“अगर एक मर्द अपनी यौन भूख मिटाने के लिए कोई “रखैल ” या नौकरानी रखता है और इसके बदले उसकी आर्थिक कीमत चुकाता है, तो यह हमारी राय में विवाह की प्रकृति का कोई संबंध नहीं है। …और एक रात गुजारने या सप्ताहांत बिताने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा कानून, 2005 के तहत कोई भी सुरक्षा पाने का हक नहीं है। अगर वह इस कानून के तहत मिलने वाले ‘फायदे ‘ उठाना चाहती है तो उसे हमारे द्वारा उल्लेख किये गये शर्तों के हिसाब से सबूतों के साथ साबित करना होगा…”
-लिव-इन रिलेशनशिप के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में 21 अक्टूबर 2010 को मार्कंडेय काट्जू और टीएस ठाकुर की राय।
इस फैसले के एक दिन बाद उपमहाधिवक्ता इंदिरा जयसिंह किसी मामले की सुनवाई के दौरान जब अदालत में खड़ी हुईं तो न्यायाधीश मार्कंडेय काट्जू ने कहा – “कहिए, घरेलू हिंसा कानून की सर्जक, क्या कहना है…” यों, फैसले के बाद इंदिरा जयसिंह पर यह कटाक्ष ही यह बताने के लिए काफी है कि काट्जू ने मैदान मार लेने के बाद दंभ से झूमते किसी “विजेता” से अलग बर्ताव नहीं किया। लेकिन काट्जू शायद यह भूल गये थे कि जिस शख्स ने महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा कानून को जमीन पर उतारने में सबसे मुख्य भूमिका निभायी, वह उन्हें यों ही जाने देगी। उन्होंने न सिर्फ “रखैल” या “एक रात गुजारने” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने वाले दोनों जजों को आड़े हाथों लिया, बल्कि यह भी कह डाला कि (किसी भी मामले में) ऐसे जजों की बेंच के सामने कोई बात करने के बजाय मैं बाहर जाना पसंद करूंगी। यहां एक और अच्छी बात यह भी थी कि ऐसा कहते हुए दिखावे की शालीनता बरतने के बजाय उन्होंने अपने भीतर का गुस्सा छिपाना जरूरी नहीं समझा।
सलाम इंदिरा जयसिंह...
इस देश में अपने समाज के वंचित तबकों के लिए थोड़ी-सी भी संवेदना रखने वाले लोगों की ओर से इंदिरा जयसिंह को सलाम भेजा जाना चाहिए।
आगे बढ़ने से पहले सुविधा के लिए एक और प्रसंग ध्यान में रखने की जरूरत। अपने ताजा फैसले में ‘क्रांतिकारी’ प्रस्थापनाएं करने वाले ये वही न्यायाधीश मार्कंडेय काट्जू हैं, जिन्होंने अपने एक फैसले में यह कहा था कि ‘शैक्षिक संस्थाओं में दाढ़ी रखने की अनुमति देकर देश के ‘तालिबानीकरण’ की इजाजत नहीं दी जा सकती।’
धारणा यही बनायी जाती रही है कि इस देश की अदालतें “वीमेन फ्रेंडली” रही हैं। लेकिन यह दुनिया की महाशक्तियों में अपना नाम शुमार कराने की हसरत में जी रहे हमारे देश की इक्कीसवीं सदी का यथार्थ है, जिस देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला एकबारगी किसी खाप पंचायत के फैसले से अलग नहीं लगता है। मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो ताजा प्रस्थापनाएं दी हैं, वह कितनी आधुनिक हैं और कितनी या किस तरह की संवेदनाएं साथ लिये हैं, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि उसने यह फैसला सुनाते हुए शब्द भी ठीक वही इस्तेमाल किये, जो इस व्यवस्था के रग-रग में घुले हुए हैं। अब जजों के इस दंभ में “समाज” को “बचाने” की ठेकेदारी लिये उन लोगों की खुशी को भी शामिल कर सकते हैं, जिनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से घरेलू हिंसा कानून के दुरुपयोग पर लगाम लगेगा। क्या अब भी समाज को “बचाने” वाले इस महान फैसले के गुणसूत्रों की तलाश बाकी रह गयी है?
सदियों की “महान” परंपरा...
इंदिरा जयसिंह की आपत्ति के बाद मार्कंडेय काट्जू ने सफाई दी कि यह लफ्ज (रखैल) सदियों से प्रयोग किया जा रहा है और उन्होंने कोई नया काम नहीं किया है। इस राय के लिए काट्जू का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए कि इस तरह उन्होंने दरअसल न्यायिक व्यवस्था में फैले उन जड़ों की झलक भी स्वीकृति के रूप में पहली बार दिखाई है, जो “सदियों से चली आ रही (महान) व्यवस्था” को ही अपना आदर्श मानता है। इसी आदर्श की दुनिया के हिसाब से तो अयोध्या में रामलला को “बाबरी मस्जिद के बीच वाले गुंबद के ठीक नीचे पैदा हुए थे!”
अगर इस अदालत की मानें तो अव्वल तो यही कि “रखैल” या “नौकरानी” से अपनी यौन भूख मिटाइए, उसके बदले उसकी आर्थिक कीमत दीजिए और सारी जिम्मेदारियों से मुक्त। अब बताइए कि इस परिभाषा में “सामाजिक” और “पारिवारिक” जीवन गुजारने वाली कौन-सी महिला नहीं आएगी? इसके अलावा हरियाणा और पंजाब के इलाकों में भ्रूण हत्या और कई दूसरे कारणों के चलते घटती औरतों की तादाद के कारण झारखंड या उड़ीसा से खरीद कर लायी जाने वाली उन गरीब औरतों के बारे में सोचिए, जिन्हें सिर्फ सेक्स के लिए खरीद कर लाया जाता है और जिन्हें बदले में सिर्फ पेट भरने के लिए खाना दिया जाता है। उनकी पीड़ा का अंदाजा लगा सकें तो लगाइए कि वे कई-कई मर्दों की भूख मिटाती वे औरतें अपनी पीड़ा भी किसी से इसलिए बयान नहीं कर पातीं क्योंकि वे अपनी भाषा के अलावा कोई भाषा बोलना (और समझना भी) नहीं जानतीं।
माननीय न्यायाधीश मार्कंडेय काट्जू और टीएस ठाकुर, आपकी परिभाषा में ये औरतें कहां खड़ी हैं…?
रात गुजारने वाली औरत...!!!
बहरहाल, बहुत दिन नहीं बीते हैं, जब जगनणना संबंधी आंकड़े इकट्ठा करने के लिए प्रयोग में आने वाले फॉर्म में गैर-उत्पादक श्रेणी में घरेलू औरतों को वेश्याओं के समक्ष रखे जाने पर बवाल खड़ा हो गया था। तो आर्थिक भरण-पोषण के बदले घर में बैठी एक “गैर-उत्पादक” घरेलू औरत का क्या दर्जा होगा? और बराबर की “सेवा” करने वाली एक औरत क्या सिर्फ इसलिए सारे अधिकारों से वंचित रहेगी, क्योंकि उसके पास “सामाजिक विवाह प्रमाण पत्र” नहीं है?
सवाल है कि भारतीय समाज की महिलाओं का कितना हिस्सा पश्चिमी समाजों की महिलाओं की बराबरी करने को तैयार खड़ा है और कितने मर्द किसी महिला के साथ “रात गुजारने” को ही अपनी मर्दानगी की परीक्षा, प्रमाण-पत्र और तमगा नहीं मानते हैं? इस मर्द समाज में “रखैल” रखने वालों को समाज में कौन-सी जगह हासिल है और उसे किस नजरिये से देखा जाता है और कितनी महिलाओं को सिर्फ इस बात के लिए हत्या तक कर देने लायक समझा जाता है कि अपनी किसी जरूरत के लिए उन्होंने किसी मर्द से जरा-सी बात कर ली थी? इंदिरा जयसिंह के सवाल के साथ देखें तो अगर एक औरत कहे कि उसने किसी मर्द को “रखा हुआ है” तो यही समाज क्या उसे उसी नजरिये से देखेगा, जिसके साथ वह “रखैल” रखने वाले एक मर्द को देखता है? भारतीय समाज की यह “मर्दाना ताकत” अक्सर औरत को अपमानित करने के लिए “यार” रखने जैसे जुमले का इस्तेमाल करती है। जबकि एक मर्द के इसी बर्ताव को वह उसकी “उपलब्धि” और “सत्ता” मानता है।
यों, हमारा समाज भूलने के मामले में बहुत “उदार” है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि लोग अभी भूले नहीं होंगे कि एक विश्वविद्यालय का नेतृत्व संभालता और पीढ़ियों का मनोविज्ञान तैयार करता हुआ एक पूर्व पुलिस अधिकारी उपकुलपति एक तरह से घर की दहलीज के बाहर अपने पांव पर चलती औरतों के बारे में राय जाहिर कर रहा था कि उनमें “छिनाल” बनने की होड़ लगी है। इसी आदमी को एक जगह स्त्री को कामोन्माद से छटपटाती हुई कुतिया कहने में जरा भी गुरेज नहीं हुआ।
यह छिनाल और निंफोमेनियाक...!!!
सवाल है कि स्त्री के लिए “छिनाल”, “निंफोमेनियाक कुतिया” या “रखैल” जैसे शब्द कहां से निकलते हैं? इस मानसिक ढांचे के साथ “सत्ताओं” की कुर्सी पर बैठे लोगों के किस तरह के न्याय की उम्मीद की जानी चाहिए? एक तरफ अपने दम पर अपनी अस्मिता अरजती औरत को कोई “छिनाल” कह देगा, तो दूसरी ओर किसी “सामाजिक प्रमाण-पत्र” की मेहरबानी का रास्ता चुनने के बजाय कोई स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं, तो उनमें स्त्री की तुलना तो आप “रखैल” से कर देंगे, लेकिन मर्द आपकी नजर में पहले की तरह पवित्र, गौरवान्वित और साथ-साथ “पीड़ित” भी रहेगा! इसके बावजूद कि अपने पारंपरिक ढांचे में जीते किसी भी पुरुष के लिए स्त्री की हैसियत आज भी “ताड़न की अधिकारी” से ज्यादा की नहीं रही है और इसे वह अपनी “सामाजिक प्रमाण-पत्र” प्राप्त पत्नी पर लागू करता है, (अतिरिक्त) यौन भूख मिटाने के लिए रखी गयी “रखैल” या “नौकरानी” पर लागू करता है और लिव-इन रिलेशन में अपने साथ रहने वाली स्त्री को भी वह इससे अलग कोई स्त्री नहीं मानता है।
लिव-इन रिलेशन के रूप में जो संबंध पश्चिमी समाजों में द्विपक्षीय तौर पर एक ज्यादा सशक्तीकृत आकार ले चुका है, उसमें भी हमारे यहां स्त्री तो विद्रोह लेकर आती है, लेकिन मर्द पितृसत्ता और पुरुष मनोविज्ञान के तंतुओं के साथ जीना चाहता है। घर में एक पालक की मानसिकता में जीने वाला पुरुष इस संबंध को अपने “उन्मुक्त” संबंध निबाहने का भी अधिकार मानता है, मगर एक स्तर पर विद्रोह को जीती स्त्री को यहां किसी भी तरह के विरोध का हक नहीं होता। उसके “इलाज” के लिए वे सब तरीके अपनाये जाते हैं, जो “सामाजिक प्रमाण-पत्र” प्राप्त कोई भी पति अपनी पत्नी के मामले में अपनाता है। तो लिव-इन संबंध में जाने के बाद भी अगर एक औरत अघोषित रूप से पत्नी से ज्यादा का दर्जा हासिल नहीं कर पाती, तो उसे उसके स्वाभाविक अधिकारों से वंचित करने लायक कैसे मान लिया गया।
ये “PUNCH” परमेश्वर...
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के किन्हीं दूसरे जजों की बेंच में यह मामला जाता तो भी शायद फैसला “कानून के दायरे” में ही आता। हां, संभव है शब्दों का कुछ फेर-बदल होता। यानी अगर हम इस तरह के फैसलों पर खुद को सवाल करने के लायक संवेदनशील हो गया मानते हैं तो इसके लिए केवल परमआदरणीय जजों को ही कसूरवार नहीं ठहरा सकते। हमारे देश की पवित्र संसद में बैठ कर भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने का सपना दिखाने वाले रहनुमाओं की नजर में अगर यह सब कुछ जायज है, तो इक्कसवीं सदी का सफर करते हुए भी हम तथ्यों-तर्कों और मानवीय अधिकारों की बात नहीं कर सकते।
कई बार हम भूल जाते हैं कि हमारे सामने पंच की कुर्सी पर जो बैठा है, वह प्रेमचंद का पंच-परमेश्वर नहीं है, वह दरअसल “PUNCH” परमेश्वर है, जिनके फैसलों से कई बार हमारा मुंह टूट जाता है।
(२८ अक्टूबर, २०१० को मोहल्लालाइव पर)
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