Monday 26 January, 2009

स्री विमर्श बरास्ते सविता भाभी डॉट कॉम...!

बात कहां तक पहुंचेगी, मुझे नहीं मालूम। लेकिन फिलहाल निवेदन है कि मोहल्ले पर शुरू हुआ "सविता भाभी डॉट कॉम" मार्का स्त्री विमर्श देखिए-सुनिए, गुनिए और अपना ही सिर धुनिए...।

दिन में घुसते ही बड़े संघर्ष के बाद इस कथित विमर्श के पार उतरा और रात में दूरदर्शन (शनिवार को) पर एक देखी हुई फिल्म "अस्तित्व" देखा। उसी समय दिन का विमर्श याद आया और वासुदेव भट्टाचार्य की फिल्म "आस्था" में एक प्रोफेसर दंपति की कहानी भी याद आई। अफसोस कि दोनों फिल्मों की नायिकाओं को किसी "सीन" में सविता भाभी टाईप का कोई डॉट कॉम देखते हुए नहीं दिखाया गया। अव्वल तो शायद उस वक्त "सविता भाभी..." पैदा नहीं हुआ था (पता नहीं, तब इस तरह के दूसरे डॉट कॉम थे या नहीं) और दूसरे कि अगर कोई और "एक्साइटिंग साइट" का सहारा ले लिया जाता तो इन दोनों फिल्मों की नायिकाओं को अपने "अस्तित्व" के लिए उतना जद्दोजहद करने की जरूरत ही कहां पड़ती। फिर कहानी भी नहीं बढ़ती। सॉरी, फिर कहानी तो अइसा बढ़ती कि "सविता भाभी..." की तरह फिल्मों की धारावाहिक ही चलाना पड़ता।

अब आगे बढ़ते हैं। (बहुत ज्यादा बढ़ने की न तो इश्कोप है और न इर्रादा- इसलिए धीरज को पकड़े रहिएगा। नही त बरॉड माइंडेड लोगों में आपका गिनती नहीं होगा। (भाषा में लिंग की भयानक गड़बड़ियां है न!) कोई बात नहीं। बात कहने का कोशिश करता हूं)

"सविता भाभी..." पर एक "लड़की" के कमेंट के बहाने स्त्री विमर्श के व्याख्याकार फरमा रहे हैं कि "तमाम की तरह की मुक्ति और बदलावों की बात कर लेने के बाद कोई स्त्री सेक्स पर बात करती है।" लेखाक (गलती से ले के बाद एक ठो (बिहारियों को किसी संख्या के बाद "ठो" कहने की आदत होती है) आ का डंडा लग गया है। माफ किजिएगा, अब कोन पीछे जेके डी-लिट करे। (लगता है डिलीट में भी मात्रा गड़बड़ा गया। कोई बात नहीं। बात है तो आगे बढ़ेगी।) महोदय "स्त्री विमर्श" की बात को "तमाम तरह की मुक्ति" में शामिल नहीं करते। खैर! करते हैं बदलाव की बात।

बदलाव के किन-किन चरणों को पार कर एक स्त्री "सविता भाभी..." पर पहुंचती है? बदलाव और मुक्ति की आपकी अवधारणा क्या है? एक स्त्री और पुरुष के दिमागी ढांचे का हमारे इस सामाजिक ढांचे से क्या कोई ताल्लुक है? इस सामाजिक ढांचे का सत्ता-सूत्र किनकी उंगलियों से जुड़ा और संचालित होता है? और दूसरे बहुत सारे सवालों को छोड़ कर एक आखिरी सवाल कि इस पूरे ढांचे में वे कौन-कौन से बदलाव हैं, जिन्हें पार कर एक स्त्री खुल कर सेक्स के स्तर पर बात करना चाहती है?

माफ करिएगा दोस्तों! इस आखिरी सवाल के बाद मैं कई और सवालों से जूझने लगता हूं। मसलन, सबसे आधुनिक दिखते हुए (और जाहिर है, यह आधुनिकता कपड़ों और फैशन के स्तर पर ही होगी) जब हम सड़क पर अपना गुरूर बिखेर रहे होते हैं, क्या हम उस वक्त अपने भीतर की हिंदू-मुस्लिम या किसी और मजहब या फिर ब्राह्मण या चमार की चेतना से मुक्त हो चुके होते हैं? लो-वेस्ट जींस या फंकी टाईप आधुनिकता ओढ़े हम अपने अस्तित्व को बाजार के गटर में गिरवी रख चुके होते हैं और गुमान में फूले नहीं समाते कि हम आधुनिक हो गए! डॉक्टरी, इंजीनियरी, पीएचडी, कलक्टरी या ऐसी तमाम पढ़ाइयों के बाद बाप के बहाने ब्याह के रास्ते दहेज के रूप में कीमत तय करते वक्त अपनी ही दलाली कर रहे होते हैं और आधुनिकता का ठेका भी उठाते हैं! मॉडर्न आउटलुक का इनरलुक कितना जातिवादी होता है और जातिवाद के किन महीन औजारों के साथ हैसियत का खेल खेलता है, क्या उसी "सॉफिस्टिकेटेड" ऐयारी को आधुनिकता कहना चाहते हैं हम?

देह के दम पर सबकी नजर अपनी ओर खींचने की कोशिश को मुक्ति का मार्ग समझने वाली या "सविता भाभी..." में अपनी पसंद जाहिर करने वाली लड़की का यह हक है कि अपने वजूद के एक सबसे जरूरी हिस्से के तौर पर यौन आकांक्षाओं को अपनी कसौटी पर कसे। लेकिन जब हम इन्हीं में कइयों को सोलह-श्रृंगार कर सफेद घोड़े पर सवार राजकुमार पति का ख्वाब देखते या चांद को देख कर पति के इंतजार में भूख से ऐंठती अंतड़ियों के तनाव के साथ करवा चौथ निबाहते दिखते हैं, तब भी ये क्या उतनी ही आधुनिक होती हैं? ऐसी बहुत-सी आधुनिक लड़कियां तब पति-परमेश्वर की सारी मर्दानगी को अपने भीतर जज्ब करना अपनी खुशनसीबी समझने लगती हैं। फिर "सविता भाभी..." के जरिए पैदा हुई देह की उत्तेजनाओं की सारी ऊर्जा एक अच्छी बहू और फिर एक सख्त सास बनने की कल्पना में स्खलित होने लगती है। अपनी व्याख्या और जानकारी के दायरे में खुल कर सेक्स बतियाने वाली बहुत-सी औरतें अपने पति की तमाम दैहिक-मानसिक बर्बरताओं को उनका हक मानती हैं। वे औरतें "सविता भाभी..." के बारे में नहीं जानती होंगी, लेकिन जब वे इसे देखने-जानने भी लगेंगी, तब क्या "सविता भाभी..." छाप स्त्री विमर्श उनके दिमागों के ये जाले साफ कर सकेगा?

एक लड़की (?) इस डॉट कॉम पर कमेंट करती है और हम इसके स्त्री विमर्श का एक नया अध्याय होने की मुनादी कर देते हैं। करें भी क्यों नहीं। अब तक एक स्त्री का हंसना-रोना, मरते हुए जीना भी तो हम ही तय करते आए हैं। "मित्रो मरजानी" की उस स्त्री से "सविता भाभी..." की तुलना करते हुए हमारे सामने से यह मामूली-सी बात भी क्यों गुजर जाती है कि "मित्रो मरजानी" की उस स्त्री के फैसले का सामाजिक परिप्रेक्ष्य क्या है। कहीं यह हमारी सेक्स पर खुल कर बात करने की "मर्दाना ताकत" की सीमा तो नहीं है! हमारा पूरा नजरिया किस कदर खंडित है, इसका अंदाजा इससे लगाइए कि "सविता भाभी..." तक अपनी या किसी की पहुंच को हम सशक्तीकरण की कसौटी मानते हैं और मस्तराम मार्का लोग हमारी नजर में पिछड़े और असभ्य होते हैं। क्या फर्क है मस्तराम की किताबों और "सविता भाभी..." में?

समझना है तो ऐसे समझिए कि यह आभिजात्य और गैर-आभिजात्य का फर्क है। वर्गों की पहुंच और चुनाव का फर्क है। देखेंगे-सुनेंगे-गुनेंगे हम वही, लेकिन हमारा लैपटॉप या कंप्यूटर हमें आधुनिक बना देता है, खासतौर पर उनके सामने जो चाह कर भी "मस्तराम"" के दायरे से ऊपर नहीं आ सके हैं।

"आस्था" फिल्म में प्रोफेसर पति दो मिनट में "सब कुछ" निपटा कर घोलट जाता है, जैसे कोई घंटो पान मुंह में चबा कर सेंकेडों में थूक दे। हालात का सिरा थामे पत्नी आखिरकार कहीं और ही मुक्त होती है और "सब कुछ" का विस्तार जान पाती है। क्या हमने अपने गांव-देहातों में "ऊपरी असर" या "भूतों"" के चंगुल में फंसी जवान औरतों को ओझाओं के सामने बाल खोल कर झूमते देखा है? क्या हम अब भी यह अंदाजा लगा पाने में नाकाम हैं कि वे ओझा उन औरतों को किस तरह उनके "भूतों" से मुक्त करते होंगे? हम एक ऐसे अप्रशिक्षित मर्द समाज में जी रहे हैं दोस्तों कि उन्माद के दौरे तक पहुंची स्नावयिक उत्तेजनाओं के शमन के बिना हजारों औरतें हीस्टीरिया का शिकार हो जाती हैं और पंडितों-ओझाओं के अलावा उनका मुक्तिदाता कोई नहीं होता। स्त्री की देह को उसकी मुक्ति का एकमात्र रास्ता बताने वाले कई "मर्द" मित्रों की मस्तराम-छाप यौन जानकारियां और यौनांगों के बारे में मूढ़ धारणाएं मेरे सामने कुछ अजीब से सवाल खड़े करते रहे हैं।

"सविता भाभी..." तक जिनकी पहुंच है, वे देह के स्तर पर खुद को "रिलीज" करने के रास्ते निकाल लेंगी, लेकिन दिमागी जड़ताओं से निपटने का उनका रास्ता क्या होगा? बेशक "सेक्स इज फॉर प्लेजर", लेकिन क्या यह स्त्री को एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किए बिना और यौन-कर्म को दो मिनट में फारिग होने की चीज समझने वाले मर्दों का उत्तेजना-केंद्रों का आविष्कारक हुए बिना मुमकिन है? "ऑरगेज्म" अगर पुरुषों की नियति है तो स्त्री का भी हक है। लेकिन जहां अपनी ही शारिरिक संरचना और उसकी बारिकियों को जानना-समझना एक शर्म का मामला हो और अपराध-बोध जगाता हो, वहां "सविता भाभी..." क्या सचमुच स्त्री विमर्श का एक नया पाठ तैयार कर रहा है?

इससे इनकार नहीं कि आज की लड़कियां अपने शरीर के बारे में इतनी अनजान नहीं हैं। मगर क्या इस सवाल के भी खत्म होने के आसार नजर आ रहे हैं कि हमारी औरतों के बरक्स जो मर्द खड़ा है, उसकी निगाह में सेक्स की मांग करने वाली औरत की जगह कहां है? "अस्तित्व" फिल्म का हीरो अपनी बीवी को पच्चीस साल पहले के एक बार के संबंध की "खोज" करने के बाद खारिज कर देता है और अपने कई स्त्रियों के साथ संबंध होने के एक मित्र के सवाल का जवाब यह देता है कि "मैं तो एक मर्द हूं।" यह वही आम मर्द है जो अपने "प्लेजर" के लिए ज्यादा से ज्यादा भोग करने लिए अपनी पहुंच में आई सभी स्त्रियों के सामने जाल फेंकता है और "अपनी" स्त्री के दिमाग में किसी और मर्द की बात की कल्पना से भी दहल जाता है। स्त्री की रोजमर्रा की चर्चा में सेक्स के खुलेआम होने के डर के पीछे भी यही एकाधिकार के बर्बर संस्कार है और डरा हुआ मर्द अहं है।

जहां तक सामंती और गुलामी की संस्कृति का सवाल है, हमें याद करना चाहिए एम-फिल या पीएचडी करती उन "कनकलताओं" के किस्से, जो पानी का नल छू देती हैं और इस देश का पानी अपवित्र हो जाता है। फिर जाति का हवाला और जलील करने के दौर। क्या इस संस्कृति में भी "सविता भाभी..." -छाप स्त्री विमर्श कोई दखल देने का रास्ता तैयार कर रहा है?

यह वहम पालने की जरूरत नहीं है कि औरतें अपनी लड़ाई या खुल कर सेक्स पर बात करने या इस मामले में सामने आने को वैधता दिए जाने के लिए इस समाज की "मर्दाना ताकत" के भरोसे बैठी हैं। वे अपने बूते हमारी मर्दानगी को आईना दिखा रही है, जिसमें हम बार-बार नंगे नजर आते हैं।

कभी फुर्सत मिले तो बालिका भ्रूण-हत्या की असली वजहों का पता लगाने की कोशिश कीजिएगा कि कितनी भ्रूण-हत्याओं के लिए दहेज जिम्मेदार है और कितने के लिए यह कुंठा कि हमारे भीतर "दूसरी" औरतों के लिए जो "जगह" होती है, वहां पहुंचने से पहले "अपनी" औरतों को हम "बचा" लेते हैं। जिस समाज में औरत के शरीर को ही उसकी हैसियत तय कर दिया गया है, उसे बनाए रखने में "सविता भाभी डॉट कॉम" छाप प्रगतिशीलता कितनी मदद करती है- यह भी खोजने की कोशिश की जानी चाहिए।

क्रांति-क्रांति चिल्लाने और क्रांति जीने में फर्क है। मुझे नहीं लगता कि दिल-दिमाग या बुद्धि की बदौलत अपनी शख्सियत दर्ज करने वाली लड़की के लिए सेक्स कोई वर्जित चीज है और वह कहीं से सेक्स को कम जीती है। हां, वह सविता भाभी जैसे डॉट कॉमों पर जाकर अपनी पसंद दिखाने को अपनी बहादुरी नहीं मानती। इसमें मुझे कोई शक नहीं कि यह लड़की उससे ज्यादा "खतरनाक" जरूर है, जिसका "सविता भाभी डॉट कॉम" पर एक कमेंट करना हमारे लिए एक आकर्षण की चीज बना हुआ है। और हममें से ज्यादातर सविता भाभी... पर जाकर उसका कमेंट देखने के बाद उसके आकार-प्रकार की कल्पना कर रहे होंगे। हम उस कमेंट करने वाली लड़की का पीठ जरूर थपथपाएंगे, ताकि वह हर अगले पोस्टों में नजर आए...!

दिमागी जड़ताओं से जब तक मुक्ति नहीं मिलती, केवल देह के रास्ते मुक्ति मुमकिन नहीं है।

5 comments:

नटखट बच्चा said...

अरे अंकल
आप जैसे लोग ही स्त्री विमर्श के विरोधी है ,कितनी अच्छी फोटू दिखाई थी उन अंकल ने आपने तो एक भी नही दिखाई .अब कैसे होगी क्रांति ?

दिनेशराय द्विवेदी said...

जितना आप इस पर चर्चा करेंगे उतने ही अधिक हिन्दी पाठकों को वहाँ पहुँचाएंगे। कृपा कर के इस पर चर्चा बन्द करें।

विनीत कुमार said...

पूरी पोस्ट में ये कहीं नहीं कहा गया कि केवल देह-मुक्ति के बदौलत स्त्री-मुक्ति संभव है। लेकिन इतना जरुर है कि मुक्ति के रास्ते में इसका भी महत्व है

स्वप्नदर्शी said...

"जिस समाज में औरत के शरीर को ही उसकी हैसियत तय कर दिया गया है, उसे बनाए रखने में "सविता भाभी डॉट कॉम" छाप प्रगतिशीलता कितनी मदद करती है- यह भी खोजने की कोशिश की जानी चाहिए।"

good perspective

सुजाता said...

शेष ,
आपके लेख से काफी हद तक सहमति है। स्त्री विमर्श कैसे हो इसे निर्धारित करना भी कुछ पुरुष अपना ही कर्मक्षेत्र समझते हैं भले ही वे भीतर तक फ्यूडल मानसिकता से ग्रस्त हों।मै अपने सामने कॉलेज जाने वाली लड़कियों के एक वर्ग को वे सब कहते सुनती हूँ जो आज तक लड़के लड़को के बीच ही कहा करते थे। ऐसे वाक्य ऐसे फ्रेज़ेस ऐसे शब्द। यह मामला वर्गीय दृष्टि से देखे जाने की दरकार भी रखता है। अन्य और भी आस्पेक्ट हैं। देह मुक्ति को अगर आप मुक्ति का एकमात्र रास्ता मानते हैं तो भी उसका आदर्श यह नही है।इस तरह की साइट पर कमेंट करने वाली कोई भी लड़की शादी से पहले हामेनोप्लास्टी या रीवर्जिनेशन करा लेने के पक्ष मे रहती है तो आप किसी तरह से नही मान सकते कि वह स्त्री विमर्श मे देह मुक्ति का नया पाठ गढ रही है।वह केवल एक बीच का रास्ता ढूंढ रही है। बहुत सम्भव है कि बीच का यह रास्ता उसे सही रास्ते तक भी ले जाए ,लेकिन एक कमेंट के आधार पर इस तरह की जजमेंट देना शायद जल्दबाज़ी कही जाएगी। राजकोट मे अर्द्धनग्नावस्था मे ससुराल वालों के ज़ुल्म के खिलाफ मार्च करने वाली चौथी पास पूजा चौहान या सेना के जवानों द्वारा रेप के खिलाफ नग्न प्रदर्शन करने वाली स्त्रियाँ शायद देह से कहीं अधिक मुक्त हैं।