मृणाल वल्लरी
कुछ समय पहले अपने एक गीत की वजह से सिनेमा हॉलों में आने से पहले मशहूर हो चुकी एक फिल्म ‘तीसमार खां’ बड़ी धूम से आई, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर मुंह के बल गिरी। उस बाजारू धूम का धुआं पैदा करने में जिन दो खास पहलुओं की भूमिका रही, वे यह थीं कि फिल्म के रिलीज होने के पहले ही ‘शीला की जवानी...’ ने कथित तौर पर युवा दिलोदिमाग को अपने मायाजाल में कैद कर लिया था और दूसरे कि टीवी पर चलाए गए प्रचार में यह संवाद बड़े जोर-शोर से परोसा गया कि ‘किसी तवायफ की लुटती इज्जत को बचाना और तीसमार खां को पकड़ने की कोशिश करना- दोनों बेकार है।’ हैरानी तभी हुई थी कि एक महिला निर्देशक की फिल्म में इतना संवेदनहीन संवाद कैसे हो सकता है। जब टीवी के प्रोमो से वह संवाद हटा लिया गया था तो थोड़ी राहत महसूस हुई थी। लेकिन फिल्म में वह संवाद ज्यों का त्यों था, सिर्फ तवायफ शब्द पर एक ‘बीप’ की पट्टी चढ़ा-पढ़ा दी गई। सवाल है कि क्या सेंसर बोर्ड इतना भोला है कि उसने मान लिया कि ‘बीप’ चढ़ा देने भर से दर्शकों को वहां प्रयोग किए गए शब्द का पता नहीं चलेगा! ‘तीसमार खां’ किसकी इज्जत से इतनी घृणा से देख रहा है, एक आम दर्शक शायद इसलिए भी बड़ी आसानी से अंदाजा लगा लेता है, क्योंकि इसके इस्तेमाल का मकसद ही सामाजिक आग्रहों-दुराग्रहों और कुंठाओं का शोषण था।
इसके पहले प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ के इस संवाद पर भी सेंसर बोर्ड ने कैंची चलाई थी कि ‘विधवा सब लूट कर ले जाएगी।’ यह फिल्म की नायिका कैटरीना कैफ के लिए कहा गया था। ध्यान रखने की बात यह है कि कैटरीना की उस भूमिका को परोक्ष रूप से सोनिया गांधी से जोड़ा गया था। सेंसर बोर्ड को लगा कि इससे शायद सोनिया गांधी के सम्मान को चोट पहुंचेगा, और वह संवाद बदल दिया गया। लेकिन ‘तीसमार खां’ जिसकी इज्जत बचाने को ‘बेकार’ घोषित करता है, उसके इससे आहत होने या न होने से सचमुच कहां किसी को कोई फर्क पड़ता है? अभिमन्यु की तरह मां के पेट से ही ठगी, धोखे और जालसाजी के गुण सीख कर आया आज के समाज का ‘सुपर हीरो’ अपनी जिंदगी के कई सिद्धांतों में से इस एक को कंटीली मुस्कान के साथ परदे पर जब भी कहता है कि तवायफों की कोई इज्जत नहीं होती तो सिनेमा हॉल में बैठा दर्शक तालियों की गड़गड़ाहट से उसकी मर्दानगी की हौसला-अफजाई करता है।

हाल ही में रामगोपाल वर्मा की वाहियात कही जा सकने वाली फिल्म ‘रक्तचरित्र-1’ में एक पात्र एक संवाद में जब ‘नीची जाति’ बोलता है तो इसमें ‘नीची’ शब्द पर बीप की पट्टी चढ़ा दी गई और ‘जाति’ रहने दिया गया। लेकिन इसी फिल्म का खलनायक एक जगह मां की प्रसिद्ध गाली चिल्ला-चिल्ला कर दोहराता है और इससे सेंसर बोर्ड को कोई परेशानी नहीं होती। शायद इसलिए कि मां की गाली अब आपत्ति करने लायक नहीं रही। इसी गाली की आड़ ने देश के प्रिय क्रिकेटर हरभजन सिंह को बचा लिया था। जब आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी एंड्रयू साइमंड्स ने आरोप लगाया कि हरभजन ने उन्हें ‘मंकी’ कहा तो इसे नस्लभेदी गाली मानते हुए कड़ी कार्रवाई की तैयारी हुई। लेकिन हरभजन ने बड़ी मासूमियत से सफाई दे दी कि उन्होंने ‘मंकी’ नहीं ‘मां की’ कहा था। उनकी सफाई को स्वीकार करते हुए उन्हें बख्श दिया गया। भारत में उनकी मां ने खुशियां मनार्इं कि उनका बेटा नस्लभेदी गाली देने के आरोपों से मुक्त हो गया। शायद उनकी मां को इस गाली से आपत्ति नहीं हुई होगी, क्योंकि यह तो यहां के लोगों की जुबान पर आम है।
सिनेमा और टीवी वाले कहते हैं कि हम वही दिखाते और सुनाते हैं जो जनता चाहती है। क्या हम सचमुच वही देखना और सुनना चाहते हैं? हम सभ्यता के किस दौर में जी रहे हैं जहां खांसने और छींकने पर तो ‘सॉरी’ बोलते हैं, लेकिन वीभत्सतम गालियां सुनने-सुनाने के बाद भी हमें कोई पछतावा नहीं होता?
(14 फरवरी को जनसत्ता में दुनिया मेरे आगे स्तंभ में प्रकाशित)
3 comments:
जब 'तीस मार खान' के प्रमोशन में मैंने ये संवाद सुना था, तो मुझे बहुत ही ज्यादा बुरा लगा था, लेकिन इसके विरुद्ध कहीं कोई स्वर नहीं सुनाई दिया. हाँ, नो वन किल्ड जेसिका में रानी मुखर्जी द्वारा बोली गयी गालियों का बहुत विरोध हुआ था.
मैं ये मानती हूँ कि गाँव-जवार में गालियाँ वहाँ की संस्कृति का हिस्सा होती हैं. लेकिन यहाँ दिल्ली में तो कान्वेंट में पढ़े लड़के और लड़कियाँ भी धडल्ले से गाली बकते हैं. जो जितनी गंदी गाली दे उतना ही स्मार्ट कहलाता है. गालियाँ और देशों में भी दी जाती हैं, लेकिन हमारे यहाँ माँ-बहन को संकेतित गालियाँ ही अधिक प्रचलन में हैं, जो सीधे-सीधे औरतों का अपमान है. लेकिन वो कहते हैं ना कि कोई समस्या जब आदत बन जाए तो खतरनाक हो उठती है. लेकिन उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता. ये गालियाँ दिल्ली में हो रही बलात्कार की घटनाओं का सिद्धांत रूप उपस्थित करती हैं. पर इस पर कोई बहस नहीं होती.
बाज़ार की नब्ज़ पकड़ने वाले लोग समाज की इसी मानसिकता का फायदा उठाते हैं कि जो जितना बड़ा गालीबाज उतना ही बड़ा स्मार्ट. हमारे समाज में जहाँ यौन-सम्बन्धों, परिवार नियोजन और एड्स जैसी बातों पर चर्चा करने पर हाय-तौबा मच जाती है, वहीं अपनी यौन-कुंठा तृप्त करने के लिए गालियों का धड़ल्ले से प्रयोग होता है.
padhkar achha laga aisa hi kuch maine bhi likha hai jo ki NBT mein prakashit bhi huaa...padh kar achha laga ki do logon ki soch itna bhi mil sakti hai...
अरविन्द, मुक्ति और फौज़िया से घनघोर सहमत हूँ. अपनी FB वाल पर भी लगाया है. अरविन्द आपका ख़ास शुक्रिया इस बेहद्द ज़रूरी लेख के ज़रिये ध्यानाकर्षण करवाने का.
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