जिस वीरानी में कुर्तुल आपा ने पूरी ज़िंदगी गुज़ारी, वही वीरानी अस्पताल में उनके साथ अब भी मौजूद थी, जब उनकी सांस थम गयी थी। शव उनके वार्ड से निकाल कर उस कमरे में रख दिया गया था, जहां दरअसल शव ही रखे जाते हैं। रिसेप्शनिस्ट के पास कोई ज़्यादा जानकारी नहीं थी। टीवी वाला कहने पर अस्पताल के प्रशासनिक रूम का रास्ता ज़रूर बता दिया। वहां से पता चला, सुबह तीन बजे ही इंतक़ाल हुआ। साथ के लोग शव छोड़ कर घर चले गये हैं।
दफ्तर में काम के बोझ से थोड़ा हल्का होने के लिए हम स्मोकिंग ज़ोन में खड़े थे कि रवीश कुमार ने फोन किया- कुर्तुल एन हैदर नहीं रहीं। हम दौड़ते हुए न्यूज़ रूम पहुंचे। ब्रेकिंग न्यूज़ की पट्टी टीवी स्क्रीन पर चल रही थी। खेल बुलेटिन के बीच में रवीश के हल्ला करने पर हमने चार लाइन की इनफॉर्मेशन एंकर के लिए लिखी- उर्दू की मशहूर लेखिका कुर्तुल एन हैदर का आज सुबह नोएडा के कैलाश अस्पताल में निधन हो गया है। उनकी मशहूर किताब आग का दरिया की अब तक लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल चुका है। आज शाम साढ़े चार बजे उन्हें जामिया के क़ब्रिस्तान में सुपुर्दे ख़ाक किया जाएगा।
... और वीटी लाइब्रेरी से टेप लेकर सीढ़ियों पर लगभग दौड़ते हुए स्टोर की तरफ भागे। ओबी वैन पहले ही रवाना हो चुकी थी। जिस अफरातफरी के आलम में ये क़यास लगाते हुए पहुंचे कि अस्पताल में भारी भीड़ होगी, वहां वे तमाम लोग मौजूद थे, जिन्हें शायद नहीं पता होगा कि यहीं एक इतिहास शव कक्ष में खामोश लेटा हुआ है। जानने वालों को शायद आपा के इंतक़ाल की ख़बर नहीं थी या हम इस समझ से भागना चाहते थे कि हमारे मुल्क में कुर्तुल जैसी शख्सीयत के नहीं रहने के कोई मायने नहीं हैं।
हम भी कहां जानते हैं कुर्तुल एन हैदर को! दफ्तर से अस्पताल तक, जितनी देर गाड़ी ने वक्त तय किया, इधर उधर फोन मारते रहे। लगभग आधा दर्जन दोस्तों से कुर्तुल के नहीं होने का मतलब टटोलते रहे।(मुंबई में प्रमोद सिंह ने कहा था- आग का दरिया कहीं से लहा लो। लहा नहीं पाये। नये नये एनडीटीवी में आये तो एक दिन विनोद दुआ के हाथ में दिख गया। हमने कहा- दे दीजिए, पढ़कर लौटा देंगे। उन्होंने कहा- किस पब्लिकेशन का चाहिए? ये एक टीवी पत्रकार का सवाल था। हम लाजवाब थे। उन्होंने समझाया कि दो पब्लिकेशन से ये किताब शाया हुई है। किताबघर वाला अनुवाद ज़्यादा अच्छा है, लेकिन वे उन दिनों उसे पढ़ रहे थे। पढ़कर देने का वादा अब भी वादा ही है, जिसे शायद वे भूल चुके होंगे।)अस्पताल से ही घर का पता मिला। सेक्टर 21 ई 55, हम वहां गये। वहां भी अस्पताल जैसी वीरानी ही तैर रही थी। बाहर कुछ किताबें रखी थीं, जिसके पन्ने टीवी के कुछ कैमरामैन पलट रहे थे। अंदर आम-फहम से दिखने वाले तीन-चार पड़ोसी जैसे लोग हाथों में उर्दू की पतली सी कोई पाक किताब लेकर प्रार्थना जैसा कुछ बुदबुदा रहे थे। अगरबत्ती की गंध घर से बाहर बरामदे में आकर पसर चुकी थी।
आपा की किताबों से कुछ बेहद ही ख़ूबसूरत तस्वीरें हमारे कैमरामैन ने उतारी। उन दिनों की तस्वीरें, जब कुर्तुल जवान थीं और जब अपनी जवानी को उन्होंने वीरानी का हमक़दम बनाने का फ़ैसला लिया होगा। प्रमोद सही कहते हैं कि जबकि एक हिंदुस्तानी औरत के लिए इस तरह का जीवन मुश्किल है- अपने वक़्त में अविवाहित, अकेली रहीं। उनकी तीस बरस पुरानी दोस्त शुग़रा मेहदी, जो हमें वहीं मिल गयी, कैमरे के सामने की गुफ्तगू में हमें बताया कि वे इस मस'ले पर कुछ भी पूछो ख़फ़ा हो जाती थीं। कहती थीं, पूरी दुनिया संग-साथ शादी-ब्याह में रची-बसी है, एक मैं ही अकेली हूं तो क़हर क्यों बरपा होता है।
अकेले रहना दरअसल अपने साथ होना होता है। अपने साथ होकर आप तबीयत से दुनिया के रहस्य सुलझा सकते हैं। उन्होंने सुलझाया। आग का दरिया का नीलांबर रामायण-महाभारत के वक्त से लेकर आधुनिक वक्त तक से संवाद करता है। महफिलों वाला आदमी तो कायदे से अपने वक्त से भी संवाद नहीं कर पाता।
ख़ैर दोपहर बाद से लोगबाग आने शुरू हुए। डेड बॉडी भी आयी। टेलीविज़न की ढेरों गाड़ियों से निकल कर पत्रकार ई 55 के आगे चहलक़दमी करने लगे। लेकिन तब तक कुर्तुल के नहीं होने की ख़बर का कोई मतलब नहीं रह गया था। देश में दूसरे बड़े डेवलपमेंट टेलीविज़न से पूरा-पूरा वक्त की मांग कर रहे थे।
नाइट शिफ्ट के बाद की जगी दुपहरी में आंख का गर्दा परेशान करने लगा। सुपुर्दे-खाक से पहले हमने घर का रुख कर लिया।
Friday, 31 August 2007
ये दरअसल हमारे मुल्क़ की वीरानी है
अविनाश
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1 comment:
to avinash babu yhan bhi apna rang bikherne lage. badhaee. yah rang bhi badhiya laga.
ramesh chandra.
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