह निश्चित तौर पर "हिंदुत्व की प्रयोगशालाओं" की खोज में लगे रहने वालों के लिए एक अप्रिय स्थिति पैदा करती है और वहां इनके लिए आस्था एकमात्र महत्त्वपूर्ण चीज हो जाती है। जाहिर है, ध्यान बंटाने के लिए भावनात्मक मुद्दे उठाने और हिंसा या उत्पात का सहारा लेने को ये अपना मुख्य धर्म समझते हैं, जो इनकी सीमा भी है।


मुश्किल यह है कि मीडिया का एक हिस्सा भी इन मसलों पर जिस तरह गैरजिम्मेदारी से भरा रवैया अपनाता है, वह विमर्श या संवाद की संभावनाओं को खत्म करता है। दिल्ली विश्वविद्यालय में हमले से पहले टीवी चैनलों को बुला कर बाकायदा प्रायोजित तरीके से हिंसा की गई। यह उत्साह इस मुद्दे पर बातचीत करने के मामले में नहीं दिखाया गया। इस तरह की ज्यादातर खबरें या तो गैरजरूरी होती हैं, या इनकी रिपोर्टिंग में एक तटस्थ विश्लेषण के बजाय संबंधित व्यक्ति का आग्रह हावी रहता है। रामकथा से संबंधित ताजा विवाद में भी यह साफ-साफ देखा गया कि कैसे किसी मामले को जबर्दस्ती खबर बना कर उसे इस हद तक संवेदनशील बना दिया गया कि कट्टरपंथी और सांप्रदायिक गुटों को अपनी रोटी सेंकने का मौका मिल गया।


2 comments:

चंदन कुमार मिश्र said...

ये छात्र संगठन हैं ही इसीलिए…

SANDEEP PANWAR said...

बेहतरीन प्रस्तुति। सही कहा है
शानदार अभिव्यक्ति,