Wednesday 26 January, 2011

गोया तालिबानी होना कोई आलू का अचार होना है…

क्या स्त्री या दलित अस्मिता को ख़ारिज करने या अपमानित करने को मुहम्मद पैगंबर या कुरान के खिलाफ कही गयी किसी बात के आईने में देखा जाना चाहिए? क्या इस अपमान पर दुख या विरोध जताना शुद्ध तालिबानी मानसिकता है और बौद्धिक लोकतंत्र के बरक्स धार्मिक फासीवाद है? जनचेतना का प्रगतिशील कथा मासिक ‘हंस’ के संपादक का मानना है कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है कि उन्हें कुलपति पद से हटाने की मांग की जाए और विभूति राय को पद से हटाने या घर से निकलवाने या ‘मौत की सजा’ सुना देने वालों का समूह दरअसल क्षुब्ध मानसिकता से पीड़ित लोगों की भीड़ है। वे मानते हैं कि ‘इस भीड़ के बरक्स यह साहित्य और विचारों की दुनिया है, हड़ताली मजदूरों की गेट-मीटिंग नहीं, जहां सिर्फ ‘हाय-हाय’ ही मची हो।’

इसी सुर में आगे बढ़ते हुए वे याद दिलाते हैं कि ‘जब धर्मवीर द्वारा महिलाओं के लिए अपशब्द लिखे गये तो एक गोष्ठी में दलित लेखिकाओं ने उन पर चप्पलें फेंकीं, मैं तब भी इसका विरोधी था।’ राजेंद्र जी स्त्रियों के बारे में आपत्तिजनक विचार जाहिर करने वालों को ‘बख्शना नहीं चाहते।’ लेकिन इस संबंध में विचार करते हुए वे नहीं बता पाते कि इनके विरोध का तरीका क्या हो या सदियों से दमन-शोषण की संस्कृति में निर्मित व्यक्ति जब अपनी अस्मिता और व्यवस्था की साजिशों की पहचान की ओर बढ़ने लगता है, तो उसके भीतर व्यवस्था के खिलाफ पैदा हुआ गुस्सा अचानक लोकतंत्र के वाहक के रूप में कैसे पैदा हो।

हम जिस सामाजिक व्यवस्था में जी-मर रहे हैं, उसमें लोकतंत्र की कौन-सी संस्कृति रही है; लोकतंत्र अस्मिता की पहचान, समानता की मांग या लड़ाई और उसकी स्थापना की एक प्रक्रिया से निकल कर आएगा; या फिर हम इस वहम में जी रहे हैं कि एक सामंती संस्कृति के गर्भ से लोकतंत्र अचानक पैदा हो जाएगा!

बहरहाल, ‘लोकतंत्र’ की छौंक से लबरेज ये विचार राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ के सितंबर अंक के संपादकीय में जाहिर किये हैं। इसे पढ़ने के बाद अव्वल तो किसी को पहला सवाल यही उठाना चाहिए कि राजेंद्र यादव के ‘बौद्धिक लोकतंत्र’ में वे कौन-से मंत्र घुस गये हैं, जिसने लोक का लोप कर दिया है और बुद्धि को इतना भ्रष्ट कि किसी अस्मिता के अपमान का विरोध करने वालों को वे तालिबानी घोषित कर रहे हैं। क्या ये वही राजेंद्र यादव हैं, जो अब भी अक्सर दावा करते फिरते हैं कि उन्होंने ‘हंस’ की मार्फत दलित और स्त्री अस्मिता के सवालों को ‘मुख्यधारा’ के साहित्य के बरक्स खड़ा किया?

अगर राजेंद्र यादव मानते हैं कि स्त्री और दलित इस समाज के वंचित और शोषित तबके रहे हैं तो शोषण के वे सूत्र क्या रहे हैं और विचार से लेकर भाषा और व्यवहार तक में शोषण और वंचना का यह सामाजिक मनोविज्ञान किस-किस भेस में छिपा अपना काम करता रहता है? क्या महिलाओं का मामला सचमुच उतना ‘सैक्रोसेंट’ (परम पावन) नहीं है कि कोई जब चाहे उनके ‘सम्मान’ में उन्हें ‘निंफोमेनियाक कुतिया’ या ‘छिनाल’ कह दे? (राजेंद्र यादव ने किस हैसियत से और किन उदाहरणों, अनुभवों और आधारों पर यह घोषित किया कि महिलाओं का मामला इतना सैक्रोसेंट (परम पावन) नहीं है कि उनके सम्मान में कुछ भी बोलने की सजा दोषी का सिर उतारना हो?) क्या इसके बाद अब वे यह कहना चाहेंगे कि अगर कोई ‘चोर-चमार’ या ‘भंगी कहीं के’ जैसा (आपराधिक) जुमला उछालता है तो इसके बदले उसकी आरती उतारी जानी चाहिए और इसके लिए कोई हाय-तौबा मचाने की जरूरत नहीं? इसका विरोध करना तालिबानी होना है। गोया तालिबानी होना कोई आलू का अचार होना है, जिसे किसी भी मौसम के भोज के लिए तत्काल तैयार कर लिया जाए!

आगे बढ़ने से पहले दो उदाहरणों का एक क्षेपक :

कथादेश के अप्रैल 2003 के अंक में ‘गैर-दलित की अस्मिता क्या है’ शीर्षक से छपे अपने लेख में चंद्रभान प्रसाद ने एक घटना का जिक्र इस प्रकार किया था -

(1) “श्री राजेंद्र यादव जी ने मेरे निवास पर आयोजित एक पार्टी में शरीक होने में अपनी असमर्थता प्रकट की। अवसर था अंग्रेजी दैनिक ‘द पायनियर’ में मेरे पहले साप्ताहिक स्तंभ ‘दलित डायरी’ की प्रथम वर्षगांठ का। … ‘पायनियर’ अखबार के संपादक चंदन मित्रा हैं जिन्होंने भारत में पहली बार किसी दलित को साप्ताहिक स्तंभ दिया। मेरे लिए यह स्वाभाविक ही था कि मैं अतिथि सूची में चंदन मित्रा का नाम सबसे ऊपर रखता। पर श्री राजेंद्र यादव जी को चंदन मित्रा की उपस्थिति से ऐतराज था, क्योंकि उनका चंदन से वैचारिक विरोध है। उक्त पार्टी में मैंने विविध वैचारिक प्रतिबद्धता वाले मित्रों एवं शुभचिंतकों को आंमत्रित किया था, पर किसी अन्य ने चंदन मित्रा के नाम पर कोई आपत्ति नहीं की।’

(2) राजकमल प्रकाशन की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम ‘लेखक से मिलिए’ में जब एक बार निर्मल वर्मा बुलाये गये तो राजेंद्र यादव ने अपने दायरे में आने वाले लगभग सभी लोगों से गुहार लगायी थी कि वे वहां न जाएं।

और यही राजेंद्र यादव बौद्धिक लोकतंत्र की दुहाई देंगे कि विश्वरंजन के साथ मंच शेयर करने में क्या हर्ज है और विभूति राय को हटाने की मांग करने वालों को क्षुब्ध मानसिकता से लैस भीड़ कहते हुए उन्माद में यहां तक कह जाएंगे कि यह साहित्य और विचारों की दुनिया है, हड़ताली मजदूरों की गेट-मीटिंग नहीं, जहां सिर्फ ‘हाय-हाय’ मची हो। जरा टोह लेना हो तो लीजिए कि स्त्रियों और दलितों को अपमानित करने वाले विभूति राय के रंग में रंगे हड़ताली मजदूरों के आंदोलन को सिर्फ ‘हाय-हाय’ घोषित करने वाले राजेंद्र यादव के भीतर मजदूरों के आंदोलन को लेकर किस तरह के विचार हैं और ये वास्तव में लोकतंत्र से कितना प्रेम करते हैं।

इसके पहले दिल्ली में विभूति-कालिया के विरोध में आयोजित एक सभा में विभूति राय को उनके पद से हटाने की मांग का विरोध वे यह कहते हुए कर चुके हैं कि मैं किसी के ‘पेट पर लात मारने’ का विरोध करता हूं। ‘पेट पर लात मारने’ जैसे मुहावरे का नया अर्थ शायद लाखों की कमाई करने वाले सामाजिक-आर्थिक रूप से बेईमान और भ्रष्ट लोगों को उनके पदों से हटाना होता है। इस देश के उन तीन-चौथाई लोगों को रोजी-रोटी के अवसरों से वंचित किये जाने से इस मुहावरे को मत जोड़िए।

‘हंस’ के सालाना जलसे में अरुंधति राय के साथ विश्वरंजन को भी बुलाने के सवाल से उपजे विवाद के संदर्भ में जब युवाओं का एक समूह राजेंद्र यादव से मिला था, तो उन्होंने कहा था कि विश्वरंजन को बुलाने की बात तय नहीं हुई थी, लेकिन एक लोकतांत्रिक तकाजे के रूप में उनके नाम पर विचार जरूर हुआ था। फिर, राजेंद्र यादव के मुताबिक, ‘ब्लॉगों पर मचे वितंडे’ के बाद अरुंधति ने आने से मना किया और उसके बाद विश्वरंजन का नाम भी ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’ के ‘विचारकों’ की सूची में आने से पहले ही गुम हो गया।

बहरहाल, राजेंद्र यादव कोई मामूली कलाकार नहीं हैं। किसी को पता भी नहीं चला और मंच पर विश्वरंजन के ‘स्टेपनी’ के तौर पर उनके अक्स विभूति राय प्रकट हुए। उन्होंने वह सब कुछ कहा, जो विश्वरंजन का ‘इलाका’ था। यानी सलवा जुडूम का इलाका। विभूति राय इससे भी आगे गये और कहा कि माओवादी हिंसा के अलावा कश्मीर में ‘इस्लामी’ आतंकवाद और भारतीय राज्य के बीच मुकाबला है, उसके बरक्स मैं हमेशा राज्य की हिंसा का समर्थन करूंगा। और कि राज्य की हिंसा से हम मुक्त हो सकते हैं, लेकिन इस्लामी आतंकवाद से नहीं।

क्षेपक : चंदन मित्रा से वैचारिक विरोध की वजह से चंद्रभान प्रसाद की निजी पार्टी में शामिल होने से इनकार करने और ‘लेखक से मिलिए’ में निर्मल वर्मा से मिलने जाने के लिए लोगों को मना करने वाले राजेंद्र यादव क्या विश्वरंजन या विभूति नारायण राय से वैचारिक सहमति रखते हैं? और अभी हाल में अपने जन्मदिन के उपलक्ष्य में आयोजित पार्टी में आमंत्रित या आये सभी अतिथियों के साथ उनकी पक्की ‘वैचारिक’ सहमति बनी हुई है? जितने मंचों पर वे जाते हैं, क्या वहां मौजूद सभी लोगों से उनके ‘वैचारिक’ गठबंधन हैं?

राजेंद्र यादव जैसे कई ‘साहित्य प्रेमी’ कहते हैं कि चूंकि विभूति राय ने ‘शहर में कर्फ्यू’ जैसा ‘सांप्रदायिकता विरोधी’ उपन्यास लिखने के अलावा बारह साल ‘वर्तमान साहित्य’ पत्रिका का संपादन किया है इसलिए उन्हें महिला लेखिकाओं (पता नहीं, पुरुष लेखिका कैसे होते हैं) के लिए आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग नहीं करना ‘चाहिए था।’ (और अगर कर ही दिया तो कौन-सी आफत आ गयी, महिलाओं का मामला उतना ‘सैक्रोसेंट’ यानी परम पावन नहीं है…)

साहित्य की उस त्रासदी का अंदाजा लगाइए कि महज एकाध किताब के लेखक के रूप में अपना नाम छपवा लेने भर के बाद किसी व्यक्ति के तमाम धतकर्मों को नजरअंदाज किये जाने लायक मान लिया जाता है। हिंदी के विकास-प्रचार-प्रसार के मकसद से महात्मा गांधी के नाम पर बनाये गये विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में पिछले एक-दो सालों में विभूति राय के जिन कारनामों की खबरें आयी हैं, उसके बाद व्यक्ति किस मुंह से उन्हें कुलपति बनाये रखने की वकालत करता है या किन नैतिक मानदंडों के तहत विभूति नारायण की फेंकी रोटी पर झपट कर टूट पड़ता है?

‘नया ज्ञानोदय’ में छपे साक्षात्कार में विभूति राय ने जो कहा और रवींद्र कालिया ने जिसे बेबाक कहा, उसके बाद अगर लोग उसका विरोध कर रहे हैं और इन दोनों की बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं, तो इसमें राजेंद्र यादव जैसे लोगों को क्या आपत्तिजनक लग रहा है? क्या यह खुश होने या संतोष करने की बात नहीं है कि जिन शब्दों को हमारे समाज में ‘आम चलन’ बताया जा रहा है, उनके प्रयोग पर एक बड़े वर्ग में बेहद गुस्सा पैदा हुआ? क्या इसे अपने नागरिक समाज में प्रयोग होने वाले उन ‘आम’ शब्दों के प्रति लोगों के सचेत होने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, जो दलितों-वंचितों या स्त्रियों को अपमानित करने के लिए एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किये जाते रहे हैं? क्या बहुत सारे लोग आज भी इन शब्दों को ‘आम चलन’ वाला बता कर इन्हें नजरअंदाज करने और इस तरह सामाजिक यथास्थितिवाद की वकालत नहीं कर रहे हैं?

विभूति राय या रवींद्र कालिया को हटाने की मांग इसलिए जायज है और जरूरी है क्योंकि ये दोनों किसी न किसी रूप में एक संस्था का नेतृत्व करते हैं। दोनों ही अपने-अपने दायरे में एक संस्कृति निर्माण या सांस्कृतिक विकास को अपने चाल-चलन से प्रभावित कर सकने में सक्षम हैं। जब से विभूति राय वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति बने हैं, तभी से परिसर और परिसर के बाहर उनके चाल-चलन को देखा जा सकता है। इसी तरह जब से रवींद्र कालिया ज्ञानपीठ के अघोषित कर्ता-धर्ता बने हैं, नया ज्ञानोदय से लेकर उसके प्रकाशन की स्थिति देखी जा सकती है।

एक ऐसे व्यक्ति को धर्मनिरपेक्ष या प्रगतिशील का दर्जा कैसे दिया जा सकता है जो महज इस बात के लिए एक प्रोफेसर के खिलाफ नोटिस भेज देता है क्योंकि उसने आंबेडकर दिवस की रैली में हिस्सा लिया। क्या इस देश में कभी गांधी, नेहरु या तमाम दूसरे नेताओं के मृत्यु या जन्म दिवसों के मौके पर आयोजित सम्मान-समारोहों में भाग लेने के लिए किसी को भी नोटिस जारी किया गया है। इसी तरह, परिसर में दलित छात्रों के साथ नामांकन से लेकर पढ़ाई या छात्रावास तक में भीषण भेदभाव करने वाला यह व्यक्ति ‘नया ज्ञानोदय’ में लड़कियों को लड़कों के लिए एक ट्रॉफी बताता है, और स्त्री सशक्तीकरण पर बात करते-करते तमाम महिला लेखकों को ‘निंफोमेनियाक कुतिया’ और ‘छिनाल’ कह देता है। क्या यह अपनी कथित उपलब्धियों से पैदा हुई प्रसिद्धि की भूख से मरते आदमी की हताशा या छटपटाहट है?

स्त्रियों को जिन विशेषणों के साथ विभूति नारायण राय ने याद किया, क्या किसी को लगता है कि ऐसा बोलने वाला आदमी कहीं से इस लायक है कि उसे बहुत सारे बच्चों का नेतृत्व करने के लिए छोड़ दिया जाए? टीवी पर बैठ कर राय ‘छिनाल’ शब्द के मूल और अर्थ की व्याख्या कर रहे थे। पूछने वाले ने उनसे यह नहीं पूछा कि वे जो भी अर्थ बता रहे थे, क्या वे मानते हैं कि लेखिकाएं सचमुच खुद को वही साबित करने की होड़ में लगी हैं? इसके अलावा जब से विवाद शुरू हुआ है, ‘छिनाल’ शब्द के हल्ले में लोग यह भूल गये कि इस व्यक्ति ने स्त्रियों की तुलना ‘निंफोमेनियाक कुतिया’ से करके क्या-क्या बताने की कोशिश की है। इस शब्द का हिंदी रूपांतरण है कामोन्माद से छटपटाती हुई कुतिया। गांवों-मुहल्लों में ‘निंफोमेनियाक कुतिया’ शब्द का जो रूपांतरण होगा, वह आप न लिख सकते हैं, न बोल सकते हैं, अगर आदमी के रूप में थोड़ा भी विकास हो गया हो तो।

लेकिन जो व्यक्ति अपने मानसिक-वैचारिक ढांचे में मूल रूप से सामंती, जातिवादी और स्त्री विरोधी है, उससे आप उम्मीद भी क्या करेंगे! उत्तर-पूर्व की समस्या के संदर्भ में इस व्यक्ति ने एक जगह इस बात का ब्योरा देते हुए कहा था कि आपातकाल के दौरान उनके एक मित्र ने बाकायदा यह सलाह दी कि पंजाब के सरदारों को उत्तर-पूर्व में ले जाकर बसा देना चाहिए। वे इतने ‘बास्टर्ड’ पैदा करेंगे कि समस्या अपने-आप खत्म हो जाएगी। विभूति राय के मुताबिक ‘यह एक बहुत अच्छा उपाय’ था। तो आज जो लोग कुछ स्त्रियों या एक आम स्त्री को ‘निंफोमेनियाक कुतिया’ या ‘छिनाल’ के रूप में देखे जाने को विभूति राय की कोई पहली ‘गलती’ मान रहे होंगे, उनके लिए यह शायद सूचना होगी या वे जान-बूझ कर इसे भी नजरअंदाज कर रहे होंगे कि उत्तर-पूर्व की समस्या के बारे में व्यक्त ये महान विभूति-विचार करीब साढ़े तीन दशक पहले के हैं।

इससे आगे बढ़ते हैं और उनकी दूसरी ‘खासियतों’ की भी थोड़ी चर्चा करते हैं। पिछले डेढ़-दो सालों में विभूति राय ने विश्वविद्यालय में अपने नाम इतनी ‘उपलब्धियां’ लिखवा ली हैं कि एक बार को संदेह हो जाता है कि ‘शहर में कर्फ्यू’ से एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘ईमानदार’ के रूप में प्रचारित यह शख्सियत अपने मूल रूप में क्या है। ‘शहर में कर्फ्यू’ से शुरू वह सफर किन रास्तों से होकर यहां तक पहुंचा है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित आतंकवाद की अमेरिकी परिभाषा उसके लिए भी अनुकूल है और वह आतंकवाद का जिक्र करते समय ‘इस्लामी आतंकवाद’ जैसे शब्दों का प्रयोग जोर देकर करता है? ‘इस्लामी आतंकवाद’ या माओवाद से उसके सरोकार किस रूप में जुड़े हैं कि इनके बरक्स वह राज्य की हिंसा को जायज ठहराता है? महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय के रूप में क्या इस व्यक्ति को इस बात का भी ठेका दिया गया है कि इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी या कोई शिक्षक किसी दूसरे नेता, खासकर आंबेडकर की पुण्यतिथि पर निकलने वाली रैली में हिस्सा न लें। और लेगा तो उसके खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया जाएगा?

आंबेडकर की पुण्यतिथि पर निकली रैली में शामिल होने के एवज में प्रोफेसर कारुण्यकारा को कारण बताओ नोटिस [नोटिस के एवज में कारुण्‍यकारा का जवाब] जारी किया गया, दाखिले के वक्त दलित समुदाय से जुड़े छात्रों के साथ भयानक भेदभाव किया गया और विरोध प्रदर्शनों की लगभग खिल्ली उड़ायी गयी, नियुक्तियों में भयानक जातिवाद और भ्रष्टाचार के आरोप हैं और हाल ही में परिसर में बनाये गये छात्रावास में जब बिजली-पानी की दिक्कत को लेकर विद्यार्थियों ने अपनी कुछ मांगों के साथ हल्का प्रदर्शन किया तो इस ‘प्रगतिशील’ और ‘साहित्यकार’ कुलपति ने अपने मूल रूप में लौटते हुए विद्यार्थियों को न केवल मां-बहन की गालियां दीं, बल्कि लाठी चार्ज भी करवा दिया। और अपने इसी वैचारिक-सांस्कारिक बनावट से उपजे व्यवहारों के चलते सवाल उठने और इससे उपजे छवि के संकट से बचने की जद्दोजहद में हिंदी के कुछ जाने-माने बुद्धिजीवियों को जगह देकर उपकृत किया।

सवाल है कि एक समूची सामंती मानसिकता और व्यवहार से लैस व्यक्ति को किसी विश्वविद्यालय का नेतृत्व संभालने लायक क्यों समझा जाना चाहिए? अगर कुछ लोग केवल साहित्य की दुनिया में घुसपैठ होने के कारण विभूति राय की बातों को नजरअंदाज करने या बख्श देने के लिए कह रहे हैं तो इंतजार कीजिए कि निठारी का ‘हीरो’ मोहिंदर सिंह पंधेर या मिर्चपुर में बाल्मीकियों की बस्ती में आग लगाने और बारहवीं में पढ़ने वाली सुमन को जिंदा जला देने वाले अपने अनुभवों पर आधारित कोई उपन्यास अपने नाम से लेकर साहित्य समाज से उसे स्वीकार करने की मांग करे। नरेंद्र मोदी के संरक्षक अटल बिहारी वाजपेयी एक कवि के रूप में माला पहनाने के लिए तो इस साहित्य-समाज के सामने खड़े हैं ही। बेफिक्र रहिए, राजेंद्र यादव के लोकतंत्र में इन सबका भी स्वागत है।

अगर विभूति नारायण राय या रवींद्र कालिया जैसे लोगों को उनके दायित्वों से मुक्त करने की मांग करना राजेंद्र जी हिसाब से ‘बौद्धिक लोकतंत्र’ के बरक्स ‘धार्मिक फासिज्म’ है और तालिबानी होना है तो राजेंद्र जी ही बताएं कि इस तरह की मांगों के समर्थन में खड़े होने वालों के सीधे तालिबानी होने का फतवा जारी करना क्या है?

दूसरों को तालिबान-तालिबान घोषित करते हुए कब कोई किसी तालिबानी कबीले का फतवा जारी करने वाला महंथ बन जाता है, यह शायद उसे भी पता नहीं चलता। साहित्य और बौद्धिकों की दुनिया ने राजेंद्र जी को एक तरह की सत्ता सौंपी है, या वे कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी काबिलियत से उस पर कब्जा किया है। लेकिन क्या यह अंतिम हकीकत है कि सत्ता सबको भ्रष्ट बनाती है? दरअसल, जिन लोगों ने ‘लोकतंत्र के तकाजे’ के नाम पर हर तरह की तानाशाही का बचाव और किसी भी विरोध को ‘तालिबानी’ कहने को अपनी जुबान की शोभा बना ली है, वे या तो इन शब्दों को लेकर एक मायाजाल रच रहे हैं, या फिर इनके सामान्य अर्थ तक भी उनका पहुंचना अभी बाकी है।
(६ अक्टूबर, २०१० को मोहल्लालाइव पर)

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