Monday, 18 August 2008

चमड़ी की सत्ता

काले का यह घोटाला दपदप गोरा है जनाब


हमारे एक मित्र हैं सुनील पी बाबु। यह उनका पंजीकृत नाम है। आपमें से ज्यादातर ने अंदाजा लगा लिया होगा कि वे तमिलनाडु, केरल या किसी दूसरे दक्षिण भारतीय राज्य के ही मूल निवासी होंगे। और जब उधर के होंगे तो आपकी उम्मीद वाजिब है कि वे काले ही होंगे। बहुत होगा तो उनकी कालिमा कुछ लालिमा लिए होगी। तो चलिए, यह रहस्य भी हम खोलते हैं और आपकी उम्मीद को पुख्ता करते हैं। वे शुद्ध काले हैं। इतने काले कि अपने दोस्तों के बीच के मजाक हैं। अब आप उनसे मजाक करने के लिए या उनका मजाक उड़ाने के लिए उनके रंग पर कितना भी कड़वा तंज कस दें, वे अपने गहरे रंग की तरह ही गहराई तक जाता हुआ ठहाका लगा देंगे और आपके चेहरे का पानी उतर जाएगा।
बाबु के जन्म दिन पर एक बार उनके दपदप उजले बॉस ने फेयर एंड लवली का "पांच रुपए वाला पैक" बतौर तोहफा थमा दिया। बाबु ने छूटते ही कहा- "इसे भी नमूने के तौर पर रखूंगा। पता है, यह कंपनी छह हफ्ते में गोरा बना देना का दावा करती है। छह साल से ज्यादा हो गए, अब तक जैसे का तैसा हूं।" और यह कहने के साथ ही उन्होंने फिर जोर का ठहाका लगा दिया।
...कौन जानता है कि उनके इन ठहाकों के तले कितनी आहें घुट कर हलक में दम तोड़ जाती हैं।

दिलासा देने के लिए किसी ने भले लिखा हो कि "तू काली है, यह फरिश्तों की भूल है, वह तिल लगा रहा था कि स्याही बिखर गई", या फिर फिर कभी "हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं..." सुन कर हौसला बंधता होगा। लेकिन क्या सचमुच! क्या इन तुकबंदियों की भी असली जमीन यही नहीं है कि काला होना कमतर होना है। फरिश्ता अगर भूल करता है, तभी कोई काला हो जाता है। वरना वह तो गोरे रंग पर सिर्फ एक तिल रखना चाहता है- उसे और भी खूबसूरत बनाने के लिए। वह तो गलती से स्याही बिखर जाती है और कोई काला हो जाता है! क्यों किसी काले को ही यह जताने की जरूरत पड़ती है कि उसके पास भी दिल है? क्यों ऐसा है कि अगर कोई गोरा है तो हमेशा ही किसी काले के बरक्स उस पर एक सांस्कारिक और सच कहें तो सामाजिक श्रेष्ठताबोध की ग्रंथि हावी रहती है?
लेकिन बात केवल "कालिया" या "कालूराम" जैसे तमगों पर ही खत्म नहीं होती। (यह सवाल आपके लिए खुला है कि कोई कालू -राम- ही क्यों होता है)। "रंग-दृष्टि" के इस आग्रह का सिरा वहां तक पहुंचता है जहां "समयांतरकारी" शख्सियतों की निगाह अगर कहीं टिकती भी है तो बोलते समय होठों के किनारे जमे थूक पर। क्या बातों तक पहुंचना इतना मुश्किल होता है? अब यहां भी श्रेष्ठताबोध की ग्रंथि है या थूक प्रेम- कहा नहीं जा सकता। बहरहाल, सिरा तो यह जुड़ा ही हुआ है, मगर "भटकता" दीख रहा है। इसलिए हम अपने मूल सिरे पर वापस आते हैं- यानी काला का घोटाला।
गौरवर्णी और सुगठित युवतियों के देह-दर्शन से आईपीएल क्रिकेट प्रतियोगिता का "मजा" बढ़ाने वाले हमारे शुभचिंतकों को कहां अंदाजा था कि चीयर लीडरों की जिस टीम को वे मैदान में भेजने जा रहे थे, उनमें एक-दो का काला रंग सारे "खेल" को बदमजा कर दे सकता है। यह तय है कि सही वक्त पर किसी "दैव" ने ही भला किया होगा, तभी उन्होंने दोनों काली चीयर लीडरों को मैदान में जाने से रोक दिया।

इसका सूत्र ढूंढ़ना बहुत मुश्किल नहीं है कि सब बुरा "काला" क्यों हो गया। मसलन, काला धन, काली कमाई, दाल में काला, बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला, मुंह काला करना जैसे काले कारनामों के नहीं खत्म होने वाले सिलसिले। जबकि सिर्फ हमारे समाज में नहीं, दुनिया भर में शोषण, दमन, जुल्म ढाने, बेईमानी और बर्बरताओं के किस्से रचने में इस "गोरेपन" की क्या भूमिका रही है, यह कोई छिपी बात नहीं है। फिर क्यो हर बुराई, कमतरी और जलील करने वाले हर मानक हमारे लिए "काले" हो गए?
क्या यह सच नहीं है कि सामाजिक सत्ता की लगाम हमेशा ही "गोरों" के पास रही और लगभग सभी तौर-तरीके तय करने में यह गौरवर्णी श्रेष्ठताबोध हावी रहा? सत्ता कायम रखने और अपना या अपने वर्ग का ही सब कुछ उच्च ठहराने के लिए श्रेष्ठतर और निम्नतर की परिभाषाएं गढ़ी गईं और एक तरह उसे ही "दैवीय सत्य" घोषित कर दिया गया- सौंदर्यबोध के सारे मौजूदा मानकों सहित!
और जब सारा कुछ "दैव" है तो औचित्य का सवाल कहां? चमड़ी गोरी नहीं तो आत्मविश्वास हासिल करना होगा कि रंग से कुछ नहीं होता है। और अगर है तो वह भरोसा आप जन्म से लेकर आते हैं। वे कौन-सी जड़ें हैं जिनकी वजह से किसी को "काला-कलूटा" कहने में हमें एक गुदगुदा देने वाला मजा आता है? क्या हम इसी भाव से किसी -गोरे- को चिढ़ा सकते हैं?

11 comments:

Anil Kumar said...

कृष्ण भी काले थे. शिव भी काले थे. और राम भी काले ही थे.

अनुराग अन्वेषी said...

कई गोरों के चेहरे 'सफेद' पड़ जाएंगे ऐसे आलेख से। उनके लिए तो यह लेख 'काला' अक्षर है। दरअसल, ऐसे गोरों के दिमागी पन्ने भी 'सादा' होते हैं। हो सकता है कि ऐसे ही किसी गोरे की प्रतिक्रिया आ जाए कि शेष ने जो कुछ लिखा है 'सफेद' झूठ है।

वैसे शेष भाई, बढ़िया आलेख है।

Anil Pusadkar said...

chamdi bhale hi gori chale bhai saab,satta to kaale dhan ki hi hoti hai.achhi post badhai aapko

दिनेशराय द्विवेदी said...

गोरे लोग कालों पर या गेहुँए रंग के लोगों पर साँस्कृतिक विजय प्राप्त करने के लिए गोरे देवताओं के काले और साँवले अवतार भी गढ़ सकते हैं।
केवल और केवल आप ने यह मुद्दा उठाया है, बधाई!

Udan Tashtari said...

बड़ी राहत मिली आपका चिन्तन देख कर. :)

फ़िरदौस ख़ान said...

काले या सांवले रंग को आकर्षण का केंद्र माना गया है... श्रीकृष्ण काले थे... श्याम थे...
वैसे भी लड़के ज़्यादा गोरे अच्छे नहीं लगते, कुछ लड़कियों जैसे लगते हैं...
लड़कियों में भी सांवली-सलोनी को अच्छा माना जाता रहा है...
मगर अब लोग गोरी चमड़ी के पीछे दौड़ रहे हैं...
लोग यह क्यों नहीं समझते कि तन की सुन्दरता से ज़्यादा मन की सुन्दरता अहमियत रखती करती है...

mukti said...

कल 'फेयर एंड लवली' का विज्ञापन देखकर यही बात मन में आयी थी, अक्सर आती है और फिर मुझे गुस्सा आता है. जी करता है कि सारी गोरा करने वाली क्रीमें खरीदकर आग लगा दूँ. पर लोगों की मानसिकता का क्या किया जाय. मुझे लगता है कि गोरेपन के पीछे भागने वाले गुलाम मानसिकता के होते हैं, हीनभावना से ग्रस्त. जो अपने स्वाभाविक प्राकृतिक रंग से ही नफ़रत करके उसे बदलना चाहता हो क्या वो आत्महीनता का शिकार नहीं है?
और ये भेदभाव भी भारत जैसे देशों में ही अधिक होता है, जहाँ गोरे, सांवले और काले तीनों रंगों के लोग हैं. हर हलके रंग वाला अपने को श्रेष्ठ समझता है. अफ्रीका जैसे महाद्वीपों में ऐसा नहीं होता क्योंकि वहाँ सभी काले हैं. इतने आगे बढ़ चुकने के बाद भी लोगों की मानसिकता आदिकाल में अटकी है.

प्रवीण त्रिवेदी said...

✔ सभ्यता की आड़ में पूरी दुनिया पर हावी साम्राज्यवाद के अनगिनत क्रूर कानून गोरों ने ही बनाए थे। पिछली सदी के दो विश्व युद्धों में चौंसठ लाख से भी ज्यादा हत्याओं, जिनमें ज्यादातर आम लोग ही थे, के अगुआ गोरी चमड़ी वाले यूरोपीय और जापानी थे। फिर भी हम हिंदुस्तानियों के नखरे गोरों से कम नहीं!

प्रवीण त्रिवेदी said...

✔ सभ्यता की आड़ में पूरी दुनिया पर हावी साम्राज्यवाद के अनगिनत क्रूर कानून गोरों ने ही बनाए थे। पिछली सदी के दो विश्व युद्धों में चौंसठ लाख से भी ज्यादा हत्याओं, जिनमें ज्यादातर आम लोग ही थे, के अगुआ गोरी चमड़ी वाले यूरोपीय और जापानी थे। फिर भी हम हिंदुस्तानियों के नखरे गोरों से कम नहीं!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

निश्चित तौर पर यह पोस्ट हमारे देश के एक विशेष भूभाग की मानसिकता की ओर इंगित करती है.. काला हो या काली वास्तव में समाज की ही विकृति दर्शाता है.. वैसे जैसा कि आपने बाबु साहब की बात बतायी, ऐसे लोग इसे कोम्प्लेक्स बनाकर नहीं जीते! मेरे दो अभिन्न मित्र काले हैं, लेकिन जब वे किसी समूह में अपनी बात या अपने विचार या कार्यालय में अपना काम प्रदर्शित करते हैं तो इस कालेपन की दीवार नहीं रहती!!
बहुत ही सधा हुआ आलेख!!

Unknown said...

रंग का क्या बदल भी जाता है.कई बार काले का रंग निखर आता है तो गोरे का दब जाता है. लेकिन काले और गोरे की चर्चा दर्शाती है कि हम कुछ भी कहें पर भीतर तक इस भेद विभेद के शिकार हैं...
एक शेर याद हो आता है पंजाबी जुबान मे कुछ यूँ है कि ...
" किसी मे मजनू से कहा तेरी लैला दिखती काली रे
मजनू ने जवाब दित्ता तेरी अंख है वेखन वाली रे "