Monday, 25 April 2011

ममता की दोस्ती की जरूरत किसे है..?

(संदर्भः विकीलीक्स)



भ्रष्टाचार के खिलाफ सिविल सोसाइटी मार्का आंदोलन भविष्य की कौन-सी तस्वीर गढ़ेगा, यह अभी साफ नहीं है। लेकिन इस बीच विकीलीक्स के जरिए 'द हिंदू' ने दूसरे दौर के 'इंडिया केबल्स' के खुलासों में जो एक खबर दी, चूंकि वह इस देश की 'सिविल सोसाइटी' के लिए सुविधाजनक नहीं था, इसलिए मीडिया के लिए भी यह कोई बेचने लायक मुद्दा नहीं था और न ही देश की अमेरिका-भक्त राजनीतिक सत्ताओं के लिए कोई प्रतिकूल-सी स्थिति। जाहिर है, इसे चर्चा का मुद्दा नहीं बनना था, बल्कि यों कहें कि इसे जानबूझ कर नजरअंदाज कर देना 'वक्त का तकाजा' था।

'खुलासा' यह था कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी में अमेरिका को 'भविष्य की संभावनाएं' दिख रही हैं और भारत में अमेरिकी राजनयिक उन्हें एक 'भरोसेमंद' दोस्त के रूप में देखने और उन्हें "कल्टिवेट" करने की सलाह अपने देश की सत्ता को दे रहे हैं। यह एक ऐसी हकीकत और फार्मूला है, जिस पर बीसवीं सदी के शीत युद्ध के समय से ही अमेरिका अमल करता आ रहा है। दुनिया भर में जहां भी वाम या प्रगतिशील ताकतें सत्ता में रही या अब भी हैं, वहां सत्ता का समांतर दावेदार या उसकी मार्फत अपने राजनीतिक-आर्थिक और साम्राज्यवादी हितों को साधने की मकसद से कोई मोहरा खड़ा करने के लिए 'कुछ भी' करने में अमेरिका को कभी कोई हिचक नहीं हुई।

फिलहाल संदर्भ पश्चिम बंगाल और ममता बनर्जी का है। कोलकाता में मौजूद अमेरिकी राजनयिक बेथ पाईने ने अपने संदेश में कहा कि "जनता के बीच उनके (ममता बनर्जी के) दल के बयानों में अमेरिका विरोधी भावनाएं नहीं दिखतीं। साथ ही ममता बनर्जी अमेरिकी अधिकारियों से संपर्क साधने की कोशिश करती हैं, वे बहुत ही प्रोत्साहित करने वाली हैं।"

ममता बनर्जी पर अमेरिकी मेहरबानी को लेकर विकीलीक्स के खुलासे 'द हिंदू' के जरिए भले अब जाकर सामने आए हों, लेकिन पिछले तीन-चार साल में वामपंथी पार्टियां अक्सर इस तरह की बातें कहती रही हैं, जिसे इस देश के बाकी राजनीतिक खेमों के अलावा सुविधावादी बुद्धिजीवियों द्वारा 'वामपंथियों का सिरफिरापन' कह कर खारिज किया जाता रहा। हालांकि बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब वामपंथी दलों के इस 'सिरफिरे आरोप' को खुद ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद कबीर सुमन ने बाकायदा लिखित रूप से स्वीकार किया। अपनी किताब 'निशानेर नाम तापसी मल्लिक' यानी 'झंडे का नाम तापसी मल्लिक' में कबीर सुमन ने लिखा है कि वे "नवंबर 2007 में नंदीग्राम में तृणमूल कांग्रेस की बैठक में शामिल होने गए थे। वहां तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री सौगत राय के साथ नक्सली नेता भी मौजूद थे।" कबीर ने आगे इस तथ्य का उल्लेख किया है- "रायचक में शुभाप्रसन्न के घर पर जो जलसा आयोजित किया गया था, उसमें ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिकी राजनयिकों के प्रतिनिधि उपस्थित थे।" शुभाप्रसन्न ममता बनर्जी के घनिष्ठ राजनीतिक सहयोगी हैं।

सवाल है कि राजनीतिक उथल-पुथल के उस नाजुक दौर में अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी के राजनयिकों के प्रतिनिधि उस जलसे में क्या कर रहे थे और उनका क्या इरादा था।

नंदीग्राम में कथित जमीन अधिग्रहण की अधिसूचना हल्दिया विकास प्राधिकरण ने अपनी ओर से जारी कर दी थी, जिसे स्थानीय निवासियों के शुरुआती विरोध के बाद ही वापस ले लिया गया था। अगर वह विरोध आंदोलन उस अफसोसनाक परिणति तक पहुंचा जिसमें आठ लोग मारे गए तो क्या इसका अंदाजा लगाना इतना मुश्किल है कि उस स्थिति को पैदा करने में तृणमूल कांग्रेस, माओवादियों के साथ-साथ अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी के राजनयिकों के प्रतिनिधियों की गुप्त बैठकों में तय 'रणनीतियों' का क्या हाथ रहा होगा।

दरअसल, देसी-विदेशी सांठगांठ या माओवादियों से लेकर कॉरपोरेट लॉबी के साथ मिलीभगत करके ममता बनर्जी राज्य में हिंसा का ऐसा माहौल पैदा करने की कोशिश लगातार कर रही है, ताकि वाम दलों की स्थानीय कैडर संरचना टूट जाए और वाम दलों की राजनीतिक साख को संदेह के घेरे में लाकर आम गरीब जनता के बीच भय पैदा किया जाए और उसे वाम दलों से दूर किया जा सके। वाम दलों की अपनी कमजोरियों के बीच इसमें ममता बनर्जी को काफी हद तक कामयाबी भी मिली है। नंदीग्राम में इसी फार्मूले को आजमाया गया।

यह ध्यान रखना चाहिए कि नंदीग्राम की उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद कई मौकों पर माकपा के माफी मांगने के बावजूद पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की सरकार के सामने जिस तरह के संकट खड़े होने शुरू हुए, उससे समान स्तर पर निपटने की तृणमूली शैली उसके पास नहीं थी।

पिछले तीन-चार साल से वामदलों की ओर से लगाए जा रहे आरोपों की पहले खुद तृणमूल कांग्रेस के सांसद कबीर सुमन ने पुष्टि की, लेकिन विकीलीक्स के खुलासे में जो तथ्य सामने आए हैं, वे साफ-साफ इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस पर वाम दलों के आरोप कोई "अनर्गल प्रलाप" नहीं, बल्कि हकीकत हैं। देसी-विदेशी साम्राज्यवादी ताकतों के ऐसे गुप्त गठजोड़ अगर इसी तरह अपने सिरे चढ़े तो उसका भविष्य किसके हाथों में होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।


लेकिन यह भी सच है कि इस तरह के गठजोड़ चूंकि अपने देश की "सिविल सोसाइटी" के लिए "बिन मांगी मुराद" जैसी स्थितियां लेकर आती हैं, इसलिए वह इसका स्वागत ही करेगी। ममता बनर्जी फिलहाल रेलमंत्री हैं। लेकिन मंत्रालय संभालने के बाद उन्होंने पुरस्कार प्राप्ति की उम्मीद में तृणमूल कांग्रेस का झंडा उठाने वाले बुद्धिजीवियों को निराश नहीं किया। रेलमंत्री बनने के बाद उन्होंने रेलवे हैरिटेज कमिटी में जिन दस लोगों को सदस्य बनाया, उनमें नौ बंगाल के वही "सिविल सोसाइटी" ब्रांड बुद्धिजीवी हैं। जाहिर है, ममता बनर्जी का सपना अगर पूरा होता है तो बंगाल सरकार में "सिविल सोसाइटी" ब्रांड बुद्धिजीवी भी अनेक मंत्रालयों की बागडोर संभाल कर बिना चुनाव में हिस्सा लिए "जनता की सेवा" करने का सपना सच कर सकते हैं। बावजूद इसके कि खुद तृणमूल सांसद कबीर सुमन आरोप लगा चुके हैं कि "तृणमूल कांग्रेस में व्यापक भ्रष्टाचार है और यह पंचायत स्तरीय संगठन तक फैला है, और कि तृणमूल कांग्रेस भी कत्ल कराने में लगी है।

किसी राजनीतिक संघर्ष में सीधे उतरने के बजाय एक एनजीओ खोल कर या कुछ सत्ता-केंद्रों को साध कर "सिविल सोसाइटी" में अपनी पोजिशनिंग आज लुटियंस जोन की आन-बान-शान भोगने के रास्ते आसान बना दे सकता है। यह बेवजह नहीं है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जंतर-मंतर पर जमा हजार-दो हजार की भीड़ "जनसैलाब" हो जाती है और उसे "देश की दूसरी आजादी" की लड़ाई घोषित कर दिया जाता है और इसके लगभग महीने भर पहले भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर ही वाम दलों के मजूदर संगठनों के आह्वान पर करीब तीन लाख लोग अपना दुख दिल्ली की सड़कों पर बिछा कर चले जाते हैं और हमारा राष्ट्रीय मीडिया मुद्दे और असर की बात करने के बजाय इसे "रैली की वजह से सड़क जाम" के रूप में पेश करता है। क्या इसलिए कि तीन लाख की उस भीड़ में "सिविल सोसाइटी" को सुहाने वाले गोरे-चिट्टे, चिकने-चुपड़े, खाए-अघाए आलीशान कारों में आए चेहरे नहीं, बल्कि गांव-देहातों से आए वे मैले-कुचैले गरीब और मजदूर थे जिनकी थाली पर भी संकट आ चुका है?

"सिविल सोसाइटी" का रंग "पानी" होता है...!!!

तो पश्चिम बंगाल में देशी-विदेशी अमेरिकियों ने ममता-सरकार के लिए जमीन तैयार की, अब "सिविल सोसाइटी" ब्रांड बुद्धिजीवियों के लिए एक और मौका लगभग सामने खड़ा है कि वे मंत्रालयों से लेकर रेलवे हैरिटेज कमिटी-टाइप संस्थाओं में अपनी जगह बनाने के लिए उस जमीन पर ममता-सरकार को अपने लिए कालीन बिछाता नजर आएं। माओवादियों को अभी यह देखना बाकी है कि चिदंबरम मार्का "सिविल सोसाइटी" ब्रांड बुद्धिजीवी उनसे निपटने के लिए कौन-से रास्ते सुझाते हैं। वाम मोर्चा का रुख तो अब तक यह रहा कि माओवाद से राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर निपटने की जरूरत है। क्या चिदंबरम मार्का "सिविल सोसाइटी" ब्रांड बुद्धिजीवियों से लैस भावी-ख्वाबी ममता-सरकार सचमुच अपनी राजनीतिक कैदियो, यानी जेल में बंद माओवादियों को रिहा करने की घोषणा पर अमल करेगी? फिर जो अमेरिकी नमक उसने खाई है, उसका क्या होगा? इसके लिए उदाहरण ढ़ूंढ़ने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका नमकहलाली के लिए नोबेल पुरस्कार दिलवाता है और नमकहरामी करने वालों को बख्शता भी नहीं है! लेकिन "सिविल सोसाइटी" का रंग पानी होता है। सत्ता का रंग चाहे जो हो, वह अपने भीतर से वही रंग निकाल कर ओढ़ लेता है। सत्ता बुश या ओबामा की हो तब भी, और वाजपेयी या मनमोहन की हो तब भी...!!!

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