अप्टन सिन्क्लेयर ने कहीं लिखा है- "आदमी को आत्मा के अमरत्व में विश्वास करने के लिए लगा दो और उसका सब कुछ लूट लो। वह हंसते हुए इसमें तुम्हारी मदद भी करेगा।" गुजरात-२००२ का कुछ भी छिपा हुआ नहीं था। फर्क सिर्फ यह है कि तहलका ने वह सब कुछ दिखा दिया है। अब वह सब कुछ भूल जाने को कहा जा रहा है। आगे बढ़ने की बात हो रही है।
आगे बढ़ने के लिए तथ्यों और तर्कों की ज़रूरत पड़ती है, जिस पर मेहनत करनी पड़ती है- सभी स्तरों पर, और भावनाओं में बहाने या भावुकता में बहने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती, इसलिए आसान है। यह पूरी की पूरी सांस्कृतिक समस्या है। हमारे यहां ज़्यादातर लोग मान कर चलते हैं, जान कर चलने की ज़रूरत उन्हें कभी महसूस नहीं होती। सभी नैतिक शास्त्रों में तयशुदा 'श्रेष्ठता' के मानदंडों के सामने सीधे-सीधे सिर झुकाने की प्रवृत्ति ने आदमी की आंखों को इस कदर बंद कर दिया है, कि जो श्रेष्ठ प्रस्तुत है, वही सत्य है- पर कोई सवाल उठाने की प्रवृत्ति सिरे से ग़ायब है। हिंदू सांप्रदायिकता के उफान और उसकी प्रतिस्थापना के संघर्षों को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
नीचे तस्वीर- खैरलांजी हत्याकांड
आज एक ओर क्लोन क्रांति के रास्ते आदमी का दिमाग़ समूची प्राकृतिक व्यवस्था के सामने चुनौती के रूप में खड़ा होने को तैयार है, वहीं हमारे यहां अचानक ही कभी पत्थर की मूर्तियां समूचे देश में दूध पीने लगती हैं, तो कभी लाखों की भीड़ एक पुरानी इमारत के नाम पर पागल हो जाती है। धार्मिक उन्माद से पीड़ित यह भीड़ उन लोगों को मार कर या ज़िन्दा जला कर या औरतों का बलात्कार कर अट्टहास करती है, गौरव यात्राएं निकालती हैं, जिनका इस तरह के पागलपन से कोई लेना-देना नहीं होता। मारे गये लोगों का कसूर सिर्फ इतना होता कि उन पर किसी ख़ास धर्म के होने का ठप्पा लगा होता है। समाज और धर्म के चंद ठेकेदारों की हांक पर इकट्ठा हुई लाखों की भीड़ को यह नहीं मालूम होता कि उनका पूरा अस्तित्व उन ठेकेदारों का गुलाम है जो केवल उस भीड़ का खून पीकर खुश होते हैं। लोगों को दंगों की आग में जलते हुए देखना ही जिनका 'यज्ञ' है, और इसी से उनकी 'मोक्ष' प्राप्ति का रास्ता तय होता है।
ये धार्मिक लुटेरे इस बात से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं कि जिन पारलौकिक भ्रमों की बुनियाद पर इस समाज को खड़ा किया गया है, उनका कायम रहना उनकी दुकानदारी के हित में है। यहां आम लोगों को यह सोचने की छूट एकदम नहीं है कि अगर भगवान है तो उसकी रक्षा और सेवा हम करेंगे या वह हमारी सेवा ओर रक्षा करेगा। लेकिन हजारों धार्मिक दावानलों में नवजात शिशुओं तक को जिंदा राख होते रेख कर भी हमारी आंखें आज भी बंद हैं। ईंट-पत्थरों की बेजान और निरर्थक इमारतों में अपने 'भगवान' की प्रतिस्थापना के लिए गर्भवती औरतों का पेट चीर कर बच्चे के साथ उसे आग में झोंक कर खुशी से नाचने को कुछ लोग संस्कृति की रक्षा की लड़ाई कह रहे हैं। अगर यही संस्कृति है तो मुझे शर्म है इस संस्कृति पर और इसके मूल निहितार्थों को समझना मेरे लिए बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं है।
दरअसल, परजीविता या निकम्मापन जिस समाज का या समाज के जिस वर्ग का भी आदर्श होगा, वह अपनी सुविधा की आकांक्षा की आग में समूचे समाज को झुलसाता रहेगा, राख बनाता रहेगा। हिंदुत्व की रक्षा की लड़ाई के मूल में छिपी यह चिंता साफ-साफ देखा और समझी जा सकती है। आज़ादी के बाद और ख़ास तौर पर पिछले डेढ़ दो दशकों में समाज के दलित और पिछड़े तबकों में जिस तेज़ी से वैचारिक आलोड़न हो रहा था, उसका अंतिम नतीजा समाज के उस ताने-बाने का छिन्न-भिन्न होना था, जहां कुछ परजीवियों की दुकानदारी कायम थी। और ज़ाहिर है कि मुसलमान, ईसाई और लोकतंत्र इस श्रेष्ठ वर्ग की परजीविता और निठल्लेपन के साथ-साथ सामाजिक 'श्रेष्ठता' के सिद्धांत के मुख्य बाधक तत्व हैं। और दलितों और पिछड़ों के विकास में एक संतुलन तत्व के रूप में काम कर रहे हैं। इसलिए प्राथमिक टारगेट मुसलमान और ईसाई हैं। हिंदुत्व के कथित संरक्षकों के हिसाब से इन दोनों के ख़त्म होने के बाद लोकतंत्र अपने आप ख़त्म हो जाएगा। और तब इस हिंदू समाज का प्राचीन 'गौरव' फिर से कायम हो सकेगा, जहां ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी सिर्फ ताड़न के अधिकारी होंगे और ब्रह्मा के कमर के ऊपर के हिस्से से पैदा हुए लोग भूदेवों के रूप में 'संस्कृति रक्षा' का अभियान उसी तरह चला सकेंगे, जिस तरह हरियाणा के झज्जर में गोहत्या के नाम पर पांच दलितों की ईंट-पत्थरों से मार-मार कर हत्या कर दी गई।
इसी संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया के लिए पारलौकिक भ्रमों की बुनियाद को और मज़बूत करने की ज़रूरत समझी गयी, जहां आदमी का खुद पर से भरोसा उठ जाता है, और उसका दिमाग़ अंधी सुरंग में भटकते हुए जीवन के 'सत्य' की तलाश में मारा-मारा फिरता है- जीवन के ख़त्म हो जाने तक।
हिंदुत्व की 'रक्षा' की लड़ाई की साज़िश का ही यह भी एक हिस्सा भर है कि जब आदमी का दिमाग़ आकार लेने लगता है, उसी समय से उसे इस तरह शिक्षित किया जाए ताकि वह बड़ा होकर या तो ज्योतिष 'विज्ञान' का डिग्रीधारी बने या फिर तिलक-चोटीधारी ज्योतिषाचार्यों की सलाह से ही अपने शौचालय जाने तक का समय तय करे।
ऐसा नहीं है कि हिंदुत्व ने जिस तरह गुजरात को ग्रास लिया है, उससे दूसरे बचे हुए हैं। गुजरात में सिर्फ सुविधा यह है कि वहां न्यूटन के गति के नियम की नई व्याख्या करने वाला राजा मौजूद है। दरअसल, मोदी जैसा चेहरा किसी को एक बार धोखा दे सकता है, वाजपेयी जैसों का चेहरा लोगों को बार-बार छलता है। गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम के समय गुजरात पुलिस ने भी जान बचाने की भीख मांगती औरतों और बच्चों को बचने के लिए जो रास्ता बताया, उसमें वे उन्मादी पागलों की ज्यादा बड़ी भीड़ में जा फंसे और जिंदा जला दिए गए। जहां तक दूसरी जगहों की बात है, तो राम के उद्धार के लिए शुरू की गई रथयात्रा से समय से ही संघ-परिवार और उसके गर्भनाल से जुड़ी भाजपा-विहिप-बजरंग दल या शिवसेना ने जिस क्रूर प्रहसन युग की शुरुआत की थी, गुजरात में उसकी झलक भर दिखाई गई।
लेकिन समय कभी रुकता नहीं है। जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते, इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करता। हिटलर या मुसोलिनी को अपना आदर्श मानने वाले केवल उनके सत्ताकाल को याद रखते हैं। बेहतर हो इन दोनों इतिहास के तथाकथित नायकों के अंतिम दिनों को याद रखा जाए, जब नस्लवाद, नाजीवाद और जर्मन श्रेष्ठ हैं के प्रणेता हिटलर को तहखाने में छिप कर अपनी पत्नी के साथ खुदकुशी करनी पड़ी। और कि फासीवाद के प्रवर्तक मुसोलिनी के मरने के बाद भी इटली के लोगों ने उसकी लाश को शहर के चौराहे पर रख कर उसे जूते-चप्पलों से पीटा और उस पर थूका।
कहते हैं कि किसी एक चीज़ को बार-बार रटने से वह सच बन जाता है या फिर प्रहसन। इनके राम और राष्ट्र के राग के लगातार आलाप ने इन दोनों शब्दों को सिर्फ प्रहसन की एक त्रासदी बना दिया है। इन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं है इनके राष्ट्रवाद को पूरी दुनिया में जंगली, असभ्य और बर्बर लोगों का अभियान कहा जाने लगे। इन्हें इस बात की भी कोई फिक्र नहीं कि उन्होंने अपने राम को कितने लोगों के लिए भय और घृणा का पात्र बना दिया है।
सवाल है कि अगर किसी मुसलमान के सड़क पर नमाज पढ़ने या मदरसे में बच्चों को पढ़ने या ज्यादा बच्चे पैदा करने या गाय का मांस खाने या पाकिस्तानी टीम के जीतने पर पटाखे छोड़ने से देश टूटता है, तो हिंदूवादियों का कौन-सा ऐसा काम है, जिससे देश जुड़ता है।
एक और बात, कि किसी को राष्ट्रद्रोही या गद्दार घोषित करने के बाद उससे राष्ट्रभक्ति की उम्मीद करने का हमें क्या हक़ है? दरअसल विचार या विश्लेषण धर्म के ठेकेदारों के लिए सबसे बड़े ख़तरे हैं। क्योंकि यही अपनी रोज़ी-रोज़गार जैसे ज़िन्दगी के असली सवाल उठा कर उस ठेकेदारी की संभावनाओं को ख़त्म करता है। इसलिए पहला हमला इसी पर किया जाता है। और कुछ ऐसी ही वजहों से हिंदू कहे जाने वाले नब्बे फीसदी से ज्यादा लोगों का किसी न किसी बहाने रोज़ जलील होना उनके भीतर किसी तरह का शर्म नहीं पैदा करता।
5 comments:
आपको जानकर बहुत खुशी होगी कि पाकिस्तान बनने के बाद केवल साठ साल के भीतर ही एक सिख (हिन्दू) पाकिस्तानी सेना में अधिकारी बन गया है। मुसलमानों और इस्लाम की उदारता का क्या ये दैदीप्यमान सबूत नहीं है? ये हिन्दू यों ही छाती पीटते रहते हैं!
*** आपसे एक और सवाल पूछना चाहता हूँ? "वर्ग संघर्ष" का नारा छोड़कर "अहिंसा परमो धर्म:" कबसे कहने लगे? सौ-सौ चूहे ...
शेष जी बहुत ही तर्क पूर्ण लेख है आपका। कई सारी बातें गैर करने लायक हैं।
anunadjee ab avvindjee men thodee samajhdharee aa gai hai aur aa rahee hai. is karan वर्ग संघर्ष ka chola tyag kar अहिंसा परमो धर्म: कहने लगे हैं
ghabriye mat kuch log dukandaree dekh kar chola badalte hain
ramesh subham
London
शुक्रिया बोधिसत्त्व जी। अनुनाद जी और उनके सिम्पैथाइजर की चिंता समझी जा सकती है।
गांव से लौटकर देखा ब्लागिंग की दुनिया में आपका भी नाम और फोटू. क्या धांसू स्टाइल मारा है गुरु. जियो.
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